गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

रामदेव Vs अण्णा = “भगवा” Vs “गाँधीटोपी सेकुलरिज़्म”?? (भाग-2)

यह कहना मुश्किल है कि “झोलाछाप” सेकुलर NGO इंडस्ट्री के इस खेल में अण्णा हजारे खुद सीधे तौर पर शामिल हैं या नहीं, परन्तु यह बात पक्की है कि उनके कंधे पर बन्दूक रखकर उनकी “छवि” का “उपयोग” अवश्य किया गया है… चूंकि अण्णा सीधे-सादे हैं, इसलिये वह इस खेल से अंजान रहे और अनशन समाप्त होते ही उन्होंने नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार की तारीफ़ कर डाली… बस फ़िर क्या था? अण्णा की “भजन मंडली” (मल्लिका साराभाई, संदीप पाण्डे, अरुणा रॉय और हर्ष मंदर जैसे स्वघोषित सेकुलरों) में से अधिकांश को मिर्गी के दौरे पड़ने लगे… उन्हें अपना खेल बिगड़ता नज़र आने लगा, तो फ़िर लीपापोती करके जैसे-तैसे मामले को रफ़ा-दफ़ा किया गया। यह बात तय जानिये, कि यह NGO इंडस्ट्री वाला शक्तिशाली गुट, समय आने पर एवं उसका “मिशन” पूरा होने पर, अण्णा हजारे को दूध में गिरी मक्खी के समान बाहर निकाल फ़ेंकेगा…। फ़िलहाल तो अण्णा हजारे का “उपयोग” करके NGOवादियों ने अपने “धुरंधरों” की केन्द्रीय मंच पर जोरदार उपस्थिति सुनिश्चित कर ली है, ताकि भविष्य में हल्का-पतला, या जैसा भी लोकपाल बिल बने तो चयन समिति में “अण्णा आंदोलन” के चमकते सितारों(?) को भरा जा सके।

जन-लोकपाल बिल तो जब पास होगा तब होगा, लेकिन भूषण साहब ने इसमें जो प्रावधान रखे हैं उससे तो लगता है कि जन-लोकपाल एक “सर्वशक्तिमान” सुपर-पावर किस्म का सत्ता-केन्द्र होगा, क्योंकि यह न्यायिक और पुलिस अधिकारों से लैस होगा, सीबीआई इसके अधीन होगी, यह समन भी जारी कर सकेगा, गिरफ़्तार भी कर सकेगा, केस भी चला सकेगा, मक्कार सरकारी मशीनरी और न्यायालयों की सुस्त गति के बावजूद सिर्फ़ दो साल में आरोपित व्यक्ति को सजा भी दिलवा सकेगा… ऐसा जबरदस्त ताकत वाला संस्थान कैसे बनेगा और कौन सा राजनैतिक दल बनने देगा, यही सबसे बड़ा पेंच है। देखते हैं यमुना में पानी का बहाव अगले दो महीने में कैसा रहता है…
जन-लोकपाल बिल पर होने वाले मंथन (बल्कि खींचतान कहिये) में संसदीय परम्परा का प्रमुख अंग यानी “प्रतिपक्ष” कहीं है ही नहींकुल जमा दस लोग (पाँच-पाँच प्रतिनिधि) ही देश के 120 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करेंगे… इसमें से भी विपक्ष गायब है यानी लगभग 50 करोड़ जनता की रायशुमारी तो अपने-आप बाहर हो गई… पाँच सत्ताधारी सदस्य हैं यानी बचे हुए 70 करोड़ में से हम इन्हें 35 करोड़ का प्रतिनिधि मान लेते हैं… अब बचे 35 करोड़, जिनका प्रतिनिधित्व पाँच सदस्यों वाली “सिविल सोसायटी” करेगी (लगभग एक सदस्य के हिस्से आई 7 करोड़ जनता, उसमें भी भूषण परिवार के दो सदस्य हैं यानी हुए 14 करोड़ जनता)। अब बताईये भला, इतने जबरदस्त “सभ्य समाज” (सिविल सोसायटी) के होते हुए, हम जैसे नालायक तो “असभ्य समाज” (अन-सिविल सोसायटी) ही माने जाएंगे ना? हम जैसे, अर्थात जो लोग नरेन्द्र मोदी, सुब्रह्मण्यम स्वामी, बाबा रामदेव, गोविन्दाचार्य, टीएन शेषन इत्यादि को ड्राफ़्टिंग समिति में शामिल करने की माँग करते हैं वे “अन-सिविल” हैं…

जन-लोकपाल की नियुक्ति करने वाली समिति बनाने का प्रस्ताव भी मजेदार है-

1) लोकसभा के दोनों सदनों के अध्यक्ष रहेंगे (इनकी नियुक्ति सोनिया गाँधी ने की है)

2) सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठ जज होंगे (बालाकृष्णन और दिनाकरण नामक “ईसाई” जजों के उदाहरण हमारे सामने हैं, इनकी नियुक्ति भी कांग्रेस, यानी प्रकारान्तर से सोनिया ने ही की थी)

3) हाईकोर्ट के दो वरिष्ठतम जज भी होंगे… (–Ditto–)

4) मानव-अधिकार आयोग के अध्यक्ष होंगे (यानी सोनिया गाँधी का ही आदमी)

5) भारतीय मूल के दो नोबल पुरस्कार विजेता (अव्वल तो हैं ही कितने? और भारत में निवास तो करते नहीं, फ़िर यहाँ की नीतियाँ तय करने वाले ये कौन होते हैं?)

6) अन्तिम दो मैगसेसे पुरस्कार विजेता… (अन्तिम दो??)

7) भारत के महालेखाकार एवं नियंत्रक (CAG)

8) मुख्य चुनाव आयुक्त (यह भी मैडम की मेहरबानी से ही मिलने वाला पद है)

9) भारत रत्न से नवाज़े गये व्यक्ति (इनकी भी कोई गारण्टी नहीं कि यह सत्तापक्ष के प्रति झुकाव न रखते हों)

इसलिये जो महानुभाव यह सोचते हों, कि संसद है, मंत्रिमण्डल है, प्रधानमंत्री है, NAC है… वह वाकई बहुत भोले हैं… ये लोग कुछ भी नहीं हैं, इनकी कोई औकात नहीं है…। अन्तिम इच्छा सिर्फ़ और सिर्फ़ सोनिया गाँधी की चलती है और चलेगी…। 2004 की UPA की नियुक्तियों पर ही एक निगाह डाल लीजिये –

1) सोनिया गाँधी ने ही नवीन चावला को चुनाव आयुक्त बनाया

2) सोनिया गाँधी ने ही महालेखाकार की नियुक्ति की

3) सोनिया गाँधी की मर्जी से ही बालाकृष्णन सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश बने थे

4) सोनिया गाँधी ने ही सीबीआई प्रमुख की नियुक्ति की…

5) सोनिया गाँधी की वजह से ही सीवीसी थॉमस नियुक्त भी हुए और सुप्रीम कोर्ट की लताड़े के बावजूद इतने दिनों अड़े रहे…

6) कौन नहीं जानता कि मनमोहन सिंह, और प्रतिभा पाटिल की “नियुक्ति” (जी हाँ, नियुक्ति) भी सोनिया गाँधी की “पसन्द” से ही हुई…

अब सोचिये, जन-लोकपाल की नियुक्ति समिति के “10 माननीयों” में से यदि 6 लोग सोनिया के “खासुलखास” हों, तो जन-लोकपाल का क्या मतलब रह जाएगा? नोबल पुरस्कार विजेता और मेगसेसे पुरस्कार विजेताओं की शर्त का तो कोई औचित्य ही नहीं बनता? ये कहाँ लिखा है कि इन पुरस्कारों से लैस व्यक्ति “ईमानदार” ही होता है? इस बात की क्या गारण्टी है कि ऐसे “बाहरी” तत्व अपने-अपने NGOs को मिलने वाले विदेशी चन्दे और विदेशी आकाओं को खुश करने के लिये भारत की नीतियों में “खामख्वाह का हस्तक्षेप” नहीं करेंगे? सब जानते हैं कि इन पुरस्कारों मे परदे के पीछे चलने वाली “लॉबीइंग” और चयन किये जाने वाले व्यक्ति की प्रक्रिया के पीछे गहरे राजनैतिक निहितार्थ होते हैं।

ज़रा सोचिये, एक माह पहले क्या स्थिति थी? बाबा रामदेव देश भर में घूम-घूमकर कांग्रेस, सोनिया और भ्रष्टाचार के खिलाफ़ माहौल तैयार कर रहे थे, सभाएं ले रहे थे, भारत स्वाभिमान नामक “संगठन” बनाकर, मजबूती से राजनैतिक अखाड़े में संविधान के तहत चुनाव लड़ने के लिये कमर कस रहे थे, मीडिया लगातार 2G और कलमाडी की खबरें दिखा रहा था, देश में कांग्रेस के खिलाफ़ जोरदार माहौल तैयार हो रहा था, जिसका नेतृत्व एक भगवा वस्त्रधारी कर रहा था, आगे चलकर इस अभियान में नरेन्द्र मोदी और संघ का भी जुड़ना अवश्यंभावी था…। और अब पिछले 15-20 दिनों में माहौल ने कैसी पलटी खाई है… नेतृत्व और मीडिया कवरेज अचानक एक गाँधी टोपीधारी व्यक्ति के पास चला गया है, उसे घेरे हुए जो “टोली” काम कर रही है, वह धुर “हिन्दुत्व विरोधी” एवं “नरेन्द्र मोदी से घृणा करने वालों” से भरी हुई है… इनके पास न तो कोई संगठन है और न ही राजनैतिक बदलाव ला सकने की क्षमता… कांग्रेस तथा सोनिया को और क्या चाहिये??इससे मुफ़ीद स्थिति और क्या होगी कि सारा फ़ोकस कांग्रेस-सोनिया-भ्रष्टाचार से हटकर जन-लोकपाल पर केन्द्रित हो गया? तथा नेतृत्व ऐसे व्यक्ति के हाथ चला गया, जो “सत्ता एवं सत्ता की राजनीति में” कोई बड़ा बदलाव करने की स्थिति में है ही नहीं।

मुख्य बात तो यह है कि जनता को क्या चाहिये- 1) एक “फ़र्जी” और “कठपुतली” टाइप का जन-लोकपाल देश के अधिक हित में है, जिसके लिये अण्णा मण्डली काम कर रही है… अथवा 2) कांग्रेस जैसी पार्टी को कम से कम 10-15 साल के लिये सत्ता से बेदखल कर देना, जिसके लिये नरेन्द्र मोदी, रामदेव, सुब्रह्मण्यम स्वामी, गोविन्दाचार्य जैसे लोग काम कर रहे हैं? कम से कम मैं तो दूसरा विकल्प चुनना ही पसन्द करूंगा…

अब अण्णा के आंदोलन के बाद क्या स्थिति बन गई है… प्रचार की मुख्यधारा में “सेकुलरों”(?) का बोलबाला हो गया है, एक से बढ़कर एक “हिन्दुत्व विरोधी” और “नरेन्द्र मोदी गरियाओ अभियान” के अगुआ लोग छाए हुए हैं, यही लोग जन-लोकपाल भी बनवाएंगे और नीतियों को भी प्रभावित करेंगे। बाकी सभी को “अनसिविलाइज़्ड” साबित करके चुनिंदा लोग ही स्वयंभू “सिविल” बन बैठे हैं… यह नहीं चलेगा…। जब उस “गैंग” के लोगों को नरेन्द्र मोदी की तारीफ़ तक से परेशानी है, तो हमें भी “उस NGOवादी गैंग” पर विश्वास क्यों करना चाहिए? जब “वे लोग” नरेन्द्र मोदी के प्रशासन और विकास की अनदेखी करके… रामदेव बाबा के प्रयासों पर पानी फ़ेरकर… रातोंरात मीडिया के चहेते और नीति निर्धारण में सर्वेसर्वा बन बैठे हैं, तो हम भी इतने “गये-बीते” तो नहीं हैं, कि हमें इसके पीछे चलने वाली साजिश नज़र न आये…।

मजे की बात तो यह है कि अण्णा हजारे को घेरे बैठी “सेकुलर चौकड़ी” कुछ दिन भी इंतज़ार न कर सकी… “सेकुलरिज़्म की गंदी बदबू” फ़ैलाने की दिशा में पहला कदम भी ताबड़तोड़ उठा लिया। हर्ष मन्दर और मल्लिका साराभाई सहित दिग्गी राजा ने अण्णा के मंच पर “भारत माता” के चित्र को संघ का आईकॉन बता दिया था, तो JNU छाप मोमबत्ती ब्रिगेड ने अब यह तय किया है कि अण्णा के मंच पर भारत माता का नहीं बल्कि तिरंगे का चित्र होगा, क्योंकि भारत माता का चित्र “साम्प्रदायिक” है। शक तो पहले दिन से ही हो रहा था कि कुनैन की गोली खाये हुए जैसा मुँह बनाकर अग्निवेश, “भारत माता की जय” और वन्देमातरम के नारे कैसे लगा रहे हैं। परन्तु वह सिर्फ़ “तात्कालिक नौटंकी” थी, भारत माता का चित्र हटाने का फ़ैसला लेकर इस सेकुलर जमात ने “भविष्य में आने वाले जन-लोकपाल बिल का रंग” पहले ही दिखा दिये हैं। “सेकुलर चौकड़ी” ने यह फ़ैसला अण्णा को “बहला-फ़ुसला” कर लिया है या बाले-बाले ही लिया है, यह तो वे ही जानें, लेकिन भारत माता का चित्र भी साम्प्रदायिक हो सकता है, इसे सुनकर बंकिमचन्द्र जहाँ भी होंगे उनकी आत्मा निश्चित ही दुखेगी…

उल्लेखनीय है कि आंदोलन के शुरुआत में मंच पर भारत माता का जो चित्र लगाया जाने वाला था, वह भगवा ध्वज थामे, “अखण्ड भारत” के चित्र के साथ, शेर की सवारी करती हुई भारत माता का था (यह चित्र राष्ट्रवादी एवं संघ कार्यकर्ता अपने कार्यक्रमों में उपयोग करते हैं)। “सेकुलर दिखने के लालच” के चलते, इस चित्र में फ़ेरबदल करके अण्णा हजारे ने भारत माता के हाथों में तिरंगा थमाया और शेर भी हटा दिया, तथा अखण्ड भारत की जगह वर्तमान भारत का चित्र लगा दिया…। चलो यहाँ तक भी ठीक था, क्योंकि भ्रष्टाचार से लड़ाई के नाम पर, “मॉडर्न गाँधी” के नाम पर, और सबसे बड़ी बात कि जन-लोकपाल बिल के नाम पर “सेकुलरिज़्म” का यह प्रहार सहा भी जा सकता था। परन्तु भारत माता का यह चित्र भी “सेकुलरिज़्म के गंदे कीड़ों” को अच्छा नहीं लग रहा था, सो उसे भी साम्प्रदायिक बताकर हटा दिया गया और अब भविष्य में अण्णा के सभी कार्यक्रमों में मंच पर बैकग्राउण्ड में सिर्फ़ तिरंगा ही दिखाई देगा, भारत माता को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है (शायद “सिविल सोसायटी”, देशभक्ति जैसे “आउटडेटेड अनसिविलाइज़्ड सिम्बॉल” को बर्दाश्त नहीं कर पाई होगी…)।

दरअसल हमारा देश एक विशिष्ट प्रकार के एड्स से ग्रसित है, भारतीय संस्कृति, हिन्दुत्व एवं सनातन धर्म से जुड़े किसी भी चिन्ह, किसी भी कृति से कांग्रेस-पोषित एवं मिशनरी द्वारा ब्रेन-वॉश किये जा चुके “सेकुलर”(?) परेशान हो जाते हैं। इसी “सेकुलर गैंग” द्वारा पाठ्यपुस्तकों में “ग” से गणेश की जगह “ग” से “गधा” करवाया गया, दूरदर्शन के लोगो से “सत्यम शिवम सुन्दरम” हटवाया गया, केन्द्रीय विद्यालय के प्रतीक चिन्ह से “कमल” हटवाया गया, वन्देमातरम को जमकर गरियाया जाता है, स्कूलों में सरस्वती वन्दना भी उन्हें “साम्प्रदायिक” लगती है… इत्यादि। ऐसे ही “सेकुलर एड्सग्रसित” मानसिक विक्षिप्तों ने अब अण्णा को फ़ुसलाकर, भारत माता के चित्र को भी हटवा दिया है… और फ़िर भी ये चाहते हैं कि हम बाबा रामदेव और नरेन्द्र मोदी की बात क्यों करते हैं, भ्रष्टाचार को हटाने के “विशाल लक्ष्य”(?) में उनका साथ दें…।

भूषण पिता-पुत्र पर जो जमीन-पैसा इत्यादि के आरोप लग रहे हैं, थोड़ी देर के लिये उसे यदि दरकिनार भी कर दिया जाए (कि बड़ा वकील है तो भ्रष्ट तो होगा ही), तब भी ये हकीकत बदलने वाली नहीं है, कि बड़े भूषण ने कश्मीर पर अरुंधती के बयान का पुरज़ोर समर्थन किया था… साथ ही 13 फ़रवरी 2009 को छोटे भूषण तथा संदीप पाण्डे ने NIA द्वारा सघन जाँच किये जा रहे पापुलर फ़्रण्ट ऑफ़ इंडिया (PFI) नामक आतंकवादी संगठन द्वारा आयोजित कार्यक्रम में भी भाग लिया था, ज़ाहिर है कि अण्णा के चारों ओर “मानवाधिकार और सेकुलरिज़्म के चैम्पियनों”(?) की भीड़ लगी हुई है। इसीलिये प्रेस वार्ता के दौरान अन्ना के कान में केजरीवाल फ़ुसफ़ुसाते हैं और अण्णा बयान जारी करते हैं कि “गुजरात के दंगों के लिये मोदी को माफ़ नहीं किया जा सकता…”, परन्तु अण्णा से यह कौन पूछेगा, कि दिल्ली में 3000 सिखों को मारने वाली कांग्रेस के प्रति आपका क्या रुख है? असल में “सेकुलरिज़्म” हमेशा चुनिंदा ही होता है, और अण्णा तो वैसे भी “दूसरों” के कहे पर चल रहे हैं, वरना लोकपाल बिल की जगह अण्णा, 2G घोटाले की तेजी से जाँच, स्विस बैंकों से पैसा वापस लाने, कलमाडी को जेल भेजने जैसी माँगों को लेकर अनशन पर बैठते?

“उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे” की तर्ज पर, कांग्रेस और मीडिया की मिलीभगत द्वारा भ्रम फ़ैलाने का एक और प्रयास यह भी है कि अण्णा हजारे, संघ और भाजपा के करीबी हैं। अण्णा हजारे का तो पता नहीं, लेकिन उन्हें जो लोग “घेरे” हुए हैं उनके बारे में तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वे संघ-भाजपा के लोग नहीं हैं। अण्णा द्वारा मोदी की तारीफ़ पर भड़कीं मल्लिका साराभाई हों या अण्णा के मंच पर स्थापित “भारत माता के चित्र” पर आपत्ति जताने वाले हर्ष मंदर हों, अरुंधती रॉय के कश्मीर बयान की तारीफ़ करने वाले “बड़े” भूषण हों या माओवादियों के दलाल स्वामी अग्निवेश हों… (महेश भट्ट, तीस्ता जावेद सीतलवाड और शबाना आज़मी भी पीछे-पीछे आते ही होंगे…)। जरा सोचिये, ऐसे विचारों वाले लोग खुद को “सिविल सोसायटी” कह रहे हैं…।

फ़िलहाल सिर्फ़ इतना ही…… क्योंकि कहा जा रहा है, कि जन-लोकपाल बिल बनाने में “अड़ंगे” मत लगाईये, अण्णा की टाँग मत खींचिये, उन्हें कमजोर मत कीजिये… चलिये मान लेते हैं। अब इस सम्बन्ध में विस्तार से 15 अगस्त के बाद ही कुछ लिखेंगे… तब तक आप तेल देखिये और तेल की धार देखिये… आये दिन बदलते-बिगड़ते बयानों को देखिये, अण्णा हजारे द्वारा प्रस्तावित जन-लोकपाल बिल संसद नामक गुफ़ाओं-कंदराओं से बाहर निकलकर “किस रूप” में सामने आता है, सब देखते जाईये…

दिल को खुश करने के लिये मान लेते हैं, कि जैसा बिल “जनता चाहती है”(?) वैसा बन भी गया, तो यह देखना दिलचस्प होगा कि लोकपाल नियुक्ति हेतु चयन समिति में बैठने वाले लोग कौन-कौन होंगे? असली “राजनैतिक कांग्रेसी खेल” तो उसके बाद ही होगा… और देखियेगा, कि उस समय सब के सब मुँह टापते रह जाएंगे, कि “अरे… यह लोकपाल बाबू भी सोनिया गाँधी के ही चमचे निकले…!!!” तब तक चिड़िया खेत चुग चुकी होगी…।

इसलिये हे अण्णा हजारे, जन-लोकपाल बिल हेतु हमारी ओर से आपको अनंत शुभकामनाएं, परन्तु जिस प्रकार आपकी “सेकुलर मण्डली” का “सो कॉल्ड” बड़ा लक्ष्य, सिर्फ़ जन-लोकपाल बिल है, उसी तरह हम जैसे “अनसिविलाइज़्ड आम आदमी की सोसायटी” का भी एक लक्ष्य है, देश में सनातन धर्म की विजय पताका पुनः फ़हराना, सेकुलर कीट-पतंगों एवं भारतीय संस्कृति के विरोधियों को परास्त करना… रामदेव बाबा- नरेन्द्र मोदी सरीखे लोगों को उच्चतम स्तर पर ले जाना, और इन से भी अधिक महत्वपूर्ण लक्ष्य है, कांग्रेस जैसी पार्टी को नेस्तनाबूद करना…।अण्णा जी, भले ही आप “बुरी सेकुलर संगत” में पड़कर राह भटक गये हों, हम नहीं भटके हैं… और न भटकेंगे…

(समाप्त)

मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

वीर दुर्गादास, जिसने औरंगजेब की नींद उड़ा दी थी


veer-durga-das-rathore1.jpgआज भी मारवाड़ के गाँवों में बड़े-बूढ़े लोग बहू-बेटी को आशीर्वाद स्वरूप यही दो शब्द कहते हैं कि "माई ऐहा पूत जण जेहा दुर्गादास, बांध मरुधरा राखियो बिन खंभा आकाश" अर्थात् हे माता! तू वीर दुर्गादास जैसा पुत्र जन्म दे जिसने मरुधरा (मारवाड़) को बिना किसी आधार के संगठन सूत्र में बांध कर रखा था।

उस समय के विशाल मारवाड़ का कोई स्वामी, सामंत या सेनापति नहीं था। सब औरंगजेब के कुटिल विश्वासघात की भेंट चढ़ चुका था। जनता भी कठोर दमन चक्र में फंसी थी। सर्वत्र आतंक लूट-खसोट, हिंसा और भय की विकराल काली घटा छाई थी। उस समय मारवाड़ ही नहीं पूरा भारत त्राहि-त्राहि कर रहा था। ऐसी संकटमय स्थिति में वीर दुर्गादास राठौर के पौरुष और पराक्रम की आंधी चली। मारवाड़ आजाद हुआ और खुले आकाश में सुख की सांस लेने लगा। दुर्गादास एक ऐसे देशभक्त का नाम है जिनका जन्म से मृत्यु पर्यंत संघर्ष का जीवन रहा। दुर्गादास का जन्म 13 अगस्त 1638 को जोधपुर रियासत के गाँव सालवां कलां में हुआ। जन्म से ही पिता का तिरस्कार मिला, माँ -बेटे को घर से निकाला गया और जिस अजीत सिंह को पाल पोसकर दुर्गादास ने मारवाड़ का राजा बनाया, उस अजीत सिंह ने भी इस वीर का सम्मान नहीं किया वरन् मारवाड़ से निष्कासित कर दिया। पर धन्य है दुर्गादास की स्वराज्य भक्ति। मारवाड़ की मंगल कामना करते हुए दुर्गादास ने अवंतिकापुरी को प्रस्थान किया। और वहीं, क्षिप्रा नदी के तट पर अंत तक सन्यासीवत् जीवन व्यतीत किया। क्षिप्रा नदी के तट पर बनी दुर्गादास की छत्री (समाधि) गर्व के साथ आज भी उस महान पुरुष की वीरता और साहस की कहानी कह रही है। वह ऐसे कठोर तप की श्रेष्ठ कहानी है जो शिशु दुर्गादास व उसकी माँ को घर से निकालने से शुरू होती है।

दुर्गादास को वीर दुर्गादास बनाने का श्रेय उसकी माँ मंगलावती को ही जाता है जिसने जन्मघुट्टी देते समय ही दुर्गादास को यह सीख दी थी कि "बेटा, मेरे धवल (उज्ज्वल सफेद) दूध पर कभी कायरता का काला दाग मत लगाना।"

मारवाड़ का रक्षक

जन्म से ही माँ के हाथ से निडरता की घुट्टी पीने वाला दुर्गादास अपनी इस जन्मजात निडरता के कारण ही महाराजा जसवंत सिंह का प्रमुख अंगरक्षक बन गया था और यही अंगरक्षक आगे चलकर उस समय संपूर्ण मारवाड़ का रक्षक बन गया था जब जोधपुर के महाराज जसवंत सिंह के इकलौते पुत्र पृथ्वीसिंह को औरंगजेब ने षड्यंत्र रचकर जहरीली पोशाक पहनाकर मार डाला। इस आघात को जसवंत सिंह नहीं सह सके और स्वयं भी मृत्यु को प्राप्त हो गए थे। इस अवसर का लाभ उठाते हुए औरंगजेब ने जोधपुर पर कब्जा कर लिया और सारे शहर में लूटपाट, आगजनी और कत्लेआम होने लगा और देखते ही देखते शहर को उजाड़ बना दिया गया। लोग भय और आतंक के मारे शहर छोड़ अन्यत्र चले गए थे। सारे हिन्दुओं पर जजिया लगा दिया गया था। राजधानी जोधपुर सहित सारा मारवाड़ तब अनाथ हो गया था।

