बुधवार, 29 सितंबर 2010

भारतीयम असल अल्पसंख्यक

तो आप मानते हैं कि समूचा पूर्वांचल हमारा है। चीन अरुणाचल प्रदेश पर दावा करता है तो हम अमान्य करते हैं-वहां का इंच-इंच भारत है, वहां परशुराम कुण्ड है, तवांग है, रुक्मिणी भीष्मक नगर से आयी बताते हैं और इदु मिशिमी जाति तो स्वयं को यादवों का वंशज मानती है। वैसा ही अपना मणिपुर है-वहां की सांस्कृतिक विरासत में हमारा पौराणिक इतिहास छिपा है। मिजोरम, नागालैंड, मेघालय, त्रिपुरा, असम। खबरदार जो किसी ने उस ओर गलत दृष्टि से देखा-नाश्ते पर, पान खाते हुए या यूं ही देशभक्ति का राग-विलास छेड़ते हुए यह सब कहा ही जाता है।

ठीक है। अच्छा है।


पर क्या आप अरुणाचल प्रदेश के अपने किसी भाई या मित्र का नाम बता सकते हैं? क्या कोई जान सकता है कि मणिपुर में मीतेई नाम क्या होते हैं? नागालैंड से शहीद हुए कारगिल-वीर कैप्टन मीकेझाकुओ केंगुरिसे का नाम क्या किसी को वैसे ही याद होगा जैसे हम सामान्यतः अब्दुल हमीद या बाना सिंह का नाम याद रखते हैं? वहां के श्रेष्ठ सुरम्य शहर और दर्शनीय स्थल कौन से हैं? सच तो यह है कि हमारा हिन्दुस्तान उत्तर में अमरनाथ और पूर्वोत्तर में कोलकाता, या ज्यादा से ज्यादा कामाख्या तक ही सीमित है। हम सिर्फ उसी से सरोकार रखते हैं जो हमारे जैसा हो, हमारी भाषा, जात, पहनावे से साम्यता रखता हो। मणिपुर, अरुणाचल या मिजोरम के प्रति जो भी देशभक्ति का राग अलापा जाता है उसकी कलई तब खुल जाती है जब उनके चेहरे दिल्ली में देखकर हम बड़े सहज भाव से पूछते हैं- यू आर फ्राम चाइना?


जो भाव हम दलितों के प्रति दिखाते हैं-अपना कहेंगे, पर अपना मानेंगे नहीं, वही पूर्वोत्तर के बारे में है। कुछ समय पहले दिल्ली के एक विचारवान, संस्कृतिनिष्ठ पुलिस कमिश्नर ने पूर्वोत्तर की युवतियों को सही चालचलन और पहनावे के लिए बाकायदा चार पन्ने का पैम्पलेट निकाला था जिसमें बताया था कि वे कितने इंच के कपड़े पहनें, बाहें कितनी खुली रखें और कितनी ढकी हुई। इसकी वजह क्या थी? ऐसा इश्तहार कभी हरियाणा, पंजाब या यूपी की युवतियों के लिए तो नहीं निकाला। क्योंकि वे ‘हमारे जैसी हैं।’ अत्यंत पर्दानशीं, भारतीय मूल्यों के प्रति जान देने वालीं। ये पूर्वोत्तर की युवतियां ‘अवेलेबल’ मानी जाती है-इन्हें सिखाओ।


पिछले एक महीने से मणिपुर शेष भारत से कटा हुआ है। वहां नगा और मीतेई समाज में युद्ध जैसी स्थिति है। स्थानीय स्वायत्तशासी जनपदों को अधिक सत्ता-सम्पन्न बनाने की मांग लेकर मणिपुर को जोड़ने वाले दोनों राजमार्ग बंद कर दिए गए-16 अप्रैल से खाने-पीने की सारी आपूर्ति बंद। हम वहां 13 मई को गए थे। बसों, स्कूटरों और कारों की 5-5 किलोमीटर लम्बी लाइनें पेट्रोलपम्पों पर देखीं। पेट्रोल डीजल का राशन प्रति बड़ा वाहन 40 लीटर- वह भी दो दिन में। एक दिन तो पूरा लगता ही है तेल भरवाने के लिए। बाजार 6 बजे सन्नाटा ओढ़ लेता है। फिल्म का आखिरी शो 4 बजे का है। स्कूल, कालेज, पांच दिन खुलते है, तो पन्द्रह दिन बन्द। एक शहर से दूसरे शहर जाना मुश्किल-किराए अचानक दो-तीन गुने हो गए। हमारे टैक्सी वाले ने बताया कि वह 100 रुपये लीटर का डीजल ब्लैक में खरीदकर आया है। उस पर 16 जनवरी से सरकारी कर्मचारियों ने ‘पेनडाउन’ हड़ताल की हुई है। दफ्तर आते हैं।, काम नहीं करते-वेतन वृद्धि चाहिए। मुख्यमंत्री इबोबी सिंह उनसे मिलकर कोई समाधान निकालने को तैयार नहीं है। एक तो रास्ते बंद, उस पर सरकारी कर्मचारी हड़ताल पर। ऐसे में अलगाववादी विद्रोही संगठनों का खुलकर राज चल रहा है। उन्होंने (यानी जो प्रमुख संगठ है पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी-पी.एल.ए.) गैर मणिपुरी नागरिकों को 31 मई तक मणिपुर से चले जाने का आदेश दिया है।

गैर मणिपुरी का अर्थ वही है जो राज ठाकरे की सल्तनत में गैरमराठियों का है। बिहार, यूपी, पंजाब, राजस्थान वाले। उनकी निगाह में ये सब शोषक हैं-मजदूर, अध्यापक, कुली, छात्र या दुकानदार होंगे। पर पीएलए के ‘फतवे’ में कहा गया कि इन्हें हम अपना नहीं मानते। गेट आउट। इन गैर मणिपुरी भारतीयों के संगठन का नाम है-‘हिन्दुस्तानी समाज।’ वाह, देखिए विधाता की अपार विडम्बना। ‘हिन्दुस्तानी समाज’ मणिपुर में अल्पसंख्यक है। डरा हुआ है। दहशत उनके चेहरों पर अंकित है। कमरे में आकर भी फुसफुसाहट भरे स्वर में अपनी वेदना कहते हैं। परिवार हैं, बच्चे हैं, 40-50-70 सालों से यहां रह रहे हैं। यहीं जन्मे हैं, यहां की भाषा बोलते हैं, फिर भी हमें यहां से चले जाने को कहा जा रहा है। प्रधानमंत्री को ज्ञापन भेजा, गृहमंत्री को भेजा, मुख्यमन्त्री से कहा, पुलिस आई.जी. को लिखा। किसी से कोई जवाब नहीं। पुलिस के अधिकारी कहते हैं-एक साथ मिलकर रहने लगे तो शायद बच जाओगे। या कुछ एकाध महीने घर-गांव चले जाओ। सुरक्षा की कोई बात नहीं करता। कोई यह नहीं कहता कि फिक्र क्यों कर रहे हो, तुम हिन्दुस्तानी हो, हिन्दुस्तान में ही रह रहे हो, फिर क्यों भगाए जाओगे?


ये ‘हिन्दुस्तानी समाज’ वाले जानते हैं कि जब कश्मीरी हिन्दुओं को भगाया गया और उनके घरों पर इश्तहार चिपकाए गये कि ‘पंडितो, अपनी स्त्रियां यहां छोड़ जाओ और तुम भाग जाओ’ तो उन्हें किसी दिल्ली वाले वीर ने नहीं बचाया था। संसद की चीखपुकार किसी और के लिए किसी और मसले के लिए होती है। ये नेता लोग जितनी ऊर्जा और बुद्धिमत्ता एक दूसरे को गिराने, जलाने और आपसी ईर्ष्या के मामले निबटाने में खर्च करते है, उसका सहस्त्रांश भी वे उनके लिए नहीं कर पाते जो मणिपुरी या कश्मीरी जैसे होते हैं।


दिल्ली से इम्फाल जाते हुए विमान में मेरे साथ एक 20 साल का लड़का भी था-थापुन। वह सेना में भर्ती हुआ है। सालभर ट्रेनिंग के बाद घर में बीमार मां देखने जा रहा था। कर्ज लिया-तब विमान का टिकट खरीदा। सड़क मार्ग तो एक माह से बंद है। बोला ‘यूजी’ (अन्डर ग्राउण्ड आतंकवादी) का बहुत दबदबा है। उन्हीं का राज है। सरकारी कर्मचारियों को भी अपने वेतन का एक हिस्सा 2 से 5 प्रतिशत हर माह देना पड़ता है। हिन्दुस्तान की कोई बात वहां चलती नहीं, सिवाय फौज के। हिन्दी फिल्में तो पिछले दस साल से प्रतिबंधित हैं। अब विडियो कैमरे से मणिपुरी फिल्में बनती हैं, उन्हीं को थियेटरों में दिखाते हैं।


आम आदमी कैसे जी रहा होगा मणिपुर में ?


पूर्वांचल का देशभक्त समाज सोचने लगा है कि दिल्ली के नेता-उनके प्रति संवेदनहीन हैं। उन्हें पूर्वांचल से उतना ही सरोकार है जहां तक उन्हें वहां से पैसा मिलता रहे। पूर्वांचल की भ्रष्ट राजनीति और अकर्मण्य प्रशासन के पीछे दिल्ली के भ्रष्ट नेताओं का हाथ है। वहां की वेदना के साथ हमने कभी खुद को जोड़ा नहीं। जिस मणिपुर में 16 जनवरी से सरकारी दफ्तर ‘बेकाम’ हों, जहां एक महीने से राजमार्ग बंद हों वहां के बारे में दिल्ली के महान नेताओं की नींद क्या कभी उड़ी? दिल्ली का अहंकार और गलीज राजनीति पूर्वोत्तर गंवा बैठेगी।


वे सोचते हैं, अब दिल्ली से कुछ समाधान नहीं निकलेगा, तो चीन या बर्मा में आत्मीयता खोजी जाए। जिस क्षेत्र में बच्चे स्कूल न जा रहे हों, घर में सब्जी न आ पाए, एमरजैंसी में बाहर निकलना असंभव हो, अस्पतालों में आक्सीजन के सिलेंडर नहीं, डॉक्टर दवा के अभाव में मरीज न देख पाएं, जहां ‘हिन्दुस्तानी’ होने का अर्थ हो अपमान तथा ‘प्रदेश निकाला’ और फिर भी दिल्ली के अखबार तथा साउथ और नार्थ ब्लाक के नियंता मुहल्ला किस्म की राजनीति में व्याप्त हों, वहां सवाल तो यह उठेगा ही कि आखिर मणिपुर क्योंकर भारत में रहे? वह पृथकता की मांग करे तो क्या इसे आश्चर्यजनक मानेंगे?


समूचा पूर्वोत्तर इस उपेक्षा का शिकार है। असम में तो 50 से अधिक विधानसभा क्षेत्र बंगलादेशी घुसपैठियों के बहुमत वाले हो गए हैं। वहां देशभक्त भारतीय डरे-डरे से रहते हैं और बंगलादेशी हमारी जमीन पर हमसे ही गुर्राते हैं क्योंकि उन्हें पता है दिल्ली के सेकुलर पत्रकार और नेता उनके सबे बड़े रक्षा कवच हैं। असम से राज्यसभा में जो राष्ट्रीय नेता चुनकर भेजे गये उनका नाम है डॉ. मनमोहन सिंह। वे प्रधानमंत्री भी हैं। असम के सेंटीनल अखबार के कल (14 मई) के सम्पादकीय में लिखा कि डॉ. मनमोहन सिंह संसद में असम का प्रतिनिधित्व करते हैं, क्या उन्होंने एक बार भी संसद में बंगलादेशी घुसपैठियों के मुद्दे को उठाया?


विदेशी घुसपैठिए आकर हमारी जमीन पर बस आए और मंत्री बन जाएं, लेकिन आम भारतीय को नागालैण्ड, अरुणाचल जाने के लिए इनरलाइन परमिट लेने के लिए बाध्य होना पड़े तो यह कैसा मजाक है? महाराष्ट्र हो या मणिपुर या कश्मीर हर जगह हिन्दुस्तानी अल्पसंख्यक हो गया है। हिन्दुस्तानी होने के अलावा आप जो कुछ भी हों, जात, मजहब, प्रान्त, भाषा की पहचान वाले, वह ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। अल्पसंख्यक मुसलमान नहीं, वे हैं जो अपनी पहचान सिर्फ हिन्दुस्तानी बताना चाहते हैं।

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