भरतनाट्यम
शास्त्रीय नृत्य का यह एक प्रसिद्ध नृत्य है। भरत नाट्यम, भारत के प्रसिद्ध नृत्यों में से एक है तथा इसका संबंध दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य से है। यह नाम 'भरत' शब्द से लिया गया तथा इसका संबंध नृत्यशास्त्र से है। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा, हिंदू देवकुल के महान त्रिदेवों में से प्रथम, नाट्य शास्त्र अथवा नृत्य विज्ञान हैं। इन्द्र व स्वर्ग के अन्य देवताओं के अनुनय-विनय से ब्रह्मा इतना प्रभावित हुआ कि उसने नृत्य वेद सृजित करने के लिए चारों वेदों का उपयोग किया। नाट्य वेद अथवा पंचम वेद, भरत व उसके अनुयाइयों को प्रदान किया गया जिन्होंने इस विद्या का परिचय पृथ्वी के नश्वर मनुष्यों को दिया। अत: इसका नाम भरत नाट्यम हुआ। भरत नाट्यम में नृत्य के तीन मूलभूत तत्वों को कुशलतापूर्वक शामिल किया गया है। ये हैं-
- भाव अथवा मन:स्थिति,
- राग अथवा संगीत और स्वरमार्धुय और
- ताल अथवा काल समंजन।
भरत नाट्यम की तकनीक में हाथ, पैर, मुख व शरीर संचालन के समन्वयन के 64 सिद्धांत हैं, जिनका निष्पादन नृत्य पाठ्यक्रम के साथ किया जाता है। भरत नाट्यम में जीवन के तीन मूल तत्व – दर्शन शास्त्र, धर्म व विज्ञान हैं। यह एक गतिशील व सांसारिक नृत्य शैली है, तथा इसकी प्राचीनता स्वयं सिद्ध है। इसे सौंदर्य व सुरुचि संपन्नता का प्रतीक बताया जाना पूर्णत: संगत है। वस्तुत: यह एक ऐसी परंपरा है, जिसमें पूर्ण समर्पण, सांसारिक बंधनों से विरक्ति तथा निष्पादनकर्ता का इसमें चरमोत्कर्ष पर होना आवश्यक है। भरत नाट्यम तुलनात्मक रूप से नया नाम है। पहले इसे सादिर, दासी अट्टम और तन्जावूरनाट्यम के नामों से जाना जाता था। विगत में इसका अभ्यास व प्रदर्शन नृत्यांगनाओं के एक वर्ग जिन्हें 'देवदासी' के रूप में जाना जाता है, द्वारा मंदिरों में किया जाता था। भरत नाट्यम के नृत्यकार मुख्यत: महिलाएं हैं, वे मूर्तियों के अनुसार अपनी मुद्राएं बनाती हैं, सदैव घुटने मोड़ कर नृत्य करती हैं। यह नितांत परिशुद्ध शैली है, जिसमें मनोदशा व अभिव्यंजना संप्रेषित करने के लिए हस्त संचालन का विशाल रंगपटल प्रयोग किया जाता है। भरत नाट्यम अनुनादी है तथा इसमें नर्तक को बहुत मेहनत करनी पड़ती है। शरीर ऐसा जान पड़ता है मानो त्रिभुजाकार हो, एक हिस्सा धड़ से ऊपर व दूसरा नीचे। यह, शरीर भार के नियंत्रित वितरण, व निचले अंगों की सुदृढ़ स्थिति पर आधारित होता है, ताकि हाथों को एक पंक्ति में आने, शरीर के चारों ओर घुमाने अथवा ऐसी स्थितियाँ बनाने, जिससे मूल स्थिति और अच्छी हो, में सहूलियत हो।
कथकली
केरल के दक्षिण - पश्चिमी राज्य का एक समृद्ध और फलने फूलने वाला शास्त्रीय नृत्य कथकली यहाँ की परम्परा है। कथकली का अर्थ है एक कथा का नाटक या एक नृत्य नाटिका। कथा का अर्थ है कहानी, यहाँ अभिनेता रामायण और महाभारत के महाग्रंथों और पुराणों से लिए गए चरित्रों को अभिनय करते हैं। यह अत्यंत रंग बिरंगा नृत्य है। इसके नर्तक उभरे हुए परिधानों, फूलदार दुपट्टों, आभूषणों और मुकुट से सजे होते हैं। वे उन विभिन्न भूमिकाओं को चित्रित करने के लिए सांकेतिक रूप से विशिष्ट प्रकार का रूप धरते हैं, जो वैयक्तिक चरित्र के बजाए उस चरित्र के अधिक नज़दीक होते हैं। विभिन्न विशेषताएं, मानव, देवता समान, दैत्य आदि को शानदार वेशभूषा और परिधानों के माध्यम से प्रदर्शित किया जाता है। इस नृत्य का सबसे अधिक प्रभावशाली भाग यह है कि इसके चरित्र कभी बोलते नहीं हैं, केवल उनके हाथों के हाव भाव की उच्च विकसित भाषा तथा चेहरे की अभिव्यक्ति होती है जो इस नाटिका के पाठ्य को दर्शकों के सामने प्रदर्शित करती है। उनके चेहरे के छोटे और बड़े हाव भाव, भंवों की गति, नेत्रों का संचलन, गालों, नाक और ठोड़ी की अभिव्यक्ति पर बारीकी से काम किया जाता है तथा एक कथकली अभिनेता - नर्तक द्वारा विभिन्न भावनाओं को प्रकट किया जाता है। इसमें अधिकांशत: पुरुष ही महिलाओं की भूमिका निभाते हैं, जबकि अब कुछ समय से महिलाओं को कथकली में शामिल किया जाता है। वर्तमान समय का कथकली एक नृत्य नाटिका की परम्परा है जो केरल के नाट्य कर्म की उच्च विशिष्ट शैली की परम्परा के साथ शताब्दियों पहले विकसित हुआ था, विशेष रूप से कुडियाट्टम। पारम्परिक रीति रिवाज जैसे थेयाम, मुडियाट्टम और केरल की मार्शल कलाएं नृत्य को वर्तमान स्वरूप में लाने के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
कथक
ओडिसी
ओडिसी को पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर सबसे पुराने जीवित शास्त्रीय नृत्य रूपों में से एक माना जाता है। उड़ीसा के पारम्परिक नृत्य, ओडिसी का जन्म मंदिर में नृत्य करने वाली देवदासियों के नृत्य से हुआ था। ओडिसी नृत्य का उल्लेख शिला लेखों में मिलता है, इसे ब्रह्मेश्वर मंदिर के शिला लेखों में दर्शाया गया है साथ ही कोणार्क के सूर्य मंदिर के केन्द्रीय कक्ष में इसका उल्लेख मिलता है। वर्ष 1950 में इस पूरे नृत्य रूप को एक नया रूप दिया गया, जिसके लिए अभिनय चंद्रिका और मंदिरों में पाए गए तराशे हुए नृत्य की मुद्राएं धन्यवाद के पात्र हैं। किसी अन्य भारतीय शास्त्रीय नृत्य रूप के समान ओडिसी के दो प्रमुख पक्ष हैं: नृत्य या गैर निरुपण नृत्य, जहाँ अंतरिक्ष और समय में शरीर की भंगिमाओं का उपयोग करते हुए सजावटी पैटर्न सृजित किए जाते हैं। इसका एक अन्य रूप अभिनय है, जिसे सांकेतिक हाथ के हाव भाव और चेहरे की अभिव्यक्तियों को कहानी या विषयवस्तु समझाने में उपयोग किया जाता है।इसमें त्रिभंग पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है, जिसका अर्थ है शरीर को तीन भागों में बांटना, सिर, शरीर और पैर; मुद्राएं और अभिव्यक्तियाँ भरत नाट्यम के समान होती है। ओडिसी नृत्य में कृष्ण, भगवान विष्णु के आठवें अवतार के बारे में कथाएं बताई जाती हैं। यह एक कोमल, कवितामय शास्त्री नृत्य है जिसमें उड़ीसा के परिवेश तथा इसके सर्वाधिक लोकप्रिय देवता, भगवान जगन्नाथ की महिमा का गान किया जाता है। ओडिसी नृत्य भगवान कृष्ण के प्रति समर्पित है और इसके छंद संस्कृति नाटक गीत गोविंदम से लिए गए हैं, जिन्हें प्रेम और भगवान के प्रति समर्पण को प्रदर्शित करने में उपयोग किया जाता है।
मणिपुरी
मोहनी अट्टम
मूलभूत नृत्य ताल चार प्रकार के होते हैं:
- तगानम,
- जगानम,
- धगानम और
- सामीश्रम।
ये नाम वैट्टारी नामक वर्गीकरण से उत्पन्न हुए हैं। मोहिनीअटट्म में सहज लगने वाली साज सज्जा और सरल वेशभूषा धारण की जाती है। नृत्यांगना को केरल की सफेद और सुनहरी किनारी वाली सुंदर कासावू साड़ी में सजाया जाता है। अन्य नृत्य रूपों के समान मोहिनीअटट्म में हस्त लक्षण दीपिका को अपनाया जाता है, जैसा कि मुद्रा की पाठ्य पुस्तक या हाथ के हाव भाव में दिया गया है। मोहिनीअटट्म के लिए मौखिक संगीत की शैली, जैसा कि आमतौर पर देखा गया है, शास्त्रीय कर्नाटक है। इसके गीत महाराजा स्वाति तिरुनल और इराइमान थम्पी द्वारा किए गए हैं जो मणिप्रवाल (संस्कृत और मलयालम का मिश्रण) में हैं। हाल ही में थोपी मडालम और वीना ने मोहिनीअटट्म में पृष्ठभूमि संगीत प्रदान किया। उनके स्थान पर हाल के वर्षों में मृदंगम और वायलिन आ गया है।
कुचिपुड़ि
