मंगलवार, 11 जनवरी 2011

शास्त्रीय नृत्य

भारत में शास्त्रीय और लोक परम्पराओं के ज़रिये एक प्रकार की नृत्य-नाटिका का उदय हुआ है। जो पूर्णतः एक नाट्य स्वरूप है। इसमे अभिनेता जटिल भंगिमापूर्ण भाषा के ज़रिये एक कथा को नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत करता है और यह स्वरूप अपने सार्वभौमिक प्रभाव में उपमहाद्वीप की भाषाई सीमाओं से ऊपर उठ चुका है। कुछ शास्त्रीय नृत्य-नाटिकाओं (जैसे-कथकली, कुचिपुड़ी) में लोकप्रिय हिन्दू पौराणिक कथाओं का अभिनय होता है। भारत में नृत्य की जड़ें प्राचीन परंपराओं में है। इस विशाल उपमहाद्वीप में नृत्यों की विभिन्ऩ विधाओं ने जन्म- लिया है। प्रत्ये‍क विधा ने विशिष्ट समय व वातावरण के प्रभाव से आकार लिया है। प्रत्येक विधा किसी विशिष्ट क्षेत्र अथवा व्यक्तियों के समूह के लोकाचार का प्रतिनिधित्व करती है।

भरतनाट्यम

शास्त्रीय नृत्य का यह एक प्रसिद्ध नृत्य है। भरत नाट्यम, भारत के प्रसिद्ध नृत्‍यों में से एक है तथा इसका संबंध दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्‍य से है। यह नाम 'भरत' शब्‍द से लिया गया तथा इसका संबंध नृत्‍यशास्‍त्र से है। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा, हिंदू देवकुल के महान त्रिदेवों में से प्रथम, नाट्य शास्‍त्र अथवा नृत्‍य विज्ञान हैं। इन्‍द्र व स्‍वर्ग के अन्‍य देवताओं के अनुनय-विनय से ब्रह्मा इतना प्रभावित हुआ कि उसने नृत्‍य वेद सृजित करने के लिए चारों वेदों का उपयोग किया। नाट्य वेद अथवा पंचम वेद, भरत व उसके अनुयाइयों को प्रदान किया गया जिन्‍होंने इस विद्या का परिचय पृथ्‍वी के नश्‍वर मनुष्‍यों को दिया। अत: इसका नाम भरत नाट्यम हुआ। भरत नाट्यम में नृत्‍य के तीन मूलभूत तत्‍वों को कुशलतापूर्वक शामिल किया गया है। ये हैं-

  • भाव अथवा मन:स्थिति,
  • राग अथवा संगीत और स्‍वरमार्धुय और
  • ताल अथवा काल समंजन।

भरत नाट्यम की तकनीक में हाथ, पैर, मुख व शरीर संचालन के समन्‍वयन के 64 सिद्धांत हैं, जिनका निष्‍पादन नृत्‍य पाठ्यक्रम के साथ किया जाता है। भरत नाट्यम में जीवन के तीन मूल तत्‍व – दर्शन शास्‍त्र, धर्म व विज्ञान हैं। यह एक गतिशील व सांसारिक नृत्‍य शैली है, तथा इसकी प्राचीनता स्‍वयं सिद्ध है। इसे सौंदर्य व सुरुचि संपन्‍नता का प्रतीक ब‍ताया जाना पूर्णत: संगत है। वस्‍तुत: य‍ह एक ऐसी परंपरा है, जिसमें पूर्ण समर्पण, सांसारिक बंधनों से विरक्ति तथा निष्‍पादनकर्ता का इसमें चरमोत्‍कर्ष पर होना आवश्‍यक है। भरत नाट्यम तुलनात्‍मक रूप से नया नाम है। पहले इसे सादिर, दासी अट्टम और तन्‍जावूरनाट्यम के नामों से जाना जाता था। विगत में इसका अभ्‍यास व प्रदर्शन नृत्‍यांगनाओं के एक वर्ग जिन्‍‍हें 'देवदासी' के रूप में जाना जाता है, द्वारा मंदिरों में किया जाता था। भरत नाट्यम के नृत्‍यकार मुख्‍यत: महिलाएं हैं, वे मूर्तियों के अनुसार अपनी मुद्राएं बनाती हैं, सदैव घुटने मोड़ कर नृत्‍य करती हैं। यह नितांत परिशुद्ध शैली है, जिसमें मनोदशा व अभिव्‍यंजना संप्रेषित करने के लिए हस्‍त संचालन का विशाल रंगपटल प्रयोग किया जाता है। भरत नाट्यम अनुनादी है तथा इसमें नर्तक को बहुत मेहनत करनी पड़ती है। शरीर ऐसा जान पड़ता है मानो त्रिभुजाकार हो, एक हिस्‍सा धड़ से ऊपर व दूसरा नीचे। यह, शरीर भार के नियंत्रित वितरण, व निचले अंगों की सुदृढ़ स्थिति पर आधारित होता है, ताकि हाथों को एक पंक्ति में आने, शरीर के चारों ओर घुमाने अथवा ऐसी स्थितियाँ बनाने, जिससे मूल स्थिति और अच्‍छी हो, में सहूलियत हो।


कथकली

केरल के दक्षिण - पश्चिमी राज्‍य का एक समृद्ध और फलने फूलने वाला शास्त्रीय नृत्य कथकली यहाँ की परम्‍परा है। कथकली का अर्थ है एक कथा का नाटक या एक नृत्‍य नाटिका। कथा का अर्थ है कहानी, यहाँ अभिनेता रामायण और महाभारत के महाग्रंथों और पुराणों से लिए गए चरित्रों को अभिनय करते हैं। यह अत्‍यंत रंग बिरंगा नृत्‍य है। इसके नर्तक उभरे हुए परिधानों, फूलदार दुपट्टों, आभूषणों और मुकुट से सजे होते हैं। वे उन विभिन्‍न भूमिकाओं को चित्रित करने के लिए सांकेतिक रूप से विशिष्‍ट प्रकार का रूप धरते हैं, जो वैयक्तिक चरित्र के बजाए उस चरित्र के अधिक नज़दीक होते हैं। विभिन्‍न विशेषताएं, मानव, देवता समान, दैत्‍य आदि को शानदार वेशभूषा और परिधानों के माध्‍यम से प्रदर्शित किया जाता है। इस नृत्‍य का सबसे अधिक प्रभावशाली भाग यह है कि इसके चरित्र कभी बोलते नहीं हैं, केवल उनके हाथों के हाव भाव की उच्‍च विकसित भाषा तथा चेहरे की अभिव्‍यक्ति होती है जो इस नाटिका के पाठ्य को दर्शकों के सामने प्रदर्शित करती है। उनके चेहरे के छोटे और बड़े हाव भाव, भंवों की गति, नेत्रों का संचलन, गालों, नाक और ठोड़ी की अभिव्‍यक्ति पर बारीकी से काम किया जाता है तथा एक कथकली अभिनेता - नर्तक द्वारा विभिन्‍न भावनाओं को प्रकट किया जाता है। इसमें अधिकांशत: पुरुष ही महिलाओं की भूमिका निभाते हैं, जबकि अब कुछ समय से महिलाओं को कथकली में शामिल किया जाता है। वर्तमान समय का कथकली एक नृत्‍य नाटिका की परम्‍परा है जो केरल के नाट्य कर्म की उच्‍च विशिष्‍ट शैली की परम्‍परा के साथ शताब्दियों पहले विकसित हुआ था, विशेष रूप से कुडियाट्टम। पारम्‍परिक रीति रिवाज जैसे थेयाम, मुडियाट्टम और केरल की मार्शल कलाएं नृत्‍य को वर्तमान स्‍वरूप में लाने के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।


कथक

शास्त्रीय नृत्य में कथक का नृत्‍य रूप 100 से अधिक घुंघरु‍ओं को पैरों में बांध कर तालबद्ध पदचाप, विहंगम चक्‍कर द्वारा पहचाना जाता है और हिन्दू धार्मिक कथाओं से ली गई विषय वस्‍तुओं का नाटकीय प्रस्‍तुतीकरण किया जाता है। कथक का जन्‍म उत्तर में हुआकथक की शैली का जन्‍म ब्राह्मण पुजारियों द्वारा हिन्‍दुओं की पारम्‍परिक पुन: गणना में निहित है, जिन्‍हें क‍थिक कहते थे, जो नाटकीय अंदाज में हाव भावों का उपयोग करते थे। क्रमश: इसमें कथा कहने की शैली और अधिक विकसित हुई तथा एक नृत्‍य रूप बन गया। शब्‍द कथक का उद्भव 'कथा' से हुआ है, जिसका शाब्दिक अर्थ है कहानी कहना। पुराने समय में कथा वाचक गानों के रूप में इसे बोलते और अपनी कथा को एक नया रूप देने के लिए नृत्‍य करते। इससे कथा कलाक्षेपम और दक्षिण भारत में हरी कथा का रूप बना और यही उत्तर भारत में कथक के रूप में जाना जाता है। 16वीं शताब्‍दी के अंत तक कसे हुए चूड़ीदार पायजामे को कथक नृत्‍य की वेशभूषा मान लिया गया। वर्तमान समय का कथक सीधे पैरों से किया जाता है और पैरों में पहने हुए घुंघरुओं को नियंत्रित किया जाता है। कथक में एक उत्तेजना और मनोरंजन की विशेषता है जो इसमें शामिल पद ताल और तेजी से चक्‍कर लेने की प्रथा के कारण है जो इसमें प्रभावी स्‍थान रखती है तथा इस शैली की सबसे अधिक महत्‍वपूर्ण विशेषता है। जबकि यह नाट्य शास्‍त्र के समान नहीं हैं फिर भी कथक के सिद्धांत अनिवार्यत: इसके समान ही हैं। यहाँ हस्‍त मुद्राओं के भरत नाट्यम में दिए जाने वाले बल की तुलना में पद ताल पर अधिक जोर दिया जाता है।


