आज रामजन्मभूमि का विषय आते ही पूरी की पूरी सेकुलर जमात शोर मचाने लगती है की इसका निर्णय न्यायलय करेगा। कांग्रेस, कम्यूनिस्टो से ले कर लालू मुलायम तक सब के सब एक सुर में बोलने लगते है, अयोध्या का फैसला अदालते ही करेंगी। ये इन सेकुलरिस्टो की बहुत सोची समझी साजिश है। क्योकि हिन्दू समाज उदार है। उसने हमेशा से ही आदालतों का सम्मान किया है। पर किया ये सेकुलरिस्ट अदालतों का सम्मान करते है। हम भूले नहीं है, की केसे राजीव गाँधी की सरकार ने शाहबानो के केस में सुप्रीम कोर्ट के आदेशो की धज्जिया उड़ाई थी। क्यों, सिर्फ मुसलमानों को तुष्ट करने के लिए।
ये अयोध्या के बारे में अदालतों की बात करते है। पर मथुरा के बारे मै क्या कहेंगे। जिसके बारे में अदालते एक बार नही छ: बार निर्णय दे चुकी है और हर बार हिन्दुओ के पक्ष में। यहाँ इनकी बोलती बंद हो जाती है। यहाँ ये अदालतों के निर्णय की बात क्यों नहीं करते। यहाँ ये कहते है भगवान श्रीकृषण तो हुए ही नहीं। जब श्रीकृष्ण नहीं हुए तो उनका मंदिर कहा से आया। ये तो ये भी नकारते है की कभी किसी ने मंदिर तोडा भी था। तो उस पर मस्जिद बनाने की बात केसे स्वीकारेंगे। इसलिए जरा मथुरा के इतिहास और उसके सबूतों पर नजर डाल ली जाये।
पारंपरिक सबूत
मथुरा में भगवान कृष्ण का अवतार लेना बृज भूमि की सबसे शुभ एंव सुखद घटना है। कृष्ण का जन्म कंस की
जेल में हुआ था। समय बीतने के साथ कृष्ण के जन्म लेने की जगह और आस पास के क्षेत्र को "कटरा केशवदेव" के नाम से जाना जाने लगा।
पुरातात्विक एंव एतिहासिक सबूत बताते है की कृषण के जन्मस्थान को विभिन्न नामो से जाना जाता था। पुरातत्वविद और तात्कालिक मथुरा के कल्लेक्टर श्री फ स ग्रौजा के अनुसार केवल कटरा केशवदेव और आस पास के इलाके को ही मथुरा के रूप में जाना जाता जाता था। एतिहासिक साहीत्य का अध्यन करने के बाद इतिहासकार कनिहम इस निष्कर्ष पर पहुचे की वहां एक मधु नाम का राजा हुआ जिसके नाम पर उस जगह का नाम मधुपुर पड़ा , जिसे हम आज महोली के नाम से जानते है। राजा की हार के पश्चात् जेल की आस पास की जगह को जिसे हम आज "भूतेश्वर" के नाम से जानते है, को ही मथुरा कहा जाता था। एक अन्य इतिहासकार डॉ वासुदेव शरण अगरवाल ने कटरा केशवदेव को ही कृष्णजन्मभूमि कहा है। इन विभिन्न अध्य्न्नो एंव सबूतों के आधार पर मथुरा के राजनितिक संग्रहालय के दुसरे क्यूरेटर श्रे कृष्णदत्त वाजपेयी ने स्वीकार किया की कटरा केशवदेव ही कृषण की जन्म भूमि है।
पुरातात्विक सबूत एंव हमलों का इतिहास
पुरातात्विक विश्लेषणों, पुरातात्विक पत्थरों के टुकडो के अध्यन एंव विदेशी यात्रियों की लेखनियो से स्पष्ट होता है की इस स्थान पर समय समय पर कई बार भव्य मंदिर बनाये गए। सबूत बताते है की कंस की जेल के स्थान पर पहला मंदिर, जहाँ कृषण का जन्म हुआ था, कृषण के पडपोते "ब्रजनाभ " ने बनवाया था।
ब्राह्मी लिपि में पत्थरों पर लिखे गए "महाभाषा षोडश" के अनुसार वासु नाम के एक व्यक्ति ने श्री कृषण के जन्म स्थान पर बलि वेदी का निर्माण करवाया। चन्द्रगुप्त विक्र्मदितिया के शासन के दौरान इस मंदिर का पुनः निर्माण कराया गया। इस दौरान यह स्थान केवल वैदिक धर्म ही नहीं बल्कि जैन एंड बुद्ध धर्म के भी विश्वास की जगह थी। सन १०१७ में यह भव्य मंदिर महमूद गजनी दुआरा लुटा एंव तोडा गया। मीर मुंशी अल उताबी, जो की गजनी का सिपहसलार था ने तारीख-इ-यमिनी में लिखा है की:
" शहर के बीचो बिच एक भव्य मंदिर मोजूद है जिसे देखने पर लगता है की इसका निर्माण फरिश्तो ने कराया होगा। इस मंदिर का वर्णन शब्दों एंव चित्रों में करना नामुमकिन है। सुल्तान खुद कहते है की अगर कोई इस भव्य मंदिर को बनाना चाहे तो कम से कम १० करोड़ दीनार और २०० साल लगेंगे। "
मीर मुंशी तो संघी नहीं था। संघ की बाते तो तुम्हे इतिहास का भगवाकरण लगता है। मीर मुंशी के लिखे हुए इतिहास का क्या कहोगे?
