बुधवार, 28 जुलाई 2010

मनमोहन सिंह को नींद क्यों नहीं आई ?

पिछले दिनों हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का एक बयान आया। बयान क्या आया उन्होंने खुली घोषणा कर दी की देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है। और इस बयान की पूरी सेकुलर जमात ने वाह वाही की। इस समय ये देश के दलितों, वनवासियो और पिछडो को भूल गए। वेसे भी जब मुसलमानों की बात आती है तो ये अपने बाप को भी भूल जाते है तो फिर दलितों और वनवासियो की औकात ही क्या है इनकी नजरो में।

मनमोहन सिंह को कहना था तो यही कह देते की देश के संसाधनों पर पहला हक़ देश के गरीबो का है, जिसमे सभी तबके के गरीब लोग शामिल है। पर सिंह साहब ने ऐसा नहीं कहा। कहते भी क्यों, अगर इस तरह का बयान नहीं देते तो इन्हें "सेकुलर" कौन कहता।

सिंह साहब जरा एक बात हमारी भी सुनलो, इस देश के मुसलमानों का पहला हक अगर किसी पर है तो वो पाकिस्तान और बंगलादेश पर है। जो ये 1947 में बटवारे के समय ले चुके है। एक अलग देश की मांग मुसलमानों ने ही तो की थी। पाकिस्तान कोई सिंध, पंजाब और पेशावर के मुसलमानों ने नहीं चाहा था, पाकिस्तान तो चाहा था उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और बंगाल के मुसलमानों ने। इतिहास गवाह है मुस्लिम लीग के उम्मीदवार कभी सिंध या पंजाब से नहीं जीतते थे, वे जीतते थे उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और बंगाल से। इन्ही लोगो का पाकिस्तान पर पहला हक़ बनता है। लेकिन पाकिस्तान बनने के बाद भी ये लोग पाकिस्तान नहीं गए। क्यों नहीं गए ? क्योकि इनका नारा है "हस के लिया पाकिस्तान, लड़के लेंगे हिन्दुस्तान"।

मनमोहन सिंह को अगर पाकिस्तान और पाकिस्तानियों से इतना ही प्यार है तो ये क्यों पाकिस्तान से भाग कर आए थे बटवारे के समय। क्यों पाकिस्तान में ही नहीं रह गए, "शांति" और "अहिंसा" प्रिय मुसलमानों के साथ। यही सवाल ज्योति बसु और कुलदीप नैयर से पूछना चाहिए, क्यों आये थे ये पूर्वी बंगाल और सियालकोट से भाग कर। इस बारे में ये कभी नहीं बोलेंगे। क्योंकि इसके बारे में चर्चा होते ही इनके सेकुलरिस्म की पोल जो खुल जाएगी।

देश के बटवारे के समय साफ साफ फैसला हुआ था, की पाकिस्तान मुसलमानों के लिए है और हिन्दुस्थान हिन्दुओ, सिखों, बौद्धों और जैनियों के लिए है। और जो हिन्दू या सिख पाकिस्तान में रहना चाहता है वो वहां रह सकता है लेकिन उसे पाकिस्तान (मुसलमानों) के हिसाब से रहना होगा और जो मुसलमान भारत में रहना चाहता है, रह सकता है लेकिन उसे यहाँ के कानून के हिसाब से रहना होगा। जो सभी के लिए बराबर होगा। फिर आज ये मुस्लिम पर्सनल लो बोर्ड क्यों, ये वक्फ बोर्ड क्यों?

मनमोहन सिंह और उसके पिछलग्गू ये कान खोल कर सुनले की इस देश पर सिर्फ और सिर्फ हिन्दुओ, सिखों, बौद्धों और जैनियों का हक़ है। मुस्लमान का पहला हक़ अगर किसी पर है तो वो पाकिस्तान और बंगलादेश पर है। जो वो १९४७ में ले चुके है। और जो मुस्लमान भारत में अपने आपको उपेक्षित और असुरक्षित समझता है वो पाकिस्तान या बंगलादेश जा सकता है। हम भारतीयों का भी ये फर्ज है की उसे बोर्डर तक छोड़ कर आये।

ऑस्ट्रेलिया में एक भारतीय मुस्लिम को ग्लासगो बम्ब कांड में वहा की पुलिस गिरफ्तार करती है तो, मनमोहन सिंह कहते है की उन्हें रात भर नींद ये सोचते हुए नहीं आई की उसके परिवार पर क्या बीत रही होगी। अरे सिंह साहब आपकी नींद जब क्यों नहीं टूटी जब नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ में 76 crpf के जवानो की हत्या की थी। तब आपने ये क्यों नहीं सोचा की इन शहीद जवानों के परिवार पर क्या बीत रही होगी। क्यों क्योकि ये सब हिन्दू थे। इसलिए उनकी आपको कोई चिंता नहीं थी। आपकी नींद जब क्यों नहीं टूटी जब ऑस्ट्रेलिया में ही भारतीय छात्रो की हत्या हो रही थी और उने लुटा ख्सुटा जा रहा था। और तो और आपकी नींद 1984 के दंगा पीड़ित सिखों की पुकारो से भी नहीं टूटी क्या? मगर एक आतंकवादी की गिरफ़्तारी से आपको नींद नहीं आती।

दरअसल यही इस देश का दुर्भाग्य है। हिन्दू, सिख, बौध, जैन जो इस देश को प्यार करते है। इस देश की सुरक्षा में अपनी जान तक कुर्बान कर देते है उनकी चिंता किसी को नहीं है। हमारे हुकमरानो को भी नहीं। मगर आतंकवादियो की गिरफ़्तारी से हमारे हुकमरानो की नींद जरुर टूटती है।


लेखन
विकास सिंघल

सोमवार, 19 जुलाई 2010

हिन्दुओ का पलायनवाद : आखिर कब तक

हम हिन्दू पलायनवादी क्यों है। हम कब तक सहेंगे और कब तक समझोतावादी बने रहेंगे। समझोतावाद ही हमारी कमजोरी बन गया है। और जब तक ये समझोतावाद बना रहेगा तब तक दुसरे लोग हमे ऐसे ही झुकाते रहेंगे। और ऐसे ही हम अपनी इस मात्रभूमि, जन्मभूमि, कर्मभूमि, पुण्यभूमि भारत वर्ष का बटवारा होते देखते रहेंगे। सर्वपर्थम अरबो ने सिंध पर हमला किया, राजा दाहिर अकेले लड़े बाकि पूरा भारत देखता रहा। परिणाम, अरबो की जीत हुई, मुहम्मद बिन कासिम ने सिन्धी हिन्दुओ और बौद्धों का कत्ले आम किया, औरतो को गुलाम बनाकर फारस, बगदाद और दमिश्क के बाजारों में बेचा। जबरन धर्मांतरण करा कर मुस्लमान बनाया। सिंध भारत वर्ष से अलग हो गया। बाकि हिन्दुओ ने सोचा की इस्लाम की आंधी उन तक नहीं आयेगी, वे चुप रहे। और सिंध से पलायन कर गए।

फिर बारी आई मुल्तान और गंधार की। मुल्तान जिसका वर्णन ऋग्वेद समेत लगभग सभी वैदिक ग्रंथो में है। मुल्तान का सूर्य मंदिर पुरे भारत वर्ष में काशी विशव्नाथ की तरह पूजनीय था। अरबो ने हमला किया सब तहस नहस कर दिया। सूर्य मंदिर तोड़ा, हिन्दुओ का कत्ले आम किया, तलवार की नौक पर मुस्लमान बनाया। पूरा भारत वर्ष चुप रहा। सोचा चलो मुल्तान गया बाकि भारत तो बचा। अब इस्लाम की आंधी और आगे नहीं बढ़ेगी। पर्तिकार नहीं किया।

मामा शकुनी का गंधार गया। राजा विजयपाल का साथ किसी ने नहीं दिया। हम फिर पलायन कर गए। सोचा बस इस्लाम की आंधी और आगे नहीं बढ़ेगी, बाकि भारत तो हमारे पास है। अगर सिंध, मुल्तान, गंधार के समय ही हिन्दुओ ने पर्तिकार किया होता तो इस्लाम की आंधी वही रुक जाती। परन्तु हमारा समोझातावादी और पलायनवादी रव्या जारी रहा। आज हम गांधीवाद का रोना रो रहे है, अरे तब तो गाँधी जी नहीं थे।

गजनी ने सोमनाथ तोडा गुजरात को छोड़ कर सारा भारत चुप रहा। क्या सोमनाथ केवल गुजरात का था। सोमनाथ बारह ज्योतिर्लिंगों में से सर्वपर्थम है जिसका वर्णन ऋग्वेद में भी है। उस सोमनाथ के टूटने पर सारा भारत चुप रहा। गजनी यहीं नहीं रुका उसने मथुरा का श्रीकृषण जन्मभूमि मंदिर तोड़ा, मोहम्मद गौरी ने काशी विशाव्नाथ तोड़ा, बाबर ने श्रीराम जन्मभूमि का मंदिर तोड़ा और उसपर बाबरी मस्जिद बनवाई। औरंगजेब ने सोमनाथ, काशी विश्वनाथ और श्रीकृषण जन्मभूमि को पुनः तोड़कर पवित्र जगहों पर मस्जिदे बनवाई। मगर हम चुप रहे, सब कुछ सह गए। हमारे समझोतावादी और पलायनवादी रुख ने हमे फिर ठगा।

जब जब सोमनाथ, अयोध्या, मथुरा और काशी पर किसी भी मुस्लिम शासक का राज हुआ उसने मंदिरों को तोड़ने के नए कीर्तिमान बनाये। इतिहासकार सीता राम गोयल, अरुण शोरी, राम स्वरुप के अनुसार मुस्लिमो ने इस देश में दो हजार मंदिरों को तौड़ कर उनके स्थान पर मस्जिदों का निर्माण कराया। क्या इतिहास में कभी किसी हिन्दू शासक ने कोई मस्जिद तुड़वाकर उसके स्थान पर मंदिर बनाया। क्या कोई हमें बताएगा। और तो और मुगलों के शासन के बाद जब अयोध्या, मथुरा, काशी पर हिन्दू मराठो का शासन आया तो भी उन्होंने पवित्र मंदिरों को तौड़ कर गर्भगृह की जगह पर बनाई गई मस्जिदों को नहीं हटाया। अयोध्या, मथुरा, काशी कोई गली नुक्कड़ पर बने हुए मंदिर नहीं थे। काशी विश्वनाथ, ऋग्वेद में वर्णित बारह ज्योतिर्लिंगों में से सर्वोच्च। अयोध्या का मंदिर जहा राम जी का जन्म हुआ। मथुरा का मंदिर जहाँ क्रष्ण का जन्म हुआ। ये पलायनवाद और समझोतावाद आज तक जारी है।

नेहरु, गाँधी और कांग्रेस ने देश का बटवारा कराया हम चुप रहे। जिन्नाह और मुस्लिम लीग से ज्यादा देश के बटवारे के लिए यही लोग जिम्मेदार थे। ऋग्वेद की जन्मस्थली सिंध चला गया। वो सिंध जहाँ हमारी सभ्यता का जन्म हुआ। गुरुओ की धरती पंजाब चला गया। वो पंजाब जहाँ भगत सिंह का जन्म हुआ। पूर्वी बंगाल चला गया, जहाँ इक्यावन आदि शक्ति पीठो में से छ: शक्ति पीठ मौजूद है। जिनकी दुर्दशा आज वहां की सरकार और जनता ने बना दी है। मगर इस देश में मस्जिदे आज भी सीना ताने खड़ी है। हम फिर पलायन कर गए, नेहरु और गाँधी की बातों में आकर बटवारा स्वीकार कर लिया। किसका बटवारा भारत माँ का बटवारा। भाग कर "सेकुलर इंडिया" में आगए। आगए या मारकर भगाए गए ये हम सब जानते है। क्यों हमने मुसलमानों के ड़ारेक्ट एक्सन, ग्रेट कलकत्ता किल्लिंग, रिलीजियस पियोरिटी ऑफ़ लाहौर का जवाब नहीं दिया। अगर दिया होता तो आज हम ये इस्लामिक आतंवाद नहीं झेल रहे होते।

आधा कश्मीर गया हम तब भी चुप रहे। कश्मीर में मस्जिदों से नारे लगाये गए। "हिन्दू मर्दो के बिना, हिन्दू औरतो के साथ, कश्मीर बनेगा पाकिस्तान"। हम क्यों चुप रहे। क्या कश्मीर केवल कश्मीरी हिन्दुओ की समस्या है हमारी नहीं।

जरा याद करो कैसे फिलिस्तीन के मुसलमानों के लिए सारी दुनिया के मुस्लमान एक हो जाते है। तो फिर कश्मीर के हिन्दुओ के लिए हम क्यों एक नहीं हुए। क्या इसकी जिम्मेदारी केवल आर एस एस, वि एच पि और बी जे पि की ही है। हमारी कुछ भी नहीं।

वो कहते है "हंस के लिया पाकिस्तान, लड़ के लेंगे हिंदुस्तान" और हम अब भी कह रहे है की पाकिस्तान के साथ बात करेंगे।

हम क्यों नहीं सोचते सिंध, पश्चिम पंजाब और पूर्वी बंगाल को वापस लेने की। आखिर वो भी तो हमारी भारत माँ के अंग है। जिस दिन हम ऐसा सोचने लगेंगे उस दिन से भारत वर्ष फिर बढ़ने लगेगा और अखंड भारत फिर साकार रूप लेगा।

किसी ने सही कहा है की हिन्दुओ की नींद जब टूटेगी जब मुस्लमान उसकी पीठ पर गरम सलाख लगाएँगे। क्या हम उस दिन का इन्तेजार कर रहे है।



लेखन
विकास सिंघल

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

कश्मीर तो होगा लेकिन पाकिस्तान नहीं होगा

हम डरते नहीं एटम बम्ब, विस्फोटक जलपोतो से
हम डरते है ताशकंद और शिमला जैसे समझोतों से
सियार भेडिए से डर सकती सिंहो की औलाद नहीं
भरत वंश के इस पानी की है तुमको पहचान नहीं
भीख में लेकर एटम बम्ब को तुम किस बात पे फूल गए
६५, ७१ और ९९ के युधो को शायद तुम भूल गए
तुम याद करो खेतरपाल ने पेटन टैंक जला डाला
गुरु गोबिंद के बाज शेखो ने अमरीकी जेट उड़ा डाला
तुम याद करो गाजी का बेडा एक झटके में ही डूबा दिया
ढाका के जनरल नियाजी को दुद्ध छटी को पिला दिया
तुम याद करो उन ९०००० बंदी पाक जवानो को
तुम याद करो शिमला समझोता और भारत के एहसानों को
पाकिस्तान ये कान खोलकर सुन ले
की अबके जंग छिड़ी तो सुन ले
नमो निशान नहीं होगा
कश्मीर तो होगा लेकिन पाकिस्तान नहीं होगा

लाल कर दिया तुमने लहू से श्रीनगर की घाटी को
किस गफलत में छेड़ रहे तुम सोई हल्दी घाटी को
जहर पिला कर मजहब का इन कश्मीरी परवानो को
भय और लालच दिखला कर भेज रहे तुम नादानों को
खुले पर्शिक्षण है खुले शस्त्र है, खुली हुई नादानी है
सारी दुनिया जान चुकी ये हरकत पाकिस्तानी है
बहुत हो चुकी मक्कारी, बस बहुत हो चूका हस्ताक्षेप
समझा दो उनका वरना भभक उठे गा पूरा देश
हिन्दू अगर हो गया खड़ा तो त्राहि त्राहि मच जाएगी
पाकिस्तान के हर कोने में महाप्रलय आजायेगी
क्या होगा अंजाम तुम्हे इसका अनुमान नहीं होगा
कश्मीर तो होगा लेकिन पाकिस्तान नहीं होगा

ये मिसाइल ये एटम बम्ब पर हिम्मत कोन दिखायगा
इन्हें चलाने जन्नत से क्या बाप तुम्हारा आएगा
अबकी चिंता मत कर चहरे का खोल बदल देंगे
इतिहास की क्या हस्ती है सारा भूगोल बदल देंगे
धारा हर मोड़ बदल कर लाहौर से निकलेगी गंगा
इस्लामाबाद की छाती पर लहराएगा तिरंगा
रावलपिंडी और करांची तक सब गारत हो जाएगा
सिन्धु नदी के आर पार सब भारत हो जाएगा
फिर सदियों सदियों तक जिन्नाह जैसा शेतान नहीं होगा
कश्मीर तो होगा लेकिन पाकिस्तान नहीं होगा

हिन्दू-स्थान ने ली अब एक नई अंगड़ाई है
भारत माँ के चरणों में ये सोगंध हमने खायी है
आज नहीं तो कल हम अखंड भारत बनायेंगे
सिन्धु को फिर दुबारा गंगा से मिलाएँगे
बंग भंग हुआ था, पाप एक इस धरती पर
दुर्गा की भूमि को पुनः आजाद कराएँगे
खैबर पास और हिन्दुकुश भारत की सीमा होगी
चंहु ओर सनातन और केसरिये की जय जय कर होगी
ये स्वपन एक दिन जरुर साकार होगा
पर उस दिन कश्मीर तो होगा लेकिन पाकिस्तान नहीं होगा

। । भारत माता की जय। ।
। । अखंड भारत की जय। ।


संपादन
विकास सिंघल

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

श्री कृष्ण जन्म भूमि की कानूनी स्थिति एंव धर्मनिरपेक्षतावादियों का षड्यंत्र

आज रामजन्मभूमि का विषय आते ही पूरी की पूरी सेकुलर जमात शोर मचाने लगती है की इसका निर्णय न्यायलय करेगा। कांग्रेस, कम्यूनिस्टो से ले कर लालू मुलायम तक सब के सब एक सुर में बोलने लगते है, अयोध्या का फैसला अदालते ही करेंगी। ये इन सेकुलरिस्टो की बहुत सोची समझी साजिश है। क्योकि हिन्दू समाज उदार है। उसने हमेशा से ही आदालतों का सम्मान किया है। पर किया ये सेकुलरिस्ट अदालतों का सम्मान करते है। हम भूले नहीं है, की केसे राजीव गाँधी की सरकार ने शाहबानो के केस में सुप्रीम कोर्ट के आदेशो की धज्जिया उड़ाई थी। क्यों, सिर्फ मुसलमानों को तुष्ट करने के लिए।

ये अयोध्या के बारे में अदालतों की बात करते है। पर मथुरा के बारे मै क्या कहेंगे। जिसके बारे में अदालते एक बार नही छ: बार निर्णय दे चुकी है और हर बार हिन्दुओ के पक्ष में। यहाँ इनकी बोलती बंद हो जाती है। यहाँ ये अदालतों के निर्णय की बात क्यों नहीं करते। यहाँ ये कहते है भगवान श्रीकृषण तो हुए ही नहीं। जब श्रीकृष्ण नहीं हुए तो उनका मंदिर कहा से आया। ये तो ये भी नकारते है की कभी किसी ने मंदिर तोडा भी था। तो उस पर मस्जिद बनाने की बात केसे स्वीकारेंगे। इसलिए जरा मथुरा के इतिहास और उसके सबूतों पर नजर डाल ली जाये।


पारंपरिक
सबूत

मथुरा में भगवान कृष्ण का अवतार लेना बृज भूमि की सबसे शुभ एंव सुखद घटना है। कृष्ण का जन्म कंस की
जेल में हुआ था। समय बीतने के साथ कृष्ण के जन्म लेने की जगह और आस पास के क्षेत्र को "कटरा केशवदेव" के नाम से जाना जाने लगा।

पुरातात्विक एंव एतिहासिक सबूत बताते है की कृषण के जन्मस्थान को विभिन्न नामो से जाना जाता था। पुरातत्वविद और तात्कालिक मथुरा के कल्लेक्टर श्री फ स ग्रौजा के अनुसार केवल कटरा केशवदेव और आस पास के इलाके को ही मथुरा के रूप में जाना जाता जाता था। एतिहासिक साहीत्य का अध्यन करने के बाद इतिहासकार कनिहम इस निष्कर्ष पर पहुचे की वहां एक मधु नाम का राजा हुआ जिसके नाम पर उस जगह का नाम मधुपुर पड़ा , जिसे हम आज महोली के नाम से जानते है। राजा की हार के पश्चात् जेल की आस पास की जगह को जिसे हम आज "भूतेश्वर" के नाम से जानते है, को ही मथुरा कहा जाता था। एक अन्य इतिहासकार डॉ वासुदेव शरण अगरवाल ने कटरा केशवदेव को ही कृष्णजन्मभूमि कहा है। इन विभिन्न अध्य्न्नो एंव सबूतों के आधार पर मथुरा के राजनितिक संग्रहालय के दुसरे क्यूरेटर श्रे कृष्णदत्त वाजपेयी ने स्वीकार किया की कटरा केशवदेव ही कृषण की जन्म भूमि है।

पुरातात्विक सबूत एंव हमलों का इतिहास

पुरातात्विक विश्लेषणों, पुरातात्विक पत्थरों के टुकडो के अध्यन एंव विदेशी यात्रियों की लेखनियो से स्पष्ट होता है की इस स्थान पर समय समय पर कई बार भव्य मंदिर बनाये गए। सबूत बताते है की कंस की जेल के स्थान पर पहला मंदिर, जहाँ कृषण का जन्म हुआ था, कृषण के पडपोते "ब्रजनाभ " ने बनवाया था।

ब्राह्मी लिपि में पत्थरों पर लिखे गए "महाभाषा षोडश" के अनुसार वासु नाम के एक व्यक्ति ने श्री कृषण के जन्म स्थान पर बलि वेदी का निर्माण करवाया। चन्द्रगुप्त विक्र्मदितिया के शासन के दौरान इस मंदिर का पुनः निर्माण कराया गया। इस दौरान यह स्थान केवल वैदिक धर्म ही नहीं बल्कि जैन एंड बुद्ध धर्म के भी विश्वास की जगह थी। सन १०१७ में यह भव्य मंदिर महमूद गजनी दुआरा लुटा एंव तोडा गया। मीर मुंशी अल उताबी, जो की गजनी का सिपहसलार था ने तारीख-इ-यमिनी में लिखा है की:

" शहर के बीचो बिच एक भव्य मंदिर मोजूद है जिसे देखने पर लगता है की इसका निर्माण फरिश्तो ने कराया होगा। इस मंदिर का वर्णन शब्दों एंव चित्रों में करना नामुमकिन है। सुल्तान खुद कहते है की अगर कोई इस भव्य मंदिर को बनाना चाहे तो कम से कम १० करोड़ दीनार और २०० साल लगेंगे। "

मीर मुंशी तो संघी नहीं था। संघ की बाते तो तुम्हे इतिहास का भगवाकरण लगता है। मीर मुंशी के लिखे हुए इतिहास का क्या कहोगे?

हालाँकि गजनी ने इस भव्य मंदिर को अपने गुस्से की आग में आकर ध्वस्त कर दिया। स्थानीय निवासियों का कत्ले आम किया और युवतियों को उठाकर साथ ले गया। और मोती लाल का नमूना नेहरु अपनी किताब "भारत की खोज" में गजनी को बहुत बड़ा वास्तु कला का प्रेमी बताता है, जिसने अव्यवस्थित मथुरा को तौड़ कर उसका कलात्मक निर्माण कराया। ये है नेहरु और कांग्रेसियों का सुनेहरा इतिहास। मगर इतिहास बताता है की जिवंत हिन्दू धर्म से प्रेरित होकर "जजजा" नामक एक व्यक्ति ने श्री कृषण जन्म भूमि पर फिर एक मंदिर बनाया तथा ११५० में मथुरा के महाराणा विजयपाल के शासन के दौरान इस मंदिर का पुनः निर्माण किया गया। कटरा केशवदेव के पत्थरों पर संस्क्रत भाषा में लिखे गए सबूतों से स्पष्ट होता है की मुस्लिम शासको की नजरो में यह मंदिर तबाही का लक्ष्य बन गया था। सिकंदर लोदी के शासन के दौरान कृष्ण जनम भूमि मंदिर एक बार पुनः तोडा गया। लगभग १२५ वर्षो पश्चात् वीर सिंह जूदेव बुंदेला ने ३३ लाख रूपये की लागत से पुनः २५० फीट ऊँचा एक भव्य मंदिर बनवाया। मुस्लिम शासको की बुरी नजर से मंदिर की रक्षा करने के लिए इसके आस पास एक ऊँची दिवार बनाने का भी आदेश दिया। जिसके अवशेष हम आज भी मंदिर के आस पास देख सकते है।

औरेंग्ज़ेब द्वारा विशाल मंदिर का विनाश

फ्रांस एंव इटली से आये विदेशी यात्रियों ने इस मंदिर की व्याख्या अपनी लेखनियो में सुरुचिपूर्ण और वास्तुशास्त्र के एक अतुल्य एंव अदभुत कीर्तिमान के रूप में की। वो आगे लिखते है की:

"इस मंदिर की बाहरी त्वचा सोने से ढकी हुई थी और यह इतना ऊँचा था की ३६ मिल दूर आगरा से भी दिखाई देता था। इस मंदिर की हिन्दू समाज में ख्याति देखकर औरंगजेब नाराज हो गया जिसके कारण उसने सन १६६९ में इस मंदिर को तुडवा दिया। वह इस मंदिर से इतना चिड़ा हुआ है की उसने मंदिर से प्राप्त अवशेषों से अपने लिए एक विशाल कुर्सी बनाने का आदेश दिया है। उसने कृषण जन्मभूमि पर ईदगाह बनाने का भी आदेश दिया है "

शुक्र है उपरोक्त कथन विदेशियों ने लिखे। अगर ये सब किसी हिन्दू ने लिखा होता तो उसे भी किवंदती कहकर रानी पद्मावती की तरह नकार दिया जाता। में यहाँ विदेशी और मुसलमानों के लेखो का उदाहरन इसीलिए दे रहा हु क्योंकि हिन्दू के द्वारा लिखे गए इतिहास को तो हमारे देश के सेकुलरिस्ट मानते ही नहीं।

औरंगजेब को उसके इस दुष्कर्म की सजा मिली। मंदिर तुडवाने के बाद वह कभी सुखी नहीं रह सका और अपने दक्षिण के अभियान से जिन्दा नहीं लौट सका। केवल उसके बेटे ही उसके विरुद्ध नहीं खड़े हुए बल्कि वे ईदगाह की भी रक्षा नहीं कर सके। और आख़िरकार आगरा और मथुरा पर मराठा साम्राज्य का अधीकार हो गया।

इस्ट इंडिया कंपनी द्वारा नीलामी

मराठो ने कटरा केशवदेव को ईदगाह समेत अधिकार मुक्त घोषित कर दिया। ये हे हिन्दुओ का सच। एक तरफ आप पाएंगे की जिस किसी भी मुस्लिम आक्रान्ता का मथुरा पर कब्ज़ा हुआ उसने मंदिर तोड़ने का नया कीर्तिमान बनाया। चाहे वह गजनी हो लोधी हो या ओरंगजेब। मगर जब हिन्दू मराठो का मथुरा पर कब्ज़ा हुआ तो मस्जिद तोड़ने की बात तो दूर उन्होंने मंदिर भी नहीं बनाया। जहा भगवन श्रीक्रष्ण का जनम हुआ था।
सन १८०२ में लोर्ड लेक ने मराठो पर जीत हासिल की और मथुरा एंव आगरा इस्ट इंडिया कंपनी के अधीन चले गए। इस्ट इंडिया कम्पनी ने भी इसे अधिकार मुक्त ही माना। सन १८१५ में इस्ट इंडिया कम्पनी ने कटरा केशवदेव के १३.३७ एकड़ के हिस्से की नीलामी की घोषणा की। जिसे कशी नरेश पत्निमल ने खरीद लिया। इस खरीदी हुई जमीन पर राजा पत्निमल एक भव्य कृषण मंदिर बनाना चाहते थे। किन्तु मुसलमानों ने इसका यह कह कर विरोध किया की नीलामी केवल कटरा केशवदेव के लिए थी ईदगाह के लिए नहीं।

क़ानूनी मामले

सन १८७८ में मुसलमानों ने पहली बार एक मुकदमा दर्ज कराया। मुसलमानों ने दावा किया की कटरा केशवदेव ईदगाह की सम्पति है और ईदगाह का निर्माण औरंगजेब ने कराया था इसलिए इस पर मुसलमानों का अधिकार है। इसके लिए मथुरा से परमाण मांगे गए। तात्कालिक मथुरा कलेक्टर मिस्टर टेलर ने मुसलमानों के दावे को ख़ारिज करते हुए कहा की यह क्षेत्र मराठो के समय से स्वतंत्र है। जो की इस्ट इंडिया कम्पनी ने भी स्वीकार किया। जिसे सन १८१५ में काशी नरेश पत्निमल ने नीलामी में खरीद लिया। उन्होंने अपने आदेश में आगे जोड़ते हुए कहा की राजा पत्निमल ही कटरा केशवदेव, ईदगाह और आस पास के अन्य निर्माणों के मालिक है।

दूसरी बार यार मुकदमा मथुरा के न्यायधीश एंथोनी की अदालत में अहमद शाह बनाम गोपी ई पि सी धारा ४४७/३५२ के रूप में दाखिल हुआ। अहमद शाह ने आरोप लगाया की ईदगाह का चोकीदार गोपी कटरा केशवदेव के पश्चिमी हिस्से में एक सड़क का निर्माण करा रहा है। जबकि यह हिस्सा ईदगाह की संपत्ति है। अमहद शाह ने चोकीदार गोपी को सड़क बनाने से रोक दिया। इस मुक़दमे का निर्णय सुनाते हुए न्यायधीश ने कहा की सड़क एंव विवादित जमीन पत्निमल परिवार की संपत्ति है। तथा अहमद शाह द्वारा लगाये गए आरोप झूठे है।

तिसरा मुकदमा सन १९२० में आगरा जिला न्यायलय में दाखिल किया गया। इस मुक़दमे में मथुरा के न्यायधीश हूपर के निर्णय को चुनोती दी गयी थी। (अपील संख्या २३६ (१९२१) एंव २७६(१९२०)) । इस मुक़दमे का निर्णय सुनाते हुए पुनः न्यायलय ने आदेश दिया की विवादित जमीन इस्ट इंडिया कंपनी द्वारा राजा पत्निमल को बेचीं गयी थी जिसका भुगतान भी वो ११४० रूपये के रूप में कर चुके है। इसलिए विवादित जमीन पर ईदगाह का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि ईदगाह खुद राजा पत्निमल की संपत्ति है।

पुरे क्षेत्र पर हिन्दू अधिकारों की घोषणा

सन १९२८ में मुसलमानों ने ईदगाह की मरम्मत की कोशिश की। जिसके कारण फिर यह मुकदमा अदालत में चला गया। पुनः न्यायधीश बिशन नारायण तनखा ने फैसला सुनाते हुए कहा की कटरा केशवदेव राजा पत्निमल के उत्तराधिकारियो की संपत्ति है। मुसलमानों का इस पार कोई अधिकार नहीं है इसलिए ईदगाह की मरम्मत को रोका जाता है। सन १९४४ में महामना मदन मोहन मालवीय जी की प्रेरणा से श्री जुगल किशोर बिरला जी ने सम्मसत क्षेत्र १३४०० रुपए में खरीद लिया और हनुमान प्रसाद पोतदार, भिकामल अतरिया एंव मालवीय जी के साथ मिल कर एक ट्रस्ट बनाया।

सन १९४६ में मुकदमा फिर अदालत में गया। इस बार भी अदालत ने कटरा केशवदेव पर राजा पत्निमल के वंशजो का अधिकार बताया जो अब श्रीकृषण जन्मभूमि ट्रस्ट की संपत्ति है। क्योकि इसे राजा पत्निमल के वंशजो ने इस ट्रस्ट तो बेच दिया था।

और अंतिम बार १९६० में पुनः न्यायलय ने आदेश देते हुआ कहा की:

"मथुरा नगर पालिका के बही खातो तथा दसरे सबूतों का अध्यन करने से यह स्पष्ट होता है की कटरा केशवदेव जिसमे ईदगाह भी शामिल है का लैंड टैक्स श्रीकृष्ण जन्मभूमि संस्था द्वारा ही दिया जाता है। इससे यह साबित होता है की विवादित जमीन पर केवल इसी ट्रस्ट का अधिकार है"।

इस तरह एक बार नहीं पुरे छ: बार अदालतों ने मथुरा पर हिन्दुओ का अधिकार स्वीकार किया। ये हे मथुरा की सच्चाई, क्या इस देश के तथाकथित सेकुलरिस्ट अदालत का निर्णय लागु करेंगे। नहीं कभी नहीं कराएँगे। क्योकि मथुरा में अगर मंदिर निर्माण हो गया तो ये फिर मुसलमानों के पास वोटो की भीख मांगने कैसे जायेंगे।

अयोध्या हो मथुरा हो या कशी, ये सभी तीर्थ जभी स्वतंत्र हो सकते है जब हिन्दू संगठित होंगे। इस देश में तेरह पर्तिशत मुस्लमान हे। और इन तेरह पर्तिशत मुसलमानों ने पुरे देश की राजनीती को अपना गुलाम बना रखा है। क्योकि ये संगठित है। जबकि देश में अस्सी पर्तिशत हिन्दुओ के होते हुए भी उन्हें कोई पूछने वाला नहीं है, क्योकि वे असंगठित है। अगर इस देश की राजनितिक चाल को बदलना है तो इसके लिए राजनीती का हिन्दुकरण और हिन्दुओ का सैनिकीकरण अतिआवश्यक है।

स्वामी विवेकानंद: "इसाई मिशनरी अपने धर्म प्रचार में हिन्दू धरम के विरुद्ध तरह तरह की गन्दी बाते और कुत्सित प्रचार करते है, लेकिन इस्लाम के संबंध में उन्हें कुछ कहने की हिम्मत नहीं, क्योंकि वहां सीधे चमकती तलवारे खिंच जायेंगी।

सन्दर्भ
आचार्य गिरिराज किशोर
http://www.hvk.org/articles/0397/0120.html

सोमवार, 12 जुलाई 2010

खुली चुनोती देश तोड़नेवाले घिर्नित इरादों को

खुली चुनोती देश तोड़नेवाले घृणित इरादों को
भारत माँ लो डायन कहनेवाले कुछ जल्लादों को
राम के बेटे अबकी अयोध्या खाली हाथ न जायेंगे
साफ़ बता दो क्या करना है बाबर की औलादों को
राम का मंदिर बनवाना तो केवल एक बहाना है
लक्ष्य हमारा लाल किले पर केसरिया लहराना है

आंसू पीते युग बीते है अब मत अत्याचार सहो
गूंगी बहरी राजनीत को एक बार ललकार कहो
जनम भूमि पे मंदिर मस्जिद घिर्नित है राम विरोधी है
उनसे कहदो सिंहासन से जाने को तैयार रहो
हम जागे और तुम जागे अब सारा देश जगाना है
राम का मंदिर बनवाना तो केवल एक बहाना है
लक्ष्य हमारा लाल किले पर केसरिया लहराना है

हम खेवट की नैया मै फिर राम बिठाने आये है
शबरी के बेटो से कहदो राम बुलाने आये है
जिनके मन में राम भक्ति है उनका एक घराना है
राम का मंदिर बनवाना तो केवल एक बहाना है
लक्ष्य हमारा लाल किले पर केसरिया लहराना है

कोई कह दे कब किसी ने काबा की दीवारे तोड़ी
कब हमने मक्का में जाकर मस्जिद या मीनारे तोड़ी
पर अपनी धर्म सुरक्षा में शोणित का लहू बहा देंगे
गंगा को पड़ी जरुरत तो लहू की नदी बहा देंगे
तुम खूब कुरान पढो पर हमको भी गीता पढ़ाने दो
चंदा से बैर नहीं पर सूरज पर अर्ध्य चढाने दो
राम का मंदिर बनवाना तो केवल एक बहाना है
लक्ष्य हमारा लाल किले पर केसरिया लहराना है

नहीं भूले है, नहीं भूलेंगे कारसेवको के बलिदानों को
सबक सिखांगे राम भक्तो पर गोली चलनेवालो को
शिवाजी की तलवार ने फिर हमको ललकारा है
रणचंडी के चरणों में शिशो का ढेर लगाना है
राम का मंदिर बनवाना तो केवल एक बहाना है
लक्ष्य हमारा लाल किले पर केसरिया लहराना है

। । जय श्री राम । ।

सम्पादित
विकास सिंघल

रविवार, 11 जुलाई 2010

गांधी का अहं

भारतीय स्‍वतंत्रता के इतिहास में एक ऐसा समय भी आया जब गांधी जी को अपने अस्तित्व पर संकट नज़र आने लगा था। गांधी जी को एहसास होने लगा था कि अगर अब प्रतिरोध नही किया गया तो, “गांधी” से भी बड़ा कोई नाम सामने आ सकता है। जो स्‍वतंत्रता की लड़ाई “गांधी” नाम की धूरी पर लड़ा जा रहा था, वह युद्ध कहीं किसी और के नाम से प्रारम्‍भ न हो जाये। वह धूरी गांधी जी को नेताजी सुभाष चन्‍द्र बोस के रूप में स्‍पष्‍ट दिखाई दे रहा था। यह एक ऐसा नाम था जो गांधी जी को ज्‍य़ादा उभरता हुआ दिखाई दे रहा था। देश की सामान्‍य जनता सुभाष बाबू में अपना भावी नेता देख रही थी। सुभाष बाबू की लोकप्रियता दिन दूनी रात चौगनी बढ़ रही थी। जो परिस्थितियॉं गांधी जी ने अपने अरमानों को पूरा करने के‍ लिये तैयार की वह सुभाष चन्‍द्र बोस के सक्रिय रूप से समाने आने पर मिट्टी में मिलती दिख रही थी। गांधीजी को डर था कि जिस प्रकार यह व्‍यक्ति अपने प्रभावों में वृद्धि कर रहा है वह गांधी और नेहरू के प्रभाव को भारतीय परिदृश्य से खत्‍म कर सकता है। इन दोनों की भूमिका सामान्य स्‍वतंत्रता संग्राम सेनानियों की भांति होने जा रही थी। गांधी और नेहरू की कुटिल बुद्धि तथा अंग्रेजों की चतुराई को यह कदापि सुखद न था। इस भावी परिणाम से भयभीत हो नेता जी को न केवल कांग्रेस से दूर किया गया बल्कि समाज में फैल रहे उनके नाम को समाप्‍त करने का प्रयास किया गया। यह व्‍यवहार केवल नेता जी के साथ ही नही हर उस स्‍वतंत्रता संग्राम सेनानी के साथ किया गया जो गांधी जी के अनर्गल प्रलापों का विरोधी था और उनकी चाटुकारिता करना पंसद नही करता था तथा देश की आज़ादी के लिये जिसके मन में स्‍पष्‍ट विचार थे।

गांधी और सुभाष का स्‍वतंत्रता संग्राम में आने में एक समानता थी कि दोनों को ही इसकी प्रेरणा विदेश में प्राप्‍त हुई। किन्‍तु दोनों की प्रेरणाश्रोत में काफी अन्‍तर था। गांधी जी को इसकी प्रेरणा तब मिली जब दक्षिण आफ्रीका में अंग्रेजो द्वारा लात मार कर ट्रेन से उतार दिया गया, और गांधी जी को लगा कि मै एक कोट पैंट पहने व्‍यक्ति के साथ यह कैसा व्‍यवहार किया जा रहा है? अंग्रेजों द्वारा लात मारने घटना गांधी जी को महान बनाने में सर्वप्रमुख थी। अगर गांधी जी के जीवन में यह घटना न घटित हुई होती तो वह न तो स्‍वतंत्रता के प्रति को ललक होती, और न ही आज राष्‍ट्रपिता का तमका लिये न बैठे होते, न ही उनकी गांधीगीरी अस्‍तित्‍व में हो।

वही सुभाष चन्‍द्र बोस इग्लैन्‍ड में भारतीय प्रशासनिक सेवा (Indian Civil Service) की परीक्षा के दौरान देश में घट रहे जलियावाला बाग काण्‍ड, रोलट एक्‍ट, तथा काग्रेस के द्वारा इन घटनाओं के परिपेक्ष में असहयोग आंदोलन जैसी घटनाओं प्रभावित हो उन्‍होने स्‍वतंत्रता संग्राम में आना उचित समझा। उनके जह़ान में देश के प्रति प्रेम और इसकी स्‍वतंत्रता के भाव का संचार हो गया। उन्‍होने भारतीय प्रशासनिक परीक्षा चौथे स्‍थान पर रह कर पास की थी। ऊँचा रैंक था, ऊँचा वेतन और किसी राजा से भी बढ़कर मानसम्‍मान एवं सुख सुविधाऐं उन्‍हें सहज प्राप्‍त थी। सुभाष बाबू किसी अग्रेंज ने छुआ तक नही था। किन्‍तु भारत माँ की करूण पुकार ने उन्‍हे देश भक्ति के लिसे प्रेरित किया। उन्‍होने समस्‍त सुख सुविधाओं से त्‍यागपत्र दे दिया। त्‍यागपत्र में कहा-

“मै नही समझता कि कोई व्‍यक्ति अंग्रेजी राज के प्रति निष्‍ठावान भी रहे तथा अपने देश की मन, आत्मा तथा ईमानदारी से सेवा करें, ऐसा संभव नही।”

नेताजी विदेश से लौटते ही देश की सेवा में लग गये और जब 1925 ई. को कलकत्‍ता नगर‍ निगम में स्‍वाराज दल को बहुमत मिला तो उन्‍होने निगम के प्रमुख के पद पर रहते हुऐ अनेक महत्‍वपूर्ण काम किये।

1928 मे जब कलकक्‍ता में भारत के लिये स्‍वशासी राज्य पद की मांग के मुख्‍य प्रस्‍ताव को महात्‍मा गांधी ने प्रस्‍तावित किया। तो सुभाष बाबू ने उसमें एक संशोधन प्रस्‍तुत किया, जिसमें पूर्ण स्‍वाराज की मांग की गई। गांधीजी पूर्ण स्‍वाराज रूपी संसोधन से काफी खिन्न हुए, उन्‍होने धमकी दिया कि यदि संशोधित प्रस्‍ताव पारित हुआ तो वे सभा से बाहर चले जायेगें। गांधी जी के समर्थकों ने इसे गांधी जी की प्रतिष्‍ठा से जोड़ दिया, क्‍योकि अगर गांधी की हार होती है तो निश्चित रूप से समथकों की महत्‍वकांक्षाओं को झटका लगता, क्‍योकि गांधी के बिना वे अपंग़ थे। सर्मथकों की न कोई सोच थी और न ही सामान्‍य जनों के विचारों से उनका कोई सरोकार था। सिर्फ और सिर्फ महत्‍वकांक्षा ही उनके स्‍वतंत्रता संग्राम का आधार थी। यही उनके संग्राम सेनानी होने के कारण थे। गांधी जी की इस प्रतिष्‍ठा की लड़ाई में अंग्रेज सरकार की पौबारा हो रही थी। सुभाष बाबू का संशोधित प्रस्‍ताव 973 के मुकाबले 1350 मतो से गिर गया। गांधी की आंधी के आगे सुभाष बाबू को 973 वोट प्राप्‍त होना प्राप्‍त होना एक महत्‍व पूर्ण घटना थी। यहॉं पर गांधी जी जी का स्‍वा राष्‍ट्र से बड़ा हो गया। गांधी जी के अहं के आगे उन्ही का सत्‍य, आहिंसा, और आर्शीवचन पाखंड साबित हुआ और जिस लाठी सहारे वह चलते थे वही लाठी काग्रेसियों के गुंडई प्रमुख अस्‍त्र बन गई। कांग्रेसियों द्वारा गांधी जी के नाम को अस्‍त्र बना अपना मनमाना काम करवाया, और इस कु-कृत्‍य में गांधी जी पूर्ण सहयोगी रहे। इसका फायदा मिला सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी सामराज्‍य को।

शनिवार, 10 जुलाई 2010

औरंगजेब और काशी विश्वनाथ सम्बन्धी एक नकली “सेकुलर” कहानी की धज्जियाँ

कुछ दिनों पूर्वतमिलनाडु मुस्लिम मुनेत्र कड़गम” (TTMK) (नाम सुना है कभी???) के एक नेता एम एच जवाहिरुल्ला ने एक जनसभा में फ़रमाया किऔरंगजेब के खिलाफ़ सबसे बड़ा आरोप है कि उसने काशी विश्वनाथ का मन्दिर ध्वस्त किया था, हालांकि यह सच है, लेकिन उसने ऐसा क्यों किया था यह भी जानना जरूरी हैउसके बाद उन्होंने स्व बीएन पांडे की एक पुस्तक का हवाला दिया और प्रेस को बताया कि असल में औरंगजेब के एक वफ़ादार राजपूत राजा की रानी का विश्वनाथ मन्दिर में अपमान हुआ और उनके साथ मन्दिर में लूट की घटना हुई थी, इसलिये औरंगजेब ने मन्दिर की पवित्रता बनाये रखने के लिये(???) काशी विश्वनाथ को ढहा दिया था”… (हुई आपके ज्ञान में बढ़ोतरी) एक कट्टर धार्मिक बादशाह, जो अपने अत्याचारों और धर्म परिवर्तन के लिये कुख्यात था, जिनके खानदान में दारुकुट्टे और हरमों की परम्परा वाले औरतबाज लोग थे, वह एक रानी की इज्जत के लिये इतना चिंतित हो गया? वो भी हिन्दू रानी और हिन्दू मन्दिर के लिये कि उसनेसम्मानकी खातिर काशी विश्वनाथ का मन्दिर ढहा दिया? कोई विश्वास कर सकता है भला? लेकिन इस प्रकार कीसेकुलर”(?) कहानियाँ सुनाने में वामपंथी लोग बड़े उस्ताद हैं।

जब अयोध्या आंदोलन अपने चरम पर था, उस वक्त विश्व हिन्दू परिषद ने अपने अगले लक्ष्य तय कर लिये थे कि अब काशी और मथुरा की बारी होगी। हालांकि बाद में बनारस के व्यापारी समुदाय द्वारा अन्दरूनी विरोध (आंदोलन से धंधे को होने वाले नुकसान के आकलन के कारण) को देखते हुए परिषद ने वहआईडियाफ़िलहाल छोड़ दिया है। लेकिन उसी समय सेसेकुलरऔर वामपंथी बुद्धिजीवियों ने काशी की मस्जिद के पक्ष में माहौल बनाने के लिये कहानियाँ गढ़ना शुरु कर दिया था, जिससे यह आभास हो कि विश्वनाथ का मन्दिर कोई विवादास्पद नही है, ही उससे लगी हुई मस्जिद। हिन्दुओं और मीडिया को यह यकीन दिलाने के लिये कि औरंगजेब एक बेहद न्यायप्रिय औरसेकुलरबादशाह था, नये-नये किस्से सुनाने की शुरुआत की गई, इन्हीं में से एक है यह कहानी। इसके रचयिता हैं श्री बी एन पांडे (गाँधी दर्शन समिति के पूर्व अध्यक्ष और उड़ीसा के पूर्व राज्यपाल)

बहरहाल, औरंगजेब कोसंतऔर परोपकारी साबित करने की कोशिश पहले शुरु की सैयद शहाबुद्दीन (आईएफ़एस) ने, जिन्होंने कहा किमन्दिर को तोड़कर मस्जिद बनाना शरीयत के खिलाफ़ है, इसलिये औरंगजेब ऐसा कर ही नहीं सकता” (कितने भोले बलम हैं शहाबुद्दीन साहब) फ़िर जेएनयू के स्वघोषितसेकुलरबुद्धिजीवी कैसे पीछे रहते? उन्होंने भी एक सुर में औरंगजेब और अकबर को महान धर्मनिरपेक्षतावादी बताने के लिये पूरा जोर लगा दिया, जबकि मुगल काल के कई दस्तावेज, डायरियाँ, ग्रन्थ आदि खुलेआम बताते हैं कि उस समय हजारों मन्दिरों को तोड़कर मस्जिदें बनाई गईं। यहाँ तक कि अरुण शौरी जी ने 2 सितम्बर 1669 के मुगल अदालती दस्तावेज जिसेमासिरी आलमगिरीकहा जाता है, उसमें से एक अंश उद्धृत करके बताया किबादशाह के आदेश पर अधिकारियों ने बनारस में काशी विश्वनाथ का मन्दिर ढहाया”, और आज भी उस पुराने मन्दिर की दीवार औरंगजेब द्वारा बनाई गई मस्जिद में स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती है।

खैर, वापस आते हैं मूल कहानी की ओरलेखक फ़रमाते हैं किएक बार औरंगजेब बंगाल की ओर यात्रा के दौरान लवाजमे के साथ बनारस के पास से गुजर रहा था, तब साथ चल रहे हिन्दू राजाओं ने औरंगजेब से विनती की कि यहाँ एक दिन रुका जाये ताकि रानियाँ गंगा स्नान कर सकें और विश्वनाथ के दर्शन कर सकें, औरंगजेब राजी हो गया(???) बनारस तक के पाँच मील लम्बे रास्ते पर सेना तैनात कर दी गई और तमाम रानियाँ अपनी-अपनी पालकी में विश्वनाथ के दर्शनों के लिये निकलीं। पूजा के बाद सभी रानियाँ वापस लौट गईं सिवाय एक रानीकच्छ की महारानीके। महारानी की तलाश शुरु की गई, मन्दिर की तलाशी ली गई, लेकिन कुछ नहीं मिला। औरंगजेब बहुत नाराज हुआ और उसने खुद वरिष्ठ अधिकारियों के साथ मन्दिर की तलाशी ली। अन्त में उन्हें पता चला कि गणेश जी की मूर्ति के नीचे एक तहखाना बना हुआ है, जिसमें नीचे जाती हुई सीढ़ियाँ उन्हें दिखाई दीं। तहखाने में जाने पर उन्हें वहाँ खोई हुई महारानी मिलीं, जो कि बुरी तरह घबराई हुई थीं और रो रही थी, उनके गहने-जेवर आदि लूट लिये गये थे। हिन्दू राजाओं ने इसका तीव्र विरोध किया और बादशाह से कड़ी कार्रवाई करने की माँग की। तब महान औरंगजेब ने आदेश दिया कि इस अपवित्र हो चुके मन्दिर को ढहा दिया जाये, विश्वनाथ की मूर्ति को और कहींशिफ़्टकर दिया जाये तथा मन्दिर के मुख्य पुजारी को गिरफ़्तार करके सजा दी जाये। इस तरहमजबूरीमें औरंगजेब को काशी विश्वनाथ का मन्दिर गिराना पड़ाख्यात पश्चिमी इतिहासकार डॉ कोनराड एल्स्ट ने इस कहानी में छेद ही छेद ढूँढ निकाले, उन्होंने सवाल किये कि

1) सबसे पहले तो इस बात का कोई दस्तावेजी सबूत नहीं है कि औरंगजेब ने इस प्रकार की कोई यात्रा दिल्ली से बंगाल की ओर की थी। उन दिनों के तमाम मुगल दस्तावेज और दिन--दिन की डायरियाँ आज भी मौजूद हैं और ऐसी किसी यात्रा का कोई उल्लेख कहीं नहीं मिलता, और पांडे जी ने जिस चमत्कारिक घटना का विवरण दिया है वह तो अस्तित्व में थी ही नहीं।
2) औरंगजेब कभी भी हिन्दू राजाओं या हिन्दू सैनिकों के बीच में नहीं रहा।
3) जैसा कि लिखा गया है, क्या तमाम हिन्दू राजा अपनी पत्नियों को दौरे पर साथ रखते थे? क्या वे पिकनिक मनाने जा रहे थे?
4) सैनिकों और अंगरक्षकों से चारों तरफ़ से घिरी हुई महारानी को कैसे कोई पुजारी अगवा कर सकता है?
5) हिन्दू राजाओं ने औरंगजेब से कड़ी कार्रवाई की माँग क्यों की? क्या एक लुटेरे पुजारी(???) को सजा देने लायक ताकत भी उनमें नहीं बची थी?
6) जब मन्दिर अपवित्र(?) हो गया था, तब उसे तोड़कर नई जगह शास्त्रों और वेदों के मुताबिक मन्दिर बनाया गया, लेकिन कहाँ, किस पवित्र जगह पर?

दिमाग में सबसे पहले सवाल उठता है कि पांडे जी को औरंगजेब के बारे में यह विशेष ज्ञान कहाँ से प्राप्त हुआ? खुद पांडे जी अपने लेखन में स्वीकार करते हैं कि उन्होंने इसके बारे में डॉ पट्टाभि सीतारमैया की पुस्तक में इसका उल्लेख पढ़ा था (यानी कि खुद उन्होंने किसी मुगल दस्तावेज का अध्ययन नहीं किया था, ही कहीं कारेफ़रेंसदिया था) औरंगजेब को महात्मा साबित करने के लिये जेएनयू के प्रोफ़ेसर के एन पणिक्कर की थ्योरी यह थी किकाशी विश्वनाथ मन्दिर ढहाने का कारण राजनैतिक रहा होगा। उस जमाने में औरंगजेब के विरोध में सूफ़ी विद्रोहियों और मन्दिर के पंडितों के बीच सांठगांठ बन रही थी, उसे तोड़ने के लिये औरंगजेब ने मन्दिर तोड़ाक्या गजब की थ्योरी है, जबकि उस जमाने में काशी के पंडित गठबन्धन बनाना तो दूरम्लेच्छोंसे बात तक नहीं करते थे।

खोजबीन करने पर पता चलता है कि पट्टाभि सीतारमैया ने यह कहानी अपनी जेलयात्रा के दौरान एक डायरी में लिखी थी, और उन्होंने यह कहानी लखनऊ के एक मुल्ला से सुनी थी। अर्थात एक मुल्ला की जबान से सुनी गई कहानी को सेकुलरवादियों ने सिर पर बिठा लिया और औरंगजेब को महान साबित करने में जुट गये, बाकी सारे दस्तावेज और कागजात सब बेकार, यहाँ तक किआर्कियोलॉजी विभागऔरमासिरी आलमगिरीजैसे आधिकारिक लेख भी बेकार।

तो अब आपको पता चल गया होगा कि अपनी गलत बात को सही साबित करने के लिये सेकुलरवादी और वामपंथी किस तरह से किस्से गढ़ते हैं, कैसे इतिहास को तोड़ते-मरोड़ते हैं, कैसे मुगलों और उनके घटिया बादशाहों को महान और धर्मनिरपेक्ष बताते हैं। एक ग्राहम स्टेंस को उड़ीसा में जलाकर मार दिया जाता है या एक जोहरा के परिवार को बेकरी में जला दिया जाता है (यह एक क्रूर और पाशविक कृत्य था) लेकिन उस वक्त कैसे मीडिया, अंतरराष्ट्रीय समुदाय, ईसाई संगठन और हमारे सदाबहार घरेलूधर्मनिरपेक्षतावादीजोरदार और संगठितगिरोहकी तरह हल्ला मचाते हैं, जबकि इन्हीं लोगों और इनके साथ-साथ मानवाधिकारवादियों को कश्मीर के पंडितों की कोई चिन्ता नहीं सताती, श्रीनगर, बारामूला में उनके घर जलने पर कोई प्रतिनिधिमंडल नहीं जाता, एक साजिश के तहत पंडितों केजातीय सफ़ायेको सतत नजर-अंदाज कर दिया जाता है। असम में बांग्लादेशियों का बहुमत और हिन्दुओं का अल्पमत नजदीक ही है, लेकिन इनकी असल चिंता होती है कि जेलों में आतंकियों को अच्छा खाना मिल रहा है या नहीं? सोहराबुद्दीन के मानवाधिकार सुरक्षित हैं या नहीं? अबू सलेम की तबियत ठीक है या नहीं? फ़िलिस्तीन में क्या हो रहा है? आदि-आदि-आदि। अब समय गया है कि इनके घटिया कुप्रचार का मुँहतोड़ जवाब दिया जाये, कहीं ऐसा हो कि आने वाली पीढ़ी इनबनी-बनाईकहानियों औरअर्धसत्यके बहकावे में जाये (हालांकि कॉन्वेंट स्कूलों के जरिये इतिहास को विकृत करने में वे सफ़ल हो रहे हैं), क्योंकि NDTV जैसे कई कथितधर्मनिरपेक्षमीडिया भी इनके साथ है। इस बारे में आप क्या सोचते हैं???

कुछ करेंगे या ऐसे ही बैठे रहेंगे? और कुछ नहीं तो कम से कम इस लेख की लिंक मित्रों कोफ़ॉरवर्डही कर दीजिये

सन्दर्भडॉ कोनराड एल्स्ट एवं बी शान्तनु

Suresh Chiplunkar

http://sureshchiplunkar.mywebdunia.com/2008/06/15/1213530060000.html