ओडिसी

ओडिसी को पुरातात्विक साक्ष्‍यों के आधार पर सबसे पुराने जीवित शास्त्रीय नृत्य रूपों में से एक माना जाता है। उड़ीसा के पारम्‍परिक नृत्‍य, ओडिसी का जन्‍म मंदिर में नृत्‍य करने वाली देवदासियों के नृत्‍य से हुआ था। ओडिसी नृत्‍य का उल्‍लेख शिला लेखों में मिलता है, इसे ब्रह्मेश्‍वर मंदिर के शिला लेखों में दर्शाया गया है साथ ही कोणार्क के सूर्य मंदिर के केन्‍द्रीय कक्ष में इसका उल्‍लेख मिलता है। वर्ष 1950 में इस पूरे नृत्‍य रूप को एक नया रूप दिया गया, जिसके लिए अभिनय चंद्रिका और मंदिरों में पाए गए तराशे हुए नृत्‍य की मुद्राएं धन्‍यवाद के पात्र हैं। किसी अन्‍य भारतीय शास्‍त्रीय नृत्‍य रूप के समान ओडिसी के दो प्रमुख पक्ष हैं: नृत्‍य या गैर निरुपण नृत्‍य, जहाँ अंतरिक्ष और समय में शरीर की भंगिमाओं का उपयोग करते हुए सजावटी पैटर्न सृजित किए जाते हैं। इसका एक अन्‍य रूप अभिनय है, जिसे सांकेतिक हाथ के हाव भाव और चेहरे की अभिव्‍यक्तियों को कहानी या विषयवस्तु समझाने में उपयोग किया जाता है।इसमें त्रिभंग पर ध्‍यान केन्द्रित किया जाता है, जिसका अर्थ है शरीर को तीन भागों में बांटना, सिर, शरीर और पैर; मुद्राएं और अभिव्‍यक्तियाँ भरत नाट्यम के समान होती है। ओडिसी नृत्‍य में कृष्ण, भगवान विष्णु के आठवें अवतार के बारे में कथाएं बताई जाती हैं। यह एक कोमल, कवितामय शास्‍त्री नृत्‍य है जिसमें उड़ीसा के परिवेश तथा इसके सर्वाधिक लोकप्रिय देवता, भगवान जगन्नाथ की महिमा का गान किया जाता है। ओडिसी नृत्‍य भगवान कृष्‍ण के प्रति समर्पित है और इसके छंद संस्‍कृति नाटक गीत गोविंदम से लिए गए हैं, जिन्‍हें प्रेम और भगवान के प्रति समर्पण को प्रदर्शित करने में उपयोग किया जाता है।


मणिपुरी

पूर्वोत्तर के मणिपुर क्षेत्र से आया शास्त्रीय नृत्य मणिपुरी नृत्‍य है। मणिपुरी नृत्‍य भारत के अन्‍य नृत्‍य रूपों से भिन्‍न है। इसमें शरीर धीमी गति से चलता है, सांकेतिक भव्‍यता और मनमोहक गति से भुजाएं अंगुलियों तक प्रवाहित होती है। यह नृत्‍य रूप 18वीं शताब्‍दी में वैष्णव सम्प्रदाय के साथ विकसित हुआ जो इसके शुरूआती रीति रिवाज और जादुई नृत्‍य रूपों में से बना है। विष्णु पुराण,भागवत पुराण तथा गीत गोविंदम की रचनाओं से आई विषय वस्‍तुएं इसमें प्रमुख रूप से उपयोग की जाती हैं।
मणिपुर की मेइटी जनजाति की दंत कथाओं के अनुसार जब ईश्‍वर ने पृथ्‍वी का सृजन किया तब यह एक पिंड के समान थी। सात लैनूराह ने इस नव निर्मित गोलार्ध पर नृत्‍य किया, अपने पैरों से इसे मजबूत और चिकना बनाने के लिए इसे कोमलता से दबाया। यह मेइटी जागोई का उद्भव है। आज के समय तक जब मणिपुरी लोग नृत्‍य करते हैं वे क़दम तेजी से नहीं रखते बल्कि अपने पैरों को भूमि पर कोमलता और मृदुता के साथ रखते हैं। मूल भ्रांति और कहानियां अभी भी मेइटी के पुजारियों या माइबिस द्वारा माइबी के रूप में सुनाई जाती है जो मणिपुरी की जड़ है। महिला 'रास' नृत्‍य राधा कृष्ण की विषयवस्‍तु पर आधारित है जो बेले तथा एकल नृत्‍य का रूप है। पुरुष "संकीर्तन" नृत्‍य मणिपुरी ढोलक की ताल पर पूरी शक्ति के साथ किया जाता है। मणिपुरी नृत्‍य के सांगीतिक रूप मणिपुर राज्‍य की संस्‍कृति को दर्शाते हैं। यह कला प्राथमिक रूप से विष्णु के जीवन की घटनाओं को प्रदर्शित करते हैं और इसकी अभिव्‍यक्ति सर्वाधिक कोमल और शक्तिमय रूप से की जाती है। संतुलन और शक्ति को बांधे रखना इस नृत्‍य शैली की प्रमुख विशेषताएं हैं।

मोहनी अट्टम

मोहिनीअट्टम केरल की महिलाओं द्वारा किया जाने वाला अर्ध शास्त्रीय नृत्य है जो कथकली से अधिक पुराना माना जाता है। साहित्यिक रूप से नृत्‍य के बीच मुख्‍य माना जाने वाला जादुई मोहिनीअटट्म केरल के मंदिरों में प्रमुखत: किया जाता था। यह देवदासी नृत्‍य विरासत का उत्तराधिकारी भी माना जाता है जैसे कि भरतनाट्यम, कुची पुडी और ओडिसी। इस शब्‍द मोहिनीका अर्थ है एक ऐसी महिला जो देखने वालों का मन मोह लें या उनमें इच्‍छा उत्‍पन्‍न करें। यह भगवान विष्णु की एक जानी मानी कहानी है कि जब उन्‍होंने दुग्‍ध सागर के मंथन के दौरान लोगों को आकर्षित करने के लिए मोहिनी का रूप धारण किया था और भामासुर के विनाश की कहानी इसके साथ जुड़ी हुई है। अत: यह सोचा गया है कि वैष्‍णव भक्तों ने इस नृत्‍य रूप को मोहिनीअटट्म का नाम दिया। मोहिनीअटट्म का प्रथम संदर्भ माजामंगलम नारायण नब्‍बूदिरी द्वारा संकल्पित व्‍यवहार माला में पाया जाता है जो 16वीं शताब्‍दी ए डी में रचा गया। 19वीं शताब्‍दी में स्‍वाति तिरुनाल, पूर्व त्रावण कोर के राजा थे, जिन्‍होंने इस कला रूप को प्रोत्‍साहन और स्थिरीकरण देने के लिए काफ़ी प्रयास किए। स्‍वाति के पश्‍चात के समय में यद्यपि इस कला रूप में गिरावट आई। किसी प्रकार यह कुछ प्रांतीय जमींदारों और उच्‍च वर्गीय लोगों के भोगवादी जीवन की संतुष्टि के लिए कामवासना तक गिर गया। कवि वालाठोल ने इसे एक बार फिर नया जीवन दिया और इसे केरल कला मंडलम के माध्‍यम से एक आधुनिक स्‍थान प्रदान किया, जिसकी स्‍थापना उन्‍होंने 1903 में की थी। कलामंडलम कल्‍याणीमा, कलामंडलम की प्रथम नृत्‍य शिक्षिका थीं जो इस प्राचीन कला रूप को एक नया जीवन देने में सफल रहीं। उनके साथ कृष्‍णा पणीकर, माधवी अम्‍मा और चिन्‍नम्‍मू अम्‍मा ने इस लुप्‍त होती परम्‍परा की अंतिम कडियां जोड़ी जो कलामंडल के अनुशासन में पोषित अन्‍य आकांक्षी थीं। मोहिनीअटट्म की विषय वस्‍तु प्रेम तथा भगवान के प्रति समर्पण है। विष्‍णु या कृष्ण इसमें अधिकांशत: नायक होते हैं। इसके दर्शक उनकी अदृश्‍य उपस्थिति को देख सकते हैं जब नायिका या महिला अपने सपनों और आकांक्षाओं का विवरण गोलाकार गतियों, कोमल पद तालों और गहरी अभिव्‍यक्ति के माध्‍यम से देती है। नृत्‍यांगना धीमी और मध्‍यम गति में अभिनय के लिए पर्याप्‍त स्‍थान बनाने में सक्षम होती है और भाव प्रकट कर पाती है। इस रूप में यह नृत्‍य भरत नाट्यम के समान लगता है। इसकी गतिविधियों ओडीसी के समान भव्‍य और इसके परिधान सादे तथा आकर्षक होते हैं। यह अनिवार्यत: एकल नृत्‍य है किन्‍तु वर्तमान समय में इसे समूहों में भी किया जाता है। मोहिनीअटट्म की परम्‍परा भरत नाट्यम के काफ़ी क़्ररीब चलती है। चोल केतु के साथ आरंभ करते हुए नृत्‍यांगना जाठीवरम, वरनम, पदम और तिलाना क्रम से करती है। वरनम में शुद्ध और अभिव्‍यक्ति वाला नृत्‍य किया जाता है, जबकि पदम में नृत्‍यांगना की अभिनय कला की प्रतिभा‍ दिखाई देती है जबकि तिलाना में उसकी तकनीकी कलाकारी का प्रदर्शन होता है।

मूलभूत नृत्‍य ताल चार प्रकार के होते हैं:

  • तगानम,
  • जगानम,
  • धगानम और
  • सामीश्रम।

ये नाम वैट्टारी नामक वर्गीकरण से उत्‍पन्‍न हुए हैं। मोहिनीअटट्म में सहज लगने वाली साज सज्‍जा और सरल वेशभूषा धारण की जाती है। नृत्‍यांगना को केरल की सफेद और सुनहरी किनारी वाली सुंदर कासावू साड़ी में सजाया जाता है। अन्‍य नृत्‍य रूपों के समान मोहिनीअटट्म में हस्‍त लक्षण दीपिका को अपनाया जाता है, जैसा कि मुद्रा की पाठ्य पुस्‍तक या हाथ के हाव भाव में दिया गया है। मोहिनीअटट्म के लिए मौखिक संगीत की शैली, जैसा कि आमतौर पर देखा गया है, शास्‍त्रीय कर्नाटक है। इसके गीत महाराजा स्‍वाति तिरुनल और इराइमान थम्‍पी द्वारा किए गए हैं जो मणिप्रवाल (संस्‍कृत और मलयालम का मिश्रण) में हैं। हाल ही में थोपी मडालम और वीना ने मोहिनीअटट्म में पृष्‍ठभूमि संगीत प्रदान किया। उनके स्‍थान पर हाल के वर्षों में मृदंगम और वायलिन आ गया है।


