समय शायद बीता गया जब हमारे देश में, अंग्रेजों के शासन के बावजूद भी, इतिहास भी इतिहास को उस प्रेरणा-श्रोत की तरह पढ़ाया जाता था, जहां उसके पीले, पुराने पन्नों में भी हम देश की अपनी विरासत के प्रेरक – तत्वों को ढूंढ़ ही लेते थे। स्वतंत्रता संग्राम के समय भी तिलक, रानाडे, सुभाषचंद्र बोस आदि दर्जनों राष्ट्रीय प्रतिभाओं ने देश के इतिहास के घटनाक्रमों से ही बहुधा राष्ट्रप्रेम की पूंजी प्राप्त की थी।
फिर पिछले दशकों में वह समय आया जब हमारे देश के कथित बुध्दिजीवियों ने इतिहास को अपने राजनीतिक पूर्वाग्रहों व आयातित विचारधाराओं के लिए एक हथियार की तरह प्रयुक्त करना शुरू कर दिया। पुराने घटनाक्रमों का वही विश्लेषण स्वीकार किया गया जिस पर साम्यवादी रजामंद थे। उनकी मूल स्थापनाएं ही विकृत मंतव्यों से भरी पूरी थी जैसे प्राचीन भारत में ऐतिहासिक कालक्रमों को व्यवस्थित रूप से रखनें में कोई रूचि नहीं थी। वे दंतकथाओं और सुने-सुनाए आख्यानों या चरणों की प्रशस्तियों या विरूदावली को इतिहास मानने लगे थे। इसीलिए ऐसे इतिहासकार चाहे वे रोमिला थापर हों या इरफान हबीब या रामशरण शर्मा या उनके जैसे अनेक वामपंथी विचारक प्राचीन इतिहास के श्रोताें की विश्वसनीयता का मखौल उड़ाने से कभी नहीं चूकते थे।
इस रूझान का एक कुत्सित रूप हाल में उच्च न्यायालय के आदेश पर अयोध्या में राम जन्मभूमि के स्थान पर उत्खनन के बाद भारतीय पुरातत्व विभाग की सर्वेक्षण रिपोर्ट के संबंध में देखने को मिला है। हर छोटा बड़ा पत्रकार या राजनेता एक इतिहासकार या पुरातत्वविद में रूपांतरित हो गया और विवादास्पद बिंदुओं के नाम पर विदूषकों की पैरोडियों जैसी टिप्पणी करने लगा। जिन्हें उत्खनन या पुरातत्व की क्रियाविधि की सतही समझ भी नहीं थी वे राजनीतिक कारणों से मीडिया में छाए रहे। 10 वीं शताब्दी के विशाल मंदिरों के भूमिगत साक्ष्यों के बावजूद, अनर्गल प्रलाप की बानगी सामने है – पुरातत्व विभाग का दिल मंगवाई है, यह पुरातात्विक धोखाधड़ी है, यही होगा यह पहले से पता था, प्राचीन अवशेष मस्जिद के है, वहां राम की प्रतिमा क्यों नही निकली? वहां हडि्डयां क्यों नहीं निकली?
निर्लज्जता के साथ-साथ बेवकूफियों की भी एक सीमा होती है पर हमारे अंग्रेजी मीडिया के एक वर्ग की साजिश भी एक सारे प्रकरण के उजागर हो गई। चार तलों के उत्खनन के बाद और एक विशाल मंदिर के ढांचे के प्रचुर प्रमाण मिलने के बाद भी जो 50-30 मीटर क्रमशः उत्तर दक्षिण एवं पूर्व पश्चिम तक विस्तारित था हमारे देश के अनेक विद्वानों की आंखों में पट्टी बंधी रही। दिल्ली के एक प्रतिष्ठित हिंदी साप्ताहिक समाचार ने हिंदू-विरोधी इतिहासकार इरफान हबीब के लिए पूरे दो पृष्ठों के ऊपर मोटे अक्षरों के शीर्षक के साथ दरियादिल होकर कालॅम दे दिए थे। शीषर्क था- ‘खोदा समाधान, निकला घमासान!’ मंदिर के उत्खनन में 50 स्तंभ-आधारों का मिलना, हिंदू आस्था के अनेक कलात्मक प्रतीकों की उपलब्धि इन सबसे उन्हें जैसे कोई सरोकार नहीं था क्योंकि उनका अज्ञान व दुराग्रह उनकी मान्यताओं की धज्जियां उड़ा रहा था।
हमारे देश का इतिहास हजारों साल पुराना है और आज की राजनीतिक सीमाओं के पर वह एक बृहत्तर भारत का घटनाक्रम था। देश के अधिकांश वामपंथी इतिहासकारो ंकी मान्यतायें या व्याख्याएं सदैव पक्षपातपूर्ण होने के साथ हास्यास्पद भी लगती है। कहीं इरफान हबीब कहते हैं कि मध्ययुग के संतों ने ऐकेश्वर इस्लाम से सीखा। कहीं लिखा कि मुस्लिम आक्रांताओं का उद्देश्य सिर्फ लूट-खसोट था, धर्मांतरण या मंदिरों का विध्वंस नहीं। नोबल पुरस्कार विजेता वी. एस. नयपाल ने कुछ दिनों पहले लंदन के एक पत्र को दिए साक्षात्कार में कहा था कि भारत में मुस्लिम आक्रमणकारियों ने क्या किया यह जानने के लिए हर हिंदू को एक बार हम्पी के ध्वंसाशेषों को जरूर देखना चाहिए। उनका हृदय विदीर्ण हुए बिना नहीं रह सकता। स्थिति की गंभीरता इस बात से समझी जा सकती हैं कि वी. एस. नयपाल ने लंदन-स्थित एक पत्रकार फारूख ढोंडी को यहां तक कहा कि प्रसिध्द वामपंथी इतिहासकार रोमिला थापर एक ‘फ्रॉड’ है।
आज अनेक पत्रकार जो अपने को इतिहासकार के रूप में छापते हैं वे अपने कुंठित एवं विषाक्त तर्कों से हिंदू अतीत पर आघात कर रहे हैं। उनमें ‘एशियन एज’ में नियमित रूप से लिखने वाले अखिलेश मित्तल शायद सबसे आगे हैं। उनके तर्कों में विक्षिप्तता अधिक है और उन्हें एक लेख ने ‘नीम हकीम’ – शार्लटन – इतिहासकार भी कहा है। ‘इतिहास’ शीर्षक साप्ताहिक स्तंभ में भाषायी अभद्रता, हिंदू संगठनों व सामान्य हिंदूओं पर विषवमन करना ही इसका अकेला उद्देश्य है। उदाहरण के लिए 2 नवंबर, 2003 के ‘एशियन एज’ के रविवारीय परिशिष्ट में सन् 1192 ई. में शहाबुद्दीन गोरी की तराईन की मैदान में विजय का जिक्र करते हुए मित्तल का कहना है कि ”हिंदू सांप्रदायिक” लेखक सिर्फ मंदिरों व महलों के विनाश की बात करते हैंपर वे भूलते हैं कि 13 वीं सदी के बाद से ही तुर्की या पाश्तों-भाषी विजेताओं ने स्थापत्य के साथ-साथ ‘तराना’ कव्वाली या साहित्य की दूसरी विद्याओं के क्षेत्र में अभूत पूर्व योगदान दिया। इसी तरह 26 अक्टूबर, 2003 ‘एशियन एज’ के अंक में ‘हिंदू धर्मांधों एवं संघ के नेताओं’ की भर्त्सना करते हुए वे मंदिर के विध्वंस पर हिंदुओं को ‘राक्षसाज वेयर हिंदूज’ शीर्षक लिखते हैं कि राजपूतों की वीरता की कहानियां भी मनगढ़ंत है और सोमनाथ के मंदिर के विध्वंस पर हिंदुओं ने सुविधाजनक बातें लिखी हैं। कर्नल टॉड का 1839 में लिखा ‘द एनाल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजपूताना’ की आलोचना करते हुए कि वह ब्रिटिश सरकार के समय हिंदू-मुस्लिम तनाव बढ़ाने और हिंदुओं को शह देने लिए चरणों के प्राचीन यशोगान पर आधारित थी और इसका ऐतिहासिक मूल्य नहीं है। वह अंग्रेज अधिकारी अवश्य था सारे जीवन राजपूत जाति का सच्चा मित्र रहा और राजस्थान के ‘इतिहास का पिता’ कहा जाता है। वह 17 वर्ष भी अवधि में ईस्ट इंडिया कंपनी में बंगाल में आया और सारा जीवन राजस्थान के इतिहास सामग्री एकत्र करने में बिता दिया। उसका जन्म 1782 में हुआ था और 1835 में मात्र 53 वर्ष में उसकी मृत्यु हो गई। इसी तरह 14 सितंबर, 2003 को मित्तल द्वारा ‘द-एंग्लो-आर. एस. एस. नेक्सस’ शीर्षक लेख में उन्होंने कहानियां गढ़ी हैं कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान संघ ने किस तरह अंग्रेजों का साथ दिया था। ‘एशियन एज’ के ही 28 सितंबर, 2003 के अंक में ‘हिंदुत्व एट आगरा फोर्ट’ में उन्होंने छत्रपति शिवाजी के शौर्य पर आपत्तिजनक व भड़ाकाऊ टिप्पणी की है जैसे उनका आगरा किले से निकलना कोई महत्वपूर्ण घटना नहीं थी क्योंकि वे वहां मुगलों को वर्चस्व स्वीकार करने गए थे।
इस तरह के इतिहासकारों को हम कब तक सहेंगे जो कहते हैं कि छत्रपति शिवाजी की विजयगाथा के पीछे क्षेत्रीय मराठा दृष्टिकोण था। गुरू तेग बहादुर एक लुटेरे थे, उनकी फांसी के पीछे उनके परिवार के लोगों की साजिश थी। जैन तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता संदेहजनक है। दिल्ली के मुगल शासकों की नाक में दम करने वाले विद्रोही जाट राजा लुटेरे थे।
इन सबसे अधिक खतरनाक विचारों के प्रचार में उनका यह कहना कि आर्य आक्रमणकारियों के रूप में मध्य एशिया उत्तरी ध्रुव आदि देशों से भारत आए थे और उन्होंने सिंधु घाटी की सभ्यता से जुड़े द्रविड़ों को अपदस्थ किया और दक्षिण की ओर खदेड़ दिया। कोट दीजी(सिंध), काली बंगन(राजस्थान), रोपड़(पंजाब) और लोथल (गुजरात) के नए पुरातात्विक साक्ष्यों द्वारा यह पूर्वाग्रह ध्वस्त किया जा चुका है पर उनकी यह रट अभी भी जारी है। डॉ. पी. वी. वर्तक ने अपने खगोलशास्त्र साक्ष्यों व महाभारत के कालक्रमों को वैज्ञानिक ढंग से निर्धारित करने की कोशिश की है। पर आज भी कुछ भ्रमित इतिहासकार राम से जुड़ी अयोध्या कहां हैं पर संशय प्रकट कर रहे हैं। हाल में एक दूसरे वामपंथी इतिहासकार ने रामायण शब्द के गलत उच्चारण के आधार पर धर्म के समूचे सिध्दांत को एक काल्पनिक पृष्ठभूमि पर स्थापित कर दिया। रामायण का उच्चारण ‘रम्याण’ मान कर क्रौंच-बध से संबंधित प्रसिध्द श्लोक का नया अर्थ खोज निकाला और इस श्लोक को कविता न मानकर धार्मिक सूत्र घोषित कर दिया। अयोध्या को बौध्द – धर्म का पवित्र नगर कहना भी एक घृणित राजनीति-प्रेरित साजिश लगती है। यह एक मार्मिक पीड़ा का विषय है कि यह सब लिखनेवाले अंग्रेजी मीडिया में और सरकारी संस्थानों में अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं।
देश की प्राचीन इतिहास की मार्क्सवादी प्रचलित शब्दावली द्वारा हर तरह से छीछालेदर करने का असफल प्रयास किया गया है कि वह क्रोध से अधिक हंसी का विषय लगता है। कुछ उदाहरण देखने योग्य हैं। मनु ‘मानवद्रोही’ थे, पौराणिक रचनाएं ‘काल्पनिक आख्यानों के निरर्थक कालाकर्म का थोक का काम था, विदुर नीति हिन्दुओं की सामंती-संस्कृति की एक महत्वपूर्ण आचार-संहिता है, श्रीमद्भगवदगीता युध्द और हिंसा को वैचारिक आधार देने वाला ग्रंथ है, आदि-आदि!
एक दूसरे इतिहासकार ने तो 20 वीं शताब्दी की ‘बृहत परंपरा’ व लघुपरंपरा के सूत्र ‘ॠृग्वेद’ के आख्यानो के रूप में वेदों में स्थान पा गए हैं? इस विकृत मस्तिष्क के बुध्दिजीवी को शायद यह याद नहीं रहा कि पुराणों की रचना ‘ॠृग्वेद’ के बहुत बाद हुई है। इस आशय का प्रश्न उठाने पर ऐसे विद्वानों का एक ही जवाब रहता है – भारत में रचनाओं का काल निर्धारण अत्यंत दुष्कर कार्य है।
भारतीय इतिहास के रातों-रात बने जानकारों से निर्लज्ज साम्यवादी नेता भी हैं जिन्हें हमारे देश के अंग्रेजी मीडिया के साथ-साथ विदेशों में भी, यदि उनकी टिप्पणियां हिन्दू-विरोधी हैं, तो आज खुल कर उध्दृत किया जाता है। उदाहरण के लिए अमेरिकी मीडिया आज भी साम्यवादियों को अस्पृश्य मानता है। पर जब हमारे देश के ऐसे लोग जो मार्क्सवादी तथा साम्यवादी दल से जुड़े हैं, हिंदू विरोधी टिप्पणी करते हैं, तब उनकी राजनीतिक पहचान दिए बिना, वे खुलकर उध्दृत किए जाते हैं। उन्हें मात्र एक भारतीय बुध्दजीवी या विचारक का विशेषण देकर उध्दृत किया जाता है। हिंदूओं के विरूध्द विषवमन करनेवालों में चाहे वे कुख्यात साम्यवादी ही क्यों न हो वहां स्वीकार्य हैं। कथित पूंजीपतियों व मुक्त बाजार का झंडा उठानेवालों को साम्यवादी प्रवक्ता भी स्वीकार हैं क्योंकि हिंदू-विरोध ही उसके प्रकाशन की एक बड़ी शर्त है।
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंहिंदूविरोधी और कट्टर हिंदू, क्या इनके बीच का रास्ता नहीं निकल सकता
जवाब देंहटाएंMain prob ye hai ki aaj upsc see le Kar higher education me jitna bhi course padhaya ja raha hai woo inhi leftist ka likha hai.tbhi aaj ye prob h.
जवाब देंहटाएं