संकट का सामना

ऐसे संकटकाल में दुर्गादास ने स्वर्गीय महाराज जसवंत सिंह की विधवा महारानी महामाया तथा उसके नवजात शिशु (जोधपुर के भावी राजा अजीत सिंह) को औरंगजेब की कुटिल चालों से बचाया। दिल्ली में शाही सेना के पंद्रह हजार सैनिकों को गाजर-मूली की तरह काटते हुए मेवाड़ के राणा राजसिंह के पास परिवार सुरक्षित पहुंचाने में वीर दुर्गादास राठौड़ सफल हो गए। तो औरंगजेब तिलमिला उठा और उनको पकड़ने के लिए उसने मारवाड़ के चप्पे-चप्पे को छान मारा। यही नहीं उसने दुर्गादास व अजीत सिंह को जिंदा या मुर्दा लाने वालों को भारी इनाम देने की घोषणा की थी।

इधर दुर्गादास भी मारवाड़ को आजाद कराने और अजीत सिंह को राजा बनाने की प्रतिज्ञा को कार्यान्वित करने में जुट गए थे। दुर्गादास जहाँ राजपूतों को संगठित कर रहे थे वहीं औरंगजेब की सेना उनको पकड़ने के लिए सदैव पीछा करती रहती थी। कभी-कभी तो आमने-सामने मुठभेड़ भी हो जाती थी। ऐसे समय में दुर्गादास की दुधारी तलवार और बरछी कराल-काल की भांति रणांगण में मुंडों का ढेर लगा देती थी।

पूरे परिवार का बलिदान

veer-durga-das-rathore2.jpgदुर्गादास के सामने समस्याएँ ही समस्याएँ थीं। सबसे बड़ी समस्या तो जहाँ भावी राजा के लालन-पालन व पढ़ाई-लिखाई की थी वहाँ उससे भी बड़ी समस्या उनको औरंगजेब की नजरों से बचाने व उनकी सुरक्षा की थी। इतिहास साक्षी है कि दुर्गादास ने विपरीत परिस्थितियों में भी उनकी वे संपूर्ण व्यवस्थाएँ पूर्ण की थीं कि भले ही इस कार्य के संपादन में दुर्गादास को अपने माँ -भाई-बहनों, यहाँ तक कि पत्नी तक का भी बलिदान देना पड़ा। अरावली पर्वत श्रृंखला की वे कंदराएँ उन वीर और वीरांगनाओं के शौर्यपूर्ण बलिदान की साक्षियाँ दे रही हैं, जहाँ अजीत सिंह की सुरक्षा के बदले दुश्मनों से संघर्ष करते हुए उन्होंने अपने आपको बलिदान कर दिया था।

कठोर ध्येय साधना

छप्पन के पहाड़ों का प्रत्येक पत्थर और घाटियाँ दुर्गादास के छापामार युद्ध की गौरवगाथा कह रहे हैं। जिन पत्थरों और घाटियों ने कर्मवीर दुर्गादास को देखा था, वे मानो आज भी बता रहे हैं कि दुर्गादास ने आंखों को नींद और घोड़े को विराम नहीं दिया। वे राजपूतों को संगठित करने में 24 में से अठारह घंटे घोड़े की पीठ पर ही गुजार देते थे। वह भी एक-दो दिन या एक-दो माह नहीं, पूरे 20 वर्षों तक उनके जीवन का ऐसा कठोर क्रम बना रहा। उनका खाना-पीना यहाँ तक कि रोटी बनाना भी कभी-कभी तो घोड़े की पीठ पर बैठे-बैठे ही होता था। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण आज भी जोधपुर के दरबार में लगा वह विशाल चित्र देता है जिसमें दुर्गादास राठौड़ को घोड़े की पीठ पर बैठे एक श्मशान भूमि की जलती चिता पर भाले की नोक से आटे की रोटियाँ सेंकते हुए दिखाया गया है। डा.नारायण सिंह भाटी ने 1972 में मुक्त छंद में राजस्थानी भाषा के प्रथम काव्य "दुर्गादास" नामक पुस्तक में इस घटना का चित्रण इस प्रकार किया है-

तखत औरंग झल आप सिकै,

सूर आसौत सिर सूर सिकै,

चंचला पीठ सिकै पाखरां-पाखरां,

सैला असवारां अन्न सिकै।।


अर्थात् औरंगजेब प्रतिशोध की अग्नि में अंदर जल रहा है। आशकरण शूरवीर पुत्र दुर्गादास का सिर सूर्य से सिक रहा है यानी तप रहा है। घोड़े की पीठ पर निरंतर जीन कसी रहने से घोड़े की पीठ तप रही है। थोड़े से समय के लिए भी जीन उतारकर विश्राम देना संभव नहीं है। न खाना पकाने की फुरसत, न खाना खाने की। घोड़े पर चढ़े हुए ही, भाले की नोक से सवार अपनी क्षुधा की शांति के लिए खाद्य सामग्री सेंक रहे हैं।

प्रतिज्ञा पूरी हुई

ऐसी कठोर ध्येय साधना करने वाले दुर्गादास ने अपना संपूर्ण यौवन लक्ष्य प्राप्ति के लिए समर्पित कर दिया था। अंतत: स्वतंत्रता देवी इस कर्मयोगी पर प्रसन्न हुई। जोधपुर के किले पर फिर केसरिया लहरा उठा था और दुर्गादास ने अपनी चिर प्रतीक्षित प्रतिज्ञा को स्व.महाराजा जसवंत सिंह के एकमात्र पुत्र अजीत सिंह का अपने हाथों से राजतिलक कर पूरा किया था।

दक्षिण में शिवाजी महाराज के पुत्र संभाजी से मिलकर और पंजाब के गुरुओं का आशीर्वाद लेकर संगठित रूप में परकीय सत्ता को उखाड़ फेंकने की योजना थी दुर्गादास की। परंतु औरंगजेब की पौत्री सिफतुन्निसा के प्रेम में पड़कर राजा अजीत सिंह ने अपने ही संरक्षक का निष्कासन करके इतिहास में काला धब्बा लगा दिया। पर धन्य है वीरवर दुर्गादास जिन्होंने उस वक्त भी अजीत सिंह को आशीर्वाद और मंगलकामना करते हुए ही वन की ओर प्रस्थान किया था। उज्जैन में क्षिप्रा के तट पर 22 नवम्बर 1718 को इस महान देशभक्त का निर्वाण हुआ।

दुर्गादास कहीं के राजा या महाराजा नहीं थे परंतु उनके चरित्र की महत्ता इतनी ऊंची उठ गई थी कि वह कितने ही पृथ्वीपालों से भी ऊंचे हो गये और उनका यश तो स्वयं उनसे भी ऊंचा उठ गया था-

धन धरती मरुधरा

धन पीली परभात।

जिण पल दुर्गो जलमियो

धन बा माँ झलरात।।


अर्थात् दुर्गादास तुम्हारे जन्म से मरुधरा धन्य हो गई। वह प्रभात पल धन्य हो गया और वह माँ झल रात भी धन्य हो गई जिस रात्रि में तुमने जन्म लिया।

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

अतीत भुलाना आसान नहीं


अतीत भुलाना आसान नहीं

हरि कृष्ण निगम
नई दिल्ली से प्रकाशित एक प्रतिष्ठित सप्ताहिक ‘इंडिया टुडे’ ने हाल के अंक में कुछ दिनों पहले दिवंगत हुए पुराने कांग्रेसी नेता और मुस्लिम विचारक डा. रफीक जकारिया को उद्धृत करते हुए मोटे अक्षरों में लिखा कि इतिहास में कोई ऐसा साक्ष्य नहीं है कि जो सिद्ध कर सके कि किसी मुस्लिम ने कोई हिन्दू मंदिर तोड़ा हो।

यही बात इतिहासकार डा. इरफान हबीब और रोमिला थापर भी दूसरे संदर्भ में कह चुके हैं। यह भी कहा गया है कि मुस्लिम आक्रमणकारी सिर्फ धन-संपत्ति की लूट के उद्देश्य से आक्रांता के रूप में भारत आते रहे और बस यहीं उनका मन्तव्य था। भारत के पिछले एक हजार साल के इतिहास को झुठलाते हुए हर छोटे-बड़े शहरों के सैकड़ों पुराने भग्नावशेषों को नकारते हुए जिसमें मुस्लिम आक्रमणों के बर्बर ध्वंस की निशानियाँ आज भी मौजूद हैं।

इस तरह की दुष्प्रचारित की जा रही राजनीतिक टिप्पणियाँ हमें अनायास आहत कर आक्रोश से भर सकती है। कभी-कभी लगता है कि हम स्वयं इस बात के गुनाहगार हैं कि अपनी तटस्थता की आड़ में हम ऐसी टिप्पणियों का प्रतिरोध नहीं करते हैं। मेरे विचार में राजनीति प्रेरित दिग्भ्रमित करने वाले ऐसे लेखक इतिहास व पुरातत्व के अनुशासन से गिरकर सिर्फ असत्य के अलावा कुछ नहीं बोल सकते हैं।

कहते हैं कि झुठ की अनेक किस्में होती है– बुरा झूठ, सफेद झूठ, काला झूठ, आकड़ों का झूठ, राजनीतिक झूठ, आदि-आदि। पर यदि अपनें चारों ओर गौर से देखें तो पाएंगे कि एक चौथे प्रकार का झूठ भी होता है जिसकी प्रकृति उपर्युत्त प्रकार के झूठ से कई गुना भयानक होती है। इसे हम गजब का झूठ कह सकते हैं। जहाँ तक देश के इतिहास का संदर्भ है, झूठ बोलना उनकी फितरत में दाखिल है, लगता है, नस-नस में बस गया है।

मुस्लिम शासकों के स्वयं अपने इतिहासकार व वृत्तांत लेखक, मध्य युग में भारत-भ्रमण के लिए आए विदेशी यात्री व स्वयं ब्रिटिश इतिहासकार सभी ने सदियों तक हिंदू मंदिरों के ध्वंस के बारे में जो लिखा है उसके बाद भी विकृत सोच द्वारा जो दुष्प्रचार हमारी पत्र-पत्रिकाओं में फैलाया जा रहा है वह अक्षम्य है। पुराने इतिवृत्त जैसे आज का पूर्वी अफगानिस्तान शैवपंथी था। उत्तरी पूर्वी सीमांत से लगे अनेक देश अपवा जहाँ हमारे मूल देश की सभ्यता की उपशाखाएं विद्यमान थीं उनको कैसे नेस्तनाबूद किया गया, यह भुला भी दिया जाए, पर आज भी देश के दूरदराज के हर कोने में स्वयं आप जाकर भग्न मंदिर या खण्डित मूर्तियां देख सकते हैं। मात्र एक छोटा सा उदाहरण है, चाहे आप जबलपुर के चौसठ योगिनी मंदिर जाएं या भेजपुर का शिव मंदिर अथवा हांपी, आपका हृदय विदीर्ण हुए बिना नहीं रह सकता। सोमनाथ, मथुरा, काशी या अयोध्या की बात ही क्या करना जिसका विनाश इस्लाम के विस्तार के लिए मनोवैज्ञानिक रूप कितना अपरिहार्य था। आज के पलायनवादी, तटस्थ शिक्षित हिन्दू की संवेदनशीलता मरती जा रही है और इसलिए वह इसे समझ नहीं सकता है।

क्या आप इसे घृणित मार्क्सवादी व्याख्या नहीं कहेंगे जिसे बार-बार हमारे अंग्रेजी अखबार प्रचारित करने से नहीं चूकते हैं कि हिन्दू मंदिरों में अपार स्वर्णराशि व सम्पत्ति इकट्ठा कर हिंदुओं ने जो एक अपराध किया था उससे इस्लामी आक्रमणकारियों का आकर्षित होना स्वाभाविक था। पर उसका यह फायदा भी हुआ कि उन्होंने भारतीय समाज में एक क्रांति भी लाई, जो एकात्मवाद को बढ़ावा देने के साथ जाति-व्यवस्था के विरुद्ध भी जनमत तैयार कर सकी।

अत्यंत संक्षेप में, सन् 632 में भारत में इस्लाम के आगमन के बाद से किस तरह हजारों मंदिरों का ध्वंस हुआ इसको आज के मीडिया को साक्ष्यों से परिचित कराना जरूरी है, जिससे वे हमारे ही देश में बहुसंख्यकों को बरगलान सकें। फ्रेंच इतिहासकार एलेन डेनिलू ने लिखा है कि प्रारम्भ से ही इस्लाम का इतिहास भारत के लिए विनाश, रक्तपात, लूट और मंदिरों के विध्वंस के लिए एक भूकंप की तरह सिद्ध हुआ था।

सन 1018 से लेकर सन 1024 तक मथुरा, कन्नौज, कालिंजर और बनारस के साथ-साथ सोमनाथ के मंदिर क्रूरता से नष्ट किए गए। प्रसिद्ध पत्रकार एम. वी. कामथ ने कुछ दिनों पहले 18वीं शताब्दी के एक ब्रिटिश यात्री को उद्धृत करते हुए लिखा कि सूरत से दिल्ली तक के बीच उसने एक भी हिंदू मंदिर नहीं देखा क्योंकि वे सब नष्ट किए जा चुके थे। इस्लामी इतिहासकारों ने सैकड़ों साल पहले गर्व से लिखा है कि सल्लतनत और मुगल शासकों के समय उनकी सरकार का ‘मंदिर तोड़ने का विभाग” कितना कुशलता और दक्षता से यह काम करता था।

सोमनाथ का मंदिर पहली बार महमूद गजनवी द्वारा 1024 में लूटा गया था और शिवलिंग तोड़ डाला गया था। मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार इस विशाल देवालय को नष्ट करने के बाद सोमनाथ के शिवलिंग के टुकड़े गजनी की जुम्मा मस्जिद की सॣढ़ियों में जड़े गए थे जिससे इस्लाम के अनुयाई उन्हें पैरों से रौंदें। वह सन् 1191 का समय था जब मुस्लिम आक्रांता मोहम्मद गोरी मध्य एशिया से अपने तुर्की घुड़सवारों की सेना के साथ भारत आया था। पहले पृथ्वीराज चौहान ने उसे तराईन के पहले युद्ध में मात दी और उसे क्षमादान भी दिया। पर 1192 में उसने पृथ्वीराज को पराजित करने के बाद विशाल लालकोट को कब्जा करने के बाद जलाकर धरती में मिला दिया। आज भी कुव्वतुल इस्लाम भारत की पहली मस्जिद के रूप में खड़ी है जिसे उस समय के 67 हिंदू मंदिरों के पत्थरों और मलवे को प्रयुक्त कर बनाया गया था। इस तरह पहली बार यह आस्था ध्वंस के प्रतीक के रूप में दिल्ली पहुची थी। स्वयं अनेक मुस्लिम इतिहासकारों ने इसका विस्तृत रूप से वर्णन किया है।

“तारीखे-फीरोजशाही” के इतिहासकार के अनुसार सुल्तान अल्तुतमिस (1210-1236) ने अपने मारवाड़ के आक्रमण के दौरान अनेक बड़े मंदिरों की मूर्तियों को लाकर दिल्ली की जामा मस्जिद की सीढ़ियों में चुनवाया था। इसी तरह जलालुद्दीन खिलजी (1290-1296) ने रणथंभौर के आक्रमण के बाद किया था। दो अन्य मुस्लिम इतिहासकारों ने स्वतंत्र रूप से पुष्टि की है कि अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316) हर अभियान के बाद मूर्तियों को दिल्ली लाकर सीढ़ियों पर चुनवाने का एक धार्मिक कृत्य मानता था। बाद तक दर्जनों शासकों ने यह चाहे दिल्ली में हो या बहमनी, मालवा, बरार या दक्षिण के राज्य हों, यही दोहराया। इन अभिलेखित साक्ष्यों के बाद भी यदि आज के कुछ सेकुलर कहलाने वाले दुराग्रही और हठधर्मी इतिहासकार अथवा पत्रकार रट लगाते रहें कि मंदिर कभी ध्वस्त नहीं किए गए, कभी बलात धर्मांतरण नहीं हुआ तो यह मात्र कुटिल मानसिकता ही मानी जा सकती है।

हमारे देश में अपने अतीत के प्रति अधिकांश शिक्षित वर्ग इतना उदासीन है कि विद्रूषीकरण के साथ-साथ घोर सतही और असत्य वक्तव्य भी बिना किसी प्रतिरोध के छापे जा सकते हैं। कदाचित इसीलिए नोबेल पुरस्कार विजेता वी.एस. नागपाल ने कुछ दिनों पहले एक साक्षात्कार में रोमिला थापर को ‘फ्रॉड’ तक कह डाला था।

आज हिंदू हीनताग्रंथिवश अपनी सभ्यता की प्रमुखता को भी अभिव्यक्त करने की स्थिति में नहीं हैं और कदाचित इतिहास की बाध्यताओं व उसके सही अनुशासन को नहीं समझ पाते हैं। उसके मन में कूट-कूटकर भर दिया गया है कि उनका अपना अतीत, आज की नजरों में, सांप्रदायिक इतिहास है।

धर्म और संस्कृति के रक्षक सम्राट कृष्णदेव राय


धर्म और संस्कृति के रक्षक सम्राट कृष्णदेव राय

साकेन्द्र प्रताप वर्मा
माघ शुक्ल चतुर्दशी संवत् 1566 विक्रमी को विजयनगर साम्राज्य के सम्राट कृष्णदेव राय का राज्याभिषेक भारत के इतिहास की एक अद्भुत घटना थी। इस घटना को दक्षिण भारत में स्वर्णिम युग का प्रारम्भ माना जाता है, क्योंकि उन्होंने दक्षिण भारत में बर्बर मुगल सुल्तानों की विस्तारवादी योजना को धूल चटाकर आदर्श हिन्दू साम्राज्य की स्थापना की थी, जो आगे चलकर छत्रपति शिवाजी महाराज के हिन्दवी साम्राज्य का प्रेरणा स्रोत बना।

अद्भुत शौर्य और पराक्रम के प्रतीक सम्राट कृष्ण देव राय का मूल्यांकन करते हुए इतिहासकारों ने लिखा है कि इनके अन्दर हिन्दू जीवन आदर्शों के साथ ही सभी भारतीय सम्राटों के सद्गुणों का समन्वय था। इनके राज्य में विक्रमादित्य जैसी न्याय व्यवस्था थी, चन्द्रगुप्त और सम्राट अशोक जैसी सुदृढ़ शासन व्यवस्था तथा श्रृंगेरी मठ के शंकराचार्य महान संत विद्यारण्य स्वामी की आकांक्षाओं एवं आचार्य चाणक्य के नीतिगत तत्वों का समावेश था। इसीलिए उनके सम्बन्ध में बाबर ने बाबरनामा में लिखा था कि काफिरों के राज्य विस्तार और सेना की ताकत की दृष्टि से विजयनगर साम्राज्य ही सबसे विशाल है। दक्षिण भारत में कृष्णदेव राय और उत्तर भारत में राणा सांगा ही दो बड़े काफिर राजा हैं।

वैसे तो सन् 1510 ई. में सम्राट कृष्णदेव राय का राज्याभिषेक विजयनगर साम्राज्य के लिए एक नये जीवन का प्रारम्भ था किन्तु इसका उद्भव तो सन् 1336 ई. में ही हुआ था। कहते हैं कि विजय नगर साम्राज्य के प्रथम शासक हरिहर तथा उनके भाई बुक्काराय भगवान श्रीकृष्ण के भक्त थे और उन्हीं की प्रेरणा से अधर्म का विनाश और धर्म की स्थापना करना चाहते थे। हरिहर एक बार शिकार के लिए तुंगभद्रा नदी के तट पर स्थित वन क्षेत्र में गये, उनके साथ के शिकारी कुत्तों ने एक हिरन को दौड़ाया किन्तु हिरन ने डर कर भागने के बजाय शिकारी कुत्तों को ही पलट कर दौड़ा लिया। यह घटना बहुत ही विचित्र थी। घटना के बाद अचानक एक दिन हरिहर राय की भेंट महान संत स्वामी विधारण्य से हुयी और उन्होंने पूरा वृत्तान्त स्वामी जी को सुनाया। इस पर संत ने कहा कि यह भूमि शत्रु द्वारा अविजित और सर्वाधिक शक्तिशाली होगी। सन्त विधारण्य ने उस भूमि को बसाने और स्वयं भी वहीं रहने का निर्णय किया। यही स्थान विकसित होकर विजयनगर कहा गया।

वास्तव में दक्षिण भारत के हिन्दु राजाओं की आपसी कटुता, अलाउद्दीन खिलजी के विस्तारवादी अभियानों तथा मोहम्मद तुगलक द्वारा भारत की राजधानी देवगिरि में बनाने के फैसलों ने स्वामी विद्यारण्य के हिन्दू ह्रदय को झकझोर दिया था, इसीलिए वे स्वयं एक शक्तिपीठ स्थापित करना चाहते थे। हरिहर राय के प्रयासों से विजयनगर राज्य बना और जिस प्रकार चन्द्रगुप्त के प्रधानमंत्री आचार्य चाणक्य थे, उसी प्रकार विजयनगर साम्राज्य के महामंत्री संत विद्यारण्य स्वामी और प्रथम शासक बने हरिहर राय। धीरे-धीरे हरिहर राय प्रथम का शासन कृष्णानदी के दक्षिण में भारत की अन्तिम सीमा तक फैल गया। शासक बदलते गये और हरिहर प्रथम के बाद बुक्काराय, हरिहर द्वितीय, देवराय प्रथम, देवराय द्वितीय, मल्लिकार्जुन और विरूपाक्ष के हाथों में शासन की बागडोर आयी, किन्तु दिल्ली सल्तनत से अलग होकर स्थापित बहमनी राज्य के मुगलशासकों से लगातार सीमाविस्तार हेतु संर्घष होता रहा। जिसमें विजयनगर साम्राज्य की सीमाऐं संकुचित हो गयीं।

1485ई. में कर्नाटक व तेलंगाना के सामंत सलुवा नरसिंहा ने बहमनी सुल्तानों को भी पराजित करके विजयनगर साम्राज्य को नरसिंहा साम्राज्य में बदल दिया। इसके बाद ऐसा लगाकि अब विजयनगर साम्राज्य इतिहास में समाहित हो जायेगा। परन्तु 1510 ई. में इसका पुन: अभ्युदय प्रारम्भ हुआ और 20 वर्ष की अल्पआयु में कृष्णदेव राय का राज्याभिषेक हुआ।

इस राज्याभिषेक के समय पुर्तगालियों ने गोवा में अपना व्यापार सुरक्षित रखने के लिए बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह पर आक्रमण करके गोवा पर विजय प्राप्त कर ली, किन्तु सम्राट कृष्णदेव राय ने अपनी कूटनीतिक चालों से मुगलिया सल्तनत के प्रतिनिधि आदिलशाह और पुर्तगालियों के मध्य युद्व की आग को हवा देने का काम करने का सतत प्रयास किया। वैसे पुर्तगाली गवर्नर सम्राट कृष्णदेव राय को दक्षिण का राजा मानता था। अपने राज्याभिषेक के साथ ही सम्राट कृष्णदेव राय ने अपना विजय अभियान भी प्रारम्भ कर दिया। सन् 1516 तक उड़ीसा के कई किलों पर विजय प्राप्त कर ली और उड़ीसा के राजा की पुत्री से विवाह करके मित्रता भी स्थापित की। इसी के साथ ही सम्राट कृष्णदेव राय ने पूर्वी प्रदेशों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। गोलकुंडा के सुल्तान कुली का मुकाबला करने के लिए वहां के सभी हिन्दू राजाओं को एकत्र किया क्योंकि सुल्तान कुली ने दक्षिण के छाटे-छोटे राज्यों पर आधिपत्य कर रखा था। इतिहासकार बताते हैं कि यह संघर्ष लगभन ढाई दशक तक चला। सन् 1534 में सुल्तान कुली बुरी तरह से घायल हो गया तथा चेचक के प्रभाव से शरीर भी विकृत हो गया।

राज्याभिषेक वर्ष के बाद रायचूर का संघर्ष सम्राट कृष्णदेव राय के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण संघर्ष था। रायचूर एक सुरक्षित नगर था। जिसमें एक सुदृढ़ किला भी था, इसको जीतने की तीव्र ऊच्छा विजयनगर के पूर्व शासक नरसिंहा के मन में थी क्योंकि यह किला आदिलशाह ने नरसिंहा के पूर्व शासकों से छीन लिया था। वस्तुत: सम्राट कृष्ण देव राय की दृष्टि रायचूर के किले के साथ-साथ मुगल साम्राज्य को उखाड़ फेंकने पर भी थी।

सम्राट कृष्णदेव राय घोड़ों के बहुत शौकीन थे। उन्होंने सीड़े मरकर नामक एक मुगल को चालीस हजार सिक्के देकर गोवा के पोंड़ा में मुगलों से घोड़े खरीदने के लिए भेजा, किन्तु उस मुगल ने विश्वासघात किया और पोंड़ा के मुगलों के साथ सिक्के और घोड़े लेकर आदिलशाह के राज्यक्षेत्र में भाग गया। दोनों राज्यों की चालीस साल पुरानी संधि के आधार पर दूसरे राज्य के अपराधी को संरक्षण देना संधि का उल्लंघन था, अत: सम्राट कृष्णदेव राय ने आदिलशाह को पत्र लिखकर बताया कि सीडेमरकर को धन सहित तुरंत विजयनगर साम्राज्य को सौंप दिया जाय, अन्यथा परिणाम भयानक होगा। आदिलशाह ने अहंकार के कारण उस मुगल अपराधी को विजय नगर भेजनेके बजाय सम्राट को पत्र लिखा कि काजी की सलाह के अनुसार सीड़ेमरकर पैगम्बर के वेश का प्रतिनिधि और कानून का ज्ञाता है, अत: उसे विजयनगर को नहीं सौंपा जा सकता।

इस हठवादिता के विरूद्व सम्राट कृष्णदेव राय ने 7,36,000 सैनिकों की विशाल सेना के साथ रायचूर पर धावा बोल दिया। कूटनीतिक तरीके से बरार, बीदर और गोलकुंडा के सुल्तानों को उन्होंने आदिलशाह के पक्ष में न बोलने के लिए भी तैयार कर लिया। इन सुल्तानों को पता था कि यदि हमने आदिलशाह की मदद की तो सम्राट कृष्णदेव के कोप से हमें भी जूझना पड़ेगा। परिणामत: ये सभी आदिलशाह के सहयोग में नहीं खड़े हुए जबकि सभी हिन्दू राजाओं को उन्होंने कृष्णा नदी के तट पर एक जुट करके बीजापुर की आदिलशाही सेना पर आक्रमण कर दिया। भयभीत होकर आदिलशाह युद्व के मैदान से भाग गया तथा सम्राट कृष्णदेवराय की विजय हुयी।

सम्राट कृष्णदेव राय ने इस सफलता पर विजयनगर में शानदार उत्सव का आयोजन किया, जिसमें मुगल शासकों ने अपने दूत भेजे, जिनको सम्राट कृष्णदेव राय ने कड़ी फटकार लगाई। यहां तक कि आदिलशाह के दूत से उन्होंने कहा कि आदिलशाह स्वयं यहां आकर मेरे चरणों का चुम्बन करे और अपनी भूमि तथा किले हमें समर्पित करे तब हम उसे क्षमा कर सकते हैं।

वीरता के साथ-साथ विजयनगर का साम्राज्य शासन व्यवस्था के आधार पर विश्व में अतुलनीय था। सुन्दर नगर रचना और सभी को शांतिपूर्वक जीवन यापन करने की सुविधा यहां की विशिष्टता में चार चांद लगाती थी। जाति और पूजा पद्वति के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था। यहां पर राजा को धर्म, गौ एवं प्रजा का पालक माना जाता था। सम्राट कृष्णदेव राय की मान्यता थी कि शत्रुओं को शक्ति के आधार पर कुचल देना चाहिए, और ऐसा ही उन्होंने व्यवहार में भी दिखाया। विजयनगर साम्राज्य के सद्गुणों की स्पष्ट झलक उनके दरबार के प्रसिद्व विद्वान तेनाली राम के अनेक दृष्टान्तों से मिलती है, जो आज भी भारत में बच्चों के अन्दर नीति और सद्गुणों के विकास के लिए सुनाये जाते हैं।

सम्राट कृष्णदेवराय के शासन में कौटिल्य के अर्थशास्त्र को आर्थिक विकास का आधार माना गया था, जिसके फलस्वरूप वहां की कृषि ही जनता की आय का मुख्य साधन बन गयी थी। इनकी न्याय प्रियता पूरे भारत में प्रसिद्व थी। लगभग 10 लाख की सैन्य शक्ति, जिसमें 32 हजार घुड़सवार तथा एक छोटा तोप खाना और हाथी भी थे, वहां की सैनिक सुदृढ़ता को प्रकट करता था।

विजयनगर साम्राज्य अपनी आदर्श हिन्दू जीवन शैली के लिए विश्व-विख्यात था, जहां के महाराजा कृष्णदेव राय वैष्णव होने के बावजूद भी जैन, बौद्व, शैव, लिंगायत जैसे भारतीय पंथों ही नहीं ईसाई ,यहूदी और मुसलमानों जैसे अभारतीय पंथों को भी पूरी धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करते थे। ऐसे सर्वव्यापी दृष्टिकोण का परिणाम था कि ई. 1336में स्थापित विजयनगर साम्राज्य हिन्दू और मुसलमान या ईसाईयों के पारस्परिक सौहार्द तथा समास और समन्वित हिन्दू जीवन शैली का परिचायक बना जबकि इससे दस वर्ष बाद अर्थात 1347 ई. में स्थापित बहमनी राज्य हिन्दुओं के प्रति कटुता, विद्वेष और बर्बरता का प्रतीक बना।

पन्द्रहवीं शताब्दी में विजय नगर साम्राज्य का वर्णन करते हुए इटली के यात्री निकोलो कोंटी ने लिखा था कि यह राज्य भारत का सबसे शक्तिशाली राज्य है, इसके राजकोष में पिघला हुआ सोना गङ्ढों में भर दिया जाता है तथा देश की सभी अमीर गरीब जातियों के लोग स्वर्ण आभूषण पहनते हैं।

सोलहवीं शताब्दी में पुर्तगाली यात्री पेइज ने यहां की समृद्वि का वर्णन करते हुए लिखा था कि यहां के राजा के पास असंख्य सैनिकों की शक्ति, प्रचुर मात्रा में हीरे जवाहरात, अन्न के भंडार तथा व्यापारिक क्षमता के साथ-साथ अतुलनीय कोष भी हैं। एक और पुर्तगाली यात्री न्यूनिज ने भी इसी बात की पुष्टि करते हुए लिखा है कि विजयनगर में विश्व की सर्वाधिक प्रसिद्व हीरे की खानें, यहां की समृद्वि को प्रकट करती हैं।

सैनिक और आर्थिक ताकत के अतिरिक्त सम्राट कृष्णदेव राय उच्चकोटि के विद्वान भी थे। संस्कृत, कन्नड़, तेलगू तथा तमिल भाषाओं को प्रोत्साहन देने के साथ ही उन्होंने अपने साम्राज्य में कला और संस्कृति का पर्याप्त विकास किया। उन्होंने कृष्णा स्वामी, रामा स्वामी तथा विट्ठल स्वामी जैसे भव्य मंदिरों का निर्माण कराया तथा संत स्वामी विद्यारण्य की स्मृति में बने हम्पी मंदिर का विकास भी कराया। संत विद्यारण्य स्वामी साधारण संत नहीं थे। उन्होंने मां भुवनेश्वरी देवी के श्री चरणों में बैठ कर गहरी अनुभूति प्राप्त की थी तथा स्वामी भारतीकृष्ण तीर्थ जी महाराज के शिष्य के रूप में श्रृंगेरी मठ के शंकराचार्य के पद को सुशोभित किया था। विजयनगर साम्राज्य के इस कुशल योजनाकार ने 118 वर्ष की आयु में जब अपना जीवन त्याग दिया तो कर्नाटक की जनता ने पम्पा क्षेत्र(हम्पी) के विरूपाक्ष मंदिर में इस महान तपस्वी की भव्य प्रतिमा की स्थापना की, जो आज भी भक्तों के लिए पेरणा स्रोत है। विजयनगर साम्राज्य को विश्व में आदर्श हिन्दू राज्य के रूप में मानने के पीछे सम्राट कृष्णदेव राय का प्रेरणादायी व्यक्तित्व अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
(29 जनवरी 2010, माघ शुक्ल चतुर्दशी, विक्रमी संवत् 2066, को सम्राट कृष्णदेव राय के राज्याभिषेक की पंचशताब्दिक वर्षगांठ के अवसर पर प्रस्तुत लेख)

हिंदुस्तान की महान विरासत का उत्सव - महाराजा कृष्णदेव राय के राज्याभिषेक का ५००वां वर्ष


हिंदुस्तान की महान विरासत का उत्सव - महाराजा कृष्णदेव राय के राज्याभिषेक का ५००वां वर्ष

विजयनगर साम्राज्य एवं महाराजा कृष्णदेव राय के 500वें राज्याभिषेक का यह शुभ वर्ष है। कर्नाटक में इसे समारोह के रूप में मनाया जा रहा है। उनके बारे में सोलहवीं शताब्दी में भारत की यात्रा पर आए एक पुर्तगाली यात्री डॉमिंगोज पेस ने लिखा था कि वह सर्वश्रेष्ठ राजा और महान शासक के साथ ही एक सच्चे न्याय-पुरुष भी थे। वह 1510 ई. में विजयनगर की गद्दी पर बैठे थे और चालीस वर्ष की उम्र में किसी अज्ञात बीमारी से उनकी मृत्यु हो गई थी।

उनके गद्दी पर बैठने के लगभग आधी सहस्राब्दि के बाद उनके राज्याभिषेक का उत्सव मनाया जा रहा है। वे महान योद्धा थे, लेकिन एक योग्य प्रशासक, सहिष्णु राजनीतिज्ञ और कलाओं के महान संरक्षक भी थे। 20 साल की अवधि में कृष्णदेव राय ने विजयनगर को एक विशालकाय साम्राज्य में तब्दील कर दिया था। उनके राज्य की राजधानी और अब विश्व की विरासतों में से एक हम्पी में कृष्णदेव राय की महानता घुली-मिली है। वस्तुत: लगातार हम्पी की तुलना अब रोम से की जाती है।

उनके समय में दक्षिण भारत की कला और स्थापत्य अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गया था। वास्तव में यहां के मिले-जुले स्थापत्य में हिंदू और इस्लामिक, दोनों ही कलाओं के तत्व मिलते हैं। हम्पी के लोटस महल में इस कला के दर्शन किए जा सकते हैं। भले ही कर्नाटक ने उनके राज्याभिषेक के ५००वें वर्ष को समारोह के रुप में मनाने की पहल की हो, लेकिन उनकी कभी न खत्म होने वाली महानता के दर्शन आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु में आज भी किए जा सकते हैं।

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

थोड़ा-सा रो देना

जब माँ का "कलेजा" कटकर अलग हो जाए, थोड़ा-सा रो देना !
जब मातृभूमि-रक्षण विफल हो जाए, थोड़ा-सा रो देना !

जब "कश्यप-तपोभूमि" पर तिरंग-भस्म हो जाए, थोड़ा-सा रो देना !
जब "स्व-धरा" पर विदेशी ध्वज-लग्न हो जाए, थोड़ा-सा रो देना !

जब भारत-भूमि का "मुकुट"-पतन हो जाए, थोड़ा-सा रो देना !
जब सन संतालिस (1947) कल हो जाए, थोड़ा-सा रो देना !

वह खून कहो किस मतलब का

वह खून कहो किस मतलब का
जिसमें उबाल का नाम नहीं।
वह खून कहो किस मतलब का
आ सके देश के काम नहीं।

वह खून कहो किस मतलब का
जिसमें जीवन, न रवानी है!
जो परवश होकर बहता है,
वह खून नहीं, पानी है!

उस दिन लोगों ने सही-सही
खूँ की कीमत पहचानी थी।
जिस दिन सुभाष ने बर्मा में

मॉंगी उनसे कुरबानी थी।

बोले, "स्वतंत्रता की खातिर
बलिदान तुम्हें करना होगा।
तुम बहुत जी चुके हो जग में,
लेकिन आगे मरना होगा।

आज़ादी के चरणों में जो,
जयमाल चढ़ाई जाएगी।
वह सुनो, तुम्हारे शीशों के
फूलों से गूँथी जाएगी।

आजादी का संग्राम कहीं
पैसे पर खेला जाता है?
यह शीश कटाने का सौदा
नंगे सर झेला जाता है"

यूँ कहते-कहते वक्ता की
आंखों में खून उतर आया!
मुख रक्त-वर्ण हो दमक उठा
दमकी उनकी रक्तिम काया!

आजानु-बाहु ऊँची करके,
वे बोले, "रक्त मुझे देना।
इसके बदले भारत की
आज़ादी तुम मुझसे लेना।"

हो गई सभा में उथल-पुथल,
सीने में दिल न समाते थे।
स्वर इनकलाब के नारों के
कोसों तक छाए जाते थे।

“हम देंगे-देंगे खून”
शब्द बस यही सुनाई देते थे।
रण में जाने को युवक खड़े
तैयार दिखाई देते थे।

बोले सुभाष, "इस तरह नहीं,
बातों से मतलब सरता है।
लो, यह कागज़, है कौन यहॉं
आकर हस्ताक्षर करता है?

इसको भरनेवाले जन को
सर्वस्व-समर्पण काना है।
अपना तन-मन-धन-जन-जीवन
माता को अर्पण करना है।

पर यह साधारण पत्र नहीं,
आज़ादी का परवाना है।
इस पर तुमको अपने तन का
कुछ उज्जवल रक्त गिराना है!

वह आगे आए जिसके तन में
खून भारतीय बहता हो।
वह आगे आए जो अपने को
हिंदुस्तानी कहता हो!

वह आगे आए, जो इस पर
खूनी हस्ताक्षर करता हो!
मैं कफ़न बढ़ाता हूँ,
आएजो इसको हँसकर लेता हो!"

सारी जनता हुंकार उठी-
हम आते हैं, हम आते हैं!
माता के चरणों में यह लो,
हम अपना रक्त चढाते हैं!

साहस से बढ़े युबक उस दिन,
देखा, बढ़ते ही आते थे!
चाकू-छुरी कटारियों से,
वे अपना रक्त गिराते थे!

फिर उस रक्त की स्याही में,
वे अपनी कलम डुबाते थे!
आज़ादी के परवाने पर
हस्ताक्षर करते जाते थे!

उस दिन तारों ने देखा था
हिंदुस्तानी विश्वास नया।
जब लिक्खा महा रणवीरों ने
ख़ूँ से अपना इतिहास नया।

भगवा आतंकवाद !

शीश शिखा होने से पक्का हिन्दु था ही,
मैंने भगवा ओढ़ लिया, मैं आतंकी हूँ।

आतंकी है भोर, है गोधूलि आतंकी
वह्नि की ज्वाला है दीपशिखा आतंकी
आतंकी है यज्ञ वेदमन्त्र आतंकी
आतंकी यजमान पुरोहित भी आतंकी
मैं इन सब का आदर करता पूज्य मानता
इन्हें, अत: मैं मान रहा मैं आतंकी हूँ।
मैंने भगवा ओढ़ लिया, मैं आतंकी हूँ।

आतंकी है राम और कृष्ण आतंकी
विश्वामित्र वसिष्ठ द्रोण कृप हैं आतंकी
बृहस्पति भृगु देवर्षि नारद आतंकी
व्यास पराशर कुशिक भरद्वाज आतंकी
मेरे ये इतिहास पुरुष पितृ ये मेरे
वंशज इनका होने से मैं आतंकी हूँ।
मैंने भगवा ओढ़ लिया, मैं आतंकी हूँ।

नामदेव नानक और दयानन्द आतंकी
रामदास (समर्थ) विवेकानन्द आतंकी
आदिशंकराचार्य रामकृष्ण आतंकी
गौतम कपिल कणाद याज्ञवल्क्य आतंकी
ये मेरे आदर्श सदा सर्वदा रहे हैं
इसीलिए मैं कहता हूँ मैं आतंकी हूँ।
मैंने भगवा ओढ़ लिया, मैं आतंकी हूँ।

भगवा तो भारत की है पहचान कहाता
प्रिय तिरंगा भी भगवा से शोभा पाता
भारतमाता के कर में भगवा फहराता
भारत की अस्मिता से है भगवा का नाता
बोध यदि भगवा का उग्रवाद से हो तो
अच्छा यही कि सब बोलें मैं आतंकी हूँ।
मैंने भगवा ओढ़ लिया, मैं आतंकी हूँ।

मैंने भगवा ओढ़ लिया, मैं आतंकी हूँ।

मैंने भगवा ओढ़ लिया, मैं आतंकी हूँ।

कितना रक्त बहाना होगा,अपनी ही इस धरती पर

कितना रक्त बहाना होगा,अपनी ही इस धरती पर
कितने मंदिर फिर टूटेंगे,अपने इस भारत भू पर
उदासीन बनकर क़ब तक हम,खुद का शोषण देखेंगे
क़ब तक गजनी-बाबर मिलकर भारत माँ को लूटेंगे

क़ब तक जयचंदों के सह पर,गौरी भारत आएगा
रौंद हमारी मातृभूमि को,नंगा नाच दिखायेगा
कब तक कितनी पद्मिनी, अग्नि कुंद में जाएंगी
अपना मान बचने हेतु,क़ब तक अश्रु बहायेंगी
क़ब तक काशी और अयोध्या,हम सब को धिक्कारेंगे
क़ब तक सोमनाथ और मथुरा की छाती पर,गजनी खंजर मारेंगे
कितनी नालान्दाओं में खिलजी,वेद पुराण जलाएंगे
कितना देखेंगे हम तांडव,क़ब तक शीश कटायेंगे

बनायेंगे मंदिर,कसम तुम्हारी राम.....

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

तोजो इंटरनेशनल की मदद से सामने आ सकता है मक्का का सच


अयोध्या प्रकरण पर प्रयाग उच्च न्यायालय की विशेष पीठ द्वारा 30 सितम्बर को दिये गये निर्णय पर अपने-अपने चश्मे के अनुसार विभिन्न दल, समाचार पत्र, पत्रिकाएं तथा दूरदर्शन वाहिनियां बोल व लिख रही हैं। इस निर्णय में मुख्य भूमिका भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग और उसकी उत्खनन इकाई ने निभाई है।

1992 में बाबरी ढांचे के विध्वंस के बाद 1993 में तत्कालीन राष्ट्रपति डा. शंकरदयाल शर्मा ने सर्वोंच्च न्यायालय से यह पूछा था कि क्या तथाकथित बाबरी मस्जिद किसी खाली जगह पर बनायी गयी थी या उससे पूर्व वहां पर कोई अन्य भवन था ? इस प्रश्न पर ही यह सारा मुकदमा केन्द्रित था।

सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रश्न से बचते हुए अपनी बला प्रयाग उच्च न्यायालय के सिर डाल दी। उच्च न्यायालय ने इसके लिए तीन न्यायाधीशों की विशेष पीठ बनाकर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का सहयोग मांगा। पुरातत्व विभाग ने कनाडा के विशेषज्ञों के नेतृत्व में तोजो इंटरनेशनल कंपनी की सहायता ली। उसने राडार सर्वे से भूमि के सौ मीटर नीचे तक के चित्र खींचे। इनसे स्पष्ट हो गया कि वहां पर अनेक फर्श, खम्भे तथा मूर्तियां आदि विद्यमान हैं।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इसके बाद वहां कुछ स्थानों पर खुदाई करायी। इससे भी वहां कई परतों में स्थित मंदिर के अवशेषों की पुष्टि हो गयी। इस रिपोर्ट के आधार पर तीनों माननीय न्यायाधीशों ने एकमत से यह कहा कि वहां पहले से कोई हिन्दू भवन अवश्य था। अर्थात राष्ट्रपति जी के प्रश्न का स्पष्ट और निर्विवाद उत्तर प्राप्त हो गया।

इसके साथ मुकदमे में जो सौ से अधिक प्रश्न और उभरे, अधिकांश विद्वानों का मानना है कि उन पर तीनों न्यायाधीशों ने अपनी वैचारिक, राजनीतिक तथा मजहबी पृष्ठभूमि के आधार पर निर्णय दिया है।

इसके बाद भी रूस, चीन तथा अरब देशों के हाथों बिके हुए विचारशून्य वामपंथी लेखक फिर उन्हीं गड़े मुर्दों को उखाड़ रहे हैं कि वहां पशुओं की हड्डियां मिली हैं और चूना-सुर्खी का प्रयोग हुआ है, जो इस्लामी काल के निर्माण को दर्शाता है; पर वे उन मूर्तियों तथा शिलालेखों को प्रमाण नहीं मानते, जो छह दिसम्बर, 92 की कारसेवा में प्राप्त हुए थे। उनका कहना है कि उन्हें कारसेवकों ने कहीं बाहर से लाकर वहां रखा है।

इन अक्ल के दुश्मनों से कोई पूछे कि बाबरी ढांचा इस्लामी नहीं तो क्या हिन्दू निर्माण था ? सभी विद्वान, इतिहास तथा पुरातत्व की रिपोर्ट पहले से ही इसे कह रहे थे और अब तो तीनों न्यायाधीशों ने भी इसे मान लिया है; पर जो बुद्धिमानों की बात मान ले, वह वामपंथी कैसा ? चूना-सुर्खी का प्रयोग भारत के लाखों भवनों में हुआ है। सीमेंट तथा सरिये से पहले निर्माण में चूना-सुर्खी का व्यापक प्रयोग होता था। इस आधार पर तो पांच-सात सौ वर्ष पुराने हर भवन को इस्लामी भवन मान लिया जाए ?

जहां तक छह दिसम्बर की बात है, तो उस दिन दुनिया भर का मीडिया वहां उपस्थित था। क्या किसी चित्रकार के पास ऐसा कोई चित्र है, जिसमें कारसेवक बाहर से लाकर मूर्तियां या शिलालेख वहां रखते दिखाई दे रहे हों ? इसके विपरीत प्रायः हर चित्रकार के पास ऐसे चलचित्र (वीडियो) हैं, जिसमें वे शिलालेख और मूर्तियां ढांचे से प्राप्त होते तथा कारसेवक उन्हें एक स्थान पर रखते दिखाई दे रहे हैं। हजारों चित्रकारों के कैमरों में उपलब्ध चित्रों से बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है ?

न्यायालय के मोर्चे पर पिटने के बाद अब वामपंथी इस बात को सिर उठाये घूम रहे हैं कि प्रमाणों के ऊपर आस्था को महत्व दिया गया है, जो ठीक नहीं है और इससे भविष्य में कई समस्याएं खड़ी हो जाएंगी, जबकि सत्य तो यह है कि न्यायालय ने पुरातत्व के प्रमाणों को ही अपने निर्णय का मुख्य आधार बनाया है।

इस निर्णय से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग और तोजो इंटरनेशनल के प्रति दुनिया भर में विश्वास जगा है। भारत में हजारों ऐसी मस्जिद, मजार और दरगाह हैं, जो पहले हिन्दू मंदिर या भवन थे। भारतीय इतिहास ग्रन्थों में इनका स्पष्ट उल्लेख है। लोकगीतों में भी ये प्रसंग तथा इनकी रक्षा के लिए बलिदान हुए हिन्दू वीरों की कथाएं जीवित हैं। यद्यपि अपने स्वभाव के अनुसार वामपंथी इसे नहीं मानते।

क्या ही अच्छा हो यदि ऐसे कुछ भवनों की जांच इन दोनों संस्थाओं से करा ली जाए। काशी विश्वनाथ और श्रीकृष्ण जन्मभूमि, मथुरा की मस्जिदें तो अंधों को भी दिखाई देती हैं। फिर भी उनके नीचे के चित्र लिये जा सकते हैं। दिल्ली की कुतुब मीनार, आगरा का ताजमहल, फतेहपुर सीकरी, भोजशाला (धार, म0प्र0), नुंद ऋषि की समाधि (चरारे शरीफ, कश्मीर), टीले वाली मस्जिद, (लक्ष्मण टीला, लखनऊ), ढाई दिन का झोपड़ा (जयपुर) आदि की जांच से सत्य एक बार फिर सामने आ जाएगा।

मुसलमानों के सर्वोच्च तीर्थ मक्का के बारे में कहते हैं कि वह मक्केश्वर महादेव का मंदिर था। वहां काले पत्थर का विशाल शिवलिंग था, जो खंडित अवस्था में अब भी वहां है। हज के समय संगे अस्वद (संग अर्थात पत्थर, अस्वद अर्थात अश्वेत अर्थात काला) कहकर मुसलमान उसे ही पूजते और चूमते हैं। इसके बारे में प्रसिद्ध इतिहासकार स्व0 पी.एन.ओक ने अपनी पुस्तक ‘वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास’ में बहुत विस्तार से लिखा है।

अरब देशों में इस्लाम से पहले शैव मत ही प्रचलित था। इस्लाम के पैगम्बर मोहम्मद के चाचा उम्र बिन हश्शाम द्वारा रचित शिव स्तुतियां श्री लक्ष्मीनारायण (बिड़ला) मंदिर, दिल्ली की ‘गीता वाटिका’ में दीवारों पर उत्कीर्ण हैं। क्या ही अच्छा हो कि मक्का के वर्तमान भवन के चित्र भी तोजो इंटरनेशनल द्वारा खिंचवा लिये जाएं। राडार एवं उपग्रह सर्वेक्षण से सत्य प्रकट हो जाएगा।

क्या स्वयं को दुनिया का सबसे बड़ा बुद्धिवादी मानने वाले वामपंथी तथा प्रयाग उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद छाती पीट रहे मजहबी नेता इस बात का समर्थन करेंगे ?

आद्य सरसंघचालक डा0 हेडगेवार के जन्मदिवस


प्रायः ऐसा कहा जाता है कि कि संघ एक विकासशील संगठन है। केवल शाखा या विविध कार्य ही नहीं, तो अनेक परम्पराएं भी स्वयं विकसित होती चलती हैं। पारिवारिक संगठन होने के कारण यहां हर काम के लिए संविधान नहीं देखना पड़ता। बाहर से देखने वाले को शायद यह अजीब लगता हो; पर जो लोग संघ और उसकी कार्यप्रणाली को लम्बे समय से देख रहे हैं, वे इसकी वास्तविकता से परिचित हैं। उनके लिए यह सामान्य बात है।

यदि हम सरसंघचालक परम्परा को देखें, तो परम पूजनीय डाक्टर हेडगेवार को उनके सहयोगियों ने बिना उनकी जानकारी के सरसंघचालक बनाया। डा0 जी ने इस अवसर पर कहा कि आपके आदेश का पालन करते हुए मैं यह जिम्मेदारी ले रहा हूं; पर जैसे ही मुझसे योग्य कोई व्यक्ति आपको मिले, आप उसे यह दायित्व दे देना। मैं एक सामान्य स्वयंसेवक की तरह उनके साथ काम करूंगा। जब डाक्टर जी का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया, तो उन्होंने अपने सहयोगियों से परामर्श कर अपने लंबर-पंचर अ१परेशन से पूर्व सबके सामने ही श्री गुरुजी को बता दिया कि मेरे बाद आपको संघ का काम संभालना है। इस प्रकार संघ को द्वितीय सरसंघचालक की प्राप्ति हुई।

जब श्री गुरुजी को लगा कि अब यह शरीर लम्बे समय तक साथ नहीं दे पाएगा, तो उन्होंने भी अपने सहयोगी कार्यकर्ताओं से परामर्श किया और एक पत्र द्वारा श्री बालासाहब देवरस को नवीन सरसंघचालक घोषित किया। वह पत्र उनके देहांत के बाद खोला गया था। बालासाहब ने श्री गुरुजी के देहांत के बाद यह जिम्मेदारी संभाली, इससे लोगों के मन में यह धारणा बनी कि यह जिम्मेदारी आजीवन होती है तथा पूर्व सरसंघचालक अपनी इच्छानुसार किसी को भी यह दायित्व दे सकते हैं। संघ विरोधी इसे एक गुप्त संगठन तो कहते ही थे; पर अब उन्होंने इसे अलोकतांत्रिक भी मान लिया।

पुरानी नींव, नया निर्माण

श्री बालासाहब देवरस ने अपने पूर्व के दोनों सरसंघचालकों द्वारा अपनायी गयी विधि से हटकर नये सरसंघचालक की नियुक्ति की। उन्होंने स्वास्थ्य बहुत खराब होने पर अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में सब प्रतिनिधियों के सम्मुख श्री रज्जू भैया को नया सरसंघचालक घोषित किया। मा0 रज्जू भैया और फिर श्री सुदर्शन जी ने भी इसी विधि का पालन किया। इस प्रकार संघ में एक नयी परम्परा विकसित हुई।

इस घटनाक्रम को एक और दृष्टिकोण से देखें। जब बालासाहब ने दायित्व से मुक्ति ली, तब उनका स्वास्थ्य बहुत खराब था। वे पहिया कुर्सी पर ही चल पाते थे। मुंह में बार-बार थूक भर जाता था, अतः बोलने में भी उनको बहुत कठिनाई होती थी। उनके लिखित संदेश ही सब कार्यक्रमों में सुनाए जाते थे। अपनी दैनिक क्रियाएं भी वे किसी के सहयोग से ही कर पाते थे। इस कारण उनकी दायित्व मुक्ति को सबने सहजता ने लिया।

दूसरी ओर रज्जू भैया ने जब कार्यभार छोड़ा, तो वे पूर्ण स्वस्थ तो नहीं; पर प्रवास करने योग्य थे। सार्वजनिक रूप से मंच पर बोलने में उन्हें भी कठिनाई होती थी; पर व्यक्तिगत वार्ता वे सहजता से करते थे। दायित्व से मुक्त होकर भी उन्होंने अनेक प्रान्तों का प्रवास किया। अर्थात यदि वे चाहते, तो दो-तीन वर्ष और इस जिम्मेदारी को निभा सकते थे; पर उन्होंने उपयुक्त व्यक्ति पाकर यह कार्यभार छोड़ दिया।

जहां तक पांचवे सरसंघचालक श्री सुदर्शन जी की बात है, दायित्व मुक्ति तक वे काफी स्वस्थ थे। प्रवास के साथ-साथ सार्वजनिक रूप से बोलने में उन्हें कुछ कठिनाई नहीं थी। फिर भी जब उन्हें लगा कि श्री मोहन भागवत के रूप में एक सुयोग्य एवं ऊर्जावान कार्यकर्ता सामने है, तो उन्होंने भी जिम्मेदारी छोड़ दी। स्पष्ट है कि उन्होंने वही किया, जो आद्य सरसंघचालक डा0 हेडगेवार ने पदभार स्वीकार करते समय कहा था कि जब भी मुझसे अधिक योग्य कार्यकर्ता आपको मिले, आप उसे सरसंघचालक बना दें। मैं उनके निर्देश के अनुसार काम करूंगा। यह है एक परम्परा में विश्वास और दूसरी परम्परा का विकास। पुरानी नींव पर नये निर्माण का इससे अधिक सुंदर उदाहरण और क्या होगा ?

विशिष्ट से सामान्य की ओर

एक अन्य दृष्टि से विचार करें। पूज्य डा0 जी के देहांत के बाद उनका दाह संस्कार रेशीम बाग में हुआ। आज वहां उनकी समाधि बनी है, जिसे ‘स्मृति मंदिर’ कहते हैं। उसका बाह्य रूप मंदिर जैसा है; पर वहां पूजा, पाठ, घंटा, भोग, आरती, प्रसाद आदि कुछ नहीं है। वहां डाक्टर जी भव्य प्रतिमा है, जो तीन ओर से खुली है। स्पष्ट है संघ में व्यक्ति का महत्व होते हुए भी व्यक्ति पूजा के लिए कोई स्थान नहीं है।

द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी ने अपने देहांत से पूर्व तीन पत्र लिखे थे। दूसरे पत्र में ही उन्होंने कह दिया था कि डाक्टर जी की तरह उनका कोई स्मारक न बनाएं। कार्यकर्ताओं ने उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए स्मृति मंदिर के सामने उनका दाह संस्कार किया। आज वहां यज्ञ ज्वालाओं के रूप में एक छोटा ‘स्मृति चिन्ह’ बना है। उस पर संत तुकाराम की वे पंक्तियां उत्कीर्ण हैं, जिनको उद्धृत करते हुए श्री गुरुजी ने अपने तीसरे पत्र में सब स्वयंसेवकों से क्षमा मांगी थी।

श्री बालासाहब देवरस इससे एक कदम और आगे गये। उन्होेंने कार्यकर्ताओं से पहले ही कह दिया था कि रेशीम बाग को हमें सरसंघचालकों का श्मशान स्थल नहीं बनाना है। इसलिए मेरा अंतिम संस्कार सामान्य श्मशान घाट पर किया जाए। बालासाहब का देहांत पुणे में हुआ; पर उन्होंने नागपुर में अपने जीवन का काफी समय बिताया था। उनके अनेक मित्र व सम्बन्धी वहां थे, जो उनके अंतिम दर्शन कर श्रद्धांजलि देना चाहते थे। अतः उनके शरीर को नागपुर लाकर गंगाबाई घाट पर अग्नि को समर्पित किया गया।

बालासाहब के ही समान रज्जू भैया का देहांत भी पुणे में हुआ। उन्होंने एक बार यह इच्छा व्यक्त की थी कि उनकी मृत देह को नागपुर या दिल्ली लाने की आवश्यकता नहीं है। जहां उनका देहांत हो, वहीं उनका अंतिम संस्कार कर दिया जाए। इसी कारण उनका दाह संस्कार पुणे में हुआ। स्पष्ट है कि सभी सरसंघचालकों ने स्वयं को विशिष्ट से सामान्य व्यक्तित्व की ओर क्रमशः अग्रसर किया। संघ और समाज एकरूप हो, यह बात संघ में प्रायः कही जाती है। सरसंघचालकों ने अपने व्यवहार से इसे सिद्ध कर दिखाया।

किसी समय संघ पर मराठा और ब्राह्मणवादी होने का आरोप लगाया जाता था; पर उत्तर प्रदेश के प्रो0 राजेन्द्र सिंह और कर्नाटकवासी सुदर्शन जी के सरसंघचालक बनने के बाद इन लोगों के मुंह सिल गये। 2009 में मोहन भागवत के सरसंघचालक और सुरेश जोशी के सरकार्यवाह बनने के बाद ये वितंडावादी फिर चिल्लाये; पर अब किसी ने उन्हें घास नहीं डाली। सब समझ चुके हैं कि ऐसे आरोप बकवास के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं।

जो लोग संघ को लकीर का फकीर या पुरानी परम्पराओं से चिपटा रहने वाला कूपमंडूक संगठन कहते हैं, उन्हें सरसंघचालक परम्परा के विकास का अध्ययन करना चाहिए। अभी संघ ने अपनी शताब्दी नहीं मनाई है; पर इसके बाद भी इस परम्परा में अनेक परिवर्तन हुए हैं। यह संघ की जीवंतता का प्रतीक है और इसी में संघ की ऊर्जा का रहस्य छिपा है।

विश्व पटल पर हिन्दू दर्शन व अध्यात्म के प्रचारक- स्वामी विवेकानन्द


गुरूदेव श्री रामकृष्ण परमहंस की अमर वाणी, ‘‘सभी धर्म सत्य हैं और वे ईश्वर प्राप्ति के विभिन्न उपाय मात्र हैं। ‘‘को आत्म सात् किये हुए स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो -अमेरिका में आयोजित होने वाले विराट धर्मसभा व महासम्मेलन में जाने का निश्चय मद्रास के शिष्यों के अनवरत् दबाव व इच्छा तथा एक रात को गुरूदेव श्री रामकृष्ण परमहंस को स्वप्न में देखा कि वे महासागर के अथाह जल में पैदल चलते चले जा रहें हैं और उन्हें अपने पीछे-पीछे आने को कह रहे हैं, देखकर किया था। मातु श्री शारदा देवी की आज्ञा उन्होंने विदेश यात्रा के लिए पत्र लिख कर मांगीं माता की आज्ञा व आशीर्वाद एक साथ प्राप्त हो गये। स्वामी विवेकानन्द ने सारी उलझनों को त्याग कर धर्मसभा में जाने का निश्चय किया। पश्चिम को हिन्दू दर्शन और अध्यात्म का सन्देश देने तथा गुलामी की जंजीरों में जकड़े स्वदेश को जाने के महान उद्देश्य को पूरा करने के लिए स्वामी विवेकानन्द ने 31मई 1893 को मातृभूमि भारत के सागर तट से जलयान पर सवार हो कर, अपनी यात्रा प्रारम्भ की। पश्चिम के वैज्ञानिक विकास को देखने-समझने की जिज्ञासा मन में समेटे स्वामी विवेकानन्द जहाज के सहयात्रियों तथा कैप्टेन के साथ परिचय प्राप्त कर घुलमिल गये। सागर की तरंगों से उत्पन्न संगीत को ध्यान का माध्यम बना कर विवेकानन्द ने सात दिनों की यात्रा के बाद, जहाज के श्रीलंका के बन्दरगाह पर पहूँचने पर कोलम्बों का नगर भ्रमण किया। बौद्ध धर्म को हिन्दू धर्म की विद्रोही शाखा व पूरक मानने वाले विवेकानन्द ने भगवान बुद्धदेव की महानिर्वाण अवस्था की मूर्ति के दर्शन किये। भाषा की कठिनाई के चलते वहाँ के पुरोहित से स्वामी विवेकानन्द की बात न हो पाई। कोलम्बो से जलयान चलकर मलाया, सुमात्रा, सिंगापुर होते हुए हांगकांग पहूँचा। यहाँ तीन दिन के प्रवास में स्वामी विवेकानन्द ने दक्षिण चीन की राजधानी कैण्टन की यात्रा कर ली। यहाँ भी बौद्ध मन्दिर के दर्शन किये और जापान पहूँचने पर नागासाकी, याकोहामा, ओसाका और टोक्यो को देखकर अपने शिष्यों को लिखा, – ‘‘भारत की मानो जराजीर्ण स्थिति से बुद्धि का भी नाश हो गया है! देश छोड़कर बाहर जाने से तुम लोगों की जाति बिगड़ जाती है! हजारों वर्ष पुराने इस कुसंस्कार का बोझ सिर पर धरे हुए तुम लोग बैठे हुए हो! हजारों वर्ष से खाद्य-अखाद्य की शुद्धा-शुद्धि पर विचार करते हुए तुम लोग अपनी शक्ति बरबाद कर रहे हो! पौरोहित्य रूपी मूर्खता के गम्भीर आवर्त में चक्कर काट रहे हो! सैकड़ों युग के लगातार सामाजिक अत्याचार से तुम्हारा सारा मनुष्यत्व नष्ट हो गया है!……..आओ, मनुष्य बनो। अपने संकीर्ण अन्धकूप से निकलकर बाहर जाकर देखो, सभी देश कैसे उन्नति के पथ पर चल रहें है। क्या तुम मनुष्य से प्रेम करते हो? तुम लोग क्या देश से प्रेम करते हो? तो फिर आओ हम भले बनने के लिए प्राणपण से चेष्टा करे।

जहाज प्रशान्त महासागर पार कर बैंकुवर बन्दरगाह पहूँचा। स्वामी विवेकानन्द रेलमार्ग से 3दिन की यात्रा पूरी कर के शिकागों पहूँचे। गेरूवा वस्त्र धारी अपरिचित युवक को देख लोग घूरने व ठगने लगे। खिन्न होकर स्वामी विवेकानन्द एक होटल में जाकर विश्राम करने लगे। दूसरे दिन स्वामी विवेकानन्द प्रदर्शनी देखने गये। वहाँ पर भी अपरिचित युवा साधु को देखकर पत्रकारों ने परिचय प्राप्त किया। अत्यधिक व्यय से चिन्तित स्वामी विवेकानन्द को यह ज्ञात हुआ कि धर्मसभा का आयोजन सितम्बर माह में होगा तथा प्रतिनिधि के रूप में आवेदन पत्र भेजने का समय भी बीत चुका है। व्यय खर्च कम करने के उद्देश्य से विवेकानन्द बोस्टन चल पड़े। एक वृद्ध महिला से आकस्मिक भेंट हो गई। वृद्ध महिला ने अमेरिका में आये वेदान्त के इस प्रचारक को अपने घर अतिथि के रूप में रहने का आमंत्रण दिया। स्वामी विवेकानन्द का मन निश्चिन्त हुआ और वे उनके घर रहने लगे। यहीं पर हार्वर्ड विश्वविद्यालय के विख्यात प्रोफेसर श्री जे0एच0राइट आये और स्वामी विवेकानन्द से परिचय होने के बाद, प्रभावित होकर, धर्मसभा से सम्बन्धित अपने मित्र मिस्टर बनी को पत्र लिखा, -‘‘मेरा विश्वास है कि यह अज्ञात हिन्दू सन्यासी हमारे सभी विद्वानों से अधिक विद्वान है। ’’स्वामी विवेकानन्द श्री राइट के लिखे इस पत्र को लेकर शिकागो आये, दुर्भाग्यवश वे पत्र को खो बैठे। भीषण शीतलहर में किसी तरह रात रेलवे मालगोदाम के सामने पड़े एक बडे से बक्से में बिताई। सड़क किनारे बैठे भूख से निढ़ाल स्वामी विवेकानन्द ने गुरूदेव का स्मरण किया ।जहाँ पर स्वामी विवेकानन्द बैठे थे, वहीं सामने एक विशाल घर था। इसी घर से एक स्त्री ने बाहर आकर स्वामी विवेकानन्द से पूछा, ‘‘क्या आप धर्ममहासभा के प्रतिनिधि हैं? विवेकानन्द ने अपना पूरा हाल बताया। मिसेज जार्ज डब्ल्यू० हैल नामक इस स्त्री ने स्वामी विवेकानन्द को सादर अपने घर आमंत्रित किया, भोजन कराया तथा फिर उन्हें धर्म महासभा के कार्यालय ले कर गई। इस तरह विभिन्न लोगों के सहयोग तथा गुरूदेव के आशीर्वाद से स्वामी विवेकानन्द हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में ले लिए गये तथा वहा अतिथि भवन में रहने लगे।

फिर वो घड़ी भी आ गई जिसके लिए स्वामी विवेकानन्द भारत भूमि से शिकागो पधारे थे।11सितम्बर1893 को प्रातः से ही शिकागो के आर्ट इंस्टिच्यूट के अन्दर बाहर हजारों का हुजूम एकत्र होने लगा। बड़े हाॅल में एक विशाल मंच पर बीचो-बीच एक बड़ी सी राजसिंहासन नुमा कुर्सी और दोनो तरफ पीछे की तीन पंक्तियों में अर्धगोलाकार तरीके से सजाई गई लकड़ी की कुर्सियां थी। बडे घण्टे की गूंज के साथ ही विश्व धर्म महासम्मेलन के अधिवेशन के सभापति चाल्र्स कैरोल बोनी और अमेरिकी कैथेलिक चर्च के प्रमुख पादरी कार्डिनल गिबन्स हाथ में हाथ डाले, समस्त अतिथि धर्म प्रतिनिधियों का नेतृत्व करते हुए मंच तक आये और फिर सभी लोग तयशुदा स्थान पर आसीन हो गये। चीन, जापान, यूनानी गिरजाघर, अफ्रीका, मिस्र तथा भारत के विभिन्न सम्प्रदायों के प्रतिनिधि अपनी-अपनी वेशभूषा में आसीन हो गये । भारत से-प्रतापचन्द्र मजूमदार ब्रह्म समाज के, वीरचन्द्र गाँधी जैन धर्म के, श्रीमती ऐनी बेसेन्ट थियोसोफी की, नागरकर जी बम्बई के साथ-साथ स्वामी विवेकानन्द गेरूए अचकन और पगड़ी में एक विशुद्ध परिव्राजक के रूप में उपस्थित थे। स्वामी विवेकानन्द का वैराग्य साफ झलक रहा था। श्रोताओं और दर्शकों की निगाहें बरबस ही मंचासीन श्रेश्ठजनों से फिसलती हुई इसी युवा साधु पर टिक जाती थी। विश्व के इतिहास में अपना विशेष स्थान रखने वाली यह धर्म महासभा, हिन्दू धर्म के इतिहास में नये युग का द्वार खोलने वाली सिद्ध हुई। विश्व के प्रत्येक कोने के करोड़ों व्यक्तियों की आस्थाओं व विचारों का प्रतिनिधित्व यहाँ हुआ। सभा का उद्घाटन मधुर वाद्य संगीत से हुआ। सर्वव्यापी परमेश्वर की स्तुति की गई । सभी का परिचय हुआ । सर्वप्रथम यूनानी गिरजाघर के प्रधान धर्माध्यक्ष ने बहुत ही उदार व भाव पूर्ण व्याख्यान दिया। फिर कई प्रतिनिधियो के व्याख्यान हुए । अपरान्ह में चार प्रतिनिधियों के पश्चात् स्वामी विवेकानन्द ने गुरू रामकृष्ण व जगदम्बा काली की शक्ति का स्मरण कर, ज्ञान की देवी माँ सरस्वती को मन ही मन नमन कर अंग्रेजी में अपना व्याख्यान प्रारम्भ किया,-‘‘अमेरिका की बहनों और भाईयो।’’। इस सम्बोधन का विद्युत प्रवाह श्रोताओं पर पड़ा एवं हाॅल काफी देर तक तालियों से गुंजायमान रहा। शिकागो स्थित आर्ट इंस्टिच्यूट के हाॅल में उपस्थित विभिन्न धर्मों के प्रतिनिधि तथा हजारों-हजार नागरिक भारत के इस युवा सन्यासी की वाणी के अधीन हो, सम्मोहित भाव से सुनते रहे और युवा सन्यासी स्वामी विवेकानन्द ने आगे कहा, -‘‘आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हमारा स्वागत किया है, उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा ह्दय अवर्णनीय हर्ष से भरा जा रहा है । संसार में सन्यासियों की सबसे प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ। और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि-कोटि हिन्दुओं की ओर से धन्यवाद देता हूँ। इस पर उपस्थित अपार जनसमूह द्वारा काफी समय तक जय ध्वनि की गई । फिर विवेकानन्द ने कहा,-‘‘मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति दोनों की ही शिक्षा दी है।’’ 11सितम्बर के तीसरे प्रहर की समाप्ति तक विवेकानन्द ने अपने इस प्रथम लघु व्याख्यान में साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उसकी वीभत्स धर्मान्धता की तीव्र भत्र्सना की। सत्रह दिनों तक लगातार प्रातः, दोपहर और शाम को सम्मेलन की बैठकें चलती रही। ।स्वामी विवेकानन्द द्वारा दिया गया प्रथम लघु व्याख्यान श्रोताओं के ह्दय को स्पर्श कर गया था । सनातन धर्म की सहिष्णुता, सार्वभौमिकता, सच्चाई तथा विशालता का वर्णन स्वामी विवेकानन्द ने जिस भावपूर्ण तरीके से किया था, उससे सभी अत्यन्त प्रभावित हुए । चौथे दिन 15 सितम्बर को ‘‘हमारे मतभेद के कारण’’ विषय पर बोलते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कुएं के मेंढ़क की कथा सुनाने के बाद कहा कि, ‘‘हम सभी धर्मावलम्बी इसी प्रकार के अपने अपने कुएं में बैठकर अपने अपने धर्म को एक-दूसरे से बड़ा कह कर झगड़ा मोल ले रहें हैं । मैं आप अमेरिका वालों को धन्य कहता हूँ, क्योंकि आप हम लोगों के इन छोटे-छोटे संसारों की क्षुद्र सीमाओं को तोड़ने का महान प्रयत्न कर रहें हैं । ’’फिर 19सितम्बर को ‘‘हिन्दू धर्म’’ पर लिखित निबन्ध को श्रोताओं को बताते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा कि, ‘‘हिन्दू धर्म सभी प्रकार के धार्मिक विचारों तथा सभी प्रकार की आराधनाओं का समन्वय करता है । ’’वेदान्त दर्शन की व्याख्या के साथ-साथ परमेश्वर की सगुण उपासना का महत्व समझाते हुए उन्होंने सार्वभौमिक धर्म के विषय में उम्मीद जतायी और कहा- ‘‘जो किसी देश और काल से सीमाबद्ध नहीं होगा – वह उस असीम ईश्वर के समान ही असीम होगा, जो संसार के सभी कोटियों के सभी प्राणियो। पर एक सा प्रकाश वितरण करता रहेगा । यह विश्वधर्म सभी धर्मों की अच्छाइयों को अपने बाहुपाश में आबद्ध कर लेगा और मानवता को सुकार्य एवं प्रेम का संदेश देगा । ’’इसी दिन स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका को सम्बोधित करते हुए कहा,- ‘‘ऐ स्वाधीनता की मातृभूमि कोलम्बिया, तू धन्य है । यह तेरा सौभाग्य है कि तूने अपने पड़ोसियों के रक्त से अपने हाथ नहीं भिगोये, तूने अपने पड़ोसियों का सर्वस्व हरण कर सहज में ही धनी और सम्पन्न होने की चेश्टा नहीं की, अतएव समन्वय की ध्वजा फहराते हुए सभ्यता की अग्रणी होकर चलने का सौभाग्य तेरा ही था । ’’20सितम्बर को ‘‘धर्म भारत की प्रधान आवश्यकता नही। ’’विषय पर अपने छोटे से भाषण में ईसाइयों के द्वारा भारत में भेजे हुए धर्म प्रचारकों की कटु निन्दा करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा, -‘‘आप ईसाई लोग जो मूर्तिपूजकों की आत्मा का उद्धार करने के लिए धर्म प्रचारकों को भेजने के लिए इतने उत्सुक रहते है। उनके शरीरों को भूख से मर जाने से बचाने के लिए कुछ क्यों नहीं करते?……………आप लोग सारे भारत में जाकर गिरजे बनवाते हैं, पर पूर्व का प्रधान अभाव धर्म नहीं है, उनके पास धर्म पर्याप्त है ।’’ 26सितम्बर को ‘‘बौद्ध धर्म और हिन्दू धर्म की निष्पत्ति’’ विषय पर व्याख्यान में स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म को बौद्ध धर्म की जननी बताया तथा बौद्ध धर्म की मौलिकताओं को भी बताया । स्वामी ने कहा,-‘‘हिन्दू धर्म बौद्ध धर्म के बिना नहीं रह सकता और न बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म के बिना ही । हिन्दू धर्म का पाण्डित्यपूर्ण दर्शन और बौद्ध धर्म का विशाल ह्दय दोनों जब तक पृथक पृथक रहेंगें, भारत का पतन अवश्यंभावी है, दोनो के सम्मिलन से ही भारत का कल्याण सम्भव है । ’’विश्व धर्म महासभा के अन्तिम दिन 27 सितम्बर को स्वामी विवेकानन्द ने अपने विचार रखते हुए कहा,-‘‘इस महासभा ने जगत के समक्ष यदि कुछ प्रदर्शित किया है, तो वह यह है-इसने यह सिद्ध कर दिया है कि शुद्धता, पवित्रता और दयाशीलता किसी सम्प्रदाय विशेष की एकान्तिक सम्पत्ति नहीं है एवं प्रत्येक धर्म ने श्रेष्ठ एवं अतिशय उन्नत चरित्र स्त्री-पुरुषों को जन्म दिया है । ……….शीघ्र ही सारे प्रतिरोधों के रहते हुए प्रत्येक धर्म की पताका पर यह लिखा होगा-‘‘सहायता करो, लड़ो मत । पर भाव ग्रहण, न कि पर भाव विनाश, समन्वय और शान्ति न कि मतभेद और कलह ।’’

शिकागो धर्म सम्मेलन में स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यानों ने अज्ञात, अपरिचित गेरूआ वस्त्रधारी भारत के इस सन्यासी की प्रसिद्धी बढ़ा दी। जगह-जगह बड़ी-बड़ी आदमकद तस्वीरें लगाकर आदर प्रकट किया गया । न्यूयार्क हेराल्ड ने लिखा,-‘‘धर्म महासभा में वे निःसन्देह सर्वश्रेश्ठ व्यक्ति हैं । उन्हे सुनने के बाद लगता है कि उनके देश में हम धर्म प्रचारकों को भेजकर कैसा मूर्खतापूर्ण कार्य करते हैं । ’’विभिन्न समाचार पत्रों ने भारत के इस युवा सन्यासी के प्रशंसा में लेख लिखे । धर्मसभा में स्वामी विवेकानन्द को मिली सफलता एवं यश के समाचार भारत में भी पहूँचा । देश में एक आत्मगौरव की लहर तेजी से व्याप्त हो गई । आत्महीनता का स्थान आत्मगौरव ने ले लिया। तप और वैराग्य की घनीभूत शक्ति, गुरूदेव, माँ जगदम्बा, माता तथा माँ सरस्वती के आषीर्वाद से स्वामी विवेकानन्द ने देश के जनमानस को आत्मविभोर कर, आत्मगौरव का अहसास करा दिया। शिकागो के इस धर्म सम्मेलन में स्वामी विवेकानन्द ने अपने कथन,- ‘‘जब भारत का इतिहास लिखा जाएगा, तब यह सिद्ध होगा कि धर्म के विषय में और ललित कलाओं में भारत सारे विश्व का प्रथम गुरू है ’’को अक्षरशः सिद्ध कर दिखाया था ।