हालाँकि गजनी ने इस भव्य मंदिर को अपने गुस्से की आग में आकर ध्वस्त कर दिया। स्थानीय निवासियों का कत्ले आम किया और युवतियों को उठाकर साथ ले गया। और मोती लाल का नमूना नेहरु अपनी किताब "भारत की खोज" में गजनी को बहुत बड़ा वास्तु कला का प्रेमी बताता है, जिसने अव्यवस्थित मथुरा को तौड़ कर उसका कलात्मक निर्माण कराया। ये है नेहरु और कांग्रेसियों का सुनेहरा इतिहास। मगर इतिहास बताता है की जिवंत हिन्दू धर्म से प्रेरित होकर "जजजा" नामक एक व्यक्ति ने श्री कृषण जन्म भूमि पर फिर एक मंदिर बनाया तथा ११५० में मथुरा के महाराणा विजयपाल के शासन के दौरान इस मंदिर का पुनः निर्माण किया गया। कटरा केशवदेव के पत्थरों पर संस्क्रत भाषा में लिखे गए सबूतों से स्पष्ट होता है की मुस्लिम शासको की नजरो में यह मंदिर तबाही का लक्ष्य बन गया था। सिकंदर लोदी के शासन के दौरान कृष्ण जनम भूमि मंदिर एक बार पुनः तोडा गया। लगभग १२५ वर्षो पश्चात् वीर सिंह जूदेव बुंदेला ने ३३ लाख रूपये की लागत से पुनः २५० फीट ऊँचा एक भव्य मंदिर बनवाया। मुस्लिम शासको की बुरी नजर से मंदिर की रक्षा करने के लिए इसके आस पास एक ऊँची दिवार बनाने का भी आदेश दिया। जिसके अवशेष हम आज भी मंदिर के आस पास देख सकते है।
औरेंग्ज़ेब द्वारा विशाल मंदिर का विनाश
फ्रांस एंव इटली से आये विदेशी यात्रियों ने इस मंदिर की व्याख्या अपनी लेखनियो में सुरुचिपूर्ण और वास्तुशास्त्र के एक अतुल्य एंव अदभुत कीर्तिमान के रूप में की। वो आगे लिखते है की:
"इस मंदिर की बाहरी त्वचा सोने से ढकी हुई थी और यह इतना ऊँचा था की ३६ मिल दूर आगरा से भी दिखाई देता था। इस मंदिर की हिन्दू समाज में ख्याति देखकर औरंगजेब नाराज हो गया जिसके कारण उसने सन १६६९ में इस मंदिर को तुडवा दिया। वह इस मंदिर से इतना चिड़ा हुआ है की उसने मंदिर से प्राप्त अवशेषों से अपने लिए एक विशाल कुर्सी बनाने का आदेश दिया है। उसने कृषण जन्मभूमि पर ईदगाह बनाने का भी आदेश दिया है "
शुक्र है उपरोक्त कथन विदेशियों ने लिखे। अगर ये सब किसी हिन्दू ने लिखा होता तो उसे भी किवंदती कहकर रानी पद्मावती की तरह नकार दिया जाता। में यहाँ विदेशी और मुसलमानों के लेखो का उदाहरन इसीलिए दे रहा हु क्योंकि हिन्दू के द्वारा लिखे गए इतिहास को तो हमारे देश के सेकुलरिस्ट मानते ही नहीं।
औरंगजेब को उसके इस दुष्कर्म की सजा मिली। मंदिर तुडवाने के बाद वह कभी सुखी नहीं रह सका और अपने दक्षिण के अभियान से जिन्दा नहीं लौट सका। केवल उसके बेटे ही उसके विरुद्ध नहीं खड़े हुए बल्कि वे ईदगाह की भी रक्षा नहीं कर सके। और आख़िरकार आगरा और मथुरा पर मराठा साम्राज्य का अधीकार हो गया।
इस्ट इंडिया कंपनी द्वारा नीलामी
मराठो ने कटरा केशवदेव को ईदगाह समेत अधिकार मुक्त घोषित कर दिया। ये हे हिन्दुओ का सच। एक तरफ आप पाएंगे की जिस किसी भी मुस्लिम आक्रान्ता का मथुरा पर कब्ज़ा हुआ उसने मंदिर तोड़ने का नया कीर्तिमान बनाया। चाहे वह गजनी हो लोधी हो या ओरंगजेब। मगर जब हिन्दू मराठो का मथुरा पर कब्ज़ा हुआ तो मस्जिद तोड़ने की बात तो दूर उन्होंने मंदिर भी नहीं बनाया। जहा भगवन श्रीक्रष्ण का जनम हुआ था।
सन १८०२ में लोर्ड लेक ने मराठो पर जीत हासिल की और मथुरा एंव आगरा इस्ट इंडिया कंपनी के अधीन चले गए। इस्ट इंडिया कम्पनी ने भी इसे अधिकार मुक्त ही माना। सन १८१५ में इस्ट इंडिया कम्पनी ने कटरा केशवदेव के १३.३७ एकड़ के हिस्से की नीलामी की घोषणा की। जिसे कशी नरेश पत्निमल ने खरीद लिया। इस खरीदी हुई जमीन पर राजा पत्निमल एक भव्य कृषण मंदिर बनाना चाहते थे। किन्तु मुसलमानों ने इसका यह कह कर विरोध किया की नीलामी केवल कटरा केशवदेव के लिए थी ईदगाह के लिए नहीं।
क़ानूनी मामले
सन १८७८ में मुसलमानों ने पहली बार एक मुकदमा दर्ज कराया। मुसलमानों ने दावा किया की कटरा केशवदेव ईदगाह की सम्पति है और ईदगाह का निर्माण औरंगजेब ने कराया था इसलिए इस पर मुसलमानों का अधिकार है। इसके लिए मथुरा से परमाण मांगे गए। तात्कालिक मथुरा कलेक्टर मिस्टर टेलर ने मुसलमानों के दावे को ख़ारिज करते हुए कहा की यह क्षेत्र मराठो के समय से स्वतंत्र है। जो की इस्ट इंडिया कम्पनी ने भी स्वीकार किया। जिसे सन १८१५ में काशी नरेश पत्निमल ने नीलामी में खरीद लिया। उन्होंने अपने आदेश में आगे जोड़ते हुए कहा की राजा पत्निमल ही कटरा केशवदेव, ईदगाह और आस पास के अन्य निर्माणों के मालिक है।
दूसरी बार यार मुकदमा मथुरा के न्यायधीश एंथोनी की अदालत में अहमद शाह बनाम गोपी ई पि सी धारा ४४७/३५२ के रूप में दाखिल हुआ। अहमद शाह ने आरोप लगाया की ईदगाह का चोकीदार गोपी कटरा केशवदेव के पश्चिमी हिस्से में एक सड़क का निर्माण करा रहा है। जबकि यह हिस्सा ईदगाह की संपत्ति है। अमहद शाह ने चोकीदार गोपी को सड़क बनाने से रोक दिया। इस मुक़दमे का निर्णय सुनाते हुए न्यायधीश ने कहा की सड़क एंव विवादित जमीन पत्निमल परिवार की संपत्ति है। तथा अहमद शाह द्वारा लगाये गए आरोप झूठे है।
तिसरा मुकदमा सन १९२० में आगरा जिला न्यायलय में दाखिल किया गया। इस मुक़दमे में मथुरा के न्यायधीश हूपर के निर्णय को चुनोती दी गयी थी। (अपील संख्या २३६ (१९२१) एंव २७६(१९२०)) । इस मुक़दमे का निर्णय सुनाते हुए पुनः न्यायलय ने आदेश दिया की विवादित जमीन इस्ट इंडिया कंपनी द्वारा राजा पत्निमल को बेचीं गयी थी जिसका भुगतान भी वो ११४० रूपये के रूप में कर चुके है। इसलिए विवादित जमीन पर ईदगाह का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि ईदगाह खुद राजा पत्निमल की संपत्ति है।