कुचीपुडी आंध्र प्रदेश की एक स्वदेशी नृत्य शैली है जिसने इसी नाम के गांव में जन्म लिया और पनपी, इसका मूल नाम कुचेलापुरी या कुचेलापुरम था, जो कृष्णा ज़िले का एक कस्बा है। अपने मूल से ही यह तीसरी शताब्दी बीसी में अपने धुंधले अवशेष छोड़ आई है, यह इस क्षेत्र की एक निरंतर और जीवित नृत्य परम्परा है। कुचीपुडी कला का जन्म अधिकांश भारतीय शास्त्रीय नृत्यों के समान धर्मों के साथ जुड़ा हुआ है। एक लम्बे समय से यह कला केवल मंदिरों में और वह भी आंध्र प्रदेश के कुछ मंदिरों में वार्षिक उत्सव के अवसर पर प्रदर्शित की जाती थी। परम्परा के अनुसार कुचीपुडी नृत्य मूलत: केवल पुरुषों द्वारा किया जाता था और वह भी केवल ब्राह्मण समुदाय के पुरुषों द्वारा। ये ब्राह्मण परिवार कुचीपुडी के भागवतथालू कहलाते थे। कुचीपुडी के भागवतथालू ब्राह्मणों का पहला समूह 1502 ए. डी. निर्मित किया गया था। उनके कार्यक्रम देवताओं को समर्पित किए जाते थे तथा उन्होंने अपने समूहों में महिलाओं को प्रवेश नहीं दिया। महिला नृत्यांगनाओं के शोषण के कारण नृत्य कला के ह्रास के युग में एक सिद्ध पुरुष सिद्धेंद्र योगी ने नृत्य को पुन: परिभाषित किया। कुचीपुडी के पंद्रह ब्राह्मण परिवारों ने पांच शताब्दियों से अधिक समय तक परम्परा को आगे बढ़ाया है। प्रतिष्ठित गुरु जैसे वेदांतम लक्ष्मी नारायण, चिंता कृष्णा मूर्ति और तादेपल्ली पेराया ने महिलाओं को इसमें शामिल कर नृत्य को और समृद्ध बनाया है। डॉ. वेमापति चिन्ना सत्यम ने इसमें कई नृत्य नाटिकाओं को जोड़ा और कई एकल प्रदर्शनों की नृत्य संरचना तैयार की और इस प्रकार नृत्य रूप के क्षितिज को व्यापक बनाया। यह परम्परा तब से महान बनी हुई है जब पुरुष ही महिलाओं का अभिनय करते थे और अब महिलाएं पुरुषों का अभिनय करने लगी हैं। कुचीपुडी कला एक ऐसे नृत्य नाटिका के रूप में आशयित की गई थी, जिसके लिए चरित्र का एक सैट आवश्यक था, जो केवल एक नर्तक द्वारा किया जाने वाला नृत्य नहीं था जो आज के समय में प्रचलित है। इस नृत्य नाटिका को कभी कभी अट्टा भागवतम कहते हैं। इसके नाटक तेलुगु भाषा में लिखे जाते हैं और पारम्परिक रूप से सभी भूमिकाएं केवल पुरुषों द्वारा निभाई जाती है। कुचीपुडी नाटक खुले और अभिनय के लिए तैयार मंचों पर खेले जाते हैं। इसके प्रस्तुतिकरण कुछ पारम्परिक रीति के साथ शुरू होते हैं और फिर दर्शकों को पूरा दृश्य प्रदर्शित किया जाता है। तब सूत्रधार मंच पर सहयोगी संगीतकारों के साथ आता है और ड्रम तथा घंटियों की ताल पर नाटक की शुरूआत करता है। एक कुचीपुडी प्रदर्शन में प्रत्येक प्रधान चरित्र दारु के साथ आकर स्वयं अपना परिचय देता है। दारु नृत्य की एक छोटी रचना है और प्रत्येक चरित्र को अपनी पहचान प्रकट करने के लिए एक विशेष गीत दिया जाता है साथ ही वह नृत्यकार को कला का कौशल दर्शाने में भी सहायता देता है। एक नृत्य नाटिका में लगभग 80 दारु या नृत्य क्रम होते हैं। एक सुंदर पर्दे के पीछे, जिसे दो व्यक्ति पकड़ते हैं, सत्यभामा दर्शकों की ओर पीठ किए हुए मंच पर आती हैं। भामा कल्पम में सत्यभामा विप्रलांबा नायिकी या नायिका हैं जिसे उसका प्रेमी छोड़ गया है और वह उसकी अनुपस्थिति में उदास है। कुचीपुडी नृत्य का सबसे अधिक लोकप्रिय रूप मटका नृत्य है जिसमें एक नर्तकी मटके में पानी भर कर और उसे अपने सिर पर रखकर पीतल की थाली में पैर जमा कर नृत्य करती है। वह पीतल की थाली पर नियंत्रण रखते हुए पूरे मंच पर नृत्य करती है और इस पूरे संचलन के दौरान श्रोताओं को चकित कर देने के लिए उसके मटके से पानी की एक बूंद भी नहीं गिरती है। भामा कल्पम के अलावा एक अन्य प्रसिद्ध नृत्य नाटिका है गोला कलापम जिसे भगवत रामाया ने लिखा है, तिरुमाला नारयण चिरयालु द्वारा लिखित प्रहलाद चरितम, शशि रेखा परिणय आदि। इस कला की साज सज्जा और वेशभूषा इसकी विशेषता हैं। इसकी वेशभूषा और साज सज्जा में बहुत अधिक कुछ नहीं होता है। इसकी एक महत्वपूर्ण विशेषता इसके अलग अलग प्रकार की सज्जा में है और इसके महिला चरित्र कई आभूषण पहनते हैं जैसे कि रकुडी, चंद्र वानिकी, अडाभासा और कसिनासारा तथा फूलों और आभूषणों से सज्जित लंबी वेणी। कुचीपुडी का संगीत शास्त्रीय कर्नाटक संगीत होता है। मृदंग, वायलिन और एक क्लेरीनेट इसमें बजाए जाने वाले सामान्य संगीत वाद्य हैं। आज के समय में कुचीपुडी में भी भरतनाट्यम के समान अनेक परिवर्तन हो गए हैं। वर्तमान समय के नर्तक और नृत्यांगनाएं कुचीपुडी शैली में उन्नत प्रशिक्षण लेते हैं और अपनी वैयक्तिक शैली में इस कला का प्रदर्शन करते हैं। इसमें वर्तमान समय में केवल दो मेलम या पुरुष प्रदर्शकों के व्यावसायिक दल हैं। इसमें अधिकांश नृत्य महिलाएं करती हैं। वर्तमान समय के प्रदर्शन में कुचीपुडी नृत्य नाटिका से घट कर नृत्य तक रह गया है, यह जटिल रंग मंच अभ्यास के स्थान पर नियमित मंच प्रदर्शन बन गया है।
कुट्टी अट्टम
शास्त्रीय नृत्य में कटियाट्टम केरल के शास्त्रीय रंग मंच का अद्वितीय रूप है जो अत्यंत मनमोहक है। यह 2000 वर्ष पहले के समय से किया जाता था और यह संस्कृत के नाटकों का अभिनय है और यह भारत का सबसे पुराना रंग मंच है, जिसे निरंतर प्रदर्शित किया जाता है। राजा कुल शेखर वर्मन ने 10वीं शताब्दी ए. डी. में कुटियाट्टम में सुधार किया और रूप संस्कृत में प्रदर्शन की परम्परा को जारी रखे हुए है। प्राकृत भाषा और मलयालम अपने प्राचीन रूपों में इस माध्यम को जीवित रखे हैं। इस भण्डार में भास, हर्ष और महेन्द्र विक्रम पल्लव द्वारा दिखे गए नाटक शामिल हैं। पारम्परिक रूप से चकयार जाति के सदस्य इसमें अभिनय करते हैं और यह इस समूह को समर्पण ही है जो शताब्दियों से कुटियाट्टम के संरक्षण का उत्तरदायी है। द्रुमरों की उप जाति नाम्बियार को इस रंग मंच के साथ निझावू के अभिनेता के रूप में जोड़ा जाता है (मटके के आकार का एक बड़ा ड्रम कुटियाट्टम की विशेषता है)। नाम्बियार समुदाय की महिलाएं इसमें महिला चरित्रों का अभिनय करती है और बेल धातु की घंटियां बजती है। जबकि अन्य समुदायों के लोग इस नाट्य कला का अध्ययन करते हैं और मंच पर प्रदर्शन में भाग ले सकते हैं, किन्तु वे मंदिरों में प्रदर्शन नहीं करते। प्रदर्शन आम तौर पर कई दिनों तक चलते हैं, इनमें से कुछ चरित्रों के परिचय और उनके जीवन की घटनाओं को समर्पित किए जाते हैं। इस पूरे प्रदर्शन में शुरूआत से अंत तक इसे अंतिम दिन तक चलाया जाता है। जबकि इसका अनिवार्य रूप से अर्थ नहीं है कि नाटक के संपूर्ण लिखित पाठ को अभिनय में ढाला जाए। कुटियाट्टम की एक शाम रात 9 बजे शुरू होती है जब मंदिर के मुख्य गर्भ गृह के रीति रिवाज पूरे हो जाते हैं तथा यह अर्धरात्रि तक, कभी कभार सुबह 3 बजे तक चलता है, जब तक सुबह के रीति रिवाज आरंभ हों। जटिल हाव भाव की भाषा, मंत्रोच्चार, चेहरे और आंखों की अतिशय अभिव्यक्ति विस्तृत मुकुट और चेहरे की सज्जा के साथ मिलकर कुटियाट्टम का अभिनय बनाते हैं। इसमें मिझावू ड्रमों द्वारा, छोटी घंटियों और इडक्का (एक सीधे गिलास के आकार का ड्रम) से तथा कुझाल (फूंक कर बजाने वाला एक वाद्य) और शंख से संगीत दिया जाता है।
यक्षगान
यक्षगान कर्नाटक राज्य का पारम्परिक नृत्य नाट्य रूप है जो एक प्रशंसनीय शास्त्रीय पृष्ठभूमि के साथ किया जाने वाला एक अनोखा नृत्य रूप है। लगभग 5 शताब्दियों की सशक्त नींव के साथ यक्षगान लोक कला के एक रूप के तौर पर मजबूत स्थिति रखता है, जो केरल के कथकली के समान है। नृत्य नाटिका के इस रूप का मुख्य सार धर्म के साथ इसका जुड़ाव है, जो इसके नाटकों के लिए सर्वाधिक सामान्य विषय वस्तु प्रदान करता है। जन समूह के लिए एक नाट्य मंच होने के नाते यक्षगान संस्कृत नाटकों के कलात्मक तत्वों के मिले जुले परिवेश में मंदिरों और गांवों के चौराहों पर बजाए जाने वाले पारम्परिक संगीत तथा रामायण औरमहाभारत जैसे महान ग्रंथों से ली गई युद्ध संबंधी विषय वस्तुओं के साथ प्रदर्शित किया जाता है, जिसे आम तौर पर रात के समय धान के खेत में निभाया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में धार्मिक भावना की सशक्त पकड़ होने से इसकी लोकप्रियता में अपार वृद्धि हुई है, जिसे इन स्थानों पर इनमें शामिल होने वाले कलाकारों को मिलने वाला उच्च सम्मान पूरकता प्रदान करता है।
स्वर्गिक संगीत के साथ आलंकारिक महत्व के विपरीत वास्तव में स्वर्गिक और पृथ्वी के संगीत का एक अनोखा मिश्रण है। यह कला रूप अस्पष्टता और ऊर्जा के बारीक तत्वों का कला रूप अपने प्रस्तुतीकरण में दर्शाता है, जो नृत्य और गीत के माध्यम से प्रदर्शित किया जाता है, इसमें चेंड नामक ड्रम बजाने के अलावा कलाकारों के नाटकीय हाव भाव सम्मिलित होते हैं। इसे प्रदर्शित करने वाले कलाकार समृद्ध डिज़ाइनों के साथ चटकीले रंग बिरंगे परिधानों से स्वयं को सजाते हैं, जो कर्नाटक के तटीय ज़िलों की समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा पर प्रकाश डालते हैं। इस प्रकार नाटकीय प्रस्तुति सर्वोत्तम शास्त्रीय संगीत, मंजी हुई नृत्य कला और प्राचीन अनुलेखों का एक भव्य मिश्रण बन कर प्रकट होती है, जो भारत के नृत्य रूपों में सर्वाधिक मनमोहक रूपों में से एक माना जाता है। इस नाटकीय प्रस्तुति की विडंबना यह है कि इसमें नृत्य के चरणों में युद्ध के चरणों का अभिनय किया जाता है, जिनके साथ विशेष प्रभाव देने वाले कुछ पारम्परिक नाटकीय संकेत, चमकदार परिधान और विशाल मुकुट पहने जाते हैं और ये सभी मिलकर कलाकारों को एक सशक्त तथा सहज लोक चरित्र के रूप में प्रस्तुत करते हैं। कलाकारों द्वारा पहने गए आभूषण नर्म लकड़ी से बनाए जाते हैं, जिसे शीशे के टुकड़ों और सुनहरे रंग के कागज़ के टुकड़ों से सजाया संवारा जाता है। यक्षगान के बारे में सर्वाधिक अद्भुत विशेषताओं में से एक है इसमें शास्त्रीय तथा लोक भाषाओं को एक रूप कर देना, ताकि कला के सम्मोहन का एक ऐसा दृश्य बने जो नाट्य विद्या में कला की सीमाओं के पार चला जाए। एक प्रारूपिक यक्षगान प्रदर्शन भगवान गणेश की वंदना से शुरू होता है, जिसके बाद एक हास्य अभिनय किया जाता है तथा इसमें पृष्ठभूमि संगीत चेंड और मेडल के साथ तीन व्यक्तियों के दल द्वारा ताल (घण्टियां) बजाई जाती हैं। कथावाचक, जो भागवत नामक दल का एक हिस्सा भी है और वह इस पूरे प्रदर्शन का निर्माता, निर्देशक और कार्यक्रम का प्रमुख होता है। उसके प्रारंभिक कार्य में गीतों के माध्यम से कथा का वाचन, चरित्रों का परिचय और कभी कभार उनके साथ वार्तालाप शामिल है। एक सशक्त संगीत ज्ञान और मजबूत क़द काठी एक कलाकार की पहली आवश्यकताएं हैं और इसके साथ उसे हिन्दू धर्म का गहरा ज्ञान होना आवश्यक है। इन नाटकों को सहज़ रूप से कलाकारों द्वारा निभाई गई अनेक पौराणिक चरित्रों की भूमिकाओं में विशाल जनसमूह द्वारा देखा जाता है। यक्षगान की एक अन्य अनोखी विशेषता यह है कि इसमें पहले से कोई अभ्यास या आपसी संवाद का लिखित रूप उपयोग नहीं किया जाता है, जिससे यह अत्यंत विशेष रूप माना जाता है। वर्तमान परिदृश्य में यक्षगान न केवल भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय कला परम्परा में से एक है बल्कि पूरी दुनिया में इसे मान्यता दी जाती है। यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि केवल कर्नाटक राज्य में ही 10,000 से अधिक यक्षगान प्रदर्शन प्रति वर्ष किए जाते हैं, जिसमें सभी महोत्सवों के भ्रमण, विद्यालयों और महाविद्यालयों में किए जाने वाले प्रदर्शन आदि शामिल हैं। एक इतनी प्रभावशाली स्थिति को एक ऐसा प्रमाणपत्र माना जा सकता है जो यह कहता है कि यक्षगान सदैव जीवित रहेगा।
छाऊ
लोक नृत्य में छाऊ नृत्य रहस्यमय उद्भव वाला है। छाऊ नर्तक अपनी आंतरिक भावनाओं व विषय वस्तु को, शरीर के आरोह-अवरोह, मोड़-तोड़, संचलन व गत्यात्मक संकेतों द्वारा व्यक्त करता है। 'छाऊ' शब्द की अलग-अलग विद्वानों द्वारा भिन्न-भिन्न व्याख्या की गई है। कुछ का मानना है कि 'छाऊ' शब्द संस्कृत शब्द 'छाया' से आया है। 'छद्मवेश' इसकी दूसरी सामान्य व्याख्या है, क्योंकि इस नृत्य शैली में मुखौटों का व्यापक प्रयोग किया जाता है। छाऊ की युद्ध संबंधी चेष्टाओं ने इसके शब्द की दूसरी ही व्याख्या कर डाली 'गुपचुप तरीके से हमला करना या शिकार करना। छाऊ की तीन विधाएं मौजूद हैं, जो तीन अलग-अलग क्षेत्रों सेराई केला (बिहार), पुरूलिया (पश्चिम बंगाल) और मयूरभंज (उड़ीसा) से शरू हुई हैं। युद्ध जैसी चेष्टाओं, तेज लयबद्ध कथन, और स्थान का गतिशील प्रयोग छाऊ की विशिष्टता है। यह नृत्य विशाल जीवनी शक्ति और पौरूष की श्रेष्ठ पराकाष्ठा है। चूंकि मुखौटे के साथ बहुत समय तक नृत्य करना कठिन होता है, अत: नृत्य की अवधि 7-10 मिनट से अधिक नहीं होती। छाऊ नृत्य मनोभावों की स्थिति अथवा अवस्था का प्रकटीकरण है। नृत्य का यह रूप फारीकन्दा, जिसका अर्थ ढाल और तलवार है, की युद्धकला परम्परा पर आधारित है। नर्तक विस्तृत मुखौटे लगाता और वेशभूषा धारण करता है तथा पौराणिक-ऐतिहासिक, क्षेत्रीय लोक साहित्य, प्रेम प्रसंग और प्रकृति से संबंधित कथाएं प्रस्तुत करता है। युद्ध जैसे संचालन, तेज तालबद्ध लोक धुनो, सुन्दर शिल्पमय मुखौटों के साथ विशाल पगडियां छाऊ की विशिष्टता है। मुखौटे आमतौर पर नर्तकों द्वारा स्वयं चिकनी मिट्टी से बनाए जाते हैं।इसके प्रभावशाली युद्ध विषयक चरित्र इसे केवल नर्तक के उपयुक्त बनाते हैं। राजा न केवल इसके संरक्षक होते थे वरन् नर्तक, शिक्षक और मुखौटे बनाने में निपुण भी होते थे। सेराईकेला मुखौटे जापान के नोहकेला नृत्य और जावा के वायांग नृत्य में प्रयोग किए जाने वाले मुखौटों जैसे हैं। पुरुलिया छाऊ में जो मुखौटे प्रयुक्त होते हैं वह क्षेत्र की उच्च विकसित कला है। जन जातीय रहवासियों सहित बंजर भूमि, वैदिक साहित्य का बहुपर्तीय प्रभाव, हिन्दुत्व और युद्ध संबंधी लोक साहित्य ने मिलकर पुरुलिया छाऊ नृत्यों को आकार दिया है जिसका केवल एक संदेश है बुराई पर अच्छाई की विजय। मयूरभंज छाऊ में उच्च विकसित संचलन होता है, कोई मुखौटे नहीं होते तथा अन्य दो पद्धतियों से इसकी शब्दावली तीखी होती है। सेराइकेला छाऊ की भांति यह भी राजाश्रय में फला-फूला है, तथा यह स्वाभाविक भारतीय नृत्य व पश्चिम के उड़ान, कुदान, उत्थान नृत्य रूपों के बीच की कड़ी है। भारत की अन्य शास्त्रीय नृत्य विधाओं में स्वर संगीत की तुलना में छाऊ में यह बमुश्किल होता है। इसमें वाद्य संगीत तथा विभिन्न प्रकार के नाद-वाद्य जैसे ढोल,धूम्बा, नगाड़ा, धान्सा और छादछादी से संगत की जाती है। इसके अलावा, शास्त्रीय संगीत के तीन मुख्य घटक, अर्थात्, राग (स्वर माधुर्य), भाव (चितवृति) और ताल (लयबद्धता) छाऊ नृत्य के महत्वपूर्ण पहलू हैं। लोक, जनजातीय और युद्ध परंपराओं का मिश्रण होते हुए, तथा नृत्ता, नृत्य और नाट्य के तीनों पक्षों के साथ-साथ तांडव तथा शास्त्रीय नृत्य लास्य पक्ष को भी अपने में समाहित करते हुए, छाऊ नृत्य, लोक और शास्त्रीय मूल भावों का जटिल मिश्रण हैं। भारत की अन्य नृत्य विधाओं से अलग हटकर छाऊ नृत्य ओजस्विता व शक्ति से परिपूर्ण हैं। नर्तक का पूरा शरीर व सम्पूर्ण व्यक्तित्व उसकी भाषा के रूप में एक एकल इकाई में लगाया जाता है। शरीर की यह भाषा अत्यन्त काव्यात्मक व सशक्त होती है। भावों का संप्रेषण करने के लिए पैर प्रभावशाली साधन होते हैं। हाल के दिनों में, मयूरभंज छाऊ, उसकी अनेक मुद्राओं और विधाओं, जो आधुनिक व परंपरागत दोनों निरूपणों को अपनाती हैं, के कारण नृत्यकला के राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय दोनों मंचों पर प्रसिद्ध हुआ है।
कुट्टी अट्टम
यक्षगान
यक्षगान कर्नाटक राज्य का पारम्परिक नृत्य नाट्य रूप है जो एक प्रशंसनीय शास्त्रीय पृष्ठभूमि के साथ किया जाने वाला एक अनोखा नृत्य रूप है। लगभग 5 शताब्दियों की सशक्त नींव के साथ यक्षगान लोक कला के एक रूप के तौर पर मजबूत स्थिति रखता है, जो केरल के कथकली के समान है। नृत्य नाटिका के इस रूप का मुख्य सार धर्म के साथ इसका जुड़ाव है, जो इसके नाटकों के लिए सर्वाधिक सामान्य विषय वस्तु प्रदान करता है। जन समूह के लिए एक नाट्य मंच होने के नाते यक्षगान संस्कृत नाटकों के कलात्मक तत्वों के मिले जुले परिवेश में मंदिरों और गांवों के चौराहों पर बजाए जाने वाले पारम्परिक संगीत तथा रामायण औरमहाभारत जैसे महान ग्रंथों से ली गई युद्ध संबंधी विषय वस्तुओं के साथ प्रदर्शित किया जाता है, जिसे आम तौर पर रात के समय धान के खेत में निभाया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में धार्मिक भावना की सशक्त पकड़ होने से इसकी लोकप्रियता में अपार वृद्धि हुई है, जिसे इन स्थानों पर इनमें शामिल होने वाले कलाकारों को मिलने वाला उच्च सम्मान पूरकता प्रदान करता है।
स्वर्गिक संगीत के साथ आलंकारिक महत्व के विपरीत वास्तव में स्वर्गिक और पृथ्वी के संगीत का एक अनोखा मिश्रण है। यह कला रूप अस्पष्टता और ऊर्जा के बारीक तत्वों का कला रूप अपने प्रस्तुतीकरण में दर्शाता है, जो नृत्य और गीत के माध्यम से प्रदर्शित किया जाता है, इसमें चेंड नामक ड्रम बजाने के अलावा कलाकारों के नाटकीय हाव भाव सम्मिलित होते हैं। इसे प्रदर्शित करने वाले कलाकार समृद्ध डिज़ाइनों के साथ चटकीले रंग बिरंगे परिधानों से स्वयं को सजाते हैं, जो कर्नाटक के तटीय ज़िलों की समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा पर प्रकाश डालते हैं। इस प्रकार नाटकीय प्रस्तुति सर्वोत्तम शास्त्रीय संगीत, मंजी हुई नृत्य कला और प्राचीन अनुलेखों का एक भव्य मिश्रण बन कर प्रकट होती है, जो भारत के नृत्य रूपों में सर्वाधिक मनमोहक रूपों में से एक माना जाता है। इस नाटकीय प्रस्तुति की विडंबना यह है कि इसमें नृत्य के चरणों में युद्ध के चरणों का अभिनय किया जाता है, जिनके साथ विशेष प्रभाव देने वाले कुछ पारम्परिक नाटकीय संकेत, चमकदार परिधान और विशाल मुकुट पहने जाते हैं और ये सभी मिलकर कलाकारों को एक सशक्त तथा सहज लोक चरित्र के रूप में प्रस्तुत करते हैं। कलाकारों द्वारा पहने गए आभूषण नर्म लकड़ी से बनाए जाते हैं, जिसे शीशे के टुकड़ों और सुनहरे रंग के कागज़ के टुकड़ों से सजाया संवारा जाता है। यक्षगान के बारे में सर्वाधिक अद्भुत विशेषताओं में से एक है इसमें शास्त्रीय तथा लोक भाषाओं को एक रूप कर देना, ताकि कला के सम्मोहन का एक ऐसा दृश्य बने जो नाट्य विद्या में कला की सीमाओं के पार चला जाए। एक प्रारूपिक यक्षगान प्रदर्शन भगवान गणेश की वंदना से शुरू होता है, जिसके बाद एक हास्य अभिनय किया जाता है तथा इसमें पृष्ठभूमि संगीत चेंड और मेडल के साथ तीन व्यक्तियों के दल द्वारा ताल (घण्टियां) बजाई जाती हैं। कथावाचक, जो भागवत नामक दल का एक हिस्सा भी है और वह इस पूरे प्रदर्शन का निर्माता, निर्देशक और कार्यक्रम का प्रमुख होता है। उसके प्रारंभिक कार्य में गीतों के माध्यम से कथा का वाचन, चरित्रों का परिचय और कभी कभार उनके साथ वार्तालाप शामिल है। एक सशक्त संगीत ज्ञान और मजबूत क़द काठी एक कलाकार की पहली आवश्यकताएं हैं और इसके साथ उसे हिन्दू धर्म का गहरा ज्ञान होना आवश्यक है। इन नाटकों को सहज़ रूप से कलाकारों द्वारा निभाई गई अनेक पौराणिक चरित्रों की भूमिकाओं में विशाल जनसमूह द्वारा देखा जाता है। यक्षगान की एक अन्य अनोखी विशेषता यह है कि इसमें पहले से कोई अभ्यास या आपसी संवाद का लिखित रूप उपयोग नहीं किया जाता है, जिससे यह अत्यंत विशेष रूप माना जाता है। वर्तमान परिदृश्य में यक्षगान न केवल भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय कला परम्परा में से एक है बल्कि पूरी दुनिया में इसे मान्यता दी जाती है। यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि केवल कर्नाटक राज्य में ही 10,000 से अधिक यक्षगान प्रदर्शन प्रति वर्ष किए जाते हैं, जिसमें सभी महोत्सवों के भ्रमण, विद्यालयों और महाविद्यालयों में किए जाने वाले प्रदर्शन आदि शामिल हैं। एक इतनी प्रभावशाली स्थिति को एक ऐसा प्रमाणपत्र माना जा सकता है जो यह कहता है कि यक्षगान सदैव जीवित रहेगा।
छाऊ
इसके प्रभावशाली युद्ध विषयक चरित्र इसे केवल नर्तक के उपयुक्त बनाते हैं। राजा न केवल इसके संरक्षक होते थे वरन् नर्तक, शिक्षक और मुखौटे बनाने में निपुण भी होते थे। सेराईकेला मुखौटे जापान के नोहकेला नृत्य और जावा के वायांग नृत्य में प्रयोग किए जाने वाले मुखौटों जैसे हैं। पुरुलिया छाऊ में जो मुखौटे प्रयुक्त होते हैं वह क्षेत्र की उच्च विकसित कला है। जन जातीय रहवासियों सहित बंजर भूमि, वैदिक साहित्य का बहुपर्तीय प्रभाव, हिन्दुत्व और युद्ध संबंधी लोक साहित्य ने मिलकर पुरुलिया छाऊ नृत्यों को आकार दिया है जिसका केवल एक संदेश है बुराई पर अच्छाई की विजय। मयूरभंज छाऊ में उच्च विकसित संचलन होता है, कोई मुखौटे नहीं होते तथा अन्य दो पद्धतियों से इसकी शब्दावली तीखी होती है। सेराइकेला छाऊ की भांति यह भी राजाश्रय में फला-फूला है, तथा यह स्वाभाविक भारतीय नृत्य व पश्चिम के उड़ान, कुदान, उत्थान नृत्य रूपों के बीच की कड़ी है। भारत की अन्य शास्त्रीय नृत्य विधाओं में स्वर संगीत की तुलना में छाऊ में यह बमुश्किल होता है। इसमें वाद्य संगीत तथा विभिन्न प्रकार के नाद-वाद्य जैसे ढोल,धूम्बा, नगाड़ा, धान्सा और छादछादी से संगत की जाती है। इसके अलावा, शास्त्रीय संगीत के तीन मुख्य घटक, अर्थात्, राग (स्वर माधुर्य), भाव (चितवृति) और ताल (लयबद्धता) छाऊ नृत्य के महत्वपूर्ण पहलू हैं। लोक, जनजातीय और युद्ध परंपराओं का मिश्रण होते हुए, तथा नृत्ता, नृत्य और नाट्य के तीनों पक्षों के साथ-साथ तांडव तथा शास्त्रीय नृत्य लास्य पक्ष को भी अपने में समाहित करते हुए, छाऊ नृत्य, लोक और शास्त्रीय मूल भावों का जटिल मिश्रण हैं। भारत की अन्य नृत्य विधाओं से अलग हटकर छाऊ नृत्य ओजस्विता व शक्ति से परिपूर्ण हैं। नर्तक का पूरा शरीर व सम्पूर्ण व्यक्तित्व उसकी भाषा के रूप में एक एकल इकाई में लगाया जाता है। शरीर की यह भाषा अत्यन्त काव्यात्मक व सशक्त होती है। भावों का संप्रेषण करने के लिए पैर प्रभावशाली साधन होते हैं। हाल के दिनों में, मयूरभंज छाऊ, उसकी अनेक मुद्राओं और विधाओं, जो आधुनिक व परंपरागत दोनों निरूपणों को अपनाती हैं, के कारण नृत्यकला के राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय दोनों मंचों पर प्रसिद्ध हुआ है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें