अगले सप्ताह 19 जनवरी को कश्मीरी हिंदुओं के घाटी से निष्कासन के दो दशक पूरे हो जाएंगे। यह तिथि किसी उत्सव की नहीं, मरते राष्ट्र की वेदनाजनक दुर्दशा की द्योतक है। अपने ही देश में नागरिकों को शरणार्थी बनना पड़ा है, इससे बढ़कर धिक्कारयोग्य तथ्य और क्या हो सकता है? बीस साल पहले घाटी में अचानक 19 जनवरी के दिन ये ऐलान होने शुरू हुए थे। इनमें कहा गया था कि ऐ पंडितों, तुम अपनी स्त्रियों को छोड़कर कश्मीर से भाग जाओ। इससे पहले लगातार कश्मीरी हिंदुओं की हत्याओं का दर्दनाक सिलसिला शुरू हो चला था। भाजपा नेता टीकालाल थप्लू, प्रसिद्ध कवि सर्वानंद और उनके बेटे की आंखें निकालकर हत्या की गई। एचएमटी के जनरल मैनेजर खेड़ा, कश्मीर विश्वविद्यालय के वाइस चासलर मुशीरुल हक और उनके सचिव की हत्याओं का दौर चल पड़ा था। जो भी भारत के साथ है, भारत के प्रति देशभक्ति दिखाता है, उसे बर्बरतापूर्वक मार डालने के पागलपन का दौर शुरू हो गया था। कश्मीरी हिंदू महिलाओं से दुष्कर्म के बाद उनकी हत्याओं का सिलसिला जब रुका नहीं तो 19 जनवरी के दहशतभरे ऐलान के बाद हिंदुओं का सामूहिक पलायन शुरू हुआ। यह वह वक्त था जब जगमोहन ने राज्य के गवर्नर पद की कमान संभाली ही थी कि उनके विरोध में फारुक ने इस्तीफा दे दिया, फलत: राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा। राजनीतिक कारणों से ऐसा माहौल बनाने का प्रयास किया गया मानो दिल्ली का विदेशी शासन कश्मीर पर थोपा जा रहा है और कश्मीरी हिंदू दिल्ली के हिंदू राज के एजेंट हैं। जेकेएलएफ, हिजबुल मुजाहिदीन और तमाम मुस्लिम समूह एकजुट होकर हिंदू पंडितों के खिलाफ विषवमन करने लगे। ऐसी स्थिति में घाटी से हिंदुओं को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा।
घाटी के हिंदुओं पर यह कहर पहली बार नहीं टूटा था। 14वीं सदी में सिकंदर के समय, फिर औरंगजेब के राज में और उसके बाद 18वीं सदी में अफगानों के बर्बर राज में हिंदुओं को घाटी से निकलना पड़ा था। उनकी रक्षा में गुरु तेग बहादुर साहेब और तदुपरात महाराजा रणजीत सिंह खड़े हुए थे, तब जाकर हिंदू वापस लौट पाए थे। इस बार उनकी रक्षा के लिए कोई खड़ा नहीं होता दिखा, सिवाय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उनसे जुड़े संगठनों के। जिन मुस्लिम जिहादियों ने उनको कश्मीर छोड़ कर पलायन के लिए मजबूर किया वे बाहरी नस्ल के नहीं, बल्कि वे लोग थे जिनके पूर्वज, भाषा, रंग-रूप, खान-पान और पहनावा सब कश्मीरी हिंदुओं जैसा ही था। केवल मजहब बदलने के कारण वे अपने ही रक्तबंधुओं के शत्रु क्यों हो गए, इस प्रश्न का उत्तर खोजना चाहिए। आखिर एक नस्ल, एक खून, एक बिरादरी होने के बावजूद केवल ईश्वर की उपासना के तरीके में फर्क ने यह दुश्मनी क्यों पैदा की? इसके अलावा एक और तथ्य यह है कि कश्मीर भारत का एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य है और वहा ही अल्पसंख्यक हिंदुओं को भारी अत्याचार तथा अपमानजनक निष्कासन का शिकार होना पड़ा। क्या मुस्लिम बहुल राज्य का अर्थ यह है कि वहा अल्पसंख्यकों के लिए कोई अधिकार नहीं? भारत के अन्य हिंदू बहुल राज्यों में कई बार मुस्लिम मुख्यमंत्री हुए हैं, परंतु क्या कोई कल्पना कर सकता है कि एक दिन कश्मीर में भी कोई हिंदू मुख्यमंत्री बन सकेगा? बल्कि हुआ उल्टा ही है। मुस्लिम बहुल कश्मीर अपने अन्य हिस्सों लद्दाख तथा जम्मू के साथ योजनाओं और विकास के कार्यक्रमों में भारी सांप्रदायिक भेदभाव करता है। पिछले दिनों श्री अमरनाथ यात्रा के लिए श्रीनगर के सुल्तानों ने एक इंच जमीन देने से भी मना कर दिया था, फलस्वरूप राज्य के इतिहास का सबसे जोरदार आंदोलन हुआ और सरकार को अपने शब्द वापस लेने पडे़। जम्मू का क्षेत्रफल 26293 वर्ग किलोमीटर है, जबकि घाटी का मात्र 15948 वर्ग किलोमीटर। जम्मू राज्य का 75 प्रतिशत राजस्व उगाहता है, कश्मीर घाटी सिर्फ 20 प्रतिशत। जम्मू में मतदाताओं की संख्या है 3059986 और घाटी में 2883950, फिर भी विधानसभा में जम्मू की 37 सीटें हैं, जबकि घाटी की 46। इस प्रकार श्रीनगर भारत में ही अभारत जैसा दृश्य उपस्थित करता है। उस पर कश्मीर को और अधिक स्वायत्तता दिए जाने की सिफारिश करने वाली सगीर अहमद रिपोर्ट ने राज्य के भारतभक्तों के घाव पर नमक ही छिड़का है। यदि 1947 में भारत द्विराष्ट्र सिद्धात का शिकार होकर मातृभूमि के दो टुकड़े करवा बैठा था तो सगीर अहमद रिपोर्ट तीन राष्ट्रों के सिद्धात का प्रतिपादन करती है। यह रिपोर्ट डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे देशभक्तों के बलिदान को निष्प्रभावी करने का षड्यंत्र है। इस रिपोर्ट का जम्मू और लद्दाख में भारी विरोध हो रहा है, क्योंकि न केवल इस रिपोर्ट के क्रियान्वयन के बाद जम्मू-कश्मीर का शेष भारत के साथ बचा-खुचा संबंध भी समाप्त हो जाएगा, बल्कि हिंदुओं और बौद्ध नागरिकों के साथ भयंकर भेदभाव के द्वार और खुल जाएंगे। फिर हिंदू कश्मीरियों के वापस घर जाने की सभी संभावनाएं सदा के लिए समाप्त हो जाएंगी।
इस रिपोर्ट में केवल मुस्लिमों को केंद्र में रखकर समाधान के उपाए सुझाए गए हैं, जिसका अर्थ होगा पकिस्तान के कब्जे वाले गुलाम कश्मीर की वर्तमान स्थिति स्वीकार कर लेना और संसद के उस प्रस्ताव को दफन कर देना, जिसमें पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर को वापस लेने की कसम खाई गई थी। वीर सैनिकों का बलिदान, कश्मीरी देशभक्तों द्वारा सही गई भीषण यातनाएं, हजारों करोड़ों के राजस्व के व्यय के बाद समाधान यह निकाला गया तो उसके परिणामस्वरूप भारत का नक्शा ही बदल जाएगा। छोटे मन के लोग विराट जिम्मेदारियों का बोझ नहीं उठा सकते। क्या अपने ही देश में शरणार्थी बने भारतीयों की पुन: ससम्मान घर वापसी के लिए मीडिया और समस्त पार्टियों के नेता एकजुट होकर अभियान नहीं चला सकते? क्या यह सामान्य देशभक्ति का तकाजा नहीं होना चाहिए?
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