पुरे क्षेत्र पर हिन्दू अधिकारों की घोषणा
सन १९२८ में मुसलमानों ने ईदगाह की मरम्मत की कोशिश की। जिसके कारण फिर यह मुकदमा अदालत में चला गया। पुनः न्यायधीश बिशन नारायण तनखा ने फैसला सुनाते हुए कहा की कटरा केशवदेव राजा पत्निमल के उत्तराधिकारियो की संपत्ति है। मुसलमानों का इस पार कोई अधिकार नहीं है इसलिए ईदगाह की मरम्मत को रोका जाता है। सन १९४४ में महामना मदन मोहन मालवीय जी की प्रेरणा से श्री जुगल किशोर बिरला जी ने सम्मसत क्षेत्र १३४०० रुपए में खरीद लिया और हनुमान प्रसाद पोतदार, भिकामल अतरिया एंव मालवीय जी के साथ मिल कर एक ट्रस्ट बनाया।
सन १९४६ में मुकदमा फिर अदालत में गया। इस बार भी अदालत ने कटरा केशवदेव पर राजा पत्निमल के वंशजो का अधिकार बताया जो अब श्रीकृषण जन्मभूमि ट्रस्ट की संपत्ति है। क्योकि इसे राजा पत्निमल के वंशजो ने इस ट्रस्ट तो बेच दिया था।
और अंतिम बार १९६० में पुनः न्यायलय ने आदेश देते हुआ कहा की:
"मथुरा नगर पालिका के बही खातो तथा दसरे सबूतों का अध्यन करने से यह स्पष्ट होता है की कटरा केशवदेव जिसमे ईदगाह भी शामिल है का लैंड टैक्स श्रीकृष्ण जन्मभूमि संस्था द्वारा ही दिया जाता है। इससे यह साबित होता है की विवादित जमीन पर केवल इसी ट्रस्ट का अधिकार है"।
इस तरह एक बार नहीं पुरे छ: बार अदालतों ने मथुरा पर हिन्दुओ का अधिकार स्वीकार किया। ये हे मथुरा की सच्चाई, क्या इस देश के तथाकथित सेकुलरिस्ट अदालत का निर्णय लागु करेंगे। नहीं कभी नहीं कराएँगे। क्योकि मथुरा में अगर मंदिर निर्माण हो गया तो ये फिर मुसलमानों के पास वोटो की भीख मांगने कैसे जायेंगे।
अयोध्या हो मथुरा हो या कशी, ये सभी तीर्थ जभी स्वतंत्र हो सकते है जब हिन्दू संगठित होंगे। इस देश में तेरह पर्तिशत मुस्लमान हे। और इन तेरह पर्तिशत मुसलमानों ने पुरे देश की राजनीती को अपना गुलाम बना रखा है। क्योकि ये संगठित है। जबकि देश में अस्सी पर्तिशत हिन्दुओ के होते हुए भी उन्हें कोई पूछने वाला नहीं है, क्योकि वे असंगठित है। अगर इस देश की राजनितिक चाल को बदलना है तो इसके लिए राजनीती का हिन्दुकरण और हिन्दुओ का सैनिकीकरण अतिआवश्यक है।
स्वामी विवेकानंद: "इसाई मिशनरी अपने धर्म प्रचार में हिन्दू धरम के विरुद्ध तरह तरह की गन्दी बाते और कुत्सित प्रचार करते है, लेकिन इस्लाम के संबंध में उन्हें कुछ कहने की हिम्मत नहीं, क्योंकि वहां सीधे चमकती तलवारे खिंच जायेंगी।
सन्दर्भ
आचार्य गिरिराज किशोर
http://www.hvk.org/articles/0397/0120.html
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें