मंगलवार, 24 अगस्त 2010

कंधमाल में चैन, दिल्ली बेचैन

-समन्वय नंद

आगामी 22 से 24 अगस्त तक नई दिल्ली के कांस्टिट्यूशन क्लब में एक कंधमाल को लेकर कार्यक्रम का आय़ोजन किया जा रहा है। इस बारे में दी गई जानकारी के अनुसार इस कार्यक्रम का नाम होगा, ‘नेशनल पीपुल्स ट्रिब्युनल आन कंधमाल ’। कार्यक्रम का आयोजन किसी नेशनल सोलिडारिटी फोरम (एनएसएफ) नामक मंच द्वारा किया जा रहा है। फोरम के बारे में बताया गया है कि इस मंच में देश भर के सामाजिक कार्यकर्ता, मीडियाकर्मी कानूनी विशेषज्ञ, फिल्म प्रस्तुतकर्ता लेखक व कलाकारों आदि लोग हैं।

कार्यक्रमों के आयोजकों के अनुसार इस तीन दिवसीय कार्यक्रम में देश भर से लोग होंगे और कंधमाल के बारे में चर्चा करेंगे। कंधमाल की खराब स्थिति व लोगों के बारे में विस्तार से चर्चा की जाएगी। कार्यक्रम का नाम पर नजर डालें तो पता चलता है कि कार्यक्रम में कंधमाल के बारे में राष्ट्रीय स्तर पर लोगों की ट्रिब्युनल आयोजित होगी।

लेकिन यह कार्यक्रम आपने आप अनेक प्रश्नों को जन्म देता है। जिनके उत्तर ढूंढे जाने की आवश्यकता है। इसका सही विश्लेषण किया जाए तो चित्र स्पष्ट हो सकती है।

इस कार्यक्रम के बारे में जो प्रश्न उभरे हैं उनमें से प्रमुख है कि कंधमाल में वर्तमान स्थिति कैसी है? क्या कंधमाल अशांत है? अगर कंधमाल शांत है तो फिर इस तरह का कार्यक्रम का आयोजन दिल्ली में क्यों किया जा रहा है? इसके पीछे आय़ोजनकर्ताओं का क्या उद्देश्य है। जिन लोगों के इस कार्यक्रम में शामिल होने की बात कही जा रही है ओर निमंत्रण पत्र तक भेजे जा चुका है उनमें से कितने लोग कंधमाल को जानते हैं? उनमें से कितने लोगों ने अपने जीवन काल में एक बार भी कंधमाल का दौरा किया है? अगर इनमें से अधिकतर लोग हाल ही के दिनों में क्या अपने जीवनकाल में कभी भी कंधमाल का दौरा नहीं किया है तो फिर वे इस कार्यक्रम में कंधमाल के बारे में क्या चर्चा करेंगे? कंधमाल की सामाजिक स्थिति, उसका इतिहास, भूगोल, उसकी संस्कृति के बारे में शून्य जानकारी वाले लोग इस तरह के कार्यक्रम आयोजित क्यों कर रहे हैं? उनका उद्देश्य क्या है?यह अनेकों प्रश्न हैं जिन पर विस्तार से विचार किये जाने की आवश्यकता है।

इन प्रश्नों पर एक के बाद एक विचार करने से साफ चित्र उभरेगी। पहला प्रश्न है कि कंधमाल में वर्तमान कैसी स्थिति है। कंधमाल में स्थिति के बारे में जानकारी लेने के बाद ही इस तरह के कार्यक्रमों की बारे में विश्लेषण में सहायता मिलेगी।

कंधमाल के ग्राउंड जीरो से प्राप्त तथ्यों पर नजर डालें तो कंधमाल गत डेढ साल से भी अधिक समय से शांत है, पूरी तरह शांत है । इस कालावधि में कंधमाल में एक भी हिंसक या अप्रिय घटना के समाचार नहीं है। अगर कंधमाल शांत है तो फिर नेशनल सोलिडारिटी फोरम नामक इस अनामधेय संस्था द्वारा यह कार्यक्रम क्यों आयोजित किया जा रहा है , यह एक विचारणीय प्रश्न है।

अब प्रश्न उठता है कि यह कार्यक्रम दिल्ली में आयोजित क्यों हो रहा है? स्वाभविक है दिल्ली में इस तरह के कार्यक्रम के आयोजन के पीछे कुछ विशेष उद्देश्य होगा। नई दिल्ली में कोई कार्यक्रम आयोजित करने का उद्देश्य अधिक से अधिक पब्लिसिटी लेना और राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कंधमाल के मुद्दे को फैलाना है। अगर कंधमाल पूरी तरह शांत है तो फिर कंधमाल के मुद्दे को राष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय स्तर पर फैलाने के पीछे क्या उद्देश्य हो सकता है? इस कार्यक्रम के माध्यम से ओडिशा की जनता और विशेष तौर कंधमाल के कंध जनजाति के लोगों को विश्व दरवार में निंदित करना इसका उद्देश्य हो सकता है।

इस कार्यक्रम में जो तथाकथित बुद्धिजीवी शामिल होने वाले हैं, उनकी सूची पर नजर डालने से तस्वीर कुछ स्पष्ट होगी। इनमें से अधिकतर लोग चर्च से जुडे हुए हैं और वामपंथी रुझानों के लोग हैं। इन सभी लोगों के काम करने के तरीके पर नजर डालें तो पता चलता है कि यह सभी लोग भारतीयता, भारतीय संस्कृति को गाली देने में सभी मंचों का उपयोग करते हैं। कई बार विदेशों में भी जा कर ये लोग भारत को गालियां देते हैं। एक बात और यह है कि ये तथाकथित बुद्धिजीवी वही बातें कहते हैं जो चर्च उनसे कहलवाना चाहता है यानी ऐसे तर्क जिसके प्रचारित करने के बाद उसे लोगों को मतांतरण करवाने में सहाय़ता मिले।

इस कार्यक्रम का आयोजन करने वाले लोगों ने गत 2008 में स्वामी जी की हत्या के बाद क्या कहा था इस पर एक बार नजर डालते हैं। स्वामी जी की हत्या के बाद दुख जताने के स्थान पर इस गुट ने कहा कि स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती जेल में ड़ाले जाने लायक थे। अगर उन्हें जेल में डाल दिया गया होता तो उनकी हत्या नहीं होती। य़ह उन्होंने लिखित में राष्ट्रपति को दिये ज्ञापन में कहा है। इस ज्ञापन को प्रदान करने वालों में प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक महेश भट्ट व अन्य लोग भी थे। राष्ट्रपति को सौंपे गये ज्ञापन में स्वामी जी के प्रति जिस भाषा का उपयोग किया गया है उससे इन तथाकथित बुद्धिजीवियों की मानसिकता स्पष्ट होती है। ये शब्द उनके घोर सांप्रदायिक व धर्मांध चरित्र को उजागर करता है।

अब प्रश्न उठता है कि इस कार्यक्रम के आयोजन का मुख्य उद्देश्य क्या है? स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के बाद मतांतरण का सबसे बडी बाधा अब समाप्त हो चुकी है। चर्च चाहता है कि कंधमाल के प्रत्येक व्यक्ति के गले में सलीव लटकाने का पावन कार्य शीघ्र से शीघ्र कर लिया जाए। लेकिन राज्य में कुछ कायदे कानून हैं। गलत तरीके से मतांतरण को रोकने के लिए कानून भी है। मतांतरण पर जन प्रतिक्रिया भी होती है। इसलिए चर्च चाहता है कि मतांतरण को रोकने वाला कानून निष्प्रभावी बनी रहे, सामुहिक मतांतरण पर जनप्रतिक्रिया न हो। लेकिन यह कब संभव होगा? जब लोग दबाव में होंगे। इसके लिए लोगों के प्रति दबाव बनाना आवश्यक है। अगर प्रशासन व लोगों पर दबाव बनेगा तो फिर वे मतांतरण का विरोध करने पर हिचकिचाएंगे और मतांतरण का कार्य आसान हो जाएगा। इसी दिशा में यह कार्यक्रम आयोजित किया गया है।

चर्च के इस गहरे षडयंत्र को समझना होगा। यह कोई अकेली घटना नहीं हैं। चर्च प्रायोजित इस कार्यक्रम से पहले भी प्रशासन व लोगों पर दबाव बनाने के लिए अंतरराष्ट्रीय शक्तियां भी दबाव बनाने का प्रयास कर चुके हैं। य़ूरोपीय यूनियन के कूटनीतिज्ञों के दल ने कंधमाल का दौरा कर चुकी है। इस दौरे के समय यूरोपीय़ दल ने सीधे भुवनेश्वर के आर्क बिशप राफेल चिनाथ सा मिला। सिर्फ ईसाइयों से ही मिला। न्यायालय के न्यायाधीशों से मिल कर दबाव बनाने के प्रयास किया। हालांकि स्थानीय वकीलों के विरोध के कारण यह संभव नहीं हो पाया। गोरी चमडी के लोगों का यह दौरा प्रशासन व लोगों पर दबाव बनाने के लिए ही था। कंधमाल को लेकर दिल्ली में प्रस्तावित इस कार्यक्रम को भी उसी कडी में देखने की आवश्यकता है।

इससे एक संदेह और उत्पन्न होता है। वह यह है कि इस कार्यक्रम के आयोजन के पीछे जो लोग हैं वे कौन हैं? क्या इस कार्यक्रम की स्क्रिप्ट किसी और देश में लिखी गई है और यहां के तथाकथित बुद्धिजीवी विदेश में तैयार स्क्रिप्ट पर अभिनय करने के लिए इस कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है। यह संदेह को बल और अधिक मिलता है जब कंधमाल सब कुछ सामान्य होते हुए भी दिल्ली में इतने बडे पैमाने पर कार्यक्रम आयोजित करने का निर्णय लिया जाता है। आवश्यकता इस बात की है कि इस कार्यक्रम के आयोजन के बारे में ठीक से जांच हो, इसको पैसे कहां से मिल रहे है आदि, आदि। अगर ऐसा होता है तो अनेक गुप्त चीजें सामने आ सकती हैं और परदे के पीछे के ष़डयंत्रकारी बेनकाब हो सकते हैं।

आखिर कितनी लड़ाईयां और लड़नी पडेंग़ीं जन्मभूमि के लिए?


हमारे ऋषियों मनीषियों ने माता व मातृभूमि को स्वर्ग के समान संज्ञा देते हुए सर्वोच्च माना है। ”जननी जन्म भूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसी” इस वाक्य के आधार पर अनगिनत लोग बिना किसी कष्ट या अवरोधों की परवाह किये, मातृभूमि के लिए अपने प्राण न्योछावर कर गये। मातृभूमि का अर्थ उस भू भाग से लगाया जाता है जहां हम व हमारे पूर्वज पैदा हुए। व्यक्ति का जन्म के बाद नाम बदल सकता है, काम बदल सकता है, उसकी प्रकृति बदल सकती है, उसकी प्रतिष्ठा व कद बदल सकता है किन्तु मूल पहचान-जन्मभूमि नहीं बदल सकती है। हम चाहे विश्व के किसी भी कोने में चले जायें, कितने ही प्रतिष्ठित पद पर पहुंच जायें किन्तु जन्म स्थल से पक्की पहचान हमारी और कोई हो ही नहीं सकती। घर परिवार में जब कोई शुभ कार्य होता है तो सबसे पहले पंडित जी हमें हमारा नाम, गोत्र, व हमारे पूर्वजों के नाम के साथ जन्म स्थान का स्मरण कराते हुए संकल्प कराते हैं। पूर्वजों के जन्म स्थान के दर्शन की भी परम्परा है।

अपनी और अपने पूर्वजों की जन्म भूमि की रक्षा प्रत्येक व्यक्ति का पुनीत कर्तव्य माना जाता है। इतिहास में ऐसे लोगों के असंख्य उदाहरण भरे पड़ें हैं। जिन्होनें जन्मभूमि की रक्षा व उसकी स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। जब व्यक्ति अपनी जन्मभूमि के लिए इतना सब कुछ करने को तैयार रहता है तो कल्पना करिये कि क्या अपने आराध्य की जन्मभूमि हेतु वह हाथ पर हाथ धरे बैठा रह सकता है। कौन नहीं जानता कि करोड़ों हिन्दुओं के आराध्य व अखिल ब्रम्हाण के नायक मर्यादा पुरूषोत्ताम भगवान श्रीराम का जन्म अयोध्या में हुआ था। अयोध्या की गली-गली व कोना कोना रामलला की क्रीड़ा स्थली के रूप में आज भी स्पष्ट रूप से दिखायी देता है। इतना ही नही अयोध्या का इतिहास भारतीय संस्कृति की गौरवगाथा है। अयोध्या सूर्यवंशी प्रतापी राजाओं की राजधानी रही है। इसी वंश में महाराजा सगर, भगीरथ तथा सत्यवादी हरिश्चन्द जैसे महापुरूषों के बाद प्रभु श्रीराम का जन्म हुआ। पांच जैन तीथकरों की जन्म भूमि अयोध्या है। गौतम बुद्ध की तपस्थली दन्तधावन कुण्ड भी अयोध्या की ही धरोहर है। गुरू नानक देव जी महाराज ने भी अयोध्या आकर भगवान श्रीराम का पुण्य स्मरण कर दर्शन किये। यहां ब्रहमकुण्ड गुरूद्वारा भी है। शास्त्रों में वर्णित पावन सप्तपुरियों में से एक पुरी के रूप में अयोध्या विख्यात है। विश्व प्रसिद्ध स्विट्स वर्ग एटलस में वैदिक कालीन, पुराण व महाभारत कालीन तथा आठवीं से बारहवीं, सोलवी सत्रहवीं शताब्दी के भारत के सांस्कृतिक मानचित्रों में अयोध्या को धार्मिक नगरी के रूप में दर्शाया गया है जो इसकी प्राचीनता और ऐतिहासिक महत्व को दर्शाते हैं।

जग विदित है कि इस पुण्य पावन देव भूमि पर बने भव्य मंदिर को जब विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारी बाबर ने अपने क्रूर प्रहारों से ध्वस्त कर दिया तभी से यहां के समाज को अनेकों लड़ाईयां लड़नी पड़ी। इस जन्मभूमि के लिए सन् 1528 से 1530 तक 4 युद्ध बाबर के साथ, 1530 से 1556 तक 10 युद्ध हुमांयू से, 1556 से 1606 के बीच 20 युद्ध अकबर से, 1658 से 1707 ई में 30 लड़ाईयां औरंगजेब से, 1770 से 1814 तक 5 युद्ध अवध के नवाब सआदत अली से, 1814 से 1836 के बीच 3 युद्ध नसिरूद्दी हैदर के साथ, 1847 से 1857 तक दो बार वाजिदअली शाह के साथ, तथा एक-एक लड़ाई 1912 व 1934 में अंग्रेजों के काल में हिन्दू समाज ने लड़ी। इन लड़ाईयों में भाटी नरेश महताब सिंह, हंसवर के राजगुरू देवीदीन पाण्डेय, वहां के राजा रण विजय सिंह व रानी जय राजकुमारी, स्वामी महेशानन्द जी, स्वामी बलरामाचार्य जी, बाबा वैष्णव दास, गुरू गोविन्द सिंह जी, कुंवर गोपाल सिंह जी, ठाकुर जगदम्बा सिंह, ठाकुर गजराज सिंह, अमेठी के राजा गुरदत्ता सिंह, पिपरा के राजकुमार सिंह, मकरही के राजा, बाबा उद्धव दास तथा श्रीराम चरण दास, गोण्डा नरेश देवी वख्स सिंह आदि के साथ बडी संख्या में साधू समाज व हिन्दू जनता ने इन लड़ाईयों में अग्रणी भूमिका निभाई।

श्री राम जन्मभूमि मुक्ति के लिए उपरोक्त कुल 76 लड़ाईयों के अलावा 1934 से लेकर आज तक अनगिनत लोगों ने संधर्ष किया व इन सभी में लाखों लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी। किन्तु, न कभी राम जन्मभूमि की पूजा छोड़ी, न परिक्रमा और न ही उस पर अपना कभी दावा छोड़ा। अपने संघर्ष में चाहे समाज को भले ही पूर्ण सफलता न मिली हो किन्तु, कभी हिम्मत नहीं हारी तथा न ही आक्रमणकारियों को चैन से कभी बैठने दिया। बार-बार लड़ाईयां लड़कर जन्म भूमि पर अपना कब्जा जताते रहे। 6 दिसम्बर 1992 की घटना इस सतत् संघर्ष की एक निर्णायक परिणति थी जब गुलामी व आतंक का प्रतीक तीन गुम्बदों वाला जर-जर ढांचा धूल-धूसरित होकर श्रीराम जन्मभूमि पर मंदिर निर्णय का मार्ग तो प्रसस्त कर गया किन्तु जन्मभूमि पर विराजमान राम लला को खुले आसमान के नीचे टाट के टैण्ट में से निकाल भव्य मंदिर में देखने के लिए पता नहीं कितनी लड़ाईयां और लड़नी पडेंग़ी?

अब्दुल नासिर मदनी की गिरफ़्तारी नौटंकी – वामपंथी पाखण्ड और मीडिया का पक्षपात फ़िर से उजागर

कुछ दिनों पहले देश की जनता ने मीडियाई जोकरों और सेकुलरों की जमात को गुजरात के गृहमंत्री अमित शाह की गिरफ़्तारी के मामले में “रुदालियाँ” गाते सुना है। एक घोषित खूंखार अपराधी को मार गिराने के मामले में, अमित शाह की गिरफ़्तारी और उसे नरेन्द्र मोदी से जोड़ने के लिये मीडियाई कौए लगातार 4-5 दिनों तक चैनलों पर जमकर कांव-कांव मचाये रहे, अन्ततः अमित शाह की गिरफ़्तारी हुई और “सेकुलरिज़्म” ने चैन की साँस ली…

जो लोग लगातार देश के घटियातम समाचार चैनल देखते रहते हैं, उनसे एक मामूली सवाल है कि केरल में अब्दुल नासिर मदनी की गिरफ़्तारी से सम्बन्धित “वामपंथी सेकुलर नौटंकी” कितने लोगों ने, कितने चैनलों पर, कितने अखबारों में देखी-सुनी या पढ़ी है? कितनी बार पढ़ी है और इस महत्वपूर्ण “सेकुलर” खबर (बल्कि सेकुलर शर्म कहना ज्यादा उचित है) को कितने चैनलों या अखबारों ने अपनी हेडलाइन बनाया है? इस सवाल के जवाब में ही हमारे 6M (मार्क्स, मुल्ला, मिशनरी, मैकाले, माइनो और मार्केट) के हाथों बिके हुए मीडिया की हिन्दू-विरोधी फ़ितरत खुलकर सामने आ जायेगी। जहाँ एक तरफ़ अमित शाह की गिरफ़्तारी को मीडिया ने “राष्ट्रीय मुद्दा” बना दिया था और ऐसा माहौल बना दिया था कि यदि अमित शाह की गिरफ़्तारी नहीं हुई तो कोई साम्प्रदायिक सुनामी आयेगी और सभी सेकुलरों को बहा ले जायेगी, वहीं दूसरी तरफ़ केरल में बम विस्फ़ोट का एक आरोपी खुलेआम कानून-व्यवस्था को चुनौती देता रहा, केरल के वामपंथी गृहमंत्री ने उसे बचाने के लिये एड़ी-चोटी का जोर लगा डाला, आने वाले चुनावों मे हार से भयभीत वामपंथ ने मुस्लिमों को खुश करने के लिये केरल पुलिस का मनोबल तोड़ा… पूरे आठ दिन तक कर्नाटक पुलिस मदनी को गिरफ़्तार करने के लिये केरल में डेरा डाले रही तब कहीं जाकर उसे गिरफ़्तार कर सकी… लेकिन किसी हिन्दी न्यूज़ चैनल ने इस शर्मनाक घटना को अपनी तथाकथित “ब्रेकिंग न्यूज़” नहीं बनाया और ब्रेकिंग या मेकिंग तो छोड़िये, इस पूरे घटनाक्रम को ही ब्लैक-आउट कर दिया गया। यहाँ पर मुद्दा अमित शाह की बेगुनाही या अमित शाह से मदनी की तुलना करना नहीं है, क्योंकि अमित शाह और मदनी की कोई तुलना हो भी नहीं सकती… यहाँ पर मुद्दा है कि हिन्दुत्व विरोध के लिये मीडिया को कितने में और किसने खरीदा है? तथा वामपंथी स्टाइल का सेकुलरिज़्म मुस्लिम वोटों को खुश करने के लिये कितना नीचे गिरेगा?

मुझे विश्वास है कि अभी भी कई पाठकों को इस “सुपर-सेकुलर” घटना के बारे में पूरी जानकारी नहीं होगी… उनके लिये संक्षिप्त में निम्न बिन्दु जान लेना बेहद आवश्यक है ताकि वे भी जान सकें कि ढोंग से भरा वामपंथ, घातक सेकुलरिज़्म और बिकाऊ मीडिया मिलकर उन्हें किस खतरनाक स्थिति में ले जा रहे हैं…

1) कोयम्बटूर बम धमाके का मुख्य आरोपी अब्दुल नासिर मदनी फ़िलहाल केरल की PDP पार्टी का प्रमुख नेता है।

2) कर्नाटक हाईकोर्ट ने दाखिल सबूतों के आधार पर मदनी को बंगलौर बम विस्फ़ोटों के मामले में गैर-ज़मानती वारण्ट जारी कर दिया, जिसमें गिरफ़्तारी होना तय था।

3) मदनी ने इसके खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगाई हुई है, लेकिन कर्नाटक पुलिस को मदनी को गिरफ़्तार करके उससे पूछताछ करनी थी।

4) कर्नाटक पुलिस केरल सरकार को सूचित करके केरल पुलिस को साथ लेकर मदनी को गिरफ़्तार करने गई, लेकिन केरल की वामपंथी सरकार अपने वादे से मुकर गई और कर्नाटक सरकार के पुलिस वाले वहाँ हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे, क्योंकि केरल पुलिस ने मदनी को गिरफ़्तार करने में कोई रुचि नहीं दिखाई, न ही कर्नाटक पुलिस से कोई सहयोग किया (ज़ाहिर है कि वामपंथी सरकार के उच्च स्तरीय मंत्री का पुलिस पर दबाव था)।

5) इस बीच अब्दुल नासेर मदनी अनवारसेरी के एक अनाथालय में आराम से छिपा बैठा रहा, लेकिन केरल पुलिस की हिम्मत नहीं हुई कि वह अनाथाश्रम में घुसकर मदनी को गिरफ़्तार करे, क्योंकि मदनी आराम से अनाथाश्रम के अन्दर से ही प्रेस कॉन्फ़्रेंस करके राज्य सरकार को सरेआम धमकी दे रहा था कि “यदि उसे हाथ लगाया गया, तो साम्प्रदायिक दंगे भड़कने का खतरा है…”। 2-3 दिन इसी ऊहापोह में गुज़र गये, पहले दिन जहाँ मदनी के सिर्फ़ 50 कार्यकर्ता अनाथाश्रम के बाहर थे और पुलिस वाले 200 थे, वक्त बीतने के साथ भीड़ बढ़ती गई और केरल पुलिस जिसके हाथ-पाँव पहले ही फ़ूले हुए थे, अब और घबरा गई। इस स्थिति का भरपूर राजनैतिक फ़ायदा लेने की वामपंथी सरकार की कोशिश उस समय बेनकाब हो गई जब कर्नाटक के गृह मंत्री और गिरफ़्तार करने आये पुलिस अधीक्षक ने केरल के DGP और IG से मिलकर मदनी को गिरफ़्तार करने में सहयोग देने की अपील की और उन्हें कोर्ट के आदेश के बारे में बताया।

6) इतना होने के बाद भी केरल पुलिस ने अनाथाश्रम के दरवाजे पर सिर्फ़ एक नोटिस लगाकर कि “अब्दुल नासिर मदनी को पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर देना चाहिये, क्योंकि केरल पुलिस के पास ऐसी सूचना है कि अनाथाश्रम के भीतर भारी मात्रा में हथियार भी जमा हैं…” अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली। अब्दुल नासिर मदनी लगातार कहता रहा कि सुप्रीम कोर्ट से निर्णय आने के बाद ही वह आत्मसमर्पण करेगा (यानी जब वह चाहेगा, तब उसकी मर्जी से गिरफ़्तारी होगी…)। मदनी ने रविवार (15 अगस्त) को कहा कि वह बेगुनाह हैं और बम विस्फोट की घटना में उसकी कोई भूमिका नहीं है। मदनी ने कहा, ‘मैं एक धार्मिक मुसलमान हूं और कुरान लेकर कहता हूं कि बम विस्फोट के मामले में सीधे या परोक्ष किसी भी तरह की भूमिका नहीं है। यदि कर्नाटक पुलिस चाहती है कि वह मुझे गिरफ्तार किए बगैर वापस नहीं जाएगी तो वह ऐसा करने के लिए स्वतंत्र है। लेकिन इसके बाद हालात अस्थिर हो जाएंगे।’ (ऐसी ही धमकी पूरे भारत को कश्मीर की तरफ़ से भी दी जाती है कि अफ़ज़ल गुरु को फ़ाँसी दी तो ठीक नहीं होगा… और “तथाकथित महाशक्ति भारत” के नेता सिर्फ़ हें हें हें हें हें करते रहते हैं…)। खैर… केरल पुलिस (यानी सेकुलर सरकार द्वारा आदेशित पुलिस) ने भी सरेआम “गिड़गिड़ाते हुए” मदनी से कहा कि अदालत के आदेश को देखते हुए वह गिरफ़्तारी में “सहयोग”(?) प्रदान करे…।

7) अन्ततः केरल की वामपंथी सरकार ने दिल पर पत्थर रखकर आठ दिन की नौटंकी के बाद अब्दुल नासिर मदनी को कर्नाटक पुलिस के हवाले किया (वह भी उस दिन, जिस दिन मदनी ने चाहा…) और छाती पीट-पीटकर इस बात की पूरी व्यवस्था कर ली कि लोग समझें (यानी मुस्लिम वोटर समझें) कि अब्दुल नासिर मदनी एक बेगुनाह, बेकसूर, मासूम, संवेदनशील इंसान है, केरल पुलिस की मजबूरी(?) थी कि वह मदनी को कर्नाटक के हवाले करती… आदि-आदि।

चाहे पश्चिम बंगाल हो या केरल, वामपंथियों और सेकुलरों की ऐसी नग्न धर्मनिरपेक्षता (शर्मनिरपेक्षता) जब-तब सामने आती ही रहती है, इसके बावजूद कंधे पर झोला लटकाकर ऊँचे-ऊँचे आदर्शों की बात करना इन्हें बेहद रुचिकर लगता है। इस मामले में भी, केरल सरकार के उच्च स्तरीय राजनैतिक ड्रामे के बावजूद कानून-व्यवस्था का बलात्कार होते-होते बच गया…।

खतरे की घण्टी बजाता एक और उदाहरण देखिये -

उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल का मुर्शिदाबाद जिला देश का सर्वाधिक घनी मुस्लिम आबादी वाला जिला है। यहाँ के जिला मजिस्ट्रेट (परवेज़ अहमद सिद्दीकी) के कार्यालय से चुनाव के मद्देनज़र मतदाता सूची का नवीनीकरण करने के लिये जो आदेश जारी हुए, उसमें सिर्फ़ पत्र के सब्जेक्ट में “मुर्शिदाबाद” लिखा गया, इसके बाद उस पत्र में कई जगह “मुस्लिमाबाद” लिखा गया है (सन्दर्भ – दैनिक स्टेट्समैन 29 जुलाई)। वह पत्र कम से कम चार-पाँच अन्य जूनियर अधिकारियों के हाथों हस्ताक्षर होता हुआ आगे बढ़ा, लेकिन किसी ने भी “मुर्शिदाबाद” की जगह “मुस्लिमाबाद” कैसे हुआ, क्यों हुआ… के बारे में पूछताछ करना तो दूर इस गलती(?) पर ध्यान तक देना उचित नहीं समझा।

जब कलेक्टर से इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने बड़ी मासूमियत से कहा कि यह सिर्फ़ “स्पेलिंग मिस्टेक” है…। अब आप कितने ही बेढंगे और अनमने तरीके से “मुर्शिदाबाद” लिखिये, देखें कि वह “मुस्लिमाबाद” कैसे बनता है… चलिये हिन्दी न सही अंग्रेजी में ही Murshidabad को Muslimabad लिखकर देखिये कि क्या स्पेलिंग मिस्टेक से यह सम्भव है? आप कहेंगे कि यह तो बड़ी छोटी सी बात है, लेकिन थोड़ा गहराई से विचार करेंगे तो आप खुद मानेंगे कि यह कोई छोटी बात नहीं है। मुर्शिदाबाद में ही कुछ समय पहले एक धार्मिक संस्थान ने स्कूलों में बंगाल के नक्शे मुफ़्त बँटवाये थे, जिसमें मुर्शिदाबाद को स्वायत्त मुस्लिम इलाका प्रदर्शित किया गया था… तब भी प्रशासन ने कुछ नहीं किया था और अब भी प्रशासन चुप्पी साधे हुए है… बोलेगा कौन? वामपंथी शासन (और विचारधारा भी) पश्चिम बंगाल की 16 सीटों पर निर्णायक मतदाता बन चुके मुस्लिमों को खुश रखना चाहती है और ममता बनर्जी भी यही चाहती हैं… ठीक उसी तरह, जैसे केरल में मदनी से बाकायदा Request की गई थी कि “महोदय, जब आप चाहें, गिरफ़्तार हों जायें…”।

तात्पर्य यह है कि यदि आप किसी आतंकवादी (कसाब, अफ़ज़ल), किसी हिस्ट्रीशीटर (अब्दुल नासिर मदनी, सोहराबुद्दीन), किसी सताये हुए मुस्लिम (मकबूल फ़िदा हुसैन, इमरान हाशमी), बेगुनाह और मासूम मुस्लिम (रिज़वान, इशरत जहाँ) के पक्ष में आवाज़ उठायें तो आप सेकुलर, प्रगतिशील, मानवाधिकारवादी, संवेदनशील… और भी न जाने क्या-क्या कहलाएंगे, लेकिन जैसे ही आपने, बिना किसी ठोस सबूत के मकोका लगाकर जेल में रखी गईं साध्वी प्रज्ञा के पक्ष में कुछ कहा, कश्मीरी पण्डितों के बारे में सवाल किया, रजनीश (कश्मीर) और रिज़वान (पश्चिम बंगाल) की मौतों के बारे में तुलना की… तो आप तड़ से “साम्प्रदायिक” घोषित कर दिये जायेंगे…। 6M के हाथों बिका मीडिया, सेकुलरिस्ट, कांग्रेस-वामपंथी (यहाँ तक कि तूफ़ान को देखकर भी रेत में सिर गड़ाये बैठे शतुरमुर्ग टाइप के उच्च-मध्यमवर्गीय हिन्दू) सब मिलकर आपके पीछे पड़ जायेंगे…

बहरहाल, अब्दुल नासिर मदनी को कर्नाटक पुलिस गिरफ़्तार करके ले गई है, तो शायद दिग्विजयसिंह, सोनिया गाँधी को पत्र लिखकर इसके लिये चिदम्बरम और गडकरी को जिम्मेदार ठहरायेंगे, हो सकता है वे आजमगढ़ की तरह एकाध दौरा केरल का भी कर लें… शायद मनमोहन सिंह जी रातों को ठीक से सो न सकें…(जब भी किसी “मासूम” मुस्लिम पर अत्याचार होता है तब ऐसा होता है, चाहे वह भारत का मासूम हो या ऑस्ट्रेलिया का…), शायद केरल के वामपंथी, जो बेचारे बड़े गहरे अवसाद में हैं अब कानून बदलने की माँग कर डालें… सम्भव है कि ममता बनर्जी, मदनी के समर्थन में केरल में भी एकाध रैली निकाल लें… शायद शबाना आज़मी एकाध धरना आयोजित कर लें… शायद तीस्ता जावेद सीतलवाड इस “अत्याचार” के खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट चली जायें (भले ही झूठ बोलने के लिये वहाँ से 2-3 बार लताड़ खा चुकी हों)… लगे हाथों महेश भट्ट भी “सेकुलर बयान की एक खट्टी डकार” ले लें… तो भाईयों-बहनों कुछ भी हो सकता है, आखिर एक “मासूम, अमनपसन्द, बेगुनाह, संवेदनशील… और भी न जाने क्या-क्या टाइप के मुस्लिम” का सवाल है बाबा…

सुरेश चिपलूनकर


गंगासागर की घटना से उभरे कुछ प्रश्न

दिनाँक 12 जून को पश्चिम बंगाल के सुदूर क्षेत्र में एक ऐसी घटना घटी जो सामान्य लोगों के लिये सामान्य नहीं थी पर उस राज्य के लिये सामान्य से भी सामान्य थी। हिन्दू संहति नामक एक हिन्दू संगठन द्वारा “वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक परिवेश” विषय पर एक कार्यशाला का आयोजन किया गया और उस कार्यशाला पर कोई 6,000 की मुस्लिम भीड ने आक्रमण कर दिया और इस कार्यशाला में शामिल सभी 180 लोगों पर पत्थर और गैस सिलिंडर फेंके। इस घटना में अनेक लोग घायल भी हुए और यहाँ तक कि जो 10 पुलिसवाले कार्यशाला में फँसे लोगों को बचाने आये उनकी जान के भी लाले पड गये। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार यह भीड प्रायोजित थी और कुछ स्थानीय कम्युनिष्ट कैडर द्वारा संचालित थी। लोगों का कहना है कि एक स्थानीय कम्युनिष्ट नेता जो अभी हाल में सम्पन्न हुए पंचायत चुनावों में पराजित हो गये हैं उन्होंने इस पूरे मामले को साम्प्रदायिक रंग देने का प्रयास किया और स्थानीय मुसलमानों को भडकाने और एकत्र करने में सक्रिय भूमिका निभाई।

आसपास के लोगों का कहना है कि मामला ऐसे आरम्भ हुआ कि कार्यशाला में भाग लेने आये प्रतिभागी गंगासागर से स्नान करके कार्यशाला आटो से लौट रहे थे और उत्साह में नारे लगा रहे थे। आटो चलाने वाला मुस्लिम समुदाय से था और उसे भारतमाता की जय, वन्देमातरम जैसे नारों पर आपत्ति हुई और उसने आटो में बैठे लोगों से नारा लगाने को मना किया साथ ही यह भी धमकी दी कि, “ तुम लोग ऐसे नहीं मानोगे तुम्हारा कुछ करना पडेगा” इतना कहकर वह स्थानीय मस्जिद में गया और कोई दस लोगों की फौज लेकर कार्यशाला स्थल वस्त्र व्यापारी समिति धर्मशाला में ले आया। इन लोगों ने कार्यशाला में जबरन प्रवेश करने का प्रयास किया तो दोनों पक्षों में टकराव हुआ और यह हूजूम चला गया। कुछ ही समय के उपरांत हजारों की संख्या में मुस्लिम समुदाय और कम्युनिष्ट कैडर मिलाकर एकत्र हो गया और कार्यशाला को घेर लिया तथा पत्थर और जलता गैस सिलिंडर कार्यशाला के अन्दर फेंकना आरम्भ कर दिया।

कार्यशाला और भीड के बीच कुछ घण्टों तक युद्ध का सा वातावरण रहा और कार्यशाला में अन्धकार था जबकि भीड प्रकाश में थी। भीड अल्लाहो अकबर का नारा माइक से लगा रही थी। कार्यशाला के प्रतिरोध के चलते भीड को कई बार पीछे की ओर भागना पडा। इस संघर्ष के कुछ देर चलते रहने के बाद दस पुलिसकर्मी आये और उनके भी जान के लाले पड गये। पुलिस टीम का प्रमुख तो प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार बंगाली में कह रहा था कि, “ बचेंगे भी कि नहीं” ।

घटनाक्रम किस प्रकार समाप्त हुआ किसी को पता नहीं। पुलिस के हस्तक्षेप से या स्वतः भीड संघर्ष से थक गयी यह स्पष्ट नहीं है। परंतु बाद में पुलिस से एकतरफा कार्रवाई की और भीड को साक्षी बनाकर हिन्दू संहति के प्रमुख तपन घोष पर अनेक धाराओं के अंतर्गत मुकदमा लगा दिया और गैर जमानती धाराओं में जेल भेज दिया। जिस प्रकार पुलिस ने एकतरफा कार्रवाई की उससे इस पूरे मामले के पीछे राजनीतिक मंशा और नीयत स्पष्ट है।

इस पूरे घटनाक्रम से कुछ मूलभूत प्रश्न उभरते हैं। जिनका उत्तर हमें स्वयं ढूँढना होगा। एक तो यह घटना मीडिया पर बडा प्रश्न खडा करती है और दूसरा देश में हिन्दुत्व के विरोध में संगठित हो रही शक्तियों पर। गंगासागर जैसे हिन्दुओं के प्रमुख तीर्थस्थल पर इतना विशाल साम्प्रदायिक आक्रमण हुआ और तथाकथित मुख्यधारा का मीडिया संवेदनशून्य बना रहा है। आखिर क्यों? इसके पीछे दो कारण लगते हैं।

एक तो पश्चिम बंगाल में कम्युनिष्टों के खूनी इतिहास को देखते हुए यह कोई महत्वपूर्ण घटना नहीं थी क्योंकि इसमें कोई मृत्यु नहीं हुई थी। दूसरा इस विषय को उठाने का अर्थ था कि किसी न किसी स्तर पर इस पूरे मामले की समीक्षा भी करनी पड्ती और इस समीक्षा में पश्चिम बंगाल में उभर रहे हिन्दुत्व का संज्ञान भी लेना पडता जिसके लिये भारत का मीडिया तैयार नहीं है।

तो क्या माना जाये कि मीडिया अब यथास्थितिवादी हो गया है और वामपंथ का सैद्धांतिक विरोध करने को तैयार नहीं है। या फिर यह माना जाये कि देश में अब उस स्तर की पत्रकारिता नहीं रही जो किसी परिवर्तन की आहट को पहचान सके। यही भूल भारत की पत्रकारिता ने 2002 में गोधरा के मामले को लेकर भी की थी और सेकुलरिज्म के चक्कर में जनता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति को भाँप न सकी थी। देश में हिन्दू- मुस्लिम समस्या बहुत बडा सच है और इससे मुँह फेरकर इसका समाधान नहीं हो सकता। शुतुरमुर्ग के रेत में सिर धँसाने से रेत का तूफान नहीं रूकता और न ही कबूतर के आंख बन्द कर लेने से बिल्ली भाग जाती है। आज भारत का मीडिया अनेक जटिल राष्ट्रीय मुद्दों पर पलायनवादी रूख अपना रहा है। इसका सीधा प्रभाव हमें मीडिया के वैकल्पिक स्रोतों के विकास के रूप में देखने को मिल रहा है।

गंगासागर में हुई इस घटना का उल्लेख किसी भी समाचारपत्र ने नहीं किया परंतु अनेक व्यक्तिगत ब्लाग और आपसी ईमेल के आदान प्रदान से यह सूचना समस्त विश्व में फैल गयी और लोगों ने पश्चिम बंगाल में स्थानीय प्रशासन को हिन्दू संहति के नेता तपन घोष की कुशल क्षेम के लिये सम्पर्क करना आरम्भ कर दिया। परंतु यह विषय भी अंग्रेजी ब्लागिंग तक ही सीमित रहा और इस भाषा में जहाँ यह विषय छाया रहा वहीं हिन्दी ब्लागिंग में इसके विषय में कुछ भी नहीं लिखा गया। हिन्दी ब्लागिंग में अब भी काफी प्रयास किये जाने की आवश्यकता और मीडिया का विकल्प बनने के लिये तो और भी व्यापक सुधार की आवश्यकता है। लेकिन जिस प्रकार अंग्रेजी ब्लागिंग जगत ने तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया की उपेक्षा के बाद भी गंगासागर में आक्रमण के विषय को अंतरराष्ट्रीय चर्चा का विषय बना दिया उससे यह बात तो साफ है कि मुख्यधारा के मीडिया अनुत्तरदायित्व और पलायनवादी रूख से उत्पन्न हो रही शून्यता को भरने के लिये ब्लागिंग पत्रकारिता की विधा के रूप में विकसित हो सकती है और इसके सम्भावनायें भी हैं।

गंगासागर में हिन्दू मुस्लिम संघर्ष या जिहादी आक्रमण से एक और गम्भीर प्रश्न उभर कर सामने आया है और वह है इस्लामवादी-वामपंथी मिलन का। गंगासागर की घटना के आसपास ही समाचारपत्रों में समाचार आया था कि केरल राज्य में माओवादियों और इस्लामवादियों ने बैठक कर यह निर्णय लिया है कि वे तथाकथित “ राज्य आतंकवाद”, “ साम्राज्यवाद” और हिन्दूवादी शक्तियो” के विरुद्ध एकजुट होकर लडेंगे। गंगासागर में हिन्दू कार्यशाला पर हुआ मुस्लिम- कम्युनिष्ट आक्रमण इस गठजोड का नवीनतम उदाहरण है। गंगासागर पर आक्रमण के अपने निहितार्थ हैं। यह तो निश्चित है कि इतनी बडी भीड बिना योजना के एकत्र नहीं की जा सकती और यदि यह स्वतः स्फूर्त भीड थी तो और भी खतरनाक संकेत है कि हिन्दू तीर्थ पर आयोजित किसी हिन्दू कार्यशाला पर आक्रमण की खुन्नस काफी समय से रही होगी। जो भी हो दोनों ही स्थितियों में यह एक खतरे की ओर संकेत कर रहा है।

भारत एक लोकतांत्रिक देश है किसी भी समुदाय या संगठन को देश की वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर विचार विमर्श का अधिकार है और यदि इस अधिकार को आतंकित कर दबाने का प्रयास होगा और राजसत्ता उसका समर्थन करेगी तो स्थिति कितनी भयावह होगी इसकी कल्पना की जा सकती है। गोधरा के सम्बन्ध में ऐसी स्थिति का सामना हम पहले कर भी चुके हैं फिर भी कुछ सीखना नहीं चाहते।

आज देश के सामने इस्लामी आतंकवाद अपने भयावह स्वरूप में हमारे समक्ष है अब यदि उसका रणनीतिक सहयोग देश के एक और खतरे माओवाद और कम्युनिज्म के नवीनतम संस्करण से हो जाता है तो उसका प्रतिकार तो करना ही होगा। यदि प्रशासन और सरकार या देश का बुद्धिजीवी समाज या फिर मीडिया जगत इस रणनीतिक सम्बन्ध की गम्भीरता को समझता नहीं तो इसकी प्रतिरोधक शक्तियों का सहयोग सभी को मिलकर करना चाहिये। अच्छा हो कि गंगासागर से उभरे प्रश्नों का ईमानदार समाधान करने का प्रयास हम करें।

भारत के इस्लामीकरण का खतरा

कश्मीर में अमरनाथ श्राइन बोर्ड के मुद्दे पर हुए विरोध और सरकार को झुका लेने के इस्लामी शक्तियों के अभियान के अपने निहितार्थ हैं। आगे चलकर ऐसे ही प्रयास स्थानीय विषयों को लेकर प्रत्येक मुस्लिम बहुल क्षेत्रें में होंगे।

अभी कुछ दिनों पूर्व जब मैंने पश्चिम बंगाल की यात्र की तो भारत पर मंडरा रहे एक बड़े खतरे से सामना हुआ और यह खतरा है भारत के इस्लामीकरण का खतरा। पश्चिम बंगाल की इस यात्र का प्रयोजन हिन्दू संहति के नेता तपन घोष सहित उन 15 लोगों से मिलना था जिन्हें 12 जून, 2008 को हिन्दू संहति की कार्यशाला पर हुए मुस्लिम आक्रमण के बाद हिरासत में ले लिया गया था। तपन घोष को गंगासागर और कोलकाता के मध्य डायमण्ड हार्बर नामक स्थान पर जेल में रखा गया था। मैं अपने मित्र के साथ 23 जून को कोलकाता पहुंचा। दोपहर में पहुंचने के कारण उस दिन तपन घोष से मिलने का कार्यक्रम नहीं बन सका और हमें अगली सुबह की प्रतीक्षा करनी पड़ी। अगले दिन प्रात: काल ही हमने सियालदह से लोकल ट्रेन पकड़ी और डायमण्ड हार्बर के लिये रवाना हो गए। कोई दो घण्टे की यात्र के उपरांत हम अपने गंतव्य पर पहुंचे और जेल में तपन घोष सहित सभी लोगों से भेंट हुई, जिन्हें अपने ऊपर हुए आक्रमण के बाद भी जेल में बन्द कर दिया गया था। जेल में हुई भेंट से पूर्व जो सज्जन हमें तपन घोष से मिलाने ले गए थे उन्होंने बताया कि हिन्दुओं का विषय उठाने के कारण उन्हें भी जेल में महीने भर के लिए बन्द कर दिया गया था। उन्होंने जेल के अन्दर की जो कथा सुनाई उससे न केवल आश्चर्य हुआ वरन हमें सोचने को विवश होना पड़ा कि भारत के इस्लामीकरण का मार्ग प्रशस्त हो रहा है।

भारत के इस्लामीकरण की सम्भावना व्यक्त करने के पीछे वे घटनाएं हैं जो स्थानीय तथ्यों पर आधारित हैं। 12 जून को जो आक्रमण हिन्दू संहति की कार्यशाला पर हुआ उसमें अग्रणी भूमिका निभाने वाले व्यक्ति का नाम इस्माइल शेख है जिसका गंगासागर क्षेत्र में दबदबा है और यही व्यक्ति आस-पास के क्षेत्रें में जल की आपूर्ति कर करोड़ों रुपये बनाता है पर बदले में इसकी शह पर गंगासागर से सटे क्षेत्रें में खुलेआम गोमांस की बिक्री होती है। एक ओर जहां देश के अन्य तीर्थ स्थलों में गोमांस की बिक्री निषिध्द है वहीं यह क्षेत्र इसका अपवाद है क्योंकि पूरे गंगासागर में मस्जिदों का जाल है और इस्माइल शेख की दादागीरी है। रही सही कसर कम्युनिष्ट सरकार ने पूरी कर दी है और यहां तीर्थ कर लगता है। गंगासागर में प्रवेश करने के बाद आंखों के सामने मुगलकालीन दृश्य उपस्थित हो जाता है और ऐसा प्रतीत होता है मानो इस्लामी क्षेत्र में हिन्दू अपने लिये तीर्थ की भीख मांग रहा है। यह पहला अवसर है जब पश्चिम बंगाल में कम्युनिष्ट और इस्लामवादियों ने मिलकर किसी हिन्दू तीर्थ पर आक्रमण किया है।

पश्चिम बंगाल की यात्र के बाद इस्लामीकरण की आशंका तब पूरी तरह सत्य सिध्द हुई जब कोलकाता से गंगासागर तक पड़ने वाले क्षेत्रें की भूजनांकिकीय स्थिति के बारे में लोगों ने बताया। कुछ क्षेत्र और जिले तो ऐसे हैं जहां दस वर्षों में जनसंख्या की वृध्दि की दर 200 प्रतिशत रही है। कभी-कभार कुछ जिलाधिकारियों या आईएएस अधिकारियों ने अपनी ओर से अपने क्षेत्र की जनसंख्या का हिसाब किया लेकिन जिन लोगों ने इस विषय में अधिक रुचि दिखाई उनका स्थानांतरण कर दिया गया। फिर भी भगोने के एक चावल से पूरे चावल का अनुमान हो जाता है और उस अनुमान के आधार पर कहा जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में इस समय जनसंख्या का अनुपात पूरी तरह बिगड़ गया है और इसका सीधा असर इस्लामवादियों की आक्रामकता में देखा जा सकता है।

मुस्लिम घुसपैठियों की जनसंख्या से जहा एक ओर इस राज्य के इस्लामीकरण का खतरा उत्पन्न हो गया है वहीं कम से एक करोड़ हिन्दू इस राज्य में ऐसा है जिसे देश या राज्य के नागरिक का दर्जा नहीं मिला है। एक ओर जहां बीते दशकों में बांग्लादेशी घुसपैठियों का स्वागत इस राज्य में राजनीतिक दलों ने दोनों हाथों में हार लेकर किया है वहीं 1971 के बाद से बांग्लादेश से आए हिन्दुओं का नाम भी मतदाता सूची में नहीं है और यदि उन्हें नागरिक का दर्जा दिया भी गया है तो पिता का नाम हटा दिया गया है। इस पर तीखी टिप्पणी करते हुए बंगाल के एक हिन्दू ने कहा कि हमें तो सरकार ने हरामी बना दिया और बिना बाप का कर दिया। लेकिन इस ओर किसी भी राजनीतिक दल का ध्यान नहीं जाता। एक बड़ा खतरा यह भी है कि मुस्लिम घुसपैठी न केवल मतदाता सूची में अंकित हैं, या उनके पास राशन कार्ड है, उन्होंने अपना नाम भी हिन्दू कर लिया है और सामान्य बांग्लादेशियों के साथ घुलमिल गए हैं। यह इस्लामी आतंकवादियों और इस्लामवादियों के सबसे निकट हैं जो कभी भी राज्य की सुरक्षा और धार्मिक सौहार्द के लिए खतरा बन सकते हैं।

ऐसा नहीं है कि बढ़ते इस्लामीकरण का असर देखने को नहीं मिल रहा है। जेल में एक माह बिता चुके एक हिन्दू नेता ने बताया कि डायमण्ड हार्बर जेल में सात नंबर की कोठरी ऐसी है जिसमें केवल मुसलमान कैदी हैं और उन्होंने अपनी कोठरी के एक भाग को कंबल से ढंक रखा है और उसे कंबल मस्जिद का नाम दे दिया है। इस क्षेत्र के आसपास के स्नानागार और शौचालय में काफिरों को जाने की अनुमति नहीं है। यही नहीं हिन्दुओं को ये लोग इस कदर परेशान करते हैं कि उन्हें शौचालय में अपने धर्म के विपरीत दाहिने हाथ का प्रयोग करने पर विवश करते हैं। मुस्लिम कैदियों की एकता और जेल के बाहर उनकी संख्या देखकर जेल प्रशासन भी उनकी बात मानने और उन्हें मनमानी करने देने के सिवा कोई और चारा नहीं देखता।

पश्चिम बंगाल में जिन दिनों हम यात्र पर थे उन्हीं दिनों जम्मू कश्मीर में अमरनाथ यात्र को लेकर चल रहे विवाद के बारे में भी सुना। जेल में तपन घोष से मिलने के बाद जब हम एक घर में भोजन कर रहे थे तो टेलीविजन पर अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने के मामले पर चल रहे विरोध प्रदर्शन पर कश्मीर घाटी के पूर्व आतंकवादी और जेकेएलएफ के प्रमुख यासीन मलिक का बयान आ रहा था कि अमरनाथ यात्र का प्रबंधन पिछले अनेक वर्षों र्से मुस्लिम हाथों में है और इसकी रायल्टी से कितने ही मुस्लिम युवकों को रोजगार मिलता है। कितना भोंडा तर्क है यह कि हिन्दू तीर्थ यात्र का प्रबन्धन मुस्लिम हाथों में हो। क्या ये मुसलमान अजमेर शरीफ का प्रबन्धन, वक्फ बोर्ड का प्रबन्धन, हज का प्रबन्धन हिन्दू हाथों में देंगे तो फिर अमरनाथ यात्र का प्रबन्धन मुस्लिम हाथों में क्यों?

अमरनाथ यात्र को लेकर जो विवाद श्राइन बोर्ड को राज्यपाल द्वारा दी गई जमीन से उठा था उसकी जड़ें काफी पुरानी हैं। 2005 में भी जब तत्कालीन राज्यपाल ने अमरनाथ यात्र की अवधि बढ़ाकर 15 दिन से दो माह कर दी थी तो भी तत्कालीन पीडीपी मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने इसका विरोध कर इस प्रस्ताव को वापस यह कहकर किया था कि प्रदूषण होगा और सुरक्षा बलों को यात्र में लगाना पड़ेगा जिससे कानून व्यवस्था पर असर होगा। बाद में सहयोगी कांग्रेस के दबाव के चलते मुफ्ती को झुकना पड़ा था और यात्र की अवधि बढ़ गई थी। इसी प्रकार मुख्यमंत्री रहते हुए मुफ्ती ने राज्यपाल एस.के.सिन्हा के कई निर्णयों पर नाराजगी जताई थी। मुफ्ती ने कुछ महीने पूर्व जम्मू कश्मीर में पाकिस्तानी मुद्रा चलाने का भी सुझाव दिया था। पीडीपी की अध्यक्षा महबूबा मुफ्ती तो खुलेआम पाकिस्तान की भाषा बोलती हैं। ऐसे में अमरनाथ यात्र को लेकर हुआ विवाद तो बहाना है, असली निशाना तो कश्मीर का इस्लामीकरण है। कश्मीर का इस्लामीकरण पूरी तरह हो भी चुका है। यही कारण है कि वहां की सरकार ने घुटने टेक दिए और इस्लामी शक्तियों की बात मान ली। परंतु कश्मीर में हुए इस विरोध और सरकार को झुका लेने के इस्लामी शक्तियों के अभियान के अपने निहितार्थ हैं और ऐसे ही प्रयास स्थानीय विषयों को लेकर प्रत्येक मुस्लिम बहुल क्षेत्रें में होंगे। पश्चिम बंगाल, असम, बिहार के सीमावर्ती क्षेत्र अब अगले निशाने पर होंगे जब वहां से एक और पाकिस्तान की मांग उठेगी। इससे पूर्व कि भारत के इस्लामीकरण का मार्ग प्रशस्त हो और देश धार्मिक आधार पर कई टुकड़ों में विभाजित हो जाए, हमें अपनी कुम्भकर्ण निद्रा त्याग कर इस्लाम के खतरे को पहचान लेना चाहिए जो अब हमारे दरवाजे पर दस्तक दे रहा है।

अमिताभ त्रिपाठी