गुरुवार, 23 सितंबर 2010

श्रीमन्त शंकरदेव की ??धन्य धन्य भारतवरषि??

शंकरदेव की वाणी को भूल जाना ही असम में उग्रवाद का कारण है। आज के ६५ वर्ष पूर्व मेरे जन्मगाँव लक्ष्मणगढ (राजस्थान) में बंगाल के चैतन्यदेव, पंजाब के नानकदेव तथा केरल के आदि शंकराचार्य को हिन्दी पाठ्यक्रम में मैने पढा था परन्तु शंकरदेव को नहीं। इसका मूल कारण था पूर्वोत्तर में प्रारम्भ से ही क्षेत्रीयतावाद यहाँ के समाज पर हावी रहा है। लागों ने इसी क्षेत्रीय भावना के कारण शंकरदेव को भी एक क्षेत्र के सीमित दायरे में बान्धे रखा। इस क्षेत्रवाद को यहाँ जातिवाद की संज्ञा दे दी गई, जबकि श्रीमन्त शंकरदेव ने आज के ५५० वर्ष पूर्व ही प्रखर राष्ट्रवाद के कवच में ही जातिवाद की रक्षा का पथ अपनाया था। उनकी अमरवाणी ?धन्य धन्य भारतवरषि? उसी राष्ट्रभाव की द्योतक है, ठीक वैसे ही, केरल में जन्मे आदि शंकर ने भी उदात्त राष्ट्रभाव से कहा था- ??दुर्लभो भारते जन्मा ः??
??दुर्लभो भारते जन्मा ः ?? उन्होंने केरले जन्मो दुर्लभ नहीं कहा। मैं ६५ वर्ष पूर्व की राजस्थान की बात कह रहा हूँ उस समय भारत स्वाधीन नहीं हुआ था- सारे भारत में छोटे छोटे देशीय राज्य थे। राजस्थान में भी सीकर नरेश, जयपुर नरेश, जोधपुर, बीकानेर नरेश छोटे छोटे राज्य हुआ करते थे। हमारे सीकर लक्ष्मणगढ के राजा कल्याण सिंह हमारी स्कूल श्री रघुनाथ विद्यालय का परिदर्शन करने आते तो उनके स्वागत में हम चार लडके स्वागतगान गाते थे -
??हम भारत माँ के बालक हैं हम विश्व शक्ति संचालक हैं?? हम राजपुतानी या हम मारवाडी बालक हैं - नहीं गाते थे अर्थात ??राष्ट्र?? ही सर्वोपरि था, परतंत्र भारत टुकडों-टुकडों में बँटा था परन्तु हमारी आस्था तो ??भारतराष्ट्र?? के अधिष्ठान पर ही टिकी थी। इसी प्रकार असम में भी देशी राजा थे परन्तु मूल अधिष्ठान तो अखण्ड भारतराष्ट्र ही था।
असम में भी ज्योति प्रसाद ने गाया था - ??विश्व विजयी नौजवान शोक्तिशाली भारोतोर ओलाइ आहा?? शंकरदेव ने भी कहा था मेरा जन्म इस महान् देश, आध्यात्मिक देश भारत में हुआ है मैं धन्य हूँ अर्थात् ??धन्य धन्य भारतवरषि?? इस क्षेत्रीय भावना में कुछ शंकरदेव के भक्त भी बहने लगे, और उनकी प्रशंसा में लिख डाला ??तोमार जीबोनि लिखे हेन साध्यो कार, ??सोमोस्तो ओसोम जुरि जीबोनी जाहार?? अर्थात् हे जयगुरु शंकरदेव आपकी जीवनी लिखना मेरे लिये साध्य नहीं है-असम्भव है-आपकी जीवनी तो पूरे असम में परिव्याप्त है। होना तो यह चाहिये था कि सोमोस्तो भारतजुरि अथवा सोमोस्तो ब्रह्माण्डो जुरि जीबोनी जाहार परन्तु हमने एक सीमाबद्ध दायरे में ही शंकरदेव, माधवदेव, हरिदेव, दामोदरदेव को बाँध कर रख दिया हे?? जिसका प्रतिफल है कि नाम तो ??भीमकान्त?? महाभारत के योद्धा के नाम पर परन्तु अपने महाभारतीय होने को नकारा जा रहा है नाम ?अरविन्द? जो भारत की ऋषि परम्परा का प्रतीक, उस नाम को सार्थक करने की बजाय आज अपने भारतीय होने को नकारा जा रहा है - जबकि उनके नाम, गोत्र सब भारतीय हैं महाभारतीय हैं उनके पितृ-मात्रि, पूर्वज सब भारतीय हैं- परम्परायें, मान्यतायें, आस्था के प्रतीक, कामाख्या, उमानन्द, ब्रह्मपुत्र, विशिष्ठ, परशुराम कुण्ड सभी तो पूरे भारत के तीर्थाटन करने आने वाले भारतीयों की आस्था के प्रतीक हैं।
फिर असम में यह अशान्ति क्यों - भारतमातृका की विरोधिता क्यों। वस्तुतः हम आज की भौतिक चकाचौंध में हमारी आस्था, हमारा भारतीय होने का गौरव भूल रहे हैं। हम भारतीयता के प्रति स्वाभिमानशून्य हो गये हैं। अतः हमे फिर आज शंकरदेव का स्मरण करना होगा। उनको हिन्दी के माध्यम से सम्पूर्ण भारत में प्रस्थापित करना होगा।
श्रीमन्त शंकरदेव की अमरवाणी का स्मरण करना होगा। हमें ऐसा माहौल वापस लाना होगा कि लोगों के मुख से एक स्वर में एक साथ चैतन्यदेव, नानकदेव, मीराबाईं, शंकरदेव, माधवदेव, हरिदेव, दामोदरदेव एक ही श्वाँस में उच्चारित हों। आज के ५५० वर्ष पहले असम के महान् वैष्णव आचार्य माधव कन्दली ने वाल्मीकि रामायण का असमिया संस्करण लिखा था उसमें अपनी मेधा से और अधिक जोड कर उसे अधिक सार्थक, सर्वजन हिताय लिखा था। उस काल खण्ड में असम में आचार्य महेन्द्र कन्दली के संस्कृत टोल में शंकरवर नाम के बालक को उनकी मातामही खेरसुती (सरस्वती) ने प्रविष्ट कराया था। उस समय असम में कन्दली ब्राह्मणों के अनेक संस्कृत टोल चल रहे थे, महेन्द्र कन्दली, रुद्रकन्दली, अनन्तकन्दली, हरिवर विप्र, हेम सरस्वती, राम सरस्वती आदि द्वारा व्यापक भारतीय संस्कृत-संस्कृति का पठन-पाठन होता था।
आचार्य महेन्द्रकन्दली ने नवागत शिष्य शंकरवर की प्रतिभा, उसके मुखमण्डल के तेज, उसकी अलौकिक प्रथम कविता,
करतल कमल
कमलदल नयन
भवदवदहन
गहनवन शयन
बिना मात्रा की कविता देखकर विस्मित होकर भावविभोर हो गये। गुरु महेन्द्र कन्दली ने पहचान लिया कि यह तो साक्षात् शंकर भगवान का वरदान स्वरूप जन्मा बालक भगवान शंकर का देव अवतार है सो शंकरवर के नाम के साथ देव जोड दिया और तब से ये शंकरदेव हो गये।
विद्याध्ययन के पश्चात् शंकरदेव ने सम्पूर्ण भारत का दो बार परिभ्रमण किया अनेक सन्तों, महात्माओं के साथ सत्संग किया जगन्नाथ पुरी में अपना पहला सत्र नामघर स्थापित किया, माधवदेव से मिलन हुआ और कलियुग केवल नाम अधारा की भावना से नामधर्म का प्रचार सम्पूर्ण असम में किया जिस प्रकार बंगाल में चैतन्यदेव ने किया और सम्पूर्ण भारत में मीराँ, कबीर नानक, नरसी मेहता सबने किया। आज असम में आठ सौ (८००) के करीब सत्र-नामघर प्रस्थापित हो चुके हैं। जहाँ नियमित गीता - भागवत - रामचरितमानस आदि ग्रन्थों का पठन-पाठन हो रहा है।
शंकरदेव की मुख्य वाणी
धन्य धन्य कलिकाल
धन्य नरतनु भाल
धन्य धन्य भातरवरिष
इस कलियुग में भगवान ने हमारी उम्र ही सौ वर्ष के अंक में बाँध दी है हमें हजारों वर्ष तपस्या नहीं करनी पडती। सत्ययुग में पाँच हजार वर्ष तपस्या करने पर जो प्राप्त होता था वह कलियुग में सौ वर्षों में ही हो जाता है अतः कलियुग धन्य है। फिर कहा धन्य नरतनुभाल-अर्थात् चौरासी लाख योनि कष्टमय कीट-पतंग, पशु-पक्षी योनियों का कष्ट भोगकर मुझे यह दुर्लभ मानव देह नरतनु-प्राप्त हुयी है- इसी मानवदेव के द्वारा ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है अतः धन्य नरतनु भाल।
इसके बाद में अन्तिम लिखा है ??धन्य धन्य भारतवरषि?? अर्थात् यह दुर्लभ मानव देह मुझे भारत में जन्म लाभ हुआ है। मैं धन्य हूँ। जिस भारत में जन्म लाभ करने के लिये देवता भी लालायित रहते हैं-जिस भारत में पापाचार अधर्म बढत ही स्वयम् परमात्मा अपना सृजन करते हैं-अवतार लेकर अवतरण करते हैं ??अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदात्मानम् श्ाृजाम्यहम्?? और एक बार नहीं बार-बार अवतरण करते हैं -
??सम्भवामि युगे युगे??
उस भारत में मैंने जन्म प्राप्त किया है मेरी पुण्य भूमि, मातृभूमि, पितृभूमि, धर्मभूमि, कर्मभूमि, तीर्थभूमि भारत में जन्मलाभ कर मैं धन्य हुआ अतः शंकरदेव कहते हैं ??धन्य धन्य भारवरषि??
शंकरदेव की यह अमरवाणी ??धन्य धन्य भारतवरषि?? असम वासी भूल गये हैं। इसी के कारण असम में भारत विरोधी भाव के स्वर कहीं कहीं उठ रहे हैं- ऐसे में हमें शंकरदेव की अमरवाणी के प्रचारार्थ असम के शंकरदेव, माधवदेव, हरिदेव, दामोदरदेव सत्रों सत्राधिकारों को सत्रों के बाहर आकर लोगों का शंकरदेव की वाणी गायेंगे असम में विराज रही सारी समस्याएँ स्वतः समाप्त हो जायेंगी आज सम्पूर्ण असम में ही नहीं सम्पूर्ण भारत के स्कूलों में हिन्दी पाठय्क्रम के साथ श्रीमन्त शंकरदेव जीवन कृतित्व और संदेश नामक हिन्दी ग्रन्थ को भारत की सर्वश्रेष्ठ धार्मिक प्रेस गीता प्रेस गोरखपुर ने मात्र ८/- में प्रकाशित किया है-असम प्रेमी शिक्षानुष्ठानों के संचालकों का यह पहला कर्त्तव्य है कि सर्वजन हिताय भी शंकरदेव की यह पुस्तक मात्र ८/- में खरीदने को हर स्कूल अपने छात्रों को प्रेरित करे। शंकरदेव को जानना असम को जानना है।

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