कुचिपुड़ि

कुचीपुडी आंध्र प्रदेश की एक स्‍वदेशी नृत्‍य शैली है जिसने इसी नाम के गांव में जन्‍म लिया और पनपी, इसका मूल नाम कुचेलापुरी या कुचेलापुरम था, जो कृष्‍णा ज़िले का एक कस्‍बा है। अपने मूल से ही यह तीसरी शता‍ब्‍दी बीसी में अपने धुंधले अवशेष छोड़ आई है, यह इस क्षेत्र की एक निरंतर और जीवित नृत्‍य परम्‍परा है। कुचीपुडी कला का जन्‍म अधिकांश भारतीय शास्‍त्रीय नृत्‍यों के समान धर्मों के साथ जुड़ा हुआ है। एक लम्‍बे समय से यह कला केवल मंदिरों में और वह भी आंध्र प्रदेश के कुछ मंदिरों में वार्षिक उत्‍सव के अवसर पर प्रदर्शित की जाती थी। परम्‍परा के अनुसार कुचीपुडी नृत्‍य मूलत: केवल पुरुषों द्वारा किया जाता था और वह भी केवल ब्राह्मण समुदाय के पुरुषों द्वारा। ये ब्राह्मण परिवार कुचीपुडी के भागवतथालू कहलाते थे। कुचीपुडी के भागवतथालू ब्राह्मणों का पहला समूह 1502 ए. डी. निर्मित किया गया था। उनके कार्यक्रम देवताओं को समर्पित किए जाते थे तथा उन्‍होंने अपने समूहों में महिलाओं को प्रवेश नहीं दिया। महिला नृत्‍यांगनाओं के शोषण के कारण नृत्य कला के ह्रास के युग में एक सिद्ध पुरुष सिद्धेंद्र योगी ने नृत्‍य को पुन: परिभाषित किया। कुचीपुडी के पंद्रह ब्राह्मण परिवारों ने पांच शताब्दियों से अधिक समय तक परम्‍परा को आगे बढ़ाया है। प्रतिष्ठित गुरु जैसे वेदांतम लक्ष्‍मी नारायण, चिंता कृष्‍णा मूर्ति और ता‍देपल्‍ली पेराया ने महिलाओं को इसमें शामिल कर नृत्‍य को और समृद्ध बनाया है। डॉ. वेमापति चिन्‍ना सत्‍यम ने इसमें कई नृत्‍य नाटिकाओं को जोड़ा और कई एकल प्रदर्शनों की नृत्‍य संरचना तैयार की और इस प्रकार नृत्‍य रूप के क्षितिज को व्‍यापक बनाया। यह परम्‍परा तब से महान बनी हुई है जब पुरुष ही महिलाओं का अभिनय करते थे और अब महिलाएं पुरुषों का अभिनय करने लगी हैं। कुचीपुडी कला एक ऐसे नृत्‍य नाटिका के रूप में आशयित की गई थी, जिसके लिए चरित्र का एक सैट आवश्‍यक था, जो केवल एक नर्तक द्वारा किया जाने वाला नृत्‍य नहीं था जो आज के समय में प्रचलित है। इस नृत्‍य नाटिका को कभी कभी अट्टा भागवतम कहते हैं। इसके नाटक तेलुगु भाषा में लिखे जाते हैं और पारम्‍परिक रूप से सभी भूमिकाएं केवल पुरुषों द्वारा निभाई जाती है। कुचीपुडी नाटक खुले और अभिनय के लिए तैयार मंचों पर खेले जाते हैं। इसके प्रस्‍तुतिकरण कुछ पारम्‍परिक रीति के साथ शुरू होते हैं और फिर दर्शकों को पूरा दृश्‍य प्रदर्शित किया जाता है। तब सूत्रधार मंच पर सहयोगी संगीतकारों के साथ आता है और ड्रम तथा घंटियों की ताल पर नाटक की शुरूआत करता है। एक कुचीपुडी प्रदर्शन में प्रत्‍येक प्रधान चरित्र दारु के साथ आकर स्‍वयं अपना परिचय देता है। दारु नृत्‍य की एक छोटी रचना है और प्रत्‍येक चरित्र को अपनी पहचान प्रकट करने के लिए एक विशेष गीत दिया जाता है साथ ही वह‍ नृत्‍यकार को कला का कौशल दर्शाने में भी सहायता देता है। एक नृत्‍य नाटिका में लगभग 80 दारु या नृत्‍य क्रम होते हैं। एक सुंदर पर्दे के पीछे, जिसे दो व्‍यक्ति पकड़ते हैं, सत्‍यभामा दर्शकों की ओर पीठ किए हुए मंच पर आती हैं। भामा कल्‍पम में सत्‍यभामा विप्रलांबा नायिकी या नायिका हैं जिसे उसका प्रेमी छोड़ गया है और वह उसकी अनुपस्थिति में उदास है। कुचीपुडी नृत्‍य का सबसे अधिक लोकप्रिय रूप मटका नृत्‍य है जिसमें एक नर्तकी मटके में पानी भर कर और उसे अपने सिर पर रखकर पीतल की थाली में पैर जमा कर नृत्‍य करती है। वह पीतल की थाली पर नियंत्रण रखते हुए पूरे मंच पर नृत्‍य करती है और इस पूरे संचलन के दौरान श्रोताओं को चकित कर देने के लिए उसके मटके से पानी की एक बूंद भी नहीं गिरती है। भामा कल्‍पम के अलावा एक अन्‍य प्रसिद्ध नृत्‍य नाटिका है गोला कलापम जिसे भगवत रामाया ने लिखा है, तिरुमाला नारयण चिरयालु द्वारा लिखित प्रहलाद चरितम, शशि रेखा परिणय आदि। इस कला की साज सज्‍जा और वेशभूषा इसकी विशेषता हैं। इसकी वेशभूषा और साज सज्‍जा में बहुत अधिक कुछ नहीं होता है। इसकी एक महत्‍वपूर्ण विशेषता इसके अलग अलग प्रकार की सज्‍जा में है और इसके महिला चरित्र कई आभूषण पहनते हैं जैसे कि रकुडी, चंद्र वानिकी, अडाभासा और कसिनासारा तथा फूलों और आभूषणों से सज्जित लंबी वेणी। कुचीपुडी का संगीत शास्‍त्रीय कर्नाटक संगीत होता है। मृदंग, वायलिन और एक क्‍लेरीनेट इसमें बजाए जाने वाले सामान्‍य संगीत वाद्य हैं। आज के समय में कुचीपुडी में भी भरतनाट्यम के समान अनेक परिवर्तन हो गए हैं। वर्तमान समय के नर्तक और नृत्‍यांगनाएं कुचीपुडी शैली में उन्‍नत प्रशिक्षण लेते हैं और अपनी वैयक्तिक शैली में इस कला का प्रदर्शन करते हैं। इसमें वर्तमान समय में केवल दो मेलम या पुरुष प्रदर्शकों के व्‍यावसायिक दल हैं। इसमें अधिकांश नृत्‍य महिलाएं करती हैं। वर्तमान समय के प्रदर्शन में कुचीपुडी नृत्‍य नाटिका से घट कर नृत्‍य तक रह गया है, यह जटिल रंग मंच अभ्‍यास के स्‍थान पर नियमित मंच प्रदर्शन बन गया है।


कुट्टी अट्टम

शास्त्रीय नृत्य में कटियाट्टम केरल के शास्‍त्रीय रंग मंच का अद्वितीय रूप है जो अत्‍यंत मनमोहक है। यह‍ 2000 वर्ष पहले के समय से किया जाता था और यह संस्‍कृत के नाटकों का अभिनय है और यह भारत का सबसे पुराना रंग मंच है, जिसे निरंतर प्रदर्शित किया जाता है। राजा कुल शेखर वर्मन ने 10वीं शताब्‍दी ए. डी. में कुटियाट्टम में सुधार किया और रूप संस्‍कृत में प्रदर्शन की परम्‍परा को जारी रखे हुए है। प्राकृत भाषा और मलयालम अपने प्राचीन रूपों में इस माध्‍यम को जीवित रखे हैं। इस भण्‍डार में भास, हर्ष और महेन्‍द्र विक्रम पल्‍लव द्वारा दिखे गए नाटक शामिल हैं। पारम्‍परिक रूप से चकयार जाति के सदस्‍य इसमें अभिनय करते हैं और यह इस समूह को समर्पण ही है जो शताब्दियों से कुटियाट्टम के संरक्षण का उत्तरदायी है। द्रुमरों की उप जाति नाम्बियार को इस रंग मंच के साथ निझावू के अभिनेता के रूप में जोड़ा जाता है (मटके के आकार का एक बड़ा ड्रम कुटियाट्टम की विशेषता है)। नाम्बियार समुदाय की महिलाएं इसमें महिला चरित्रों का अभिनय करती है और बेल धातु की घंटियां बजती है। जबकि अन्‍य समुदायों के लोग इस नाट्य कला का अध्‍ययन करते हैं और मंच पर प्रदर्शन में भाग ले सकते हैं, किन्‍तु वे मंदिरों में प्रदर्शन नहीं करते। प्रदर्शन आम तौर पर कई दिनों तक चलते हैं, इनमें से कुछ च‍रित्रों के परिचय और उनके जीवन की घटनाओं को समर्पित किए जाते हैं। इस पूरे प्रदर्शन में शुरूआत से अंत तक इसे अंतिम दिन तक चलाया जाता है। जबकि इसका अनिवार्य रूप से अर्थ नहीं है कि नाटक के संपूर्ण लिखित पाठ को अभिनय में ढाला जाए। कुटियाट्टम की एक शाम रात 9 बजे शुरू होती है जब मंदिर के मुख्‍य गर्भ गृह के रीति रिवाज पूरे हो जाते हैं तथा यह अर्धरात्रि तक, कभी कभार सुबह 3 बजे तक चलता है, जब तक सुबह के रीति रिवाज आरंभ हों। जटिल हाव भाव की भाषा, मंत्रोच्‍चार, चेहरे और आंखों की अतिशय अभिव्‍यक्ति विस्‍तृत मुकुट और चेहरे की सज्‍जा के साथ मिलकर कुटियाट्टम का अभिनय बनाते हैं। इसमें मिझावू ड्रमों द्वारा, छोटी घंटियों और इडक्‍का (एक सीधे गिलास के आकार का ड्रम) से तथा कुझाल (फूंक कर बजाने वाला एक वाद्य) और शंख से संगीत दिया जाता है।

यक्षगान

यक्षगान कर्नाटक राज्‍य का पारम्‍परिक नृत्‍य नाट्य रूप है जो एक प्रशंसनीय शास्‍त्रीय पृष्‍ठभूमि के साथ किया जाने वाला एक अनोखा नृत्‍य रूप है। लगभग 5 शताब्दियों की सशक्‍त नींव के साथ यक्षगान लोक कला के एक रूप के तौर पर मजबूत स्थिति रखता है, जो केरल के कथकली के समान है। नृत्‍य नाटिका के इस रूप का मुख्‍य सार धर्म के साथ इसका जुड़ाव है, जो इसके नाटकों के लिए सर्वाधिक सामान्‍य विषय वस्‍तु प्रदान करता है। जन समूह के लिए एक नाट्य मंच होने के नाते यक्षगान संस्‍कृत नाटकों के कलात्‍मक तत्‍वों के मिले जुले परिवेश में मंदिरों और गांवों के चौराहों पर बजाए जाने वाले पारम्‍परिक संगीत तथा रामायण औरमहाभारत जैसे महान ग्रंथों से ली गई युद्ध संबंधी विषय वस्‍तुओं के साथ प्रदर्शित किया जाता है, जिसे आम तौर पर रात के समय धान के खेत में निभाया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में धार्मिक भावना की सशक्‍त पकड़ होने से इसकी लोकप्रियता में अपार वृद्धि हुई है, जिसे इन स्‍थानों पर इनमें शामिल होने वाले कलाकारों को मिलने वाला उच्‍च सम्‍मान पूरकता प्रदान करता है।

स्‍वर्गिक संगीत के साथ आलंकारिक महत्‍व के विपरीत वास्‍तव में स्‍वर्गिक और पृथ्‍वी के संगीत का एक अनोखा मिश्रण है। यह कला रूप अस्‍पष्‍टता और ऊर्जा के बारीक तत्‍वों का कला रूप अपने प्रस्‍तुतीकरण में दर्शाता है, जो नृत्‍य और गीत के माध्‍यम से प्रदर्शित किया जाता है, इसमें चेंड नामक ड्रम बजाने के अलावा कलाकारों के नाटकीय हाव भाव सम्मिलित होते हैं। इसे प्रदर्शित करने वाले कलाकार समृद्ध डिज़ाइनों के साथ चटकीले रंग बिरंगे परिधानों से स्‍वयं को सजाते हैं, जो कर्नाटक के तटीय ज़िलों की समृद्ध सांस्‍कृतिक परम्‍परा पर प्रकाश डालते हैं। इस प्रकार नाटकीय प्रस्‍तुति सर्वोत्तम शास्त्रीय संगीत, मंजी हुई नृत्‍य कला और प्राचीन अनुलेखों का एक भव्‍य मिश्रण बन कर प्रकट होती है, जो भारत के नृत्‍य रूपों में सर्वाधिक मनमोहक रूपों में से एक माना जाता है। इस नाटकीय प्रस्‍तुति की विडंबना यह है कि इसमें नृत्‍य के चरणों में युद्ध के चरणों का अभिनय किया जाता है, जिनके साथ विशेष प्रभाव देने वाले कुछ पारम्‍परिक नाटकीय संकेत, चमकदार परिधान और विशाल मुकुट पहने जाते हैं और ये सभी मिलकर कलाकारों को एक सशक्‍त तथा सहज लोक चरित्र के रूप में प्रस्‍तुत करते हैं। कलाकारों द्वारा पहने गए आभूषण नर्म लकड़ी से बनाए जाते हैं, जिसे शीशे के टुकड़ों और सुनहरे रंग के कागज़ के टुकड़ों से सजाया संवारा जाता है। यक्षगान के बारे में सर्वाधिक अद्भुत विशेषताओं में से एक है इसमें शास्‍त्रीय तथा लोक भाषाओं को एक रूप कर देना, ताकि कला के सम्‍मोहन का एक ऐसा दृश्‍य बने जो नाट्य विद्या में कला की सीमाओं के पार चला जाए। एक प्रारूपिक यक्षगान प्रदर्शन भगवान गणेश की वंदना से शुरू होता है, जिसके बाद एक हास्‍य अभिनय किया जाता है तथा इसमें पृष्‍ठभूमि संगीत चेंड और मेडल के साथ तीन व्‍यक्तियों के दल द्वारा ताल (घण्‍टियां) बजाई जाती हैं। कथावाचक, जो भागवत नामक दल का एक हिस्‍सा भी है और वह इस पूरे प्रदर्शन का निर्माता, निर्देशक और कार्यक्रम का प्रमुख होता है। उसके प्रारंभिक कार्य में गीतों के माध्‍यम से कथा का वाचन, चरित्रों का परिचय और कभी कभार उनके साथ वार्तालाप शामिल है। एक सशक्‍त संगीत ज्ञान और मजबूत क़द काठी एक कलाकार की पहली आवश्‍यकताएं हैं और इसके साथ उसे हिन्‍दू धर्म का गहरा ज्ञान होना आवश्‍यक है। इन नाटकों को सहज़ रूप से कलाकारों द्वारा निभाई गई अनेक पौराणिक चरित्रों की भूमिकाओं में विशाल जनसमूह द्वारा देखा जाता है। यक्षगान की एक अन्‍य अनोखी विशेषता यह है कि इसमें पहले से कोई अभ्‍यास या आपसी संवाद का लिखित रूप उपयोग नहीं किया जाता है, जिससे यह अत्‍यंत विशेष रूप माना जाता है। वर्तमान परिदृश्‍य में यक्षगान न केवल भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय कला परम्‍परा में से एक है बल्कि पूरी दुनिया में इसे मान्‍यता दी जाती है। यह स्‍पष्‍ट रूप से कहा जा सकता है कि केवल कर्नाटक राज्‍य में ही 10,000 से अधिक यक्षगान प्रदर्शन प्रति वर्ष किए जाते हैं, जिसमें सभी महोत्‍सवों के भ्रमण, विद्यालयों और महाविद्यालयों में किए जाने वाले प्रदर्शन आदि शामिल हैं। एक इतनी प्रभावशाली स्थिति को एक ऐसा प्रमाणपत्र माना जा सकता है जो यह कहता है कि यक्षगान सदैव जीवित रहेगा।


छाऊ

लोक नृत्य में छाऊ नृत्‍य रहस्‍यमय उद्भव वाला है। छाऊ नर्तक अपनी आं‍तरिक भावनाओं व विषय वस्‍तु को, शरीर के आरोह-अवरोह, मोड़-तोड़, संचलन व गत्‍यात्‍मक संकेतों द्वारा व्‍यक्‍त करता है। 'छाऊ' शब्‍द की अलग-अलग विद्वानों द्वारा भिन्‍न-भिन्‍न व्‍याख्‍या की गई है। कुछ का मानना है कि 'छाऊ' शब्‍द संस्‍कृत शब्‍द 'छाया' से आया है। 'छद्मवेश' इसकी दूसरी सामान्‍य व्‍याख्‍या है, क्‍योंकि इस नृत्‍य शैली में मुखौटों का व्‍यापक प्रयोग किया जाता है। छाऊ की युद्ध संबंधी चेष्‍टाओं ने इसके शब्‍द की दूसरी ही व्‍याख्‍या कर डाली 'गुपचुप तरीके से हमला करना या शिकार करना। छाऊ की तीन विधाएं मौजूद हैं, जो तीन अलग-अलग क्षेत्रों सेराई केला (बिहार), पुरूलिया (पश्चिम बंगाल) और मयूरभंज (उड़ीसा) से शरू हुई हैं। युद्ध जैसी चेष्‍टाओं, तेज लयबद्ध कथन, और स्‍थान का गतिशील प्रयोग छाऊ की विशि‍ष्‍टता है। यह नृत्‍य विशाल जीवनी शक्ति और पौरूष की श्रेष्‍ठ पराकाष्‍ठा है। चूंकि मुखौटे के साथ बहुत समय तक नृत्‍य करना कठिन होता है, अत: नृत्‍य की अ‍वधि 7-10 मिनट से अधिक नहीं होती। छाऊ नृत्‍य मनोभावों की स्थिति अथवा अवस्‍था का प्रकटीकरण है। नृत्‍य का यह रूप फारीकन्‍दा, जिसका अर्थ ढाल और तलवार है, की युद्धकला परम्‍परा पर आधारित है। नर्तक विस्‍‍तृत मुखौटे लगाता और वेशभूषा धारण करता है तथा पौराणिक-ऐतिहासिक, क्षेत्रीय लोक सा‍हित्‍य, प्रेम प्रसंग और प्रकृति से संबंधित कथाएं प्रस्‍तुत करता है। युद्ध जैसे संचालन, तेज तालबद्ध लोक धुनो, सुन्‍दर शिल्‍पमय मुखौटों के साथ विशाल पगडियां छाऊ की विशिष्‍टता है। मुखौटे आमतौर पर नर्तकों द्वारा स्‍वयं चिकनी मिट्टी से बनाए जाते हैं।

इसके प्रभावशाली युद्ध विषयक चरित्र इसे केवल नर्तक के उपयुक्‍त बनाते हैं। राजा न केवल इसके संरक्षक होते थे वरन् नर्तक, शिक्षक और मुखौटे बनाने में निपुण भी होते थे। सेराईकेला मुखौटे जापान के नोहकेला नृत्‍य और जावा के वायांग नृत्‍य में प्रयोग किए जाने वाले मुखौटों जैसे हैं। पुरुलिया छाऊ में जो मुखौटे प्रयुक्‍त होते हैं वह क्षेत्र की उच्‍च विकसित कला है। जन जातीय रहवासियों सहित बंजर भूमि, वैदिक साहित्‍य का बहुपर्तीय प्रभाव, हिन्‍दुत्‍व और युद्ध संबंधी लोक साहित्‍य ने मिलकर पुरुलिया छाऊ नृत्‍यों को आकार दिया है जिसका केवल एक संदेश है बुराई पर अच्‍छाई की विजय। मयूरभंज छाऊ में उच्‍च विकसित संचलन होता है, कोई मुखौटे नहीं होते तथा अन्‍य दो पद्धतियों से इसकी शब्‍दावली तीखी होती है। सेराइकेला छाऊ की भांति य‍ह भी राजाश्रय में फला-फूला है, तथा यह स्‍वाभाविक भारतीय नृत्‍य व पश्चिम के उड़ान, कुदान, उत्‍थान नृत्‍य रूपों के बीच की कड़ी है। भारत की अन्‍य शास्त्रीय नृत्य विधाओं में स्‍वर संगीत की तुलना में छाऊ में यह बमुश्किल होता है। इसमें वाद्य संगीत तथा विभिन्‍न प्रकार के नाद-वाद्य जैसे ढोल,धूम्बा, नगाड़ा, धान्सा और छादछादी से संगत की जाती है। इसके अलावा, शास्त्रीय संगीत के तीन मुख्‍य घटक, अर्थात्, राग (स्‍वर माधुर्य), भाव (चितवृति) और ताल (लयबद्धता) छाऊ नृत्‍य के महत्‍वपूर्ण पहलू हैं। लोक, जनजातीय और युद्ध परंपराओं का मिश्रण होते हुए, तथा नृत्‍ता, नृत्‍य और नाट्य के तीनों पक्षों के साथ-साथ तांडव तथा शास्‍त्रीय नृत्‍य लास्‍य पक्ष को भी अपने में समाहित करते हुए, छाऊ नृत्‍य, लोक और शास्‍त्रीय मूल भावों का जटिल मिश्रण हैं। भारत की अन्‍य नृत्‍य विधाओं से अलग हटकर छाऊ नृत्‍य ओजस्विता व शक्ति से परिपूर्ण हैं। नर्तक का पूरा शरीर व सम्‍पूर्ण व्‍यक्तित्‍व उसकी भाषा के रूप में एक एकल इकाई में लगाया जाता है। शरीर की यह भाषा अत्‍यन्‍त काव्‍यात्‍मक व सशक्‍त होती है। भावों का संप्रेषण करने के लिए पैर प्रभावशाली साधन होते हैं। हाल के दिनों में, मयूरभंज छाऊ, उसकी अनेक मुद्राओं और विधाओं, जो आधुनिक व परंपरागत दोनों निरूपणों को अपनाती हैं, के कारण नृत्‍यकला के राष्‍ट्रीय व अंतराष्‍ट्रीय दोनों मंचों पर प्रसिद्ध हुआ है।

सोमवार, 10 जनवरी 2011

पाकिस्तान को थमाया जा रहा देश के खिलाफ प्रचार का हथियार

हिंदुस्तान के हिंदुओं का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि विभाजन के 63 वर्षों बाद भी उन्हें अपना हिंदू राष्ट्र नहीं मिल सका। तकरीबन सौ साल की कुर्बानी भरे संघर्षों के बाद मिला भी तो तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र। विश्व के हर देश के पास अपनी भाषा, अपनी सभ्यता-संस्कृति के अनुरूप उनकी पहचान है लेकिन विश्वभर में फैले करीब एक करोड़ हिंदुओं का अपना कोई मुल्क नहीं है। अब हिंदु संगठनों के साथ आतंकवादी शब्द जोड़ कर हिंदुत्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को समाप्त करने की गहरी साजिश रची जा रही है। भारत के इतिहास, संस्कृति, संस्कार से अनभिज्ञ कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व और उसके नैसिखिए राजनीतिक मां-बेटे की पार्टी को सबसे बफादार साबित करने में देश के अस्तित्व को ही संकट में डालने का काम कर रहे हैं।

वाराणसी प्रवास के दौरान भाजपा के वरिष्ठ नेता व सांसद डॉ. मुरली मनोहर जोशी की यह चिंता काबिले गौर है कि कांग्रेस के बबुआ और बचवा वोट बैंक के खेल में पाकिस्तान को भारत के खिलाफ प्रचार का हथियार थमा रहें है। उनके इस राजनीतिक खेल पर अंकुश नहीं लगा अथवा लगाया गया तो देश को एक और विभाजन का दंश झेलना पड़ सकता है। उनका यह दुःख भी जायज ही है कि देश में बहस समस्याओं के समाधान पर होनी चाहिए न कि समस्या पैदा करने की लेकिन कांग्रेस उल्टी गंगा बहा रही है। भय, भूख, भ्रष्टाचार जैसी समस्याओं के समाधान तो कर नहीं पा रही है उल्टे हिंदू संगठनों को लश्करे तैयबा से ज्यादा खतरनाक बता कर देश के अस्तित्व को ही खतरे में डालने का काम कर रही है। भाजपा के वयोवृद्ध नेता की यह चिंता मौजूदा राजनीतिक परिदृष्य में राष्ट्रीय सुरक्षा और सामाजिक एकता के सामने सवालिया निशान खड़ा करता है। अधिक नहीं बीते एक दशक के राजनीतिक बदलाव की समीक्षा की जाए तो समझ में आ जाता है कि वोट बैंक की अंधी दौड़ में राजनीतिक तुष्टीकरण के कई दंश देश और समाज को झेलने पड़े हैं। इतना ही नहीं हिंदू सभ्यता-संस्कृति को समाप्त कर पश्चिम की मजहबी संस्कृति को देश पर थोपने जैसे प्रयास किये जा रहे हैं। हालात तो यहां तक आ पहुंचे हैं कि हिंदुस्तान में किसी संगठन के आगे हिंदु लिखना अब बड़े अपराध की श्रेणी में ला खड़ा करता है। हिंदुस्तान में ही मुसलमान, ईसाई, पारसी सभी को अपने धर्म-संप्रदाय के अनुरूप जीने-खाने और उसके प्रचार-प्रसार का अधिकार है लेकिन हिंदू संगठनों को इसका अधिकार नहीं है। जाहिर है हिंदुत्व कमजोर होगा तो पूरा विश्व संकट में आ जाएगा। क्योंकि विश्व समाज में अनादिकाल से सत्य-असत्य और धर्म-अर्धम के बीच संघर्ष होता रहा है और अंत में जीत सत्य व धर्म की हुई है। सच तो यह है कि हिंदू विश्व के जिस कोने में गए वहां शांति, सद्भभाव और अहिंसा का ही संदेश दिया। हिंदुत्व का आचरण व्यापक, विश्व कल्याण व शांति का संदेश देने वाला ही रहा है। कुल मिलाकर हिदू चिंतन किसी के विरोध में नहीं बल्कि सर्वे भवंतु सुखिनः की ही कामना करता है। देखा जा रहा है कि इन दिनों देश में दो धाराएं चल रही है। वोटबैंक को राष्ट्रीय राजनीति से जुड़ा एक तबका हिंदुत्व को संकुचित व सांप्रदायिक मानता हैं वहीं दूसरी धारा हिंदू समाज व हिंदुत्व के चिंतन को सशक्त बनाने में क्रियाशील है। यहां हिंदू समाज के चिंतन से अनभिज्ञ राजनितिक तबके को याद दिलाना जरूरी है कि यह वही हिंदू समाज है जिसने इस देश में मुस्लिम, पारसी, ईसाई धर्म से जुड़े लोगों को उसी तरह स्वीकार किया जिस तरह सागर विभिन्न नदियों को बिना किसी भेद के स्वीकार कर लेता है।

यह सच है कि स्वतंत्रता के बाद संविधान में भारत को धर्मनिरपेक्ष देश घोषित किया गया लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि देश में हिंदुत्व चिंतन पर रोक लगा दिया गया हो। बल्कि देश में किसी जाति-धर्म का भेदभाव न करते हुए उन्हें अपनी जाति-धर्म के अनुरूप जीवनयापन की आजादी देना है। मुसलमान, ईसाई जब भारत आए तो यहां पहले से न मस्जिद थी और ना ही गिरजाघर। हिंदुस्तान के हिंदुओं की विश्व बंधुत्व का ही तकाजा है कि उन्हें इबादत करने के लिए खुले दिल से जगह मिली। वहीं आज हिंदुस्तान में अपनी ही सरजमी पर राममंदिर बनाने जब हिंदू निकलता है तो उसे आतंकवादी ठहराया जा रहा है। राष्ट्रहित की सोचने वाले इंद्रेश कुमार सरीखों पर कीचड़ उछाला जा रहा है। दुःख इस बात का है कि कीचड़ फेकने का काम ऐसे लोग कर रहे हैं जिन्हें सिमी व संघ में कोई फर्क नजर नहीं आता। अंग्रेजी हुकूमत की नीति फूट करो, राज करो को आजाद हिंदुस्तान में अमल में लाकर तुष्टीकरण की जो नीति अपनी जा रही है उसकी कीमत यह देश अशिक्षा, भुखमरी, बेरोजगारी, हिंसा, दंगा, नक्सलवाद, आतंकवादी, जातिवाद के रूप में भुगत रहा है। राजनीति को समाज सेवा से हटा कर खानदानी व्यापार की शक्ल दी जा रही है। दुर्भाग्य यह भी है कि धीरे-धीरे राष्ट्रीय राजनीति ही इसी ढर्रे पर चल पड़ी है। ऐसे में देश के बारे में सोचने की फुर्सत किसी के पास है। यह एक बड़े सवाल के रूम में देश के सामने आ खड़ा हुआ है। बहस इस पर चलाने की जरूरत है।

भेड़ों की दहाड़ से सहमा सिंह

चिड़ियाघर के पिंजरे में बंद सिंह के सामने बच्चे भी आंख दिखा लेते हैं और जंजीरों में बंधे गजराज के आगे चूहे भी कूल्हे मटका लेते हैं। हैरत तो तब होती है जब शेर अपनी मांद में महज इसलिए दुबक जाये, क्योंकि बाहर भेडें बेखौफ दहाड़ रही हैं। जंगल में यह अचरज भरा दृश्य भले ही न दिखता हो लेकिन इस देश के राजनीतिक बियावन में हम अब ऐसे ही दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रमों को देखने के आदी हो गए है।

क्या अजब हालात हैं। साठ साल से संकल्प समूचा काश्मीर हासिल करने का बना हुआ है और जमीनी असलियत यह है कि अपना घर भी दुश्मन के कब्जे में आता जा रहा है। लाहौर में तिरंगा फहराने के नारे थे और हकीकत यह है कि श्रीनगर में ही राष्ट्रध्वज फहराने में पतलून ढीली हो जा रही है। पाकिस्तान के पालतू हमारे घर में घुसकर गुर्रा रहे हैं, और हमारे पहरेदार हंटर जेब में रख उन्हें शांति के बयानों की बोटियां परोस कर अपने आप को धन्य मान रहे हैं। दुर्भाग्य यह है कि घर का मालिक सब कुछ जान कर भी पक्षाघात का शिकार बना टुकुर-टुकुर बस निहार रहा है। रगों में बह रहे बारह दलों के खून से जिंदा लकवाग्रस्त सरकार से इससे ज्यदा की उम्मीद भी क्या की जाये?

मामला जम्मू-कश्मीर की राजधानी श्रीनगर के लाल चौक पर गणतंत्र दिवस पर ध्वजारोहण का है। जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के प्रमुख यासीन मलिक का खुले आम ऐलान है कि जिसमें दम हो वो यहां ‘तिरंगा’ फहराकर दिखलाये।

भारतीय जनता युवा मोर्चा का संकल्प है कि हर हाल तिरंगा फहराया जायेगा।

इस परिदृश्य में बतौर मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला मिमिया रहे हैं कि ‘‘अमन बनाये रखने की खातिर तिरंगा न फहराया जाये।’’ आश्चर्य उमर के बयान पर नहीं है, क्योंकि इस तरीके की अवसरवादिता उनकी खानदानी परंपरा रही है।

आक्रोश तो अनेक बैसाखियों के सहारे घिसट रही केन्द्र सरकार के प्रति है और अफसोस है देश के अवाम् की इस खामोशी पर, जिसके अंदर राष्ट के प्रति जज्बा शायद कहीं सो सा गया है।

उमर अब्दुल्ला के इस कदर गैर जिम्मेदाराना बयान को आये अड़तालीस घंटे से भी अधिक समय होने आया है और विरोध में कहीं से कोई दहाड़ तो दूर चूं तक नहीं हुई। अपने देश के सम्मान और अस्तित्व के प्रति हम इतने बेपरवाह-बेखबर हो चले हैं। हजारों जवान अर्से से कश्मीर की सरहद पर अपनी जवानियों को इस दिन को देखने के लिए बर्बाद होने दिये कि देश के भीतर ही अपना राष्ट्रध्वज फहराने के लाले पड़ जायें। क्या इस कीमत पर ‘अमन’ या ‘शांति’ के ख्वाहिशमंद हैं हम। आज तिरंगा न फहराना ‘शांति’ की गारंटी है कल उमर कह सकते हैं कि घाटी में शांति बनाये रखने के लिए मुख्यमंत्री पद की शपथ ‘पाकिस्तानी संविधान’ के तहत लिया जाना जरूरी है। तब भी सरकार और हम ऐसे ही खामोश बने रहेंगे? अंग्रेजी हुकूमत के दौर में हमारे पूर्वजों ने तिरंगा फहराने की कीमत ‘जेल’ और ‘फांसी’ के रूप में क्या इसी दौर को देखने के लिए चुकाई थी। गुलाम भारत में ध्वजारोहण एक चुनौती होना समझ में आता है, लेकिन स्वाधीन भारत में भी इसे ‘नापाक’ करार दिया जाना तो हर देशभक्त के लिए धिक्कार है। तिरेसठ साल की आजादी में ही क्या ‘स्वाराज’

की अकाल मौत हम सुनिश्चित कर चुके हैं? किस दौर में आ गया है देश।

अराजकता, आतंक, अशांति! यह ख्वाहिश तो हमारी भी कभी नहीं रही। लेकिन, क्या शांति हम देश का सम्मान और संप्रभुता को खोकर हासिल करना चाहते हैं?

यदि यही तय कर लिया है तो सरहदों से सेनायें वापिस बुला ली जायें। लद्दाख चीन को और घाटी पाकिस्तान के चरणों में बतौर चढ़ाव चढ़ा दी जाये, क्योंकि अशांति और आतंक के बीज तो वहीं से हमारी मिट्टी में अर्से से फैंके जा रहे हैं। और सत्ता की खातिर हमारे ही अवसरवादी राजनीतिज्ञ ‘अधिक स्वायतता’ जैसे बयानों की खाद-पानी देकर उसे सींचते आ रहे हैं।

अवसाद के इस दौर में अरुंधति और अग्निवेश जैसों की खामोशी खूब याद आती है। आम आदमी की आजादी के यह स्वयंभू पैरोकार ऐसे समय पर अपने मुंह में दही जमाये कहां छिप जाते हैं। जब देश ही आजाद नहीं रहेगा तो नागरिक की आजादी कहां रहेगी। कन्याकुमारी से कश्मीर तक की एक-एक इंच भूमि हमारे राष्ट्रध्वज के ससम्मान फहराने के लिए उपलब्ध रहे, यह किसी एक राजनैतिक दल या नेता का दायित्व न होकर इस देश के हर नागरिक का पावन कर्तव्य है।

बेहतर होगा कि दिल्ली की हुकूमत आदेश जारी कर उमर अब्दुल्ला को निर्देशित करें कि वह अशांति की आशंकाओं को खारिज कर हर कश्मीरी से लाल चौक पर ‘तिरंगा’ फहराने का आह्वान करें। क्योंकि घाटी में शांति की कीमत देश के अपमान के रूप में हरगिज नहीं चुकाई जा सकती।

भाजपा का आह्वान लाल चौक पर ‘भगवा’ फहराने का नहीं ‘तिरंगा’ लहराने का है। वह तिरंगा जो हमारे राष्ट्र के गौरव और समर्पण का सर्वोच्च प्रतीक है।

वक्त की नजाकत का तकाजा तो यह है कि आह्वान को एक दल के दायरे से बाहर निकालकर सर्वदलीय बनाया जाये और 26 जनवरी का मुख्य समारोह दिल्ली का ‘राजपथ’ न होकर श्रीनगर का ‘लाल चौक’ बनाया जाये। भारत को विश्व की महाशक्ति बनाने का दंभ भर रहे देश के हमारे हुकमरान कम से कम इतना तो ‘साहस’ दिखायें।

मुम्बई स्टॉक एक्सचेंज में शरीयत आधारित इंडेक्स शुरु

भारत में इस्लामिक बैंक की स्थापना के प्रयासों में मुँह की खाने के बाद, एक अन्य “सेकुलर” कोशिश के तहत मुम्बई स्टॉक एक्सचेंज में एक नया इंडेक्स शुरु किया गया है जिसे “मुम्बई शरीया-इंडेक्स” नाम दिया गया है। बताया गया है कि इस इंडेक्स में सिर्फ़ उन्हीं टॉप 50 कम्पनियों को शामिल किया गया है जो “शरीयत” के अनुसार “हराम” की कमाई नहीं करती हैं,यह कम्पनियाँ शरीयत के दिशानिर्देशों के अनुसार पूरी तरह “हलाल” मानी गई हैंजिसमें भारत के मुस्लिम बिना किसी “धार्मिक खता”(?) के अपना पैसा निवेश कर सकते हैं।

एक इस्लामिक आर्थिक संस्था है “तसीस” (TASIS) (Taqwaa Advisory and Shariat Investment Solutions)। यह संस्था एवं इनका शरीयत बोर्ड यह तय करेगा कि कौन सी कम्पनी, शरीयत के अनुसार “हलाल” है और कौन सी “हराम”। इस संस्था के मुताबिकशराब, सिगरेट, अस्त्र-शस्त्र बनाने वाली तथा “ब्याजखोरी एवं जुआ-सट्टा” करने वाली कम्पनियाँ “हराम” मानी गई हैं।

भारत में इस्लामिक बैंक अथवा इस्लामिक फ़ाइनेंस (यानी शरीयत के अनुसार चलने वाले संस्थानों) की स्थापना के प्रयास 2005 से ही शुरु हो गये थे जब रिज़र्व बैंक ने “इस्लामिक बैंक” की उपयोगिता एवं मार्केट के बारे में पता करने के लिये, आनन्द सिन्हा की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया था। इसके बाद राजिन्दर सच्चर की अध्यक्षता में आयोग बनाया गया, जिसने निष्कर्ष निकाला कि भारत के 50% से अधिक मुस्लिम विभिन्न फ़ायनेंस योजनाओं एवं शेयर निवेश के बाज़ार से बाहर हैं, क्योंकि उनकी कुछ धार्मिक मान्यताएं हैं। इस्लामिक बैंक की स्थापना को शुरु में केरल के मलप्पुरम से शुरु करने की योजना थी, लेकिन डॉ सुब्रहमण्यम स्वामी ने केरल हाईकोर्ट में याचिका दायर करके एवं विभिन्न अखबारों में लेख लिखकर बताया कि “इस्लामिक बैंक” की अवधारणा न तो भारतीय रिजर्व बैंक के मानदण्डों पर खरा उतरता है, और न ही एक “सेकुलर” देश होने के नाते संविधान में फ़िट बैठता है, तब “फ़िलहाल” (जी हाँ फ़िलहाल) इसे ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया है, परन्तु शरीया-50 इंडेक्स को मुम्बई स्टॉक एक्सचेंज (लिस्ट यहाँ देखें…) में लागू कर ही दिया गया है।

स्वाभाविक तौर पर कुछ सवाल तथाकथित शरीयत आधारित इंडेक्स को लेकर खड़े होते हैं – जैसे,

1) भारत एक घोषित धर्मनिरपेक्ष देश है (ऐसा संविधान में भी लिखा है), फ़िर “शरीयत” एवं धार्मिक आधार पर इंडेक्स शुरु करने का क्या औचित्य है? क्या ऐसा ही कोई “गीता इंडेक्स” या “बाइबल इंडेक्स” भी बनाया जा सकता है?

2) भारत या विश्व की कौन सी ऐसी प्रायवेट कम्पनी है, जो “ब्याजखोरी” पर नहीं चलती होगी?

3) पाकिस्तान व सऊदी अरब अपने-आप को इस्लाम का पैरोकार बताते फ़िरते हैं, मैं जानने को उत्सुक हूं (कोई मुझे जानकारी दे) कि क्या पाकिस्तान में सिगरेट बनाने-बेचने वाली कोई कम्पनी कराची स्टॉक एक्सचेंज में शामिल है या नहीं?

4) कृपया जानकारी जुटायें कि क्या सऊदी अरब में किसी अमेरिकी शस्त्र कम्पनी के शेयर लिस्टेड हैं या नहीं?

5) क्या शराब बनाने वाली कोई कम्पनी बांग्लादेश अथवा इंडोनेशिया के स्टॉक एक्सचेंज में शामिल है या नहीं? या वहाँ की किसी “इस्लामिक” व ईमानदारी से शरीयत पर चलने वाली किसी कम्पनी की पार्टनरशिप “ब्याजखोरी” करने वाले किसी संस्थान से तो नहीं है?

इन सवालों के जवाब इस्लामिक जगत के लिये बड़े असहज सिद्ध होंगे और शरीयत का नाम लेकर मुसलमानों को बेवकूफ़ बनाने की उनकी पोल खुल जायेगी। भारत में शरीयत आधारित इंडेक्स शुरु करने का एकमात्र मकसद सऊदी अरब, कतर, शारजाह जैसे खाड़ी देशों से पैसा खींचना है। अभी भारत में अंडरवर्ल्ड का पैसा हवाला के जरिये आता है, फ़िर दाउद इब्राहीम एवं अल-जवाहिरी का पैसा “व्हाइट मनी” बनकर भारत आयेगा। ज़ाहिर है कि इसमें भारतीय नेताओं के भी हित हैं, कुछ के “धार्मिक वोट” आधारित हित हैं, जबकि कुछ के “आर्थिक हित” हैं। भारत से भ्रष्ट तरीकों से जो पैसा कमाकर दुबई भेजा जाता है और सोने में तब्दील किया जाता है, वह अब “रुप और नाम” बदलकर वापस भारत में ही शरीयत आधारित इंडेक्स की कम्पनियों में लगाया जायेगा। बेचारा धार्मिक मुसलमान सोचेगा कि यह कम्पनियाँ और यह शेयर तो बड़े ही “पवित्र” और “शरीयत” आधारित हैं, जबकि असल में यह पैसा भारत में हवाला के पैसों के सुगम आवागमन के लिये होगा और इसमें जिन अपराधियों-नेताओं का पैसा लगेगा, उन्हें न तो इस्लाम से कोई मतलब है और न ही शरीयत से कोई प्रेम है।

कम्पनियाँ शरीयत आधारित मॉडल पर “धंधा” कर रही हैं या नहीं इसे तय करने का पूरा अधिकार सिर्फ़ और सिर्फ़ TASIS को दिया गया है, जिसमें कुरान व शरीयत के विशेषज्ञ(?) लोगों की एक कमेटी है, जो बतायेगी कि कम्पनी शरीयत पर चल रही है या नहीं। यानी इस बात की कोई गारण्टी नहीं है कि भविष्य में देवबन्द से कोई मौलवी अचानक किसी कम्पनी के खिलाफ़ कोई फ़तवा जारी कर दे तो किसकी बात मानी जायेगी, TASIS के पैनल की, या देबवन्द के मौलवी की? मान लीजिये किसी मौलवी ने फ़तवा दिया कि डाबर कम्पनी का शहद खाना शरीयत के अनुसार “हराम” है तो क्या डाबर कम्पनी को शरीया इंडेक्स से बाहर कर दिया जायेगा? क्योंकि देवबन्द का कोई भरोसा नहीं, पता नहीं किस बात पर कौन सा अजीबोगरीब फ़तवा जारी कर दे… (हाल ही में एक फ़तवे में कहा गया है कि यदि शौहर अपनी पत्नी को मोबाइल पर तीन बार तलाक कहे और यदि किसी वजह से, अर्थात नेटवर्क में खराबी या लो-बैटरी के कारण पत्नी “तलाक” न सुन सके, इसके बावजूद वह तलाक वैध माना जायेगा, अब बताईये भला… पश्चिम की आधुनिक तकनीक से बना मोबाइल तो शरीयत के अनुसार “हराम” नहीं है लेकिन उस पर दिया गया तलाक पाक और शुद्ध है, ऐसा कैसे?)

बहरहाल, बात हो रही थी इस्लामिक बैंकिंग व शरई इंडेक्स की – हमारे देश में एक तो वैसे ही बैंकिंग सिस्टम पर निगरानी बेहद घटिया है एवं बड़े आर्थिक अपराधों के मामले में सजा का प्रतिशत लगभग शून्य है। एक उदाहरण देखें – देश के सर्वोच्च पद पर आसीन प्रतिभादेवी सिंह पाटिल के खिलाफ़ उनके गृह जिले में आर्थिक अपराध के मामले पंजीबद्ध हैं। प्रतिभा पाटिल एवं उनके रिश्तेदारों ने एक समूह बनाकर “सहकारी बैंक” शुरु किया था, प्रतिभा पाटिल इस बैंक की अध्यक्षा थीं उस समय इनके रिश्तेदारों को बैंक ने फ़र्जी और NPA लोन जमकर बाँटे। ऑडिट रिपोर्ट में जब यह बात साबित हो गई, तो रिज़र्व बैंक ने इस बैंक की मान्यता समाप्प्त कर दी। रिपोर्ट के अनुसार बैंक के सबसे बड़े 10 NPA कर्ज़दारों में से 6 प्रतिभा पाटिल के नज़दीकी रिश्तेदार हैं, जिन्होंने बैंक को चूना लगाया… (सन्दर्भ- The Difficulty of Being Good : on the Subtle art of Dharma, Chapter Draupadi — Page 59-60 – लेखक गुरुचरण दास)

ऐसी स्थिति में अरब देशों से शरीयत इंडेक्स के नाम पर आने वाला भारी पैसा कहाँ से आयेगा, कहाँ जायेगा, उसका क्या और कैसा उपयोग किया जायेगा, उसे कैसे व्हाइट में बदला जायेगा, इत्यादि की जाँच करने की कूवत भारतीय एजेंसियों में नहीं है। असल में यह सिर्फ़ भारत के मुसलमानों को भरमाने और बेवकूफ़ बनाने की चाल है, ज़रा सोचिये किंगफ़िशर एयरलाइन्स के नाम से माल्या की कम्पनी किसी इस्लामी देश के शेयर बाज़ार में लिस्टेड होती है या फ़िर ITC होटल्स नाम की कम्पनी शरीयत इंडेक्स में शामिल किसी कम्पनी की मुख्य भागीदार बनती है तो क्या यह शरीयत का उल्लंघन नहीं होगा? विजय माल्या भारत के सबसे बड़े शराब निर्माता हैं और ITC सबसे बड़ी सिगरेट निर्माता कम्पनी, तब इन दोनों कम्पनियों के शेयर, भागीदारी, संयुक्त उपक्रम इत्यादि जिस भी कम्पनी में हों उसे तो “हराम” माना जाना चाहिये, लेकिन ऐसा होता नहीं है, देश के कई मुस्लिम व्यक्ति इनसे जुड़ी कम्पनियों के शेयर भी लेते ही हैं, परन्तु शरीया इंडेक्स, अरब देशों से पैसा खींचने, यहाँ का काला पैसा सफ़ेद करने एवं भारत के मुस्लिमों को “बहलाने” का एक हथियार भर है। मुस्लिमों को शेयर मार्केट में पैसा लगाकर लाभ अवश्य कमाना चाहिये, भारतीय मुस्लिमों की आर्थिक स्थिति सुधरे, ऐसा कौन नहीं चाहता… लेकिन इसके लिए शरीयत की आड़ लेना, सिर्फ़ मन को बहलाने एवं धार्मिक भावनाओं से खेलना भर है। हर बात में “धर्म” को घुसेड़ने से अन्य धर्मों के लोगों के मन में इस्लाम के प्रति शंका आना स्वाभाविक है…

एक अन्य उदाहरण :- यदि तुम जिन्दा रहे तो हम तुम्हें इतना पैसा देंगे, और यदि तुम तय समय से पहले मर गये तो हम तुम्हारे परिवार को इतने गुना पैसा देंगे…। या फ़िर ऐसा करो कि कम किस्त भरो… जिन्दा रहे तो सारा पैसा हमारा, मर गये तो कई गुना हम तुम्हें देंगे… जीवन बीमा कम्पनियाँ जो पॉलिसी बेचती हैं, वह भी तो एक प्रकार से “मानव जीवन पर खेला गया सट्टा” ही है, तो क्या भारत के मुसलमान जीवन बीमा करवाते ही नहीं हैं? बिलकुल करवाते हैं, भारी संख्या में करवाते हैं, तो क्या वे सभी के सभी शरीयत के आधार पर “कुकर्मी” हो गये? नहीं। तो फ़िर इस शरीयत आधारित इंडेक्स की क्या जरुरत है?

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शाखाएं चुन-चुनकर और जानबूझकर मुस्लिम बहुल इलाकों (बंगाल के मुर्शिदाबाद, बिहार के किशनगंज एवं केरल के मलप्पुरम ) में खोलने की कवायद जारी है, कांग्रेस शासित राज्यों में से कुछ ने नौकरियों में 5% आरक्षण मुसलमानों को दे दिया है, केन्द्र सरकार भी राष्ट्रीय सिविल परीक्षाओं में मुसलमानों के लिये 5% आरक्षण पर विचार कर रही है, केरल-बंगाल-असम के अन्दरूनी इलाकों में अनधिकृत शरीयत अदालतें अपने फ़ैसले सुनाकर, कहीं प्रोफ़ेसर के हाथ काट रही हैं तो कहीं देगंगा में हिन्दुओं को बस्ती खाली करने के निर्देश दे रही हैं…। ये क्या हो रहा है, समझने वाले सब समझ रहे हैं…

“एकजुट जनसंख्या” और “मजबूत वोट बैंक” की ताकत… मूर्ख हिन्दू इन दोनों बातों के बारे में क्या जानें… उन्हें तो यही नहीं पता कि OBC एवं SC-ST के आरक्षण कोटे में से ही कम करके, “दलित ईसाईयों”(?) (पता नहीं ये क्या चीज़ है) और मुसलमानों को आरक्षण दे दिया जायेगा… और वे मुँह तकते रह जायेंगे।

बहरहाल, सरकार तो कुछ करेगी नहीं और भाजपा सोती रहेगी… लेकिन अब कम से कम हिन्दुओं को यह तो पता है कि शरीयत इंडेक्स में शामिल उन 50 कम्पनियों के शेयर“नहीं” खरीदने हैं शायद तंग आकर कम्पनियाँ खुद ही कह दें, कि भई हमें शरीयत इंडेक्स से बाहर करो… हम पहले ही खुश थे…। बड़ा सवाल यह है कि क्या मुनाफ़े के भूखे, “व्यापारी मानसिकता वाले, राजनैतिक रुप से बिखरे हुए हिन्दू” ऐसा कर पाएंगे?

चलते-चलते : मजे की बात तो यह है कि, हर काम शरीयत और फ़तवे के आधार पर करने को लालायित मुस्लिम संगठनों ने अभी तक यह माँग नहीं की है कि अबू सलेम को पत्थर मार-मार कर मौत की सजा दी जाये अथवा अब्दुल तेलगी को ज़मीन में जिन्दा गाड़ दिया जाये… या सूरत के MMS काण्ड के चारों मुस्लिम लड़कों के हाथ काट दिये जायें…। ज़ाहिर है कि शरीयत अथवा फ़तवे का उपयोग (अक्सर मर्दों द्वारा) सिर्फ़ “अपने फ़ायदे” के लिये ही किया जाता है, सजा पाने के लिये नहीं उस समय तो भारतीय कानून ही बड़े “फ़्रेण्डली” लगते हैं…।


गुरुवार, 6 जनवरी 2011

सेक्‍यूलरवादी इतिहासकारों के छलावे

समय शायद बीता गया जब हमारे देश में, अंग्रेजों के शासन के बावजूद भी, इतिहास भी इतिहास को उस प्रेरणा-श्रोत की तरह पढ़ाया जाता था, जहां उसके पीले, पुराने पन्नों में भी हम देश की अपनी विरासत के प्रेरक – तत्वों को ढूंढ़ ही लेते थे। स्वतंत्रता संग्राम के समय भी तिलक, रानाडे, सुभाषचंद्र बोस आदि दर्जनों राष्ट्रीय प्रतिभाओं ने देश के इतिहास के घटनाक्रमों से ही बहुधा राष्ट्रप्रेम की पूंजी प्राप्त की थी।

फिर पिछले दशकों में वह समय आया जब हमारे देश के कथित बुध्दिजीवियों ने इतिहास को अपने राजनीतिक पूर्वाग्रहों व आयातित विचारधाराओं के लिए एक हथियार की तरह प्रयुक्त करना शुरू कर दिया। पुराने घटनाक्रमों का वही विश्लेषण स्वीकार किया गया जिस पर साम्यवादी रजामंद थे। उनकी मूल स्थापनाएं ही विकृत मंतव्यों से भरी पूरी थी जैसे प्राचीन भारत में ऐतिहासिक कालक्रमों को व्यवस्थित रूप से रखनें में कोई रूचि नहीं थी। वे दंतकथाओं और सुने-सुनाए आख्यानों या चरणों की प्रशस्तियों या विरूदावली को इतिहास मानने लगे थे। इसीलिए ऐसे इतिहासकार चाहे वे रोमिला थापर हों या इरफान हबीब या रामशरण शर्मा या उनके जैसे अनेक वामपंथी विचारक प्राचीन इतिहास के श्रोताें की विश्वसनीयता का मखौल उड़ाने से कभी नहीं चूकते थे।

इस रूझान का एक कुत्सित रूप हाल में उच्च न्यायालय के आदेश पर अयोध्या में राम जन्मभूमि के स्थान पर उत्खनन के बाद भारतीय पुरातत्व विभाग की सर्वेक्षण रिपोर्ट के संबंध में देखने को मिला है। हर छोटा बड़ा पत्रकार या राजनेता एक इतिहासकार या पुरातत्वविद में रूपांतरित हो गया और विवादास्पद बिंदुओं के नाम पर विदूषकों की पैरोडियों जैसी टिप्पणी करने लगा। जिन्हें उत्खनन या पुरातत्व की क्रियाविधि की सतही समझ भी नहीं थी वे राजनीतिक कारणों से मीडिया में छाए रहे। 10 वीं शताब्दी के विशाल मंदिरों के भूमिगत साक्ष्यों के बावजूद, अनर्गल प्रलाप की बानगी सामने है – पुरातत्व विभाग का दिल मंगवाई है, यह पुरातात्विक धोखाधड़ी है, यही होगा यह पहले से पता था, प्राचीन अवशेष मस्जिद के है, वहां राम की प्रतिमा क्यों नही निकली? वहां हडि्डयां क्यों नहीं निकली?

निर्लज्जता के साथ-साथ बेवकूफियों की भी एक सीमा होती है पर हमारे अंग्रेजी मीडिया के एक वर्ग की साजिश भी एक सारे प्रकरण के उजागर हो गई। चार तलों के उत्खनन के बाद और एक विशाल मंदिर के ढांचे के प्रचुर प्रमाण मिलने के बाद भी जो 50-30 मीटर क्रमशः उत्तर दक्षिण एवं पूर्व पश्चिम तक विस्तारित था हमारे देश के अनेक विद्वानों की आंखों में पट्टी बंधी रही। दिल्ली के एक प्रतिष्ठित हिंदी साप्ताहिक समाचार ने हिंदू-विरोधी इतिहासकार इरफान हबीब के लिए पूरे दो पृष्ठों के ऊपर मोटे अक्षरों के शीर्षक के साथ दरियादिल होकर कालॅम दे दिए थे। शीषर्क था- ‘खोदा समाधान, निकला घमासान!’ मंदिर के उत्खनन में 50 स्तंभ-आधारों का मिलना, हिंदू आस्था के अनेक कलात्मक प्रतीकों की उपलब्धि इन सबसे उन्हें जैसे कोई सरोकार नहीं था क्योंकि उनका अज्ञान व दुराग्रह उनकी मान्यताओं की धज्जियां उड़ा रहा था।

हमारे देश का इतिहास हजारों साल पुराना है और आज की राजनीतिक सीमाओं के पर वह एक बृहत्तर भारत का घटनाक्रम था। देश के अधिकांश वामपंथी इतिहासकारो ंकी मान्यतायें या व्याख्याएं सदैव पक्षपातपूर्ण होने के साथ हास्यास्पद भी लगती है। कहीं इरफान हबीब कहते हैं कि मध्ययुग के संतों ने ऐकेश्वर इस्लाम से सीखा। कहीं लिखा कि मुस्लिम आक्रांताओं का उद्देश्य सिर्फ लूट-खसोट था, धर्मांतरण या मंदिरों का विध्वंस नहीं। नोबल पुरस्कार विजेता वी. एस. नयपाल ने कुछ दिनों पहले लंदन के एक पत्र को दिए साक्षात्कार में कहा था कि भारत में मुस्लिम आक्रमणकारियों ने क्या किया यह जानने के लिए हर हिंदू को एक बार हम्पी के ध्वंसाशेषों को जरूर देखना चाहिए। उनका हृदय विदीर्ण हुए बिना नहीं रह सकता। स्थिति की गंभीरता इस बात से समझी जा सकती हैं कि वी. एस. नयपाल ने लंदन-स्थित एक पत्रकार फारूख ढोंडी को यहां तक कहा कि प्रसिध्द वामपंथी इतिहासकार रोमिला थापर एक ‘फ्रॉड’ है।

आज अनेक पत्रकार जो अपने को इतिहासकार के रूप में छापते हैं वे अपने कुंठित एवं विषाक्त तर्कों से हिंदू अतीत पर आघात कर रहे हैं। उनमें ‘एशियन एज’ में नियमित रूप से लिखने वाले अखिलेश मित्तल शायद सबसे आगे हैं। उनके तर्कों में विक्षिप्तता अधिक है और उन्हें एक लेख ने ‘नीम हकीम’ – शार्लटन – इतिहासकार भी कहा है। ‘इतिहास’ शीर्षक साप्ताहिक स्तंभ में भाषायी अभद्रता, हिंदू संगठनों व सामान्य हिंदूओं पर विषवमन करना ही इसका अकेला उद्देश्य है। उदाहरण के लिए 2 नवंबर, 2003 के ‘एशियन एज’ के रविवारीय परिशिष्ट में सन् 1192 ई. में शहाबुद्दीन गोरी की तराईन की मैदान में विजय का जिक्र करते हुए मित्तल का कहना है कि ”हिंदू सांप्रदायिक” लेखक सिर्फ मंदिरों व महलों के विनाश की बात करते हैंपर वे भूलते हैं कि 13 वीं सदी के बाद से ही तुर्की या पाश्तों-भाषी विजेताओं ने स्थापत्य के साथ-साथ ‘तराना’ कव्वाली या साहित्य की दूसरी विद्याओं के क्षेत्र में अभूत पूर्व योगदान दिया। इसी तरह 26 अक्टूबर, 2003 ‘एशियन एज’ के अंक में ‘हिंदू धर्मांधों एवं संघ के नेताओं’ की भर्त्सना करते हुए वे मंदिर के विध्वंस पर हिंदुओं को ‘राक्षसाज वेयर हिंदूज’ शीर्षक लिखते हैं कि राजपूतों की वीरता की कहानियां भी मनगढ़ंत है और सोमनाथ के मंदिर के विध्वंस पर हिंदुओं ने सुविधाजनक बातें लिखी हैं। कर्नल टॉड का 1839 में लिखा ‘द एनाल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजपूताना’ की आलोचना करते हुए कि वह ब्रिटिश सरकार के समय हिंदू-मुस्लिम तनाव बढ़ाने और हिंदुओं को शह देने लिए चरणों के प्राचीन यशोगान पर आधारित थी और इसका ऐतिहासिक मूल्य नहीं है। वह अंग्रेज अधिकारी अवश्य था सारे जीवन राजपूत जाति का सच्चा मित्र रहा और राजस्थान के ‘इतिहास का पिता’ कहा जाता है। वह 17 वर्ष भी अवधि में ईस्ट इंडिया कंपनी में बंगाल में आया और सारा जीवन राजस्थान के इतिहास सामग्री एकत्र करने में बिता दिया। उसका जन्म 1782 में हुआ था और 1835 में मात्र 53 वर्ष में उसकी मृत्यु हो गई। इसी तरह 14 सितंबर, 2003 को मित्तल द्वारा ‘द-एंग्लो-आर. एस. एस. नेक्सस’ शीर्षक लेख में उन्होंने कहानियां गढ़ी हैं कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान संघ ने किस तरह अंग्रेजों का साथ दिया था। ‘एशियन एज’ के ही 28 सितंबर, 2003 के अंक में ‘हिंदुत्व एट आगरा फोर्ट’ में उन्होंने छत्रपति शिवाजी के शौर्य पर आपत्तिजनक व भड़ाकाऊ टिप्पणी की है जैसे उनका आगरा किले से निकलना कोई महत्वपूर्ण घटना नहीं थी क्योंकि वे वहां मुगलों को वर्चस्व स्वीकार करने गए थे।

इस तरह के इतिहासकारों को हम कब तक सहेंगे जो कहते हैं कि छत्रपति शिवाजी की विजयगाथा के पीछे क्षेत्रीय मराठा दृष्टिकोण था। गुरू तेग बहादुर एक लुटेरे थे, उनकी फांसी के पीछे उनके परिवार के लोगों की साजिश थी। जैन तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता संदेहजनक है। दिल्ली के मुगल शासकों की नाक में दम करने वाले विद्रोही जाट राजा लुटेरे थे।

इन सबसे अधिक खतरनाक विचारों के प्रचार में उनका यह कहना कि आर्य आक्रमणकारियों के रूप में मध्य एशिया उत्तरी ध्रुव आदि देशों से भारत आए थे और उन्होंने सिंधु घाटी की सभ्यता से जुड़े द्रविड़ों को अपदस्थ किया और दक्षिण की ओर खदेड़ दिया। कोट दीजी(सिंध), काली बंगन(राजस्थान), रोपड़(पंजाब) और लोथल (गुजरात) के नए पुरातात्विक साक्ष्यों द्वारा यह पूर्वाग्रह ध्वस्त किया जा चुका है पर उनकी यह रट अभी भी जारी है। डॉ. पी. वी. वर्तक ने अपने खगोलशास्त्र साक्ष्यों व महाभारत के कालक्रमों को वैज्ञानिक ढंग से निर्धारित करने की कोशिश की है। पर आज भी कुछ भ्रमित इतिहासकार राम से जुड़ी अयोध्या कहां हैं पर संशय प्रकट कर रहे हैं। हाल में एक दूसरे वामपंथी इतिहासकार ने रामायण शब्द के गलत उच्चारण के आधार पर धर्म के समूचे सिध्दांत को एक काल्पनिक पृष्ठभूमि पर स्थापित कर दिया। रामायण का उच्चारण ‘रम्याण’ मान कर क्रौंच-बध से संबंधित प्रसिध्द श्लोक का नया अर्थ खोज निकाला और इस श्लोक को कविता न मानकर धार्मिक सूत्र घोषित कर दिया। अयोध्या को बौध्द – धर्म का पवित्र नगर कहना भी एक घृणित राजनीति-प्रेरित साजिश लगती है। यह एक मार्मिक पीड़ा का विषय है कि यह सब लिखनेवाले अंग्रेजी मीडिया में और सरकारी संस्थानों में अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं।

देश की प्राचीन इतिहास की मार्क्सवादी प्रचलित शब्दावली द्वारा हर तरह से छीछालेदर करने का असफल प्रयास किया गया है कि वह क्रोध से अधिक हंसी का विषय लगता है। कुछ उदाहरण देखने योग्य हैं। मनु ‘मानवद्रोही’ थे, पौराणिक रचनाएं ‘काल्पनिक आख्यानों के निरर्थक कालाकर्म का थोक का काम था, विदुर नीति हिन्दुओं की सामंती-संस्कृति की एक महत्वपूर्ण आचार-संहिता है, श्रीमद्भगवदगीता युध्द और हिंसा को वैचारिक आधार देने वाला ग्रंथ है, आदि-आदि!

एक दूसरे इतिहासकार ने तो 20 वीं शताब्दी की ‘बृहत परंपरा’ व लघुपरंपरा के सूत्र ‘ॠृग्वेद’ के आख्यानो के रूप में वेदों में स्थान पा गए हैं? इस विकृत मस्तिष्क के बुध्दिजीवी को शायद यह याद नहीं रहा कि पुराणों की रचना ‘ॠृग्वेद’ के बहुत बाद हुई है। इस आशय का प्रश्न उठाने पर ऐसे विद्वानों का एक ही जवाब रहता है – भारत में रचनाओं का काल निर्धारण अत्यंत दुष्कर कार्य है।

भारतीय इतिहास के रातों-रात बने जानकारों से निर्लज्ज साम्यवादी नेता भी हैं जिन्हें हमारे देश के अंग्रेजी मीडिया के साथ-साथ विदेशों में भी, यदि उनकी टिप्पणियां हिन्दू-विरोधी हैं, तो आज खुल कर उध्दृत किया जाता है। उदाहरण के लिए अमेरिकी मीडिया आज भी साम्यवादियों को अस्पृश्य मानता है। पर जब हमारे देश के ऐसे लोग जो मार्क्सवादी तथा साम्यवादी दल से जुड़े हैं, हिंदू विरोधी टिप्पणी करते हैं, तब उनकी राजनीतिक पहचान दिए बिना, वे खुलकर उध्दृत किए जाते हैं। उन्हें मात्र एक भारतीय बुध्दजीवी या विचारक का विशेषण देकर उध्दृत किया जाता है। हिंदूओं के विरूध्द विषवमन करनेवालों में चाहे वे कुख्यात साम्यवादी ही क्यों न हो वहां स्वीकार्य हैं। कथित पूंजीपतियों व मुक्त बाजार का झंडा उठानेवालों को साम्यवादी प्रवक्ता भी स्वीकार हैं क्योंकि हिंदू-विरोध ही उसके प्रकाशन की एक बड़ी शर्त है।