बुधवार, 29 सितंबर 2010

भारतीयम असल अल्पसंख्यक

तो आप मानते हैं कि समूचा पूर्वांचल हमारा है। चीन अरुणाचल प्रदेश पर दावा करता है तो हम अमान्य करते हैं-वहां का इंच-इंच भारत है, वहां परशुराम कुण्ड है, तवांग है, रुक्मिणी भीष्मक नगर से आयी बताते हैं और इदु मिशिमी जाति तो स्वयं को यादवों का वंशज मानती है। वैसा ही अपना मणिपुर है-वहां की सांस्कृतिक विरासत में हमारा पौराणिक इतिहास छिपा है। मिजोरम, नागालैंड, मेघालय, त्रिपुरा, असम। खबरदार जो किसी ने उस ओर गलत दृष्टि से देखा-नाश्ते पर, पान खाते हुए या यूं ही देशभक्ति का राग-विलास छेड़ते हुए यह सब कहा ही जाता है।

ठीक है। अच्छा है।


पर क्या आप अरुणाचल प्रदेश के अपने किसी भाई या मित्र का नाम बता सकते हैं? क्या कोई जान सकता है कि मणिपुर में मीतेई नाम क्या होते हैं? नागालैंड से शहीद हुए कारगिल-वीर कैप्टन मीकेझाकुओ केंगुरिसे का नाम क्या किसी को वैसे ही याद होगा जैसे हम सामान्यतः अब्दुल हमीद या बाना सिंह का नाम याद रखते हैं? वहां के श्रेष्ठ सुरम्य शहर और दर्शनीय स्थल कौन से हैं? सच तो यह है कि हमारा हिन्दुस्तान उत्तर में अमरनाथ और पूर्वोत्तर में कोलकाता, या ज्यादा से ज्यादा कामाख्या तक ही सीमित है। हम सिर्फ उसी से सरोकार रखते हैं जो हमारे जैसा हो, हमारी भाषा, जात, पहनावे से साम्यता रखता हो। मणिपुर, अरुणाचल या मिजोरम के प्रति जो भी देशभक्ति का राग अलापा जाता है उसकी कलई तब खुल जाती है जब उनके चेहरे दिल्ली में देखकर हम बड़े सहज भाव से पूछते हैं- यू आर फ्राम चाइना?


जो भाव हम दलितों के प्रति दिखाते हैं-अपना कहेंगे, पर अपना मानेंगे नहीं, वही पूर्वोत्तर के बारे में है। कुछ समय पहले दिल्ली के एक विचारवान, संस्कृतिनिष्ठ पुलिस कमिश्नर ने पूर्वोत्तर की युवतियों को सही चालचलन और पहनावे के लिए बाकायदा चार पन्ने का पैम्पलेट निकाला था जिसमें बताया था कि वे कितने इंच के कपड़े पहनें, बाहें कितनी खुली रखें और कितनी ढकी हुई। इसकी वजह क्या थी? ऐसा इश्तहार कभी हरियाणा, पंजाब या यूपी की युवतियों के लिए तो नहीं निकाला। क्योंकि वे ‘हमारे जैसी हैं।’ अत्यंत पर्दानशीं, भारतीय मूल्यों के प्रति जान देने वालीं। ये पूर्वोत्तर की युवतियां ‘अवेलेबल’ मानी जाती है-इन्हें सिखाओ।


पिछले एक महीने से मणिपुर शेष भारत से कटा हुआ है। वहां नगा और मीतेई समाज में युद्ध जैसी स्थिति है। स्थानीय स्वायत्तशासी जनपदों को अधिक सत्ता-सम्पन्न बनाने की मांग लेकर मणिपुर को जोड़ने वाले दोनों राजमार्ग बंद कर दिए गए-16 अप्रैल से खाने-पीने की सारी आपूर्ति बंद। हम वहां 13 मई को गए थे। बसों, स्कूटरों और कारों की 5-5 किलोमीटर लम्बी लाइनें पेट्रोलपम्पों पर देखीं। पेट्रोल डीजल का राशन प्रति बड़ा वाहन 40 लीटर- वह भी दो दिन में। एक दिन तो पूरा लगता ही है तेल भरवाने के लिए। बाजार 6 बजे सन्नाटा ओढ़ लेता है। फिल्म का आखिरी शो 4 बजे का है। स्कूल, कालेज, पांच दिन खुलते है, तो पन्द्रह दिन बन्द। एक शहर से दूसरे शहर जाना मुश्किल-किराए अचानक दो-तीन गुने हो गए। हमारे टैक्सी वाले ने बताया कि वह 100 रुपये लीटर का डीजल ब्लैक में खरीदकर आया है। उस पर 16 जनवरी से सरकारी कर्मचारियों ने ‘पेनडाउन’ हड़ताल की हुई है। दफ्तर आते हैं।, काम नहीं करते-वेतन वृद्धि चाहिए। मुख्यमंत्री इबोबी सिंह उनसे मिलकर कोई समाधान निकालने को तैयार नहीं है। एक तो रास्ते बंद, उस पर सरकारी कर्मचारी हड़ताल पर। ऐसे में अलगाववादी विद्रोही संगठनों का खुलकर राज चल रहा है। उन्होंने (यानी जो प्रमुख संगठ है पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी-पी.एल.ए.) गैर मणिपुरी नागरिकों को 31 मई तक मणिपुर से चले जाने का आदेश दिया है।

गैर मणिपुरी का अर्थ वही है जो राज ठाकरे की सल्तनत में गैरमराठियों का है। बिहार, यूपी, पंजाब, राजस्थान वाले। उनकी निगाह में ये सब शोषक हैं-मजदूर, अध्यापक, कुली, छात्र या दुकानदार होंगे। पर पीएलए के ‘फतवे’ में कहा गया कि इन्हें हम अपना नहीं मानते। गेट आउट। इन गैर मणिपुरी भारतीयों के संगठन का नाम है-‘हिन्दुस्तानी समाज।’ वाह, देखिए विधाता की अपार विडम्बना। ‘हिन्दुस्तानी समाज’ मणिपुर में अल्पसंख्यक है। डरा हुआ है। दहशत उनके चेहरों पर अंकित है। कमरे में आकर भी फुसफुसाहट भरे स्वर में अपनी वेदना कहते हैं। परिवार हैं, बच्चे हैं, 40-50-70 सालों से यहां रह रहे हैं। यहीं जन्मे हैं, यहां की भाषा बोलते हैं, फिर भी हमें यहां से चले जाने को कहा जा रहा है। प्रधानमंत्री को ज्ञापन भेजा, गृहमंत्री को भेजा, मुख्यमन्त्री से कहा, पुलिस आई.जी. को लिखा। किसी से कोई जवाब नहीं। पुलिस के अधिकारी कहते हैं-एक साथ मिलकर रहने लगे तो शायद बच जाओगे। या कुछ एकाध महीने घर-गांव चले जाओ। सुरक्षा की कोई बात नहीं करता। कोई यह नहीं कहता कि फिक्र क्यों कर रहे हो, तुम हिन्दुस्तानी हो, हिन्दुस्तान में ही रह रहे हो, फिर क्यों भगाए जाओगे?


ये ‘हिन्दुस्तानी समाज’ वाले जानते हैं कि जब कश्मीरी हिन्दुओं को भगाया गया और उनके घरों पर इश्तहार चिपकाए गये कि ‘पंडितो, अपनी स्त्रियां यहां छोड़ जाओ और तुम भाग जाओ’ तो उन्हें किसी दिल्ली वाले वीर ने नहीं बचाया था। संसद की चीखपुकार किसी और के लिए किसी और मसले के लिए होती है। ये नेता लोग जितनी ऊर्जा और बुद्धिमत्ता एक दूसरे को गिराने, जलाने और आपसी ईर्ष्या के मामले निबटाने में खर्च करते है, उसका सहस्त्रांश भी वे उनके लिए नहीं कर पाते जो मणिपुरी या कश्मीरी जैसे होते हैं।


दिल्ली से इम्फाल जाते हुए विमान में मेरे साथ एक 20 साल का लड़का भी था-थापुन। वह सेना में भर्ती हुआ है। सालभर ट्रेनिंग के बाद घर में बीमार मां देखने जा रहा था। कर्ज लिया-तब विमान का टिकट खरीदा। सड़क मार्ग तो एक माह से बंद है। बोला ‘यूजी’ (अन्डर ग्राउण्ड आतंकवादी) का बहुत दबदबा है। उन्हीं का राज है। सरकारी कर्मचारियों को भी अपने वेतन का एक हिस्सा 2 से 5 प्रतिशत हर माह देना पड़ता है। हिन्दुस्तान की कोई बात वहां चलती नहीं, सिवाय फौज के। हिन्दी फिल्में तो पिछले दस साल से प्रतिबंधित हैं। अब विडियो कैमरे से मणिपुरी फिल्में बनती हैं, उन्हीं को थियेटरों में दिखाते हैं।


आम आदमी कैसे जी रहा होगा मणिपुर में ?


पूर्वांचल का देशभक्त समाज सोचने लगा है कि दिल्ली के नेता-उनके प्रति संवेदनहीन हैं। उन्हें पूर्वांचल से उतना ही सरोकार है जहां तक उन्हें वहां से पैसा मिलता रहे। पूर्वांचल की भ्रष्ट राजनीति और अकर्मण्य प्रशासन के पीछे दिल्ली के भ्रष्ट नेताओं का हाथ है। वहां की वेदना के साथ हमने कभी खुद को जोड़ा नहीं। जिस मणिपुर में 16 जनवरी से सरकारी दफ्तर ‘बेकाम’ हों, जहां एक महीने से राजमार्ग बंद हों वहां के बारे में दिल्ली के महान नेताओं की नींद क्या कभी उड़ी? दिल्ली का अहंकार और गलीज राजनीति पूर्वोत्तर गंवा बैठेगी।


वे सोचते हैं, अब दिल्ली से कुछ समाधान नहीं निकलेगा, तो चीन या बर्मा में आत्मीयता खोजी जाए। जिस क्षेत्र में बच्चे स्कूल न जा रहे हों, घर में सब्जी न आ पाए, एमरजैंसी में बाहर निकलना असंभव हो, अस्पतालों में आक्सीजन के सिलेंडर नहीं, डॉक्टर दवा के अभाव में मरीज न देख पाएं, जहां ‘हिन्दुस्तानी’ होने का अर्थ हो अपमान तथा ‘प्रदेश निकाला’ और फिर भी दिल्ली के अखबार तथा साउथ और नार्थ ब्लाक के नियंता मुहल्ला किस्म की राजनीति में व्याप्त हों, वहां सवाल तो यह उठेगा ही कि आखिर मणिपुर क्योंकर भारत में रहे? वह पृथकता की मांग करे तो क्या इसे आश्चर्यजनक मानेंगे?


समूचा पूर्वोत्तर इस उपेक्षा का शिकार है। असम में तो 50 से अधिक विधानसभा क्षेत्र बंगलादेशी घुसपैठियों के बहुमत वाले हो गए हैं। वहां देशभक्त भारतीय डरे-डरे से रहते हैं और बंगलादेशी हमारी जमीन पर हमसे ही गुर्राते हैं क्योंकि उन्हें पता है दिल्ली के सेकुलर पत्रकार और नेता उनके सबे बड़े रक्षा कवच हैं। असम से राज्यसभा में जो राष्ट्रीय नेता चुनकर भेजे गये उनका नाम है डॉ. मनमोहन सिंह। वे प्रधानमंत्री भी हैं। असम के सेंटीनल अखबार के कल (14 मई) के सम्पादकीय में लिखा कि डॉ. मनमोहन सिंह संसद में असम का प्रतिनिधित्व करते हैं, क्या उन्होंने एक बार भी संसद में बंगलादेशी घुसपैठियों के मुद्दे को उठाया?


विदेशी घुसपैठिए आकर हमारी जमीन पर बस आए और मंत्री बन जाएं, लेकिन आम भारतीय को नागालैण्ड, अरुणाचल जाने के लिए इनरलाइन परमिट लेने के लिए बाध्य होना पड़े तो यह कैसा मजाक है? महाराष्ट्र हो या मणिपुर या कश्मीर हर जगह हिन्दुस्तानी अल्पसंख्यक हो गया है। हिन्दुस्तानी होने के अलावा आप जो कुछ भी हों, जात, मजहब, प्रान्त, भाषा की पहचान वाले, वह ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। अल्पसंख्यक मुसलमान नहीं, वे हैं जो अपनी पहचान सिर्फ हिन्दुस्तानी बताना चाहते हैं।

नक्शा बदलने की साजिश

अगले सप्ताह 19 जनवरी को कश्मीरी हिंदुओं के घाटी से निष्कासन के दो दशक पूरे हो जाएंगे। यह तिथि किसी उत्सव की नहीं, मरते राष्ट्र की वेदनाजनक दुर्दशा की द्योतक है। अपने ही देश में नागरिकों को शरणार्थी बनना पड़ा है, इससे बढ़कर धिक्कारयोग्य तथ्य और क्या हो सकता है? बीस साल पहले घाटी में अचानक 19 जनवरी के दिन ये ऐलान होने शुरू हुए थे। इनमें कहा गया था कि ऐ पंडितों, तुम अपनी स्त्रियों को छोड़कर कश्मीर से भाग जाओ। इससे पहले लगातार कश्मीरी हिंदुओं की हत्याओं का दर्दनाक सिलसिला शुरू हो चला था। भाजपा नेता टीकालाल थप्लू, प्रसिद्ध कवि सर्वानंद और उनके बेटे की आंखें निकालकर हत्या की गई। एचएमटी के जनरल मैनेजर खेड़ा, कश्मीर विश्वविद्यालय के वाइस चासलर मुशीरुल हक और उनके सचिव की हत्याओं का दौर चल पड़ा था। जो भी भारत के साथ है, भारत के प्रति देशभक्ति दिखाता है, उसे बर्बरतापूर्वक मार डालने के पागलपन का दौर शुरू हो गया था। कश्मीरी हिंदू महिलाओं से दुष्कर्म के बाद उनकी हत्याओं का सिलसिला जब रुका नहीं तो 19 जनवरी के दहशतभरे ऐलान के बाद हिंदुओं का सामूहिक पलायन शुरू हुआ। यह वह वक्त था जब जगमोहन ने राज्य के गवर्नर पद की कमान संभाली ही थी कि उनके विरोध में फारुक ने इस्तीफा दे दिया, फलत: राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा। राजनीतिक कारणों से ऐसा माहौल बनाने का प्रयास किया गया मानो दिल्ली का विदेशी शासन कश्मीर पर थोपा जा रहा है और कश्मीरी हिंदू दिल्ली के हिंदू राज के एजेंट हैं। जेकेएलएफ, हिजबुल मुजाहिदीन और तमाम मुस्लिम समूह एकजुट होकर हिंदू पंडितों के खिलाफ विषवमन करने लगे। ऐसी स्थिति में घाटी से हिंदुओं को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा।
घाटी के हिंदुओं पर यह कहर पहली बार नहीं टूटा था। 14वीं सदी में सिकंदर के समय, फिर औरंगजेब के राज में और उसके बाद 18वीं सदी में अफगानों के बर्बर राज में हिंदुओं को घाटी से निकलना पड़ा था। उनकी रक्षा में गुरु तेग बहादुर साहेब और तदुपरात महाराजा रणजीत सिंह खड़े हुए थे, तब जाकर हिंदू वापस लौट पाए थे। इस बार उनकी रक्षा के लिए कोई खड़ा नहीं होता दिखा, सिवाय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उनसे जुड़े संगठनों के। जिन मुस्लिम जिहादियों ने उनको कश्मीर छोड़ कर पलायन के लिए मजबूर किया वे बाहरी नस्ल के नहीं, बल्कि वे लोग थे जिनके पूर्वज, भाषा, रंग-रूप, खान-पान और पहनावा सब कश्मीरी हिंदुओं जैसा ही था। केवल मजहब बदलने के कारण वे अपने ही रक्तबंधुओं के शत्रु क्यों हो गए, इस प्रश्न का उत्तर खोजना चाहिए। आखिर एक नस्ल, एक खून, एक बिरादरी होने के बावजूद केवल ईश्वर की उपासना के तरीके में फर्क ने यह दुश्मनी क्यों पैदा की? इसके अलावा एक और तथ्य यह है कि कश्मीर भारत का एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य है और वहा ही अल्पसंख्यक हिंदुओं को भारी अत्याचार तथा अपमानजनक निष्कासन का शिकार होना पड़ा। क्या मुस्लिम बहुल राज्य का अर्थ यह है कि वहा अल्पसंख्यकों के लिए कोई अधिकार नहीं? भारत के अन्य हिंदू बहुल राज्यों में कई बार मुस्लिम मुख्यमंत्री हुए हैं, परंतु क्या कोई कल्पना कर सकता है कि एक दिन कश्मीर में भी कोई हिंदू मुख्यमंत्री बन सकेगा? बल्कि हुआ उल्टा ही है। मुस्लिम बहुल कश्मीर अपने अन्य हिस्सों लद्दाख तथा जम्मू के साथ योजनाओं और विकास के कार्यक्रमों में भारी सांप्रदायिक भेदभाव करता है। पिछले दिनों श्री अमरनाथ यात्रा के लिए श्रीनगर के सुल्तानों ने एक इंच जमीन देने से भी मना कर दिया था, फलस्वरूप राज्य के इतिहास का सबसे जोरदार आंदोलन हुआ और सरकार को अपने शब्द वापस लेने पडे़। जम्मू का क्षेत्रफल 26293 वर्ग किलोमीटर है, जबकि घाटी का मात्र 15948 वर्ग किलोमीटर। जम्मू राज्य का 75 प्रतिशत राजस्व उगाहता है, कश्मीर घाटी सिर्फ 20 प्रतिशत। जम्मू में मतदाताओं की संख्या है 3059986 और घाटी में 2883950, फिर भी विधानसभा में जम्मू की 37 सीटें हैं, जबकि घाटी की 46। इस प्रकार श्रीनगर भारत में ही अभारत जैसा दृश्य उपस्थित करता है। उस पर कश्मीर को और अधिक स्वायत्तता दिए जाने की सिफारिश करने वाली सगीर अहमद रिपोर्ट ने राज्य के भारतभक्तों के घाव पर नमक ही छिड़का है। यदि 1947 में भारत द्विराष्ट्र सिद्धात का शिकार होकर मातृभूमि के दो टुकड़े करवा बैठा था तो सगीर अहमद रिपोर्ट तीन राष्ट्रों के सिद्धात का प्रतिपादन करती है। यह रिपोर्ट डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे देशभक्तों के बलिदान को निष्प्रभावी करने का षड्यंत्र है। इस रिपोर्ट का जम्मू और लद्दाख में भारी विरोध हो रहा है, क्योंकि न केवल इस रिपोर्ट के क्रियान्वयन के बाद जम्मू-कश्मीर का शेष भारत के साथ बचा-खुचा संबंध भी समाप्त हो जाएगा, बल्कि हिंदुओं और बौद्ध नागरिकों के साथ भयंकर भेदभाव के द्वार और खुल जाएंगे। फिर हिंदू कश्मीरियों के वापस घर जाने की सभी संभावनाएं सदा के लिए समाप्त हो जाएंगी।
इस रिपोर्ट में केवल मुस्लिमों को केंद्र में रखकर समाधान के उपाए सुझाए गए हैं, जिसका अर्थ होगा पकिस्तान के कब्जे वाले गुलाम कश्मीर की वर्तमान स्थिति स्वीकार कर लेना और संसद के उस प्रस्ताव को दफन कर देना, जिसमें पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर को वापस लेने की कसम खाई गई थी। वीर सैनिकों का बलिदान, कश्मीरी देशभक्तों द्वारा सही गई भीषण यातनाएं, हजारों करोड़ों के राजस्व के व्यय के बाद समाधान यह निकाला गया तो उसके परिणामस्वरूप भारत का नक्शा ही बदल जाएगा। छोटे मन के लोग विराट जिम्मेदारियों का बोझ नहीं उठा सकते। क्या अपने ही देश में शरणार्थी बने भारतीयों की पुन: ससम्मान घर वापसी के लिए मीडिया और समस्त पार्टियों के नेता एकजुट होकर अभियान नहीं चला सकते? क्या यह सामान्य देशभक्ति का तकाजा नहीं होना चाहिए?

हिन्दू क्यों बदल रहे हैं? - तरुण विजय

क्या भारत के ईसाइयों के लिए यह उचित था कि वे उस स्थिति में, जबकि देश में एक ईसाई नेता के नेतृत्व में बहुसंख्यक हिन्दुओं ने सत्ता राजनीति को स्वीकार किया है, विदेशी ईसाई सरकारों से अपनी ही सरकार को डपटवाकर खुश होते? पश्चिमी देशों की सरकारों ने सिर्फ ईसाई होने के नाते भारत के ईसाइयों के बारे में आवाज उठाई। उसके पीछे सिर्फ एक कारण था - वे अपने मजहबी विस्तारवाद को निष्कंटक बनाने के लिए चिन्तित थे। क्या भारत के ईसाइयों को लगता है कि अगर उनके बारे में विदेशी ईसाई सरकारें आवाज उठाती हैं तो यह उनके लिए गौरव की बात है और क्या इससे उनकी वेदना दूर हो जाएगी?

जिन हिन्दुओं ने भारत में कभी उपासना पद्धति और संप्रदाय के आधार पर कभी किसी से कोई भेदभाव नहीं किया, जिन्होंने ईसाई, मुस्लिम, पारसी, यहूदी आदि सभी बाहर से आने वाले मजहबों को यहां फलने-फूलने दिया और अरब, तुर्क, मुगल, ईसाई, ब्रिटिश और पुर्तगालियों के बर्बर हमलों के बावजूद उनके मजहबी उत्तराधिकारियों से कभी घृणा नहीं की, बल्कि राष्ट्रपति, गृहमंत्री, गृहसचिव, कैबिनेट सचिव, वायु सेना अध्यक्ष, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, विदेश सचिव जैसे पदों पर ही नहीं बल्कि मीडिया, फिल्म और खेल जगत में मजहबी भेद भूलकर मुस्लिम और ईसाइयों को दिल से स्थापित होने के रास्ते खोले, उन्हें सम्मानित किया तथा उनके प्रशंसक और अनुयायी बनने में कोई संकोच नहीं किया, ऐसे हिन्दू से मित्रता और उनकी भावनाओं का सम्मान करने के बजाय उनकी संख्या कम करने के लिए विदेशी मदद लेना क्या दर्शाता है?

जब सर्वपंथ समभावी हिन्दू कट्टर जिहादी मुस्लिमों और देश तोड़ने वाले आक्रामक ईसाइयों की नफरत का शिकार बनाए जाते हैं तो हिन्दुओं की सदाशयता और उदार हृदयता में अपराधी कायरता दिखने लगती है। वे सोचते हैं संभवतः इस सेकुलर धर्मिता के आवरण में उनकी सर्वपंथ समभाव की भावना को तिरस्कृत किया जा रहा है। तब उनका क्रोध सीमा उल्लंघन करना ही उचित मानता है।

यह वह हिन्दू है जो उन श्रीराम की उपासना करता है, जिन्होंने पहले शत्रु को समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन जब वह नहीं माना तो फिर उसके संहार के लिए जनशक्ति का एकत्रीकरण कर विजय प्राप्त की।

राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक मजहबी ध्रुवीकरण में बंटी दिखी जिसमें सेकुलर कहे जाने वाले दलों ने आतंकवाद के विरूद्ध एकजुट सामूहिक अभियान का वातावरण बनाने के बजाए उन तत्वों के संरक्षण का परचम निर्लज्जता से लहराया जो भारत के खिलाफ युद्ध के अपराधी हैं। किसी भी सेकुलर नेता ने हिन्दू और मुस्लिमों की सांझी लड़ाई की बात नहीं की। बल्कि छोटे-छोटे मुद्दों पर अखबारों में सुर्खियां हासिल करने का बचपना दिखाने की कोशिश में वे एकता परिषद को सिमी और बजरंग दल के दो पालों में ध्रुवीकृत कर गए। राष्ट्रीय एकता परिषद का उद्देश्य सब लोगों को साथ में लेकर राष्ट्र हित में एक ऐसा वातावरण सृजित करना कहा जाता है, जो घृणा, विद्वेष तथा राजनीतिक अस्पृश्यता से परे हो। लेकिन हुआ ठीक वही जो अपेक्षित नहीं था।

वास्तविकता में स्वयं को सेकुलर कहने वालों का हिन्दू विद्वेष देश में भयानक मजहबी ध्रुवीकरण पैदा कर रहा है, जो विभाजन पूर्व की राजनीति का कटु यथार्थ स्मरण दिलाता है।

कहीं भी किसी भारतीय पर कोई आघात हो तो उसके विरूद्ध राज्य, राजनीति और प्रजा के चिंतकों का सामूहिक उद्वेलन और प्रतिरोध सर्वपंथ समभाव पर आधारित सेकुलरवाद का स्वाभाविक चरित्र होना चाहिए। लेकिन जिस प्रकार आज सेकुलरवाद का व्यवहार किया जा रहा है, वह केवल अहिन्दुओं के प्रति ही संवेदनशील है। इस बारे में असम का उदाहरण ताजा है।

असम के दारंग और होजाई क्षेत्रों में इन दिनों भयंकर हिंसा चल रही है। 60,000 से अधिक लोग सरकारी शिविरों में शरण लेने के लिए बाध्य हो गए हैं। बोडो हिन्दू जनजातियों के 40 गांव जला दिए गए हैं। उदालगुडी के पास एक गांव के प्रमुख (गांव बूढ़ा) उनकी मां और बहन को मुस्लिमों ने जिंदा जला दिया। 40 से अधिक जनजातीय बोडो हिन्दुओं की हत्या की जा चुकी है। लेकिन दिल्ली में इस बारे में शायद ही कोई आवाज उठी। गांव उजड़ गए, परिवार जिंदा जला दिए गए, फिर भी राजनीति और सेकुलर मीडिया में सन्नाटा छाया रहा। क्या इसकी वजह यह है कि जिनके गांव ध्वस्त हुए और जो जिंदा जलाए गए, वे हिन्दू थे? कंधमाल पर हमने केवल एक मजहब की पीड़ा पर वैटिकन से वॉशिंगटन और पैरिस तक शोर सुना। सवाल है कि हिन्दुओं की वेदना पर कौन बोलेगा?

आक्रामक ईसाई नेता इस बात का विरोध करते हैं कि वे अंग्रेजों या पुर्तगालियों के साए तले भारत में ईसाइयत का प्रचार करने आए। लेकिन सच यही है। हाल ही में मुझे एक पुस्तक पढ़ने को मिली जिसका विषय राजस्थान में ईसाई मिशन का विस्तार था। यह पुस्तक ईसाई मिशन के प्रति अत्यंत सहानुभूति रखते हुए उनके प्रति आत्मीय प्रशंसा भाव के साथ राजस्थान विश्वविद्यालय के प्रो. श्यामलाल ने लिखी है और विश्वविद्यालय के तत्कालीन उपकुलपति श्री हरि मोहन माथुर ने इस पुस्तक को एक महत्वपूर्ण शोध बताकर इसके पठन-पाठन हेतु संस्तुति की है।

पुस्तक के लेखक ने अनेक चर्चों और मिशन के कार्य से जुड़े ईसाई जनजातीय व्यक्तियों एवं चर्च अधिकारियों के प्रति हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त की है। इसमें उदयपुर क्षेत्र में प्रसिद्ध भील जनजातीय स्वातंत्र्य आंदोलन के नेता गोविंद गुरू के 1,500 से अधिक भील अनुयायियों के मानगढ़ की पहाड़ी पर किए गए नरसंहार का विवरण है। यह नरसंहार मेजर हैमिलटन के नेतृत्व में किया गया था। भीलों के पास केवल तीर धनुष थे और ब्रिटिश मेजर हैमिल्टन की फौज के पास बंदूकें थीं। उस रात 1500 से अधिक भील हैमिल्टन की फौज ने मारे। इसे राजस्थान का जलियांवाला बाग कहा जाता है।

इस हत्याकांड के बाद मेजर हैमिल्टन ने नीमच स्थित प्रैसबिटेरियन मिशन के पादरी रेवरेन्ड डी. जी. कॉक को चिट्ठी लिखकर भील जनजातियों के बीच चर्च स्थापित करवाया। अर्थात् पहले हिन्दू जनजातियों का नरसंहार कर उनमें भय और आतंक पैदा किया, उसके बाद चर्च की स्थापना कर उनका धर्म समाप्त करने का अभियान छेड़ा। अस्पताल, स्कूल इत्यादि ईसाई विस्तारवादी अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने के साधन हैं, केवल सेवा के निर्मल उद्देश्य से प्रारंभ किए जाने वाले कार्य नहीं। यदि ऐसा होता तो देश के 2500 ईसाई विद्यालय, जिनमें ज्यादातर हिन्दू विद्यार्थी ही पढ़ते हैं, केवल ईसाई वेदना पर बंद किए जाने के बजाय आतंकवादियों द्वारा चलाए जा रहे जिहाद के खिलाफ भी कभी बंद किए जाते। परन्तु ऐसा कभी नहीं किया गया। ये आक्रामक ईसाई कभी सामान्य भारतीय के दुख दर्द में शामिल नहीं होते। बल्कि जैसे पहले उन्होंने अंग्रेजों की मदद ली थी वैसे ही आज अमरीका, वैटिकन और फ्रांस जैसे ईसाई देशों की मदद लेने में संकोच नहीं करते।

परन्तु जैसे सारे मुसलमान जिहादी नहीं, वैसे सारे ईसाई आक्रामक या हिन्दुओं के प्रति नफरत रखने वाले नहीं होते। परन्तु जैसे भारत के विरूद्ध उठने वाली हर आवाज का मजहब और भाषा के भेद से परे उठते हुए विरोध किया ही जाता है, उसी तरह से हिन्दू विरोधी सेकुलर आवाजों का विरोध क्यों नहीं किया जाता? एक पत्रिका ने हाल ही में हिन्दुओं की निंदा करने के लिए त्रिशूल के चित्र पर ईसा मसीह को सलीब की तरह टंगा हुआ दिखाया। यह चित्र वस्तुतः हिन्दुओं को उड़ीसा के संदर्भ में बर्बर और आतंकवादी दिखाने के लिए छापा गया। क्या आज तक आपने किसी नागालैण्ड के ईसाई आतंकवादी या इस्लामी जिहादी के हिन्दू विरोधी प्रतीकात्मक चित्र पर हिन्दुओं की मृत्यु का अंकन देखा है? हिन्दू के विरूद्ध यह एकांतिक और अन्यायपूर्ण सेकुलर हमला उन्हें अपने तौर-तरीके और जवाब बदलने पर मजबूर कर रहा है। वे देखते हैं कि बिना प्रमाण के जो लोग बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने की मांग करते हैं, ये वही लोग होते हैं, जो प्रमाण के आधार पर अफजल को दी गई फांसी की सजा माफी में बदलना चाहते हैं और सिमी से प्रतिबंध हटाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में हिन्दू इस सेकुलर तालिबानी हमले के विरूद्ध क्रुद्ध न हों तो क्या करें?

सावधान! कश्मीर खतरे में है

अगर एक झूठ हजार बार दोहराया जाए तो वही सत्य लगने लगता है. कुछ ऐसी ही स्थिति कश्मीर के साथ भी है. तथाकथित उदारवादियों, निहित स्वार्थों से युक्त अलगावादियों, मीडिया के एक विशेष वर्ग और छद्म मानवाधिकारवादियों तथा विभिन्न कूटनीतिक कारणों से युक्त अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा कश्मीर की स्थिति पर ऐसी रिपोर्टें, खबरें पेश की जाती हैं, जिससे यह साबित हो कि वहां कि जनता का भारत द्वारा दमन होता रहा है और जनमत भारत विरोधी रुख अख्तियार करता जा रहा है. यकीनन यह सब कुछ एक खास उद्देश्य से परिचालित होता है तो फिर मंतव्य स्पष्ट है कि करना क्या है.


कभी स्वर्ग का दूसरा रुप कहे जाने वाले कश्मीर की हालत आज नरक के दूसरे रुप की तरह हो चुकी है. घाटी में शांति बहाली के कोई आसार नजर आते नहीं दिख रहे. अभी हाल ही में प्रधानमंत्री ने एक सर्वदलीय बैठक बुलाई जिसमें भी कोई उचित परिणाम नजर नहीं आया. अब तो यह लगने लगा है कि कश्मीर की आवाम का एक हिस्सा अलगावादियों जैसा बर्ताव करने लगी है.


एक बहुत पुरानी कहावत है कि अगर लकड़ियों को आप अलग-अलग तोड़ेंगे तो वह जल्दी टूट जाएँगी और अगर उन्हीं लकड़ियों को आप एक साथ गठ्ठे के रुप में तोड़ेंगे तो नामुमकिन होगा. कश्मीर में भी यही हो रहा है जिस राज्य को हमारी सरकार ने पहले ही गठ्ठे से अलग कर दिया था आज वह टूटने की ओर अग्रसर है.


कश्मीर में किसी चीज की कमी नहीं है. केन्द्र सरकार द्वारा सबसे अधिक भत्ता और अन्य वित्तीय सहायता में विशेष रियायत से लेकर विशेष राज्य का दर्जा हर चीज हर सहूलियत कश्मीर को दी गई. जिस विशेष दर्जे को कश्मीर के लिए अमृत समझा गया था वह ही इसकी एकता के पतन का कारण बनती जा रही है.


कश्मीर मुद्दा कोई ऐसा मुद्दा नहीं है जिस पर हम खुले में बैठकर दस लोगों के साथ विचार- विमर्श कर लें क्योंकि यह कदम पहले उठाना था, अब तो वहां की जनता का एक हिस्सा ही अलगाववादियों का राग अलाप रही है. अलगाववादियों का असर ऐसा है कि वह चाहते हैं कि जनता किसी की ना सुने बस एकमत बनाए और जो भी करना है कर गुजरे, फिर चाहे वह भारत से अलग होना चाहे या पाकिस्तान में मिलना चाहे.


जम्मू-कश्मीर देश का एकमात्र मुस्लिम बहुल प्रांत है जहां इस्लाम के नाम पर आतंकवादियों ने स्थानीय नेताओं की मौन परस्त प्रत्यक्ष सहमति से हिंदुओं को अपमानित करके बाहर निकाल दिया है. श्रीनगर का तंत्र पूर्णत: सांप्रदायिक विद्वेष के आधार पर काम करता है. वहां लद्दाख के बौद्ध इतने संत्रस्त हैं कि उन्होंने श्रीनगर से मुक्ति के लिए लद्दाख को पृथक ‘केंद्र शासित प्रदेश’ बनाने का आंदोलन छेड़ा और स्थानीय शासन में बहुमत हासिल किया.


लेकिन यह सब होने के पीछे हमारे अपनों ने ही गलती की थी. नेहरू सरकार की नीति का असर है कि कश्मीर और भारत के हालात आज एक ही देश में, अपने ही एक राज्य में दो निशान, दो विधान और दो प्रधान की पद्धति जैसे हो गए हैं. आज तक देश नेहरू की कश्मीर नीति का नतीजा भुगत रहा है. देश में कश्मीर के पृथक एजेंडे के विरुद्ध असंतोष और गुस्सा है. वहां धारा 370 के कारण अलगाव को मजबूती मिली है. ‘पत्थरबाजी’ इसी का नतीजा है.


आज बहुत से लोग ये कह रहे हैं कि कश्मीर से सशस्त्र सेना विशेष अधिकार कानून को हटा लेना चाहिए शायद उन्हें इसके परिणाम का अंदाजा नहीं और यदि उन्हें मालूम है कि परिणाम क्या होगा तो इससे बड़ा धोखा राष्ट्र के क्या साथ होगा. सच तो यह है कि आज सशस्त्र सेना विशेष अधिकार कानून की वजह से ही जो वहां थोड़ी-बहुत शांति है वरना हालात और अधिक बिगड़ भी सकते हैं.


लोगों के आक्रोश की मूल वजह नेता और नेताओं द्वारा होने वाला शोषण है. अलगाववादियों ने इसी बात का फायदा उठाते हुए वहां के कुछ लोगों को अपने साथ मिला लिया और अपने कुछ लोगों को जनता में फैला कर ऐसा दिखाने की कोशिश की है कि जनता भी अब उनके साथ है.

एकता और मजबूत शासन की कमी को अगर दूर किया जाए तो कश्मीर में दुबारा शांति बहाली की जा सकती है.


कश्मीर घाटी को पूर्ण रुप से शांत रखने और भारत राष्ट्र के प्रति निष्ठा कायम करवाने के लिए एक साथ कई विकल्पों पर कार्य करने की आवश्यकता है. सबसे पहला और सबसे जरुरी तत्व है भारत विरोधी प्रचार माध्यमों और तत्वों पर किसी भी माध्यम से नियंत्रण कायम करना. झूठे प्रचार माध्यमों द्वारा फैलाए गए भ्रामक तथ्यों की काट पेश कर और सेना को विभिन्न शक्तियों से सुसज्जित कर इस तरह की गतिविधियों पर रोक लगाई जा सकती है. घाटी के विकास, बेरोजगारी-गरीबी दूर करके और बदहाल क्षेत्रों की तरफ विशेष ध्यान देकर जनता को अलगाववादियों के चंगुल से मुक्त करवाया जा सकता है.

जेहादी मानसिकता का खतरा

मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति के कारण देश में आतंकवाद को मिली शह ने एक ऐसी अराजकता उत्पन्न कर दी है जिसका समाधान शीघ्रातिशीघ्र ढ़ूंढ़ा जाना नितान्त आवश्यक हो चुका है. कुछ कठमुल्लों के कारण देश में मुसलमानों का पूरा तबका बदनाम होता है और ये कठमुल्ले अपने को देश के सभी मुस्लिमों का प्रतिनिधि बताते हैं. अधिकांश राजनीतिक दल मुस्लिमों को थोक वोट बैंक के रूप में देखते हुए उन्हें पिछड़ा बनाए रखने में ही अपना हितसाधन देखते हैं. राज्यसभा सांसद बलबीर पुंज ऐसे ही कुछ गंभीर प्रश्नों को इस आलेख में उठा रहे हैं.

डा. फैसल शाह, फैसल शाहजाद और अजमल कसाब, ये नाम इन दिनों सुर्खियों में हैं. ये सभी मुस्लिम हैं और अलग-अलग कारणों से चर्चा में हैं. डा. फैसल शाह के शिक्षक पिता की कश्मीरी आतंकियों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी. हत्या के दो दिन बाद फैसल ने मेडिकल प्रवेश की परीक्षा दी और सफल रहे. उन्हें भारतीय प्रशासनिक सेवा का जुनून था और उन्होंने पिछले दिनों वह भी हासिल कर लिया. फैसल की मां भी शिक्षिका हैं और परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है.

अजमल कसाब पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान का वाशिदा है और बहुत ही निर्धन परिवार से है. उसने मुंबई में निरपराध लोगों पर अंधाधुंध गोलिया चलाईं. उसके अन्य जिहादी साथी तो मारे गए, किंतु वह जिंदा पुलिस के हाथ लग गया. पिछले दिनों उसे फांसी की सजा सुनाई गई. वहीं, फैसल शाहजाद पाकिस्तान के एक वायु सेना अधिकारी का पुत्र है और बेहतर परवरिश के साथ उसे ऊंची तालीम भी हासिल है. अमेरिका में वह वित्त विश्लेषक के रूप में काम भी कर चुका है. किंतु आज वह अमेरिकी पुलिस की गिरफ्त में है, क्योंकि उसने जानमाल की भारी तबाही मचाने के लिए न्यूयार्क के टाइम्स स्क्वायर पर बम विस्फोट की साजिश रची थी. डा. फैसल शाह आज सभ्य समाज के सम्मानित सदस्य हैं, वहीं फैसल शाहजाद जिहादी आतंक का प्रतीक. दोनों फैसल में यह अंतर क्यों? इस संदर्भ में पाकिस्तान के एक अधिकारी की प्रतिक्रिया अध्ययन योग्य है, ‘ऐसा नहीं है कि वे अंग्रेजी बोलना नहीं जानते या कार्यदक्ष नहीं हैं. किंतु वे दिल और दिमाग से पश्चिम का तिरस्कार करते हैं. वे मानते हैं कि एक ही राह है और वही सही मार्ग है.’

वस्तुत: इस्लामी जिहाद ‘एकमात्र सच्चे पंथ’ की कट्टरवादी मानसिकता की ही देन है. कथित उदारवादी बुद्धिजीवी और भारत के सेकुलर चिंतक अर्से से जिहादी जुनून के कारणों के प्रति भ्रांतिया फैलाते रहे हैं. उनके अनुसार गरीबी, अशिक्षा और सच्चे इस्लाम के बारे में सही जानकारी का अभाव मुसलमानों के एक वर्ग को शेष विश्व के खिलाफ हिंसा के लिए उकसाता है. टाइम्स स्क्वायर पर बम धमाके की साजिश करने वाला फैसल एक यमनी-अमेरिकी कठमुल्ला अनवर अल अवलाकी से गहरे प्रेरित था. अवलाकी ने किस कुरान की विवेचना कर फैसल को बड़े पैमाने पर तबाही मचाने के लिए प्रेरित किया? मुंबई पर 26/11 को किए गए हमले के मास्टरमाइंड के बीच करीबी रिश्तों का पता चला है. दो अलग-अलग जगहों में आतंकी ताडव मचाने का प्रेरणास्त्रोत आखिर कौन है? महमूद गजनी, मुहम्मद गोरी, कुतुबुद्दीन ऐबक, तैमुरलंग, सिकंदर लोदी, इब्राहिम लोदी से लेकर औरंगजेब को बुतश्किन और गाजी बनने के लिए किसने प्रेरित किया? बख्तियार खिलजी ने नालंदा, विक्रमशिला और उदंतपुर के विश्वविख्यात हिंदू शिक्षण संस्थानों को ध्वस्त क्यों किया? न्याय का घटा बाधने वाले जहागीर ने सिख गुरु अर्जुन देव का वध क्यों किया? गाजी औरंगजेब ने गुरु तेगबहादुर और गुरु गोविंद सिंह के नाबालिग बच्चों की बर्बरतापूर्वक हत्या क्यों की? क्या यह माना जाए कि ओसामा बिन लादेन आदि को इस्लाम की सही जानकारी नहीं है और केवल सेकुलरिस्टों को ही सही ज्ञान है?

यह झूठ भी परोसा जाता है कि प्रजातांत्रिक व्यवस्था आतंकवाद को काबू में रख सकती है. उनका तर्क है कि यदि मुसलमान पूर्ण स्वतंत्रता के साथ रहें और उन्हें प्रजातात्रिक ढंग से अपना नेता चुनने को मिले तो आतंकवादी पैदा ही नहीं हों. पाश्चात्य आधुनिक प्रजातंत्र में स्वतंत्र और खुशहाल जीवन जीने वाले मुस्लिम युवा फिर किस कारण उसी धरती को लहूलुहान करते हैं? कुछ मुस्लिम बुद्धिजीवियों, जिन्हें कम्युनिस्ट विचारकों का बड़ा समर्थन प्राप्त है, का मानना है कि अमेरिका की विदेश नीति के कारण इस्लामी आतंक पैदा हुआ. टाइम्स स्क्वायर के विफल प्रयास के बाद लंदन के डेली मेल में प्रकाशित एक लेख से न केवल इस तर्क का खोखलापन साबित होता है, बल्कि कट्टरपंथी मुसलमानों की मानसिकता की भी पुष्टि होती है. ब्रितानी मुस्लिम आतंकी गुटों से संबद्ध चरमपंथी हसन बट्ट अपने लेख में इसी तर्क पर ठहाका लगाते हुए कहता है, ‘मुझे और कइयों को ब्रिटेन और अन्यत्र आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए जिस भावना ने प्रेरित किया, वह है दुनियाभर में इस्लामी निजामत कायम करना.’

गरीबी, अशिक्षा, सुविधाओं की कमी, राजनीतिक अस्पृश्यता, ऐतिहासिक अन्याय आदि ऐसे कई कुतकरें से इस्लामी जिहाद के नंगे सच को ढकने की कोशिश की जाती है, जबकि यथार्थ इससे कोसों दूर है. अमेरिका के विश्व व्यापार पर हवाई हमला करने वाले सभी कसूरवार उच्च शिक्षा प्राप्त और संभ्रात परिवार के थे. लंदन पर आत्मघाती हमला करने वाले फिदायीन ब्रिटेन की खुली फिजा में पले-बढ़े. उन्होंने पेशावर, मोगादिशू और कंधार की दुष्कर जिंदगी नहीं जी. जिहादी आतंकियों के आदर्श- ओसामा बिन लादेन सऊदी अरब के सबसे अमीर घरानों में से एक का वारिस है. लादेन का दाया हाथ अयमान जवाहिरी मारो-काटो का दामन थामने से पूर्व मिस्त्र के कैरो में जान बचाने वाला एक डाक्टर था. दुनियाभर में आतंकवाद की जितनी भी बड़ी घटनाएं घटी हैं, उन्हें अंजाम देने वालों में अधिकाश डाक्टर, इंजीनियर, आर्किटेक्ट आदि हैं. शिक्षा और गरीबी तो जिहादी इस्लाम का इकलौता पक्ष कतई नहीं हो सकतीं. वस्तुत: अजमल कसाब जैसे चेहरे तो मोहरे हैं. उनकी गुरबत और धर्मभीरूता का जिहाद के लिए दोहन होता है.

क्या राजनीतिक भेदभाव इस्लामी चरमपंथ का कारण है? अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रास, जर्मनी, भारत जैसे गैर मुस्लिम देशों में क्या मुसलमानों के साथ राजनीतिक स्तर पर भेदभाव का आरोप सच है? हमारे यहा भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में एक मुसलमान टाप करता है और इसका प्रमाण है डा. फैसल शाह. एक मुसलमान इस देश की सबसे बड़ी संवैधानिक कुर्सी पर बैठता है और इस देश के संविधान प्रावधान बनाकर अल्पसंख्यकों से यह वादा करता है कि उनके साथ किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं होगा. यही स्थिति तमाम अन्य प्रजातात्रिक देशों में भी है और वहा मुसलमान किसी भी मुस्लिम देश की अपेक्षा ज्यादा खुशहाल और स्वतंत्र हैं. किंतु क्या एक भी ऐसा मुस्लिम देश है जहा ऐसी ही व्यवस्था हो? किस मुस्लिम देश में एक गैर मुस्लिम को शासनाध्यक्ष बनाया गया? हमारे यहा तो विकृत सेकुलरवाद के कारण बहुसंख्यक ही हाशिए पर हैं. यदि ऐसा नहीं होता तो कश्मीर घाटी के मूल निवासी-कश्मीरी पंडित इसी देश में निर्वासित नहीं होते.

जहा तक ऐतिहासिक अन्याय का प्रश्न है, यथार्थ इसका भी समर्थन नहीं करता. दुनिया का करीब हर समुदाय उत्कर्ष और अपकर्ष के दौर से गुजरा है, किंतु समय के साथ संबंधित समुदाय का प्रवाह कभी थमा नहीं. यह इस्लाम ही है, जो अपने स्वर्णिम अतीत का रोना रोता है. भारत में कई जातियां सामाजिक भेदभाव व शोषण की शिकार हुईं. कौन-सी जाति बम विस्फोट में सैकड़ों लोगों की जान लेकर अपना प्रतिशोध ले रही है? इस्लामी आतंक पर काबू पाने के लिए इन प्रश्नों का ईमानदारी से उत्तर ढूंढ़ना होगा.

साम्यवाद की असलियत

अभी हाल के दिनों में ‘मा‌र्क्सवादी दर्शन बनाम आस्था’ समाचार पत्रों में चर्चा का विषय रहा है। वास्तव में मजहब को लेकर वामपंथियों का रवैया विरोधाभासों से भरा है। उनका मानना है कि धर्म अफीम है। वे एक मजहबविहीन समाज बनाना चाहते हैं, क्योंकि मजहब अंधविश्वास फैलाता है। हालाकि निरीश्वरवादी साम्यवादियों की कथनी और करनी में कभी साम्य नहीं रहा। मुस्लिम लीग को छोड़कर मा‌र्क्सवादियों का ही वह अकेला राजनीतिक कुनबा था, जिसने मजहब आधारित पाकिस्तान के सृजन को न्यायोचित ठहराया। मोहम्मद अली जिन्ना को मा‌र्क्सवादियों ने ही वे सारे तर्क-कुतर्क उपलब्ध कराए, जो उसे अलग पाकिस्तान के निर्माण के लिए चाहिए थे। एक तरह से पाकिस्तान के जन्म में वामपंथियों ने ‘दाई’ की भूमिका निभाई है।

आजादी के बाद केरल में कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री ईएमएस नंबूदरीपाद ने मुस्लिम बहुल एक नए जिले-मल्लपुरम का सृजन किया। मुस्लिम कट्टरपंथ को कम्युनिस्टों का सहयोग व समर्थन हमेशा मिलता रहा है। वह चाहे सद्दाम हुसैन का मसला हो या फलस्तीन-ईरान का-मा‌र्क्सवादी कट्टरंथियों के मजहबी जुनून में हमेशा शरीक होते आए। सात समंदर पार एक डेनिश कार्टूनिस्ट ने पैगंबर साहब का अपमानजनक कार्टून बनाया तो उसका भारत के मुसलमानों ने हिंसक विरोध किया। उनके साथ कम्युनिस्टों का लाल झडा भी शहर दर शहर लहराता रहा। बाग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन को कट्टरपंथियों की अनुचित माग के कारण ही रातोरात कोलकाता से बेघर कर दिया गया।

दुनिया के जिस भाग में साम्यवादियों की सरकार आई, कम्युनिस्टों का पाखंड ज्यादा दिनों तक छिपा नहीं रह सका। उन्होंने वर्ग विहीन, शोषण विहीन, और भयमुक्त समतावादी खुशहाल समाज देने का दावा किया। जिस तरह कोई पुजारी या मौलवी चढ़ावे के बदले में अपने भक्तों में स्वर्ग या जन्नत का अंधविश्वास पैदा करता है, कम्युनिस्टों ने खुशहाल समाजवाद के नाम पर ऐसा ही छलावा किया है। नब्बे के दशक तक समाजवाद का मुलम्मा उतर गया था। सोवियत संघ में तो समाजवादी ढाचे के कारण बदहाली और तंगहाली का आलम यह था कि लोगों को अपनी हर जरूरत के लिए लाइन पर लगना होता था। सोवियत-आर्थिक ढाचे से प्रेम के कारण ही अपने देश में भी यही स्थिति आई और 1991 में देश को अपनी अंतरराष्ट्रीय देनदारियों को पूरा करने के लिए अपना स्वर्ण भंडार गिरवी रखना पड़ा था। चीन का अस्तित्व बना हुआ है तो उसका कारण यह है कि वहा माओ के बाद के शासकों ने समय रहते खतरे की आहट भाप ली और वामपंथी अधिनायकवाद के नीचे एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की स्थापना की।

हमारे यहा केरल और पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्टों का शासन रहा है और दोनों ही राज्यों में आम आदमी त्रस्त है। जिस सर्वहारा के कल्याण की मा‌र्म्सवादी कसमें खाते हैं, वही वहा हाशिए पर हैं। 575 जिलों में अध्ययन करने के बाद पहली बार प्रकाशित एक आधिकारिक आकलन के अनुसार देश के 1.47 प्रतिशत गरीब ग्रामीण भारतीय पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में हैं। जिले की 56 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे है तो शहरी आबादी का 36.6 प्रतिशत गरीब है। ग्रामीण गरीबी के मापदंड पर पश्चिम बंगाल का स्थान चौथा है। 169 लाख आबादी गरीबी रेखा के नीचे है। भारत के सौ गरीब ग्रामीण जिलों में पश्चिम बंगाल के कुल 18 जिलों में से 14 इस सूची में शामिल हैं। केरल की स्थिति भी ऐसी ही है।

व्यक्ति की निजी आस्था पर मा‌र्क्सवादियों का पहरा हास्यास्पद है। अपने यहा ही नहीं, पूरी दुनिया में आध्यात्मवाद की एक तरह से वापसी दिखाई दे रही है और संशयवादियों का वैज्ञानिक तर्क भी काम नहीं आ रहा। ‘धर्म अफीम है, इससे दूर रहो’, परवान चढ़ने वाली नहीं है। आस्था के प्रश्न पर स्वयं मा‌र्क्सवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं का मुखर विरोध इसे ही रेखाकित करता है। मा‌र्क्सवाद के प्रारंभिक मतप्रचारक जब भारत आए तो कुंभ के मेले में उमड़े जनसैलाब को देखकर उन्हें बड़ी मायूसी हुई थी और उन्होंने तब ही यह मान लिया था कि इस अध्यात्म प्रधान देश में साम्यवाद का पल्लवित होना मुश्किल काम है। जन्म के नब्बे साल बाद इस विशाल भारत देश के मात्र तीन राज्यों में ही पार्टी अपना असर बना पाई है। ऐसे में केरल के एक सदस्य और पूर्व सासद डा. केएस मनोज ने अपनी आस्था व उपासना के अधिकार की रक्षा के लिए त्यागपत्र दिया और उसके समर्थन में जब समर्थकों का एक बड़ा वर्ग उठ खड़ा हुआ है तो नास्तिक माकपाइयों का बैकफुट पर जाना स्वाभाविक है।

डा. केएस मनोज को 2004 में माकपा ने तब लोकसभा का टिकट दिया था, जब वे केरल लैटिन कैथोलिक एसोसिएशन के अध्यक्ष थे। लैटिन कैथोलिक के करीब बीस लाख अनुयायियों में डा. मनोज का अच्छा प्रभाव है। तब नास्तिक माकपा को आस्तिक डा. मनोज से कोई परहेज भी नहीं हुआ था। क्यों? व्यापक विरोध को देखते हुए पार्टी प्रमुख प्रकाश करात अब नास्तिक दर्शन से हटते हुए यह कह रहे हैं कि पार्टी मत/पंथ या ईश्वर में आस्था के खिलाफ न होकर साप्रदायिकता के खिलाफ है। यह मा‌र्क्सवादियों की बौद्धिक बाजीगरी मात्र है। वस्तुत: वे उसी लीक का अनुपालन कर रहे हैं, जो मा‌र्क्स और लेनिन खींच गए हैं। मा‌र्क्स ने कहा था, ”मजहब को न केवल ठुकराना चाहिए, बल्कि इसका तिरस्कार भी होना चाहिए।” उसका मा‌र्क्सवाद 19वीं सदी के यूरोप से प्रसूत था। तब बौद्धिक और आर्थिक कारणों से समाज पर मजहब की पकड़ एक अभिशाप बन गया था। 17वीं सदी तक दुनिया की राजनीति का केंद्र रहे यूरोप को एक नए पंथनिरपेक्ष छवि की आवश्यकता थी। उसके लिए जो आदोलन चला, मा‌र्क्सवाद उसी से प्रभावित है।

मा‌र्क्सवादियों ने मजहब को व्यक्तिगत विश्वास व मान्यता या सास्कृतिक विशिष्टता के दृष्टिकोण से नहीं देखा, उन्होंने इसे एक राजनीतिक चुनौती के रूप में लिया, परंतु भारत में हिंदू मत कभी संगठित नहीं रहा और न ही राज्य के शासन से इसका कोई सरोकार ही रहा। भारत में शासन और मत, दो अलग स्तरों पर काम करते हैं और उनके बीच सत्ता के नियंत्रण के लिए कोई संघर्ष ही नहीं है।

वास्तव में देखा जाए तो मा‌र्क्सवादी चिंतन ही अफीम है, क्योंकि यह लोगों के सामने एक ऐसी व्यवस्था का सपना परोसता है जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। साम्यवाद मौजूदा दौर में अप्रासंगिक हो चुका है। आने वाला समय वर्ग संघर्ष का नहीं होकर सभ्यताओं के संघात का काल होगा। एक समय ऐसा था, जब लगता था कि यूरोप से लेकर एशिया और अमेरिका से लेकर अफ्रीका के हर कोने लाल झडे से पट जाएंगे, किंतु अब इस्लामी कट्टरवाद का जहर बेसलान से लेकर जकार्ता और न्यूयार्क से लेकर ढाका तक फैल चुका है। कट्टरपंथियों के जुनूनी आदोलन को कम्युनिस्टों का बिन मागा सहयोग प्राप्त होता है। क्या इस्लाम के साथ आस्था का प्रश्न खड़ा नहीं होता? अनीश्वरवाद की पताका लहराने वालों को केसरिया रंग में साप्रदायिकता और हरे झडे में सद्भावना झलकती है। इस कलुषित विचारधारा से सामाजिक समरसता कैसे संभव है, जिसके सृजन का भार कथित तौर पर साम्यवादियों ने अपने कंधे पर उठा रखा है?

असम की अशांति के पीछे बांग्लादेशी घुसपैठियों की भूमिका

अमरनाथ प्रकरण को लेकर कश्मीर घाटी में अलगाववादियों ने जिस तरह विरोध प्रदर्शन किया उसकी एक झलक अब असम के मुस्लिम बहुल इलाके-उदलगिरी, दरांग और रीता गांव में दिख रही है। पाकिस्तानी झंडा लहराते हुए घाटी के अलगाववादियों ने यदि भारत विरोधी नारे लगाए थे तो असम के उदलगिरी जिले के सोनारीपाड़ा और बाखलपुरा गांवों में बोडो आदिवासियों के घरों को जलाने के बाद बांग्लादेशी मुसलमानों द्वारा पाकिस्तानी झंडे लहराए गए। इससे पूर्व कोकराझार जिले के भंडारचारा गांव में अलगाववादियों ने स्वतंत्रता दिवस के दिन तिरंगे की जगह काला झंडा लहराने की कोशिश की थी, जिसे स्थानीय राष्ट्रभक्त ग्रामीणों ने नाकाम कर दिया था।
असम के 27 जिलों में से आठ में बांग्लाभाषी मुसलमान बहुसंख्यक बन चुके है। बहुसंख्यक होते ही उनका भारत विरोधी नजरिया क्या रेखांकित करता है? भारत द्वेष का ऐसा सार्वजनिक प्रदर्शन कश्मीर घाटी का एक कड़वा सच बन चुका है और इसे भारत विभाजन से जोड़कर न्यायोचित ठहराने की कोशिश भी होती रही है, किंतु भारत के वैसे इलाके जहां धीरे-धीरे मुसलमान बहुसंख्यक की स्थिति में आ रहे हैं, वहां भी ऐसी मानसिकता दिखाई देती है। क्यों? मैं कई बार अपने पूर्व लेखों में इस कटु सत्य को रेखांकित करता रहा हूं कि भारत में जहां कहीं भी मुसलमान अल्पसंख्यक स्थिति में हैं वे लोकतंत्र, संविधान और भारतीय दंड विधान के मुखर पैरोकार के रूप में सामने आते है, किंतु जैसे ही वे बहुसंख्या में आते है, उनका रवैया बदल जाता है और मजहब के प्रति उनकी निष्ठा अन्य निष्ठाओं से ऊपर हो जाती है। विडंबना यह है कि भारत की बहुलतावादी संस्कृति को नष्ट करने पर आमादा ऐसी मानसिकता का पोषण सेकुलरवाद के नाम पर किया जा रहा है।
असम में बोडो आदिवासियों और बांग्लादेशी मुसलमानों के बीच हिंसा चरम पर है। अब तक बोडो आदिवासियों के 500 घरों को जलाने की घटना सामने आई है। करीब सौ लोगों के मारे जाने की खबर है, जबकि एक लाख बोडो आदिवासी शरणार्थी शिविरों में रहने को विवश है। सेकुलरिस्ट इसे बोडो आदिवासी और स्थानीय मुसलमानों के बीच संघर्ष साबित करने की कोशिश कर रहे है। मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी सच को सामने लाने से कतरा रहा है। आल असम स्टूडेट्स यूनियन के सलाहकार रागुज्ज्वल भट्टाचार्य के अनुसार प्रशासन पूर्वाग्रहग्रस्त है। बांग्लादेशी अवैध घुसपैठियों को संरक्षण दिया जा रहा है, वहीं बोडो आदिवासियों को हिंसा फैलाने के नाम पर प्रताड़ित किया जा रहा है। इससे पूर्व गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने भी विगत जुलाई माह में यह कड़वी टिप्पणी की थी, ''बांग्लादेशी इस राज्य में 'किंगमेकर' की भूमिका में आ गए है।'' यह एक कटु सत्य है कि और इसके कारण न केवल असम के जनसांख्यिक स्वरूप में तेजी से बदलाव आया है, बल्कि देश के कई अन्य भागों में भी बांग्लादेशी अवैध घुसपैठिए कानून एवं व्यवस्था के लिए गंभीर खतरा बने हुए है। हुजी जैसे आतंकी संगठनों की गतिविधियां इन्हीं बांग्लादेशी घुसपैठियों की मदद से चलने की खुफिया जानकारी होने के बावजूद कुछ सेकुलर दल बांग्लादेशियों को भारतीय नागरिकता देने की मांग कर रहे है। केंद्रीय मंत्रिमंडल में प्रभावी मंत्री रामविलास पासवान इस मुहिम के कप्तान है।
अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों को संरक्षण देना और उनके वोट बैंक का दोहन नई बात नहीं है। असम में पूर्वी बंगाली मुसलमानों की घुसपैठ 1937 से शुरू हुई। इस षड्यंत्र का उद्देश्य जनसंख्या के स्वरूप को मुस्लिम बहुल बनाकर इस क्षेत्र को पाकिस्तान का भाग बनाना था। पश्चिम बंगाल से चलते हुए उत्तर प्रदेश, बिहार और असम के सीमावर्ती क्षेत्रों में इन अवैध घुसपैठियों के कारण एक स्पष्ट भू-पट्टी विकसित हो गई है, जो मुस्लिम बहुल है। 1901 से 2001 के बीच असम में मुसलमानों का अनुपात 15.03 प्रतिशत से बढ़कर 30.92 प्रतिशत हुआ है। इस दशक में असम के बंगाईगांव, धुबरी, कोकराझार, बरपेटा और कछार के इलाकों में मुसलमानों की आबादी में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है और यह तीव्रता से बढ़ रही है। असम सेकुलरिस्टों की कुत्सित नीति का एक और दंश झेल रहा है। यहां छल-फरेब के बल पर चर्च बड़े पैमाने पर मतांतरण गतिविधियों में संलग्न है। यहां ईसाइयों का अनुपात स्वतंत्रता के बाद करीब दोगुना हुआ है। कोकराझार, गोआलपारा, दरंग, सोनिपतपुर में ईसाइयों का अनुपात अप्रत्याशित रूप से बढ़ा है। कार्बी आंग्लांग के पहाड़ी जनपदों में ईसाइयों का अनुपात करीब 15 प्रतिशत है, जबकि उत्तर कछार जनपद में वे 26.68 प्रतिशत हैं।
असम की कुल आबादी में 1991 से 2001 की अवधि में ईसाइयों की आबादी 0.41 से बढ़कर 3.70 प्रतिशत हुई है। उड़ीसा और कर्नाटक में चर्च की दशकों पुरानी मतांतरण गतिविधियों से त्रस्त आदिवासियों का क्रोध ईसाई संगठनों पर फूट रहा है, जिसके लिए सेकुलरिस्ट बजरंग दल और विहिप को कसूरवार बताकर उन पर पाबंदी लगाने की मांग कर रहे है। भविष्य में यदि असम के आदिवासियों का आक्रोश भी उबल पड़े तो इसकी जिम्मेदारी किसकी होगी? अवैध घुसपैठियों की पहचान के लिए 1979 में असम में व्यापक विरोध प्रदर्शन हुआ। इसी कारण 1983 के चुनावों का बहिष्कार भी किया गया, क्योंकि बिना पहचान के लाखों बांग्लादेशी मतदाता सूची में दर्ज कर लिए गए थे। चुनाव बहिष्कार के कारण केवल 10 प्रतिशत मतदान ही दर्ज हो सका। शुचिता की नसीहत देने वाली कांग्रेस पार्टी ने इसे ही पूर्ण जनादेश माना और सरकार का गठन कर लिया गया। 10 प्रतिशत मतदान करने वाले इन्हीं अवैध घुसपैठियों के संरक्षण के लिए कांग्रेस सरकार ने जो कानून बनाया वह असम के बहुलतावादी स्वरूप के लिए नासूर बन चुका है। कांग्रेस ने 1983 में अवैध आव्रजन अधिनियम के अधीन बांग्लादेशी घुसपैठियों को बसने का अवसर उपलब्ध कराया था। हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने इस अधिनियम को निरस्त कर अवैध बांग्लादेशियों को राज्य से निकाल बाहर करने का आदेश भी पारित किया, किंतु वर्तमान कांग्रेसी सरकार भी पूर्ववर्ती कांग्रेसी सरकारों के अनुरूप पिछवाड़े से इस कानून को लागू रखने पर आमादा है।
कांग्रेस की तत्कालीन सरकार ने वोटों के अंकगणित को देखते हुए न केवल अवैध घुसपैठियों से उत्पन्न खतरे को नजरअंदाज किया, बल्कि भविष्य में अवैध घुसपैठियों के निष्कासन को असंभव बनाने के लिए संवैधानिक प्रावधान भी बनाए। केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा बनाए गए अवैध परिव्रजन अधिनियम, 1983 के अधीन 'अवैध घुसपैठिया' उसे माना गया जो 25 दिसंबर, 1971 (बांग्लादेश के सृजन की तिथि) को या उसके बाद भारत आया हो। इससे स्वत: उन लाखों मुस्लिमों को भारतीय नागरिकता मिल गई जो पूर्वी पाकिस्तान से आए थे। तब से सेकुलरवाद की आड़ में अवैध बांग्लादेशियों की घुसपैठ जारी है और उन्हे देश से बाहर निकालने की राष्ट्रवादी मांग को फौरन सांप्रदायिक रंग देने की कुत्सित राजनीति भी अपने चरम पर है। ऐसी मानसिकता के रहते भारत की बहुलतावादी संस्कृति की रक्षा कब तक हो .

मंदिरों की कमाई पर कब्जे की फिराक में सरकार

महाराष्ट्र सरकार की नजर अब मंदिरों पर है। दो मंदिरों का संचालन करके मलाई काट रही सरकार अब प्रदेश के दो लाख मंदिरों पर नजरें गड़ाए हुए है। अशोक चव्हाण की सरकार ने प्रदेश के तकरीबन दो लाख से भी ज्यादा मंदिरों को अपने कब्जे में लेने के लिए एक व्यापक प्रस्ताव तैयार किया है। सरकार का कहना है कि पब्लिक ट्रस्ट एक्ट के तहत जिन दो लाख मंदिरों का संचालन हो रहा है, उनके संचालन में गड़बड़ी की शिकायतें है।

इन मंदिरों के फंड में बडे पैमाने पर भ्रष्टाचार भी हो रहा है। सरकार का कहना है कि उसने इन मंदिरों के संचालन पर नजर रखने के लिए भले ही चैरिटी कमिश्नर की नियुक्ति कर रखी है। लेकिन मंदिरों के भ्रष्टाचार को रोकने में चैरिटी कमिश्नरी भी फेल रही है। इसीलिए सरकार इन मंदिरों का संचालन करने और उनकी निगरानी रखने के लिए एक सरकारी ट्रस्ट का गठन करेगी, जिस पर सीधे सरकार का नियंत्रण होगा।

महाराष्ट्र सरकार के इस प्रस्ताव पर बवाल मच गया है। बवाल इसलिए, क्योंकि मामला नीयत का है। सरकार का यह प्रस्ताव, कहीं पे निगाहें - कहीं पे निशाना, जैसा लग रहा है। जो लोग जानकार है, और ऐसे प्रस्तावों के असली उद्देशय से अच्छी तरह वाकिफ हैं, वे यह भी अच्छी तरह जानते हैं कि सरकार ने यह प्रस्ताव तो तैयार कर लिया है, पर नीयत साफ नहीं लग रही। कुल मिलाकर मामला कमाई का है। महाराष्ट्र के मंदिरों में भी देश के बाकी हिस्सों की तरह पैसा खूब बरसता है। खासकर जैन मंदिरों में सालाना अरबों रूपयों का चढ़ावा आता है। प्रदेश में जैन मंदिरों बहुत बड़ी संख्या में हैं। लगातार नए जैन मंदिरों का निर्माण भी बहुत तेजी से हो रहा है। पिछले कुछेक सालों का आंकड़ा देखें तो, सिर्फ मुंबई और आस पास के इलाकों में ही सालाना डेढ़ सौ सो भी ज्यादा जैन मंदिरों का निर्माण हो रहा है।

सरकार की इस कोशिश पर सबसे पहले एतराज जताया मलबार हिल के विधायक मंगल प्रभात लोढ़ा और शिवसंनै की नीलम गोरे ने। यह प्रस्ताव तैयार करने वाले महाराष्ट्र के कानून मंत्री राधाकृष्ण विखे पाटिल को एक पत्र भेजकर विधायक लोढ़ा ने इन करीब दो लाख मंदिरों को सरकारी कब्जे में लेने के प्रस्ताव का जोरदार विरोध किया। विधायक लोढ़ा ने सरकार से यहां तक कह दिया है कि सरकार को अगर भ्रष्टाचार की इतनी ही चिंता है तो सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार तो सरकार में है। सो, सबसे पहले सरकार को ही मंदिरों की तरह किसी ट्रस्ट को सौंप देना चाहिए। लोढ़ा ने चेतावनी देते हुए कहा सरकार से कहा है कि मंदिरों को कब्जे में लेने के बारे में सरकार अपना प्रस्ताव तत्काल वापस ले, वरना अंजाम ठीक नहीं होगा। नीलम गोरे भी भन्नाई हुई पहुंच गई मंत्री के दरवाजे पर और खूब सुनाकर आ गई। दोनों ही विधायक अपनी मजबूत छवि के मुताबिक सरकार को धमका कर आगे की तैयारी में है। लेकिन सरकारों पर ऐसी धमकियों का अगर कहां होता है। वे तो अपने सारे आंख - नाक – कान बंद कर के राज किया करती है। पर, वह जरूर सुनती है, जो उनको सुनना होता है।

सबसे बड़ा सवाल यह है कि जो सरकार अपने कब्जे के दो मंदिरों का संचालन भी ईमानदारी से नहीं कर सकती, वह दो लाख मंदिरों का संचालन कैसे करेगी, यह सभी अच्छी तरह जानते हैं। और यह इसलिए जानते हैं कि मुंबई का सिद्धि विनायक मंदिर और शिर्ड़ी का सांई बाबा मंदिर महाराष्ट्र के सीधे कब्जे में हैं। इन दोनों ही बहुत प्रतिष्ठित और श्रद्धा के सबसे बड़े स्थलों की हालत सरकार ने क्या कर रखी है, और यहां के चढ़ावों की कमाई का किस तरह उपयोग होता है, यह महाराष्ट्र की आम जनता अच्छी तरह जानती है। इसीलिए मंदिरों को सरकार ने कब्जे में लेने की जो तैयारी की है, उसके परिणाम बहुत खतरनाक साबित होंगे, यह साफ लग रहा है।

दरअसल, सरकार का यह प्रस्ताव को जनता की धार्मिक भावनाओं के साथ बहुत बड़ा खिलवाड़ है। धार्मिक स्थल हमारी भावनाओं के प्रतीक और आस्था के स्थल हैं। लाखों लोग अपनी आस्था की वजह से मुंबई के सिद्धि विनायक मंदिर और शिर्ड़ी के सांई बाबा मंदिर में चढ़ावा चढ़ाते हैं। लेकिन सरकारी नियंत्रण वाले इन मंदिरों की आय में से सालाना करोड़ों रुपया नेताओं के अपने ट्रस्टों और उन संस्थाओं को जाता है, जिनसे श्रद्धलुओं को कोई लेना – देना नहीं होता। दक्षिण भारत के तमिलनाड़ु, आंध्र प्रदेश और कर्नाटर राज्यों के कई मंदिर सरकारी ट्रस्टों के कब्जे में हैं। और पूरा देश जानता है कि उन मंदिरों में श्रद्धालुओं द्वारा पूरी आस्था के साथ चढ़ाई गई भेंट – पूजा से इकट्ठा हुआ करोड़ों रुपया वहां के मदरसों को अनुदान के रूप में सरकारें दे देती है। पर, कोई कुछ नहीं कर पाता। क्योंकि उन मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण है। चार साल पहले राजस्थान में भी तत्कालीन भाजपा सरकार ने ऐसा ही एक कमाऊ प्रस्ताव तैयार करके मंदिरों पर सरकारी कब्जा करने की कोशिश की थी। लेकिन जनता के जोरदार विरोध के सामने वसुंधरा राजे जैसी हैकड़ीबाज और जबरदस्त जननेता की छवि वाली मुख्यमंत्री को भी आखिर झुकना पड़ा था। तो, फिर महाराष्ट्र में तो सोनिया गांधी की मेहरबानी से खैरात में मिली कुर्सी पर मजे मार रहे अशोक चव्हाण मुख्यमंत्री हैं। जिनके ना तो पीछे कोई जनता है, और ना ही आगे कोई जानता है कि कल वे कहां होंगे। सो, मंदिरों के अधिग्रहण के इस संवेदनशील मुद्दे पर शोक चव्हाण को झुकना ही पड़ेगा, यह तय है।

लोग तो भक्ति में भावुक और आस्था से ओत-प्रोत होकर धर्म का मार्ग प्रशस्त करने के लिए मंदिरों का निर्माण कर रहे हैं। और सरकार में बैठे नेता हैं कि हमारी पूजा की प्रतिमाओं को ही अपनी कमाई का जरिया बनाने पर उतर गई है। माना कि महाराष्ट्र की आर्थिक हालत कोई बहुत अच्छी नहीं है। सरकार चलाने को पैसा बहुत चाहिए। और सरकार में बैठे लोगों का अपना पेट भी कोई कम छोटा नहीं होता। लेकिन मंदिरों पर तो हक जताने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। घर में भुखमरी अगर कुछ ज्यादा ही फैल जाए, फिर भी लोग अपने दादा – पड़दादा की फोटू बेचकर तो पेट पालने से परहेज करते है। लेकिन यहां तो हालात यह है कि मंदिरों पर भी हाथ साफ करने की कोशिश चल रही है। सरकारों की लिए कमाई के रास्ते बहुत बड़े और बहुत लंबे होते हैं हुजूर....., इन मंदिरों को बख्श कर कोई और जेब ढूंढिए। बात गलत तो नहीं...?

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

पाकिस्तान में हिंदुओं का अस्तित्व संकट में

इस्लाम में सबसे अधिक पुण्य प्यासे को पानी पिलाने में है। किसी की प्यास बुझाना सबसे बड़ा सद्कर्म है। इसके पीछे एक लम्बा इतिहास है। पैगंबर हजरत मोहम्मद के नवासे हजरत इमाम हुसैन को यजीद ने करबला के मैदान में धोखे से बुलाकर तीन दिन तक भूखा-प्यासा रखा। दानवता की अंतिम सीमा लांघते हुए जालिमों ने इमाम हुसैन के छोटे पुत्र 6 महीने के अली असगर तक को पानी नहीं दिया। अली असगर ने प्यास से तड़पते हुए दम तोड़ दिया। इमाम हुसैन के जितने बंदे करबला पहुंचे थे उन्हें भी इब्ने जियाद की सेना ने पानी से वंचित रखा। मोहर्रम की दस तारीख को अंतत: इमाम हुसैन को प्यासा ही शहीद कर दिया गया। तब से दुनिया भर के मुसलमान प्यासे को पानी पिलाने में सबसे बड़ा सवाब यानी पुण्य मानते हैं।

लेकिन पिछले दिनों सिंध के एक छोटे से देहात मेमन गोथ में एक हिंदू लड़के ने अपनी प्यास बुझाने के लिये एक मस्जिद के बाहर लगे वाटर कूलर से पानी पी लिया। जब यह समाचार गांव में फैला तो कबीले के नाराज लोगों ने हिंदुओं के 450 परिवारों पर हमला बोल दिया। 60 हिंदू पुरुष और महिलाएं अपने बच्चों के साथ घर छोड़कर भागने को मजबूर हो गई। मीरूमल नामक एक हिंदू ने पाकिस्तानी अंग्रेजी दैनिक द न्यूज को बताया कि खेतों में मुर्गियों की देखभाल करने वाले मेरे बेटे दानिश ने एक मस्जिद के बाहर लगे कूलर से पानी पी लिया तो कयामत टूट पड़ी। नाराज मुसलमानों ने हमारी बस्ती के सात लोग जिनमें सामो, मोहन, हीरो, चानू, सादू, हीरा और गुड्डी शामिल है, को बुरी तरह से पीटकर घायल कर दिया। समाचार पत्र एक अन्य हिंदू हीरा के हवाले से लिखता है कि बस्ती के 400 हिंदू परिवारों को अन्यत्र चले जाने के लिए धमकाया जा रहा है। भयभीत हिंदू समीप की एक गोशाला में शरण लेने को बाध्य हैं।

संपूर्ण घटना पर मेमनगोथ के पुलिस प्रभारी का कहना है कि स्थानीय लोगों में शिक्षा के आभाव की वजह से एक छोटी सी बात को लेकर इतनी बड़ी घटना घट गई है। पुलिस ने उन्हें आश्वासन दिया है कि हिंदू लोग जब भी चाहें, गांव वापस लौट सकते हैं। उन्हें पूरी सुरक्षा दी जायेगी। घायलों को जिन्ना अस्पताल ले जाया गया है। स्थानीय पुलिस की तर्ज पर सिंध के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मोहन लाल ने भी हिंदू समुदाय को आश्वासन दिया है कि मैंने जिला पुलिस प्रशासन को हिदायत दी है कि सुरक्षा के पुख्ता प्रबंध किए जाएं। लेकिन घबराया हिंदू किसी पर विश्वास नहीं कर पा रहा है। मामले का सबसे दुखद पक्ष यह है कि सिंध की विधानसभा अथवा पाकिस्तान की नेशनल असेम्बली में इस घटना की निंदा के संदर्भ में एक भी शब्द नहीं बोला गया है।

यही कारण है कि पाकिस्तान के हिंदुओं में असुरक्षा की भावना बढ़ती जा रही है। उन्हें इस बात का भय है कि देश के कट्टर मुसलमान तालिबान का सहारा लेकर पाकिस्तान को एक हिंदू रहित राष्ट्र बनाने को आतुर हैं। पाकिस्तान के मुसलमानों के सामन ताजा उदाहरण कश्मीर का भी है जहां अमरनाथ यात्रा को हमेशा के लिए बंद करने का शडयंत्र घाटी के अलगाववादी तत्वों ने पाकिस्तानी तालिबान से मिलकर रचा था। कश्मीरी पंडितों से घाटी किस प्रकार खाली करवा ली गई, यह बात भी रह-रहकर पाकिस्तानी हिंदुओं में बेचैनी पैदा करती है।

सन् 1947 में जब देश का विभाजन हुआ था, उस समय पश्चिमी पाकिस्तान की कुल आबादी 4 करोड़ के आस-पास थी। सिंध उस समय हिंदू बहुल था ही, पंजाब, फ्रंटियर और बलूचिस्तान में भी हिंदू आबादी अच्छी-खासी संख्या में थी। विभाजन होते ही धर्मांधता की आंधी चली और लाखों लोग इधर से उधर हुए। पाकिस्तान के हिंदू असुरक्षा के कारण भारत चले आए। भारत से लाखों मुसलमान पाकिस्तान गए और वे आज भी वहां मुहाजिर के रूप में जीवन जीने को विवश है। वस्तुत: विभाजन के समय पंजाब और बंगाल की तरह सिंध का भी विभाजन होना था। सिंध प्रांत के तत्कालीन मुख्यमंत्री अल्लाबख्श सुमरो ने यह मांग उठाई थी। उनकी मांग के समर्थन में जोधपुर नरेश ने यह आश्वासन दिया था कि जोधपुर रियासत के तीन जिलों, सिंध का कराची तथा थारपारकर जिला मिलाकर पांच जिलों के आधार पर हिंदू बहुल सिंध की रचना हो सकती है। किंतु सिंध के विभाजन का पण्डित नेहरू ने कड़ा विरोध किया। जब अल्लाबख्श सुमरो ने आंदोलन की धमकी दी तो पण्डित नेहरू ने मौलाना आजाद की अध्यक्षता में एक सदस्यीय आयोग का गठन कर दिया। इस आयोग ने अपनी एक पन्ने की रपट में निर्णय दे दिया कि चूंकि सिंध प्रांत के विभाजन की कोई मांग नहीं है अतएव विभाजन नहीं किया जाएगा। बाद में मोहम्मद अली जिन्ना के इशारे पर अल्लाबख्श सुमरो की गोली मारकर हत्या कर दी गई। इस प्रकार कराची और थारपारकर के हिंदू अनाथ बना दिए गए। विभाजन के समय उनका कत्लेआम हुआ।

विभाजन के समय फ्रंटियर प्रांत को पाकिस्तान में न शामिल करने की मांग खान अब्दुल गफ्फार खां ने उठायी थी। उन्होंने तब गांधीजी के समक्ष अपनी वेदना प्रकट करते हुए कहा था कि आज हमें इन भेड़ियों के समक्ष क्यों फेंक रहे हो। लेकिन उनकी भी एक न सुनी गयी। इस प्रकार सीमांत प्रदेश के हिंदुओं को भी कत्लेआम हुआ।

पाकिस्तान बनने पर वहां के हिंदुओं की दुर्दशा के बारे में हमारे नेताओं ने सदा से ही चुप्पी साध रखी है। आजादी के बाद पंजाब में हिंदुओं पर कहर ढाया जाने लगा। धीरे-धीरे उनका पंजाब से पलायन होने लगा। जो लोग वहां बचे, या तो उनका धर्मांतरण हो गया, या फिर किसी न किसी बहाने उनकी हत्याएं की गईं।

इस प्रकार के हालात में जालंधर में शरणार्थी के रूप में रह रहे एक पाकिस्तानी हिंदू ने अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा कि पाकिस्तान में 15 से 20 लाख हिंदू और सिख समुदाय के लोग जबर्दस्त आर्थिक, धार्मिक और सामाजिक प्रताड़ना के शिकार हुए हैं। विभाजन के समय जो लोग अपनी धरती, घर-संपदा के मोह में वहां रह गए थे, आज वे सभी पाकिस्तान छोड़कर भारत आने के लिए उतावले हैं। जब से पाकिस्तान बना है, हिंदुओं और सिखों का पलायन जारी है। वहां से लोग किसी प्रकार से भागकर भारत में राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली और गुजरात में अपने सगे-संबंधियों के पास शरण ले रहे हैं।

जालंधर में आज ऐसे 200 परिवार रहते हैं। इन्हें भारत में आए 10 से 15 साल बीत चुके हैं लेकिन अभी तक उन्हें भारत की नागरिकता नहीं मिली है। पाकिस्तान के पेशावर से सन् 1998 में जालंधर आए सम्मुख राम ने बातचीत में कहा कि पाकिस्तान में हिंदुओं के हालात बदतर हैं। हमारे पास ना तो कोई अधिकार है और ना ही कोई सुविधा। यही कारण है कि कराची और स्यालकोट के 15 से 20 लाख हिंदू और सिख पाकिस्तान छोड़कर भारत आना चाहते हैं। सम्मखराम का यह भी कहना है कि जो हिंदू पाकिस्तान से भारत आ चुके हैं, वह अब कदापि पाकिस्तान नहीं जाएंगे क्योंकि अब भारत ही हमारा वतन है। 70 साल के मुल्कराज का कहना है कि सरकार की शह पर हमारे मंदिर और गुरूद्वारे पाकिस्तान में तोड़े जा रहे हैं। मेरे भाई का कारोबार केवल इसलिए बंद करा दिया गया क्योंकि मैं यहां भारत आ गया हूं। कराची और थारपारकर जो कभी हिंदू बहुल जिले हुआ करते थे, आज वहां दूर-दूर तक कोई हिंदू देखने को नहीं मिलता है।

इन पाकिस्तानी हिंदुओं का यह भी कहना है कि पाकिस्तानियों को दिल खुश करने के लिए वाघा सीमा पर हर 15 अगस्त को मोमबत्तियां लेकर भारत के तथाकथित बुध्दिजीवी अवश्य उपस्थित होते हैं लेकिन भारत से हम हिंदुओं को दुखड़ा सुनने के लिए एक भी बुध्दिजीवी कभी क्यों नहीं आता। उनका यह भी कहना है कि मुर्दा जिन्ना का प्रचार तो बहुत है लेकिन हम जीवित हिंदुओं की सुध लेने वाला कोई नहीं है।

वास्तव में आज विचार करने की जरूरत है कि जब पाकिस्तान में हिंदू नहीं होगा तो फिर मुल्तान यानी मूल स्थान पर जाकर भक्त प्रहलाद के मंदिर का पुनरोद्धार कौन करवाएगा। तक्षशिला, मोहनजोदड़ों और हड़प्पा की सभ्यता को पाकिस्तान में कौन अपनी विरासत कहेगा। तब पाकिस्तान में न तो पाणिनी को याद करने वाले होंगे और ना ही कोई सोनी महिवाल की कब्र पर जाकर प्रेम की मनौती के मटके चढ़ाएगा। आज मुख्य मुद्दा यह नहीं रह गया है कि पाकिस्तान में कितने हिंदू शेष हैं, प्रमुख विचारणीय प्रश्न यह है कि हिंदू विहीन पाकिस्तान में तालिबान की सरकार कब स्थापित होती है।

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

मणिपुर की स्थिति से उदासीन भारत सरकार

मणिपुर में ज्यादातर मैतेयी लोग रहते हैं। मैतेयी वैष्णव सम्प्रदाय के उपासक हैं। वैष्णव में भी वे कृष्ण भगत है। मणिपुर के साथ ही नागालैंड लगता है। मणिपुर में प्रवेष का रास्ता इसी नागालैंड से होकर जाता है। राष्ट्र्ीय राज मार्ग 39 जिसे इम्फाल-दीमापुर राजमार्ग कहा जाता है एक प्रकार से मणिपुर की प्राण रेखा है। इसी प्रकार राष्ट्रीय राजमार्ग 53 जिसे इम्फाल सिलचर राजमार्ग कहा जाता है मणिपुर की दूसरी प्राण रेखा है। यह दोनों राजमार्ग नागालैंड में से होकर गुजरते है। जाहिर है मणिपुर जाने के लिए नागालैंड में से गुजरना ही होगा। और मणिपुर से किसी और स्थान पर जाने के लिए भी नागालैंड में से होकर ही जाना होगा। यह तो रही भूगोल की बात। अब संस्कृति के बात करें।

अंग्रेजों के वक्त से ही यह प्रयास चला आ रहा है कि पूर्वोत्तर भारत के सभी राज्यों, जिन्हें अब सात बहने कहा जाता है, को ईसाई मत में दीक्षित कर दिया जाये। यदि यह काम ठीक ढंग से हो जाये तो भारत के पूर्वोत्तर में एक अलग इसाई राज्य, जिसे सुविधा से चर्चस्तान भी कहा जा सकता है, स्थापित किया जाये। पश्चिमोत्तर में पाकिस्तान और पूर्वोत्तर में चर्चस्तान। लेकिन अंग्रेज केवल पाकिस्तान ही बना पाये, चर्चस्तान का उनका स्वप्‍न अधूरा रह गया। अलब्बता उनके चले जाने के बाद भी चर्च ने इन सात राज्यों में मतांतरण का अपना काम पूरी तेजी से जारी रखा। भारत सरकार ने भी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से इस काम में चर्च की भरपूर सहायता की भारत सरकार इसे जनजातिय संस्कृति बचाने का नाम दे रही थी और चर्च इसे जन जातियों को सभ्य बनाने का अभियान बता रहा था। लेकिन कुल मिला कर चर्च ने नागालैंड, मेघालय,मिजोरम इत्यादि को तो इसाई बना ही लिया। मणिपुर में भी कुछ जनजाति के लोग चर्च की शरण में चले गये लेकिन बहुसंक्ष्यक मैतायी लोगों ने अपना सम्प्रदाय और आस्था छोड़कर इसाई होने से इंकार कर दिया। कई दशक पहले मैतई लोगों में से भी कुछ गुसैल युवकों ने जनमुक्ति सेना का गठन कर लिया था। और अलगाववादी चेतना का अभियान चलाया था। इस मक्तिसेना के सेनानायक विश्वनाथ पकड़े गये थे और जेल में मौत की प्रतिक्षा कर रहे थे। लेकिन किसी घटनाक्रम में वे जेल से छुट गये और बाद में उन्होंने मणिपुर विद्यानसभा का चुनाव लड़ा और उसमें जीत भी गये। विश्वनाथ ने जेल में रहते हुए अपनी आत्मकथा लिखी थी जो बाद में प्रकाशित हुई।

उसमें उन्होंने कहा था कि केन्द्र सरकार पूर्वोत्तर भारत में चर्च को सभी सुविधाएं प्रदान कर रही है। लेकिन मणिपुर के मैतयी लोगों से हर क्षेत्र में भेदभाव हो रहा है। उनके मानवाधिकारों की बात तो छोड़िये उनके दैनिक जीवन से भी खिलवाड़ किया जा रहा है। इसके आगे विश्वनाथ ने इस भेदभाव के कारण का खुलासा किया। उनके अनुसार केन्द्र सरकार मैतयी लोगों से भेदभाव कर रही है, उनकी उचित मांगों पर भी कान नहीं धर रही इसका एकमात्र कारण यही है कि मैतयी हिन्दु है और चर्च के तमाम प्रलोभनों के बावजूद वे इसाई नहीं बने। यदि मैतयी आज इसाई बन जाते हैं तो केन्द्र सरकार उन पर भी रहमतों की बोछार कर देगी।

इस पृष्ठ भूमि में पिछले तीन महीनों से मणिपुर में जो कुछ हो रहा उसे समझने का प्रयास करना होगा। नागालैंड में नैश्नलिस्ट सोशलिस्ट कॉसिल आफ नागालैंड पिछले कई दशकों से नागालैंड को भारत से अलग करवाने का हिंसक आंदोलन चला रहा है। इस आंदोलन को पश्चिमी देशों से पैसा तो मिलता ही है चर्च भी इसकी भरपूर सहायता करता है। इस आंदोलन के महासचिव टी0 मोबहा मणिपुर के कुछ जिलों को भी नागालैंड में शामिल करवाने चाहते हैं ताकि स्वतंत्र ग्रेटर नागालैंड की स्थापना की जा सके। जाहिर है कि मणिपुर के लोग इसका विरोध करते हैं। लेकिन केन्द्र सरकार इसी टी0 मोबहा से दिल्ली में या दिल्ली से बाहर पांच सितारा होटलों में आमतौर पर लम्बी लम्बी बात चीत करती रहती है। इस बार मोबहा ने मणिपुर के उन्हीं जिलों में जाने की इच्छा व्यक्त की जिन्हें वे ग्रेटर नागालैंड में शामिल करवाना चाहते हैं। भारत सरकार ने तो इसकी सहर्ष अनुमति दे दी। परन्तु मणिपुर के मुख्यमंत्री इवोवी सिंह चर्च के इस षडयंत्र को अच्छी तरह समझते हैं इसलिए उन्होंने मोहबा को इन जिलों में स्थित उसके गॉव में जाने की अनुमति नहीं दी। नागालैंड में चर्च की अगुवाई में मणिपुर को जाने वाले दोनों राजमार्गो को घेर लिया और वहा आवाजाही बंद कर दी। इन राजमार्गों के बंद होने से एक प्रकार से मणिपुर की प्राण रेखा अवरूध होर् गई वहॉ खाने पीने के चिजों दवाईयों और हर प्रकार के समान का संकट शुरू हो गया। नागालैंड में चर्च द्वारा मणिपुर की यह घेरा बंदी 11 अप्रैल को प्रारम्भ हुई थी लेकिन केन्द्र सरकार ने इसका नोटिस लेना जरूरी नहीं समझा क्योंकि नोटिस लेने का अर्थ होता नागालैंड में चर्च को और इटली में पोप को नाराज करना। दिल्ली में हरियाणा के लोगों ने एक दिन के लिए मार्ग बंद करके पानी की किल्लत पैदा की थी। केन्द्र सरकार ने दूसरे दिन ही बल प्रयोग करते हुए और बातचीत का रास्ता अपनाते हुए स्थिति सामान्य कर दी परन्तु मणिपुर दिल्ली नहीं है और इम्फाल में दिल्ली जैसे धन्ना सैठ और राजनीति में शातिर लोग नहीं रहते। वहाँ सीधे साधे और भले मैतयी लोग रहते हैं। जो तमाम प्रलोभनों के बावजूद अपनी आस्था को नहीं छोड़ रहे। क्योंकि वे अपनी आस्था नहीं छोड़ रहे इसलिए भारत सरकार ने उन्हें नागालैंड के चर्च के रहमोंकरम पर छोड़ दिया।

मणिपुर की घेरा बंदी का यह बांध 2 महीने से भी ज्यादा देर तक चला और 18 जून को तथाकथित रूप् से समाप्त हुआ। परन्तु उसका समाप्त होना कागजों पर ज्यादा है और धरातल पर कम मणिपुर से ट्र्क डाईवर ट्र्क लेकर बाहर नहीं जा रहे क्योंकि उनका कहना है अलगाववादी संगठनों के चर्च समर्थित गुंडे उनसे जबरदस्ती वसूली भी करते हैं और विरोध करने पर हत्या भी कर देते हैं। सहज कल्पना की जा सकती है कि मणिपुर किस नरक में से गुजर रहा है। परन्तु न तो भारत के प्रधानमंत्री के पास समय है और न ही गृह मंत्री चिदंम्बरम के पास होसला है िकवह मणिपुर जा कर वहाँ के लोगों का दु:ख दर्द समझते।

अलब्बता भारत सरकार नागालैंड को आजाद करवाने का स्वप्न पाले टी0 मोबहा से एक और बातचीत करने की तैयारी कर रही है। भारत सरकार का रवैया उसी प्रकार है जब वह भारत माता की जय कहने वाले जम्मू वासियों पर बंदूक की गोली चलाती है और भारत मुर्दाबाद कहने वाले कश्मीरी आतंकवादियों को तुष्ट करने का प्रयास करती है। मणिपुर में जय कृष्ण कहने वालों को घेर रही है और नागालैंड में भारतीय सैनिकों पर गोली चलाने वालों के आगे मिमिया रही है।

श्रीमन्त शंकरदेव की ??धन्य धन्य भारतवरषि??

शंकरदेव की वाणी को भूल जाना ही असम में उग्रवाद का कारण है। आज के ६५ वर्ष पूर्व मेरे जन्मगाँव लक्ष्मणगढ (राजस्थान) में बंगाल के चैतन्यदेव, पंजाब के नानकदेव तथा केरल के आदि शंकराचार्य को हिन्दी पाठ्यक्रम में मैने पढा था परन्तु शंकरदेव को नहीं। इसका मूल कारण था पूर्वोत्तर में प्रारम्भ से ही क्षेत्रीयतावाद यहाँ के समाज पर हावी रहा है। लागों ने इसी क्षेत्रीय भावना के कारण शंकरदेव को भी एक क्षेत्र के सीमित दायरे में बान्धे रखा। इस क्षेत्रवाद को यहाँ जातिवाद की संज्ञा दे दी गई, जबकि श्रीमन्त शंकरदेव ने आज के ५५० वर्ष पूर्व ही प्रखर राष्ट्रवाद के कवच में ही जातिवाद की रक्षा का पथ अपनाया था। उनकी अमरवाणी ?धन्य धन्य भारतवरषि? उसी राष्ट्रभाव की द्योतक है, ठीक वैसे ही, केरल में जन्मे आदि शंकर ने भी उदात्त राष्ट्रभाव से कहा था- ??दुर्लभो भारते जन्मा ः??
??दुर्लभो भारते जन्मा ः ?? उन्होंने केरले जन्मो दुर्लभ नहीं कहा। मैं ६५ वर्ष पूर्व की राजस्थान की बात कह रहा हूँ उस समय भारत स्वाधीन नहीं हुआ था- सारे भारत में छोटे छोटे देशीय राज्य थे। राजस्थान में भी सीकर नरेश, जयपुर नरेश, जोधपुर, बीकानेर नरेश छोटे छोटे राज्य हुआ करते थे। हमारे सीकर लक्ष्मणगढ के राजा कल्याण सिंह हमारी स्कूल श्री रघुनाथ विद्यालय का परिदर्शन करने आते तो उनके स्वागत में हम चार लडके स्वागतगान गाते थे -
??हम भारत माँ के बालक हैं हम विश्व शक्ति संचालक हैं?? हम राजपुतानी या हम मारवाडी बालक हैं - नहीं गाते थे अर्थात ??राष्ट्र?? ही सर्वोपरि था, परतंत्र भारत टुकडों-टुकडों में बँटा था परन्तु हमारी आस्था तो ??भारतराष्ट्र?? के अधिष्ठान पर ही टिकी थी। इसी प्रकार असम में भी देशी राजा थे परन्तु मूल अधिष्ठान तो अखण्ड भारतराष्ट्र ही था।
असम में भी ज्योति प्रसाद ने गाया था - ??विश्व विजयी नौजवान शोक्तिशाली भारोतोर ओलाइ आहा?? शंकरदेव ने भी कहा था मेरा जन्म इस महान् देश, आध्यात्मिक देश भारत में हुआ है मैं धन्य हूँ अर्थात् ??धन्य धन्य भारतवरषि?? इस क्षेत्रीय भावना में कुछ शंकरदेव के भक्त भी बहने लगे, और उनकी प्रशंसा में लिख डाला ??तोमार जीबोनि लिखे हेन साध्यो कार, ??सोमोस्तो ओसोम जुरि जीबोनी जाहार?? अर्थात् हे जयगुरु शंकरदेव आपकी जीवनी लिखना मेरे लिये साध्य नहीं है-असम्भव है-आपकी जीवनी तो पूरे असम में परिव्याप्त है। होना तो यह चाहिये था कि सोमोस्तो भारतजुरि अथवा सोमोस्तो ब्रह्माण्डो जुरि जीबोनी जाहार परन्तु हमने एक सीमाबद्ध दायरे में ही शंकरदेव, माधवदेव, हरिदेव, दामोदरदेव को बाँध कर रख दिया हे?? जिसका प्रतिफल है कि नाम तो ??भीमकान्त?? महाभारत के योद्धा के नाम पर परन्तु अपने महाभारतीय होने को नकारा जा रहा है नाम ?अरविन्द? जो भारत की ऋषि परम्परा का प्रतीक, उस नाम को सार्थक करने की बजाय आज अपने भारतीय होने को नकारा जा रहा है - जबकि उनके नाम, गोत्र सब भारतीय हैं महाभारतीय हैं उनके पितृ-मात्रि, पूर्वज सब भारतीय हैं- परम्परायें, मान्यतायें, आस्था के प्रतीक, कामाख्या, उमानन्द, ब्रह्मपुत्र, विशिष्ठ, परशुराम कुण्ड सभी तो पूरे भारत के तीर्थाटन करने आने वाले भारतीयों की आस्था के प्रतीक हैं।
फिर असम में यह अशान्ति क्यों - भारतमातृका की विरोधिता क्यों। वस्तुतः हम आज की भौतिक चकाचौंध में हमारी आस्था, हमारा भारतीय होने का गौरव भूल रहे हैं। हम भारतीयता के प्रति स्वाभिमानशून्य हो गये हैं। अतः हमे फिर आज शंकरदेव का स्मरण करना होगा। उनको हिन्दी के माध्यम से सम्पूर्ण भारत में प्रस्थापित करना होगा।
श्रीमन्त शंकरदेव की अमरवाणी का स्मरण करना होगा। हमें ऐसा माहौल वापस लाना होगा कि लोगों के मुख से एक स्वर में एक साथ चैतन्यदेव, नानकदेव, मीराबाईं, शंकरदेव, माधवदेव, हरिदेव, दामोदरदेव एक ही श्वाँस में उच्चारित हों। आज के ५५० वर्ष पहले असम के महान् वैष्णव आचार्य माधव कन्दली ने वाल्मीकि रामायण का असमिया संस्करण लिखा था उसमें अपनी मेधा से और अधिक जोड कर उसे अधिक सार्थक, सर्वजन हिताय लिखा था। उस काल खण्ड में असम में आचार्य महेन्द्र कन्दली के संस्कृत टोल में शंकरवर नाम के बालक को उनकी मातामही खेरसुती (सरस्वती) ने प्रविष्ट कराया था। उस समय असम में कन्दली ब्राह्मणों के अनेक संस्कृत टोल चल रहे थे, महेन्द्र कन्दली, रुद्रकन्दली, अनन्तकन्दली, हरिवर विप्र, हेम सरस्वती, राम सरस्वती आदि द्वारा व्यापक भारतीय संस्कृत-संस्कृति का पठन-पाठन होता था।
आचार्य महेन्द्रकन्दली ने नवागत शिष्य शंकरवर की प्रतिभा, उसके मुखमण्डल के तेज, उसकी अलौकिक प्रथम कविता,
करतल कमल
कमलदल नयन
भवदवदहन
गहनवन शयन
बिना मात्रा की कविता देखकर विस्मित होकर भावविभोर हो गये। गुरु महेन्द्र कन्दली ने पहचान लिया कि यह तो साक्षात् शंकर भगवान का वरदान स्वरूप जन्मा बालक भगवान शंकर का देव अवतार है सो शंकरवर के नाम के साथ देव जोड दिया और तब से ये शंकरदेव हो गये।
विद्याध्ययन के पश्चात् शंकरदेव ने सम्पूर्ण भारत का दो बार परिभ्रमण किया अनेक सन्तों, महात्माओं के साथ सत्संग किया जगन्नाथ पुरी में अपना पहला सत्र नामघर स्थापित किया, माधवदेव से मिलन हुआ और कलियुग केवल नाम अधारा की भावना से नामधर्म का प्रचार सम्पूर्ण असम में किया जिस प्रकार बंगाल में चैतन्यदेव ने किया और सम्पूर्ण भारत में मीराँ, कबीर नानक, नरसी मेहता सबने किया। आज असम में आठ सौ (८००) के करीब सत्र-नामघर प्रस्थापित हो चुके हैं। जहाँ नियमित गीता - भागवत - रामचरितमानस आदि ग्रन्थों का पठन-पाठन हो रहा है।
शंकरदेव की मुख्य वाणी
धन्य धन्य कलिकाल
धन्य नरतनु भाल
धन्य धन्य भातरवरिष
इस कलियुग में भगवान ने हमारी उम्र ही सौ वर्ष के अंक में बाँध दी है हमें हजारों वर्ष तपस्या नहीं करनी पडती। सत्ययुग में पाँच हजार वर्ष तपस्या करने पर जो प्राप्त होता था वह कलियुग में सौ वर्षों में ही हो जाता है अतः कलियुग धन्य है। फिर कहा धन्य नरतनुभाल-अर्थात् चौरासी लाख योनि कष्टमय कीट-पतंग, पशु-पक्षी योनियों का कष्ट भोगकर मुझे यह दुर्लभ मानव देह नरतनु-प्राप्त हुयी है- इसी मानवदेव के द्वारा ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है अतः धन्य नरतनु भाल।
इसके बाद में अन्तिम लिखा है ??धन्य धन्य भारतवरषि?? अर्थात् यह दुर्लभ मानव देह मुझे भारत में जन्म लाभ हुआ है। मैं धन्य हूँ। जिस भारत में जन्म लाभ करने के लिये देवता भी लालायित रहते हैं-जिस भारत में पापाचार अधर्म बढत ही स्वयम् परमात्मा अपना सृजन करते हैं-अवतार लेकर अवतरण करते हैं ??अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदात्मानम् श्ाृजाम्यहम्?? और एक बार नहीं बार-बार अवतरण करते हैं -
??सम्भवामि युगे युगे??
उस भारत में मैंने जन्म प्राप्त किया है मेरी पुण्य भूमि, मातृभूमि, पितृभूमि, धर्मभूमि, कर्मभूमि, तीर्थभूमि भारत में जन्मलाभ कर मैं धन्य हुआ अतः शंकरदेव कहते हैं ??धन्य धन्य भारवरषि??
शंकरदेव की यह अमरवाणी ??धन्य धन्य भारतवरषि?? असम वासी भूल गये हैं। इसी के कारण असम में भारत विरोधी भाव के स्वर कहीं कहीं उठ रहे हैं- ऐसे में हमें शंकरदेव की अमरवाणी के प्रचारार्थ असम के शंकरदेव, माधवदेव, हरिदेव, दामोदरदेव सत्रों सत्राधिकारों को सत्रों के बाहर आकर लोगों का शंकरदेव की वाणी गायेंगे असम में विराज रही सारी समस्याएँ स्वतः समाप्त हो जायेंगी आज सम्पूर्ण असम में ही नहीं सम्पूर्ण भारत के स्कूलों में हिन्दी पाठय्क्रम के साथ श्रीमन्त शंकरदेव जीवन कृतित्व और संदेश नामक हिन्दी ग्रन्थ को भारत की सर्वश्रेष्ठ धार्मिक प्रेस गीता प्रेस गोरखपुर ने मात्र ८/- में प्रकाशित किया है-असम प्रेमी शिक्षानुष्ठानों के संचालकों का यह पहला कर्त्तव्य है कि सर्वजन हिताय भी शंकरदेव की यह पुस्तक मात्र ८/- में खरीदने को हर स्कूल अपने छात्रों को प्रेरित करे। शंकरदेव को जानना असम को जानना है।

पूर्वोत्तर में कृष्ण भक्ति का आलम

मणिपुर में कृष्ण भक्ति का आलम यह है कि वहाँ हर तरफ कृष्ण मंदिर बने हैं। अलगाववादी संगठन लाख भारत से अलग होने की माँग करें पर यहाँ के लोग मथुरा, वृंदावन और द्वारका से कुछ ऐसे जुड़े हैं कि उनके लिए भारत से अलग होना असंभव है।

महाभारत कालीन कथाओं को केंद्र में रखकर असम के लोग आज भी भावना, रास और अंकिया नाट्य शैली के माध्यम से अपनी भक्ति भावना को प्रदर्शित करते हैं और उन भावनाओं में जीते हैं। भारत के केंद्रीय हिस्सों से दूर होने के बावजूद राष्ट्रीय एकता और अखंडता की भावना से यहाँ के लोगों को जोड़े रखने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है।

'भावना', रास और अंकिया नाटकों में महाभारत में दर्ज कृष्ण-लीला और दूसरे धार्मिक प्रसंगों को गायन और नृत्यशैली में मंचित किया जाता है जिन्हें देखने के लिए भक्तिभाव से ओतप्रोत हजारों लोगों के कदम खुद ब खुद प्रदर्शन स्थल की ओर उठ चलते हैं। उल्लेखनीय है कि महाभारत के विभिन्न पात्रों और घटनाओं से पूर्वोत्तर भारत के लोग अपनों-सा जुड़ाव महसूस करते हैं। कहते हैं कि श्रीकृष्ण की पत्नी रुक्मिणी अरुणाचल प्रदेश की थीं तो अर्जुन की पत्नी उलूपी नगालैंड की। श्रीकृष्ण के पोते अनिरुद्ध ने असम के राजा वाण को युद्ध में पराजित कर उनकी बेटी उषा के संग विवाह किया था महाभारत के पात्रों के संग असम के लोगों का यह जुड़ाव आज भी जीवित है और उनके साथ जीवित है 'भावना'।


भावना में पशु-पक्षियों की भूमिका अदा करने के लिए मुखौटों का प्रयोग होता है। इस गीति-नाट्य प्रस्तुति में सूत्रधार की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। इसका प्रदर्शन खुले मंच पर होता है। अन्य नाटकों की तरह इसमें भी भड़कीले-गाढ़े मेकअप और पोशाकों का प्रयोग होता है। कलाकार पूरे जोश में घूम-घूमकर संवाद बोलते हैं। इसे देखकर पारसी नाट्य शैली की याद आ जाती है।

भावना का मंचन हमेशा और हर जगह नहीं होता बल्कि कुछ खास मौके ही इसके लिए चुने जाते हैं। भावना की शुरुआत 14वीं सदी में असम के संत श्रीमंत शंकर देव ने की थी। उन्होंने असम के सभी समुदायों के लोगों को एक मंच पर लाने के लिए शंकरी मत की स्थापना की तथा नामघरों और सत्रों की स्थापना की। उनका जोर विश्वास और प्रार्थना पर था। वे आध्यात्मिकता के साथ सांस्कृतिक और सामाजिक समरसता में ज्यादा यकीन करते थे। अपने मत के प्रचार के लिए उन्होंने एक नाट्यशैली प्रचलित की, उसे विकसित किया और उसे भावना तथा अंकिया नाट का नाम दिया। उन्होंने करीब दस वर्षों तक देश के सभी प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों का दौरा किया तथा 'भागवत' की रचना की। इसके लिए उन्होंने असमिया लिपि में ब्रज और मैथिली भाषा का उपयोग किया।

यही वजह है कि शंकरदेव द्वारा रचित नामघोपा कीर्तन में ब्रज और मैथिली शब्दों की भरमार है। श्रीमंत शंकर देव ने ब्रह्मपुत्र के मध्य स्थित नदी द्वीप माजुली में सत्रों और नामघरों की रचना की और मातृभूमि सबसे बड़ी मां है का संदेश दिया। समस्त भारत एक है की भावना को प्रबल किया। कालांतर में उन्होंने सत्रों को अध्यात्म, संस्कृति और कर्म संस्कृति के केंद्र के रूप में विकसित किया। प्रार्थना के लिए बरगीत (धार्मिक गीत) की रचना की और उसके सुर बनाए तथा उसके साथ बजाए जाने वाले वाद्ययंत्रों का भी निर्धारण किया। सत्रों में युवक और युवतियों को समूह में लाया गया और उन्हें विशेष प्रशिक्षण दिया गया।

इस क्रम में उन्होंने लोगों के मन में भारतीय सांस्कृतिक एकता का बीज भी बो दिया। पूर्वोत्तर का शेष भारत के साथ बना हुआ सांस्कृतिक और धार्मिक संबंध अलगाववाद के सफल न हो पाने की बड़ी वजह है। आज असम में करीब पैंसठ सत्र हैं। उनमें माजुली के चार सत्रों का विशेष महत्व हैं। सत्र में रहने वाले छात्र-छात्राएँ सिर्फ प्रार्थना नहीं करते। उन्हें खेतों में काम करना होता है। गाय चराने होते हैं। प्रार्थना, बहस और अध्ययन के अलावा सत्रीया नृत्य, भावना अंकिया नाट की भंगिमा, मंचन की अन्य कलाओं के साथ इस मौके पर बजाए जाने वाले वाद्ययंत्रों के प्रयोग का प्रशिक्षण भी लेना होता है। हर सत्र में एक खास तरह की हस्तकला मसलन मुखौटे, नाव आदि बनाने का का भी प्रशिक्षण दिया जाता है।

शंकरदेव दर्शन के विद्वान डॉ. पीतांबर देव गोस्वामी का मानना है कि जब तक असम में सत्र सक्रिय रहेंगे, 'भावना' जीवित रहेगी और शेष भारत के साथ असम का संबंध बना रहेगा। वे मानते हैं कि असम के लोग राजनीति से ज्यादा सांस्कृतिक रूप से शेष भारत के साथ इस तरह जुड़े हुए हैं कि उन्हें कोई अलग नहीं कर सकता है। वे मानते हैं कि असम के सत्र राष्ट्रीय अखंडता बनाए रखने में मूक भूमिका निभा रहे हैं।

भावना, मुखौटे का निर्माण, परंपरागत वाद्ययंत्रों के विकास और संरक्षण में गुवाहाटी में स्थापित श्रीमंत शंकरदेव कलाक्षेत्र का उल्लेखनीय योगदान कर रहा है। वहां की दीवालों पर की गई पेंटिंग और संग्रहालय के माध्यम से असमिया संस्कृति को सहेजकर रखा गया है।
कलाक्षेत्र के सचिव गौतम शर्मा ने बताया कि सत्रीय नृत्य को भारतीय शास्त्रीय नृत्य में शामिल करने के प्रयास चल रहे हैं।

शंकरदेव के दर्शन में विश्वास करने वाला हर व्यक्ति जीवन में एक बार वृंदावन जरूर जाना चाहता है। वृंदावन के लिए असम से निकलने वाले यात्रियों की संख्या को देखते हुए ही रेलवे ने गुवाहाटी से द्वारका तक की नियमित रेल सेवा शुरू कर दी है। मणिपुर के मैतेई लोगों के लिए भी वृंदावन सबसे पवित्र तीर्थ स्थल है। मणिपुर में कृष्ण भक्ति का आलम यह है कि वहां हर तरफ कृष्ण के मंदिर बने हुए हैं। अलगाववादी संगठन लाख भारत से अलग होने की मांग करें पर मैतेई लोग मथुरा, वृंदावन और द्वारका से कुछ इस कदर जुड़े हैं कि उनके लिए भारत से अलग महसूस करना संभव नहीं दिखता।

स्‍वाभिमानी राष्‍ट्र गुलामी के कलंकों को बर्दाश्‍त नहीं करते : आर्नोल्‍ड टॉयन्‍बी

आर्नोल्‍ड टॉयन्‍बी आधुनिक युग के सर्वश्रेष्‍ठ इतिहासज्ञ माने गये। वर्ष 1960 में वे भारत आये तथा उन्‍होंने तीन भाषण दिये। इन भाषणों में उन्‍होंने आश्‍चर्य व्‍यक्‍त किया कि काशी और मथुरा के जन्‍मस्‍थलों पर अभी भी मस्जिद बनी हैं तथा उन्‍हें हटाने का कोई प्रयास भी नहीं हुआ है। हम उनके भाषणों पर आधारित यह लेख यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं।

काशी की ज्ञानवापी मस्जिद, कृष्‍ण जन्‍मभूमि पर बनी ईदगाह तथा देश के मंदिरों को तोड़कर बनाई गई हजारों मस्जिदें राष्‍ट्रीय अपमान और गुलामी की प्रतीक हैं। औरंगजेब को काशी और मथुरा में मस्जिद बनाने के लिए और भी काफी स्थान थे। बाबर को भी मस्जिद बनाने के लिए पूरी अयोध्‍या थी लेकिन उसने श्रीराम-जन्‍मभूमि मंदिर को ध्‍वस्त कर उसी स्थान पर मस्जिद का ढांचा खड़ा करने की कोशिश की। इसी तरह औरंगजेब ने भी ज्ञानवापी मंदिर तथा श्रीकृष्‍णजन्‍मभूमि मंदिर के स्थान पर ही मस्जिदें बनवाई। स्पष्ट है कि ये मस्जिदें विदेशी हमलावरों की विजय और भारत की हार और अपमान के स्मारक हैं। कोई भी स्वाभिमानी और स्वतंत्र राष्ट्र गुलामी की निशानियों को सहेजकर नहीं रखता, बल्कि उन्‍हें नष्ट कर देता है।

रूसियों ने चर्च को ध्‍वस्‍त किया

भारत के शासकों की स्वाभिमान-शून्‍यता और निर्लज्‍जता ऐसी है कि वे इन शर्मनाक-स्मारकों की सुरक्षा में जुटे हुए हैं। वर्तमान सत्ताधीशों की सत्ता लोलुपता तो देखिए कि काशी और मथुरा के कलंकों की सुरक्षा के लिए उन्‍होंने कानून तक बना दिये हैं। यही नहीं काशी-विश्वनाथ में जलाभिषेक होता है तो सारे सेकुलर-सियार हू-हू करना शुरु कर देते हैं। मथुरा में यज्ञ करने की बात आती है तो आसमान सर पर उठा लिया जाता है। पूरी केन्‍द्र सरकार हरकत में आ जाती है, केन्‍द्रीय मंत्री मथुरा में पहुंच जाते हैं, जबकि इन मंत्रियों को कश्मीरी विस्थापितों की सुध लेने की याद तक भी नहीं आती है। एक ओर भारत के हुय्मरानों की यह ‘आत्‍म-गौरवहीनता’ है तो दूसरी ओर ऐसे राष्ट्रों के उदाहरण हैं जिन्‍होंने गुलामी के निशानों को जड़ सहित मिटा दिया।

आर्नोल्ड टॉयन्‍बी आधुनिक युग के सर्वश्रेष्ठ इतिहासकार माने जाते हैं। सन 1960 में श्री टॉयन्‍बी ‘अब्‍दुल कलाम आजाद स्मृति व्याख्यानमाला’ में बोलने के लिए दिल्ली आये। ‘भारत और एक विश्व’ विषय पर उनके तीन भाषण हुए। ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ ने ये तीनों भाषण एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किये हैं। श्री टॉयन्‍बी ने अपने भाषण में पोलैंड का एक उदाहरण दिया कि किस प्रकार पोलैंड ने स्वतंत्र होते ही रूसियों द्वारा बनवाया गया चर्च ध्‍वस्त कर दिया। श्री टॉयन्‍बी के शब्‍दों में,

”सन् 1914-15 में रूसियों ने पोलैंड की राजधानी वार्सा को जीत लिया तो उन्‍होंने शहर के मुख्य चौक में एक चर्च बनवाया। रूसियों ने यह पोलैंडवासियों को निरन्‍तर याद करवाने के लिए बनवाया कि पोलैंड में रूस का शासन है। जब पोलैंड 1918 में आजाद हुआ तो पोलैंडवासियों ने पहला काम उस चर्च को ध्‍वस्त करने का किया, हालांकि नष्ट करने वाले सभी लोग ईसाई मत को मानने वाले ही थे। मैं जब पोलैंड पहुंचा तो चर्च ध्‍वस्त करने का काम समाप्‍त हुआ ही था। मैं एक चर्च को ध्‍वस्‍त करने के लिए पोलैंड को दोषी नहीं मानता क्‍योंकि रूस ने वह चर्च राजनीतिक कारणों से बनवाया था। उनका मन्‍तव्‍य पोल लोगों का अपमान करना था।‘’

उसी भाषण में श्री टॉयन्‍बी ने आगे कहा कि, ‘इसी सिलसिले में मैं काशी और मथुरा की मस्जिदों का जिक्र करना चाहूंगा। औरंगजेब ने अपने दुश्मनों को अपमानित करने के लिए जान-बूझकर इन मंदिरों को मस्जिदों में बदल डाला, उसी दुर्भावना के कारण जिसके कारण कि रूसियों ने वार्सा में चर्च बनाया था। इन मस्जिदों का उद्देश्य यह सिद्ध करना था कि हिन्‍दुओं के पवित्रतम स्थानों पर भी मुसलमानों की हुकूमत चलती है।”

श्री टॉयन्‍बी के अनुसार पोलिश लोगों ने समझदारी का काम किया क्‍योंकि चर्च ध्‍वस्त करने से रूस और पोलैंड के बीच की शत्रुता की भावना समाप्‍त हो गई। वह चर्च पोल लोगों को रूस के आक्रमण की याद दिलाता रहता था। आर्नोल्ड टॉयन्‍बी ने इस बात पर खेद प्रकट किया कि हिन्‍दुस्थान के लोग हिन्‍दू और मुस्लिमों में तनाव की जड़ इन मस्जिदों को हटा नहीं रहे हैं। उन्‍होंने यह कह कर अपनी बात समाप्‍त की कि, ‘’भारत की इस सहिष्‍णुता से मैं स्‍तभ्भित हूं साथ इससे मुझे अपार पीड़ा भी हुई है।‘’

नास्तिक रूसियों ने मूर्तियां स्‍थापित कीं

यह उन दिनों की घटना है जब रूस में साम्यवाद अपने उफान पर था। सन 1968 में भारत के सांसदों का एक प्रतिनिधिमंडल लोकसभा के तत्‍कालीन अध्‍यक्ष नीलम संजीव रेड्डी के नेतृत्‍व में रूस गया। रूसी दौरे के समय सांसदों को लेनिनग्राद शहर का एक महल दिखाने भी ले जाया गया। वह रूस के ‘जार’ (राजा) का सर्दियों में रहने के लिए बनवाया गया महल था। महल को देखते समय संसद सदस्यों के ध्‍यान में आया कि पूरा महल तो पुराना लगता था किन्‍तु कुछ मूर्तियां नई दिखाई देती थीं। पूछताछ करने पर पता लगा कि वे मूर्तियां ग्रीक देवी-देवताओं की हैं। सांसदों में प्रसिद्ध विचारक तथा भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी भी थे। उन्‍होंने सवाल किया कि, ‘आप तो धर्म और भगवान के खिलाफ हैं, फिर आपकी सरकार ने देवी-देवताओं की मूर्तियों को फिर से बनाकर यहां क्‍यों रखा है?’ इस पर साथ चल रहे रूसी अधिकारी ने उत्तर दिया, ‘इसमें कोई शक नहीं कि हम घोर नास्तिक हैं किन्‍तु महायुद्ध के दौरान जब हिटलर की सेनाएं लेनिनग्राद पर पहुंच गई तो वहां हम लोगों ने उनसे जमकर संघार्ष किया। इस कारण जर्मन लोग चिढ़ गये और हमारा अपमान करने के लिए उन्‍होंने यहां की देवी-देवताओं की प्राचीन मूर्तियां तोड़ दी। इसके पीछे यही भाव था कि रूस का राष्ट्रीय अपमान किया जाये। हमारी दृष्टि में हमें ही नीचा दिखाया जाये। इस कारण हमने भी प्रणा किया कि महायुद्ध में हमारी विजय होने के पश्चात् राष्ट्रीय सम्मान की पुनर्स्थापना करने के लिए हम इन देवताओं की मूर्तियां फिर से स्थापित करेंगे।

रूसी अधिकारी ने आगे कहा कि, ‘हम तो नास्तिक हैं ही किन्‍तु मूर्ति भंजन का काम हमारा अपमान करने के लिए किया गया था और इसलिए इस राष्‍ट्रीय अपमान को धो डालने के लिए हमने इन मूर्तियों का पुनर्निर्माण किया।‘

ये मूर्तियां आज भी जार के ‘विन्‍टर पैलेस’ में रखी हैं और सैलानियों के मन में कौतुहल जगाती हैं।

दक्षिण कोरिया की कैपिटल बिल्डिंग

दक्षिण कोरिया अनेक वर्षों तक जापान के कब्‍जे में रहा है। जापानी सत्ताधारियों ने अपनी शासन सुविधा के लिए राजधानी सिओल के बीचों-बीच एक भव्य इमारत बनाई और उसका नाम ‘कैपिटल बिल्डिंग’ रखा। इस समय इस भवन में कोरिया का राष्ट्रीय संग्रहालय है। इस संग्रहालय में अनेक प्राचीन वस्तुओं के साथ जापानियों के अत्‍याचारों के भी चित्रा हैं।

वर्ष 1995 में दक्षिण कोरिया को आजाद हुए पचास वर्ष पूरे हो रहे हैं। अत: वहां की सरकार आजादी का स्‍वर्ण जयंती वर्ष’ धूमधाम से मनाने की तैयारी कर रही है। इस स्वतंत्राता प्राप्ति की स्‍वर्णा जयंती महोत्‍सव का एक प्रमुख कार्यक्रम होगा ‘कैपिटल बिल्डिंग’ को ध्‍वस्त करना। दक्षिण कोरिया की सरकार ने इस विशाल भवन को गिराने का निर्णय ले लिया है। इसमें स्थित संग्रहालय को नये बन रहे दूसरे भवन में ले जाया जायेगा। इस पूरी कार्रवाई में 1200 करोड़ रुपये खर्च होंगे।

यह समाचार 2 मार्च 1995 को बी.बी.सी. पर प्रसारित हुआ था। कार्यक्रम में ‘कैपिटल बिल्डिंग’ को भी दिखाया गया। इस भवन में स्थित ‘राष्ट्रीय वस्तु संग्रहालय’ के संचालक से बीबीसी संवाददाता की बातचीत भी दिखाई गई। जब उनसे इस इमारत को नष्ट करने का कारण पूछा गया तो संचालक महोदय ने बताया कि, ‘इस इमारत को देखते ही हमें जापान द्वारा हम पर लादी गई गुलामी की याद आ जाती है। इसको गिराने से जापान और दक्षिण कोरिया के बीच सम्‍बंधों का नया दौर शुरु हो सकेगा। इसके पीछे बना हमारे राजा का महल लोगों की नजरों से ओझल रहे यही इसको बनाने का उद्देश्‍य था और इसी कारण हम इसको गिराने जा रहे हैं।‘

दक्षिण कोरिया की जनता ने भी सरकार के इस निर्णय का उत्‍साहपूर्वक स्‍वागत किया। (यह भवन उसी वर्ष ध्‍वस्‍त कर दिया गया।)

पांच सौ साल पुराने गुलामी के निशान मिटाये कुछ वर्ष पहले तक युगोस्‍लाविया एक राज्‍य था जिसके अन्‍तर्गत कई राष्‍ट्र थे। साम्‍यवाद के समाप्‍त होते ही ये सभी राष्‍ट्र स्‍वतंत्र हो गये तथा सर्बिया, क्रोशिया, मान्‍टेनेग्रो, बोस्निया हर्जेगोविना आदि अलग-अलग नाम से देश बन गये। बोस्निया में अभी भी काफी संख्‍या में सर्ब लोग हैं। ऐसे क्षेत्रों में जहां सर्ब काफी संख्‍या में हैं, इस समय (सन् 1995) सर्बियाई तथा बोस्निया की सेना में युद्ध चल रहा है। इस साल के शुरु में सर्ब सैनिकों ने बोस्निया के कब्‍जे वाला एक नगर ‘इर्वोनिक’ अपने अधिकार में ले लिया।

इर्वोनिक की एक लाख की आबादी में आधे सर्ब हैं और शेष मुसलमान। सर्ब फौजों के कब्‍जे के बाद मुसलमान इस शहर से भाग गये तथा बोस्निया के ईसाई यहां आ गये। ब्रंकों ग्रूजिक नाम के एक सर्ब नागरिक को शहर का महापौर भी बना दिया गया। महापौर ने सबसे पहले यह काम किया कि नगर के बाहर बहने वाली ड्रिना नदी के किनारे बनी एक टेकड़ी पर एक ‘क्रास’ लगा दिया। महापौर ने बताया कि, ‘इस स्‍थान पर हमारा चर्च था जिसे तुर्की के लोगों ने सन् 1463 में ध्‍वस्‍त कर डाला था। अब हम उस चर्च को इसी स्‍थान पर पुन: नये सिरे से खड़ा करेंगे।‘ श्री ग्रूजिक ने यह भी कहा कि तुर्कों की चार सौ साल की सत्ता में उनके द्वारा खड़े किये गये सारे प्रतीक मिटाये जाएंगे। उसी टेकड़ी पर पुराने तुर्क साम्राज्‍य के रूप में एक मीनार खड़ी थी उसे सर्बों ने ध्‍वस्‍त कर दिया। टेकड़ी के नीचे ‘रिजे कॅन्‍स्‍का’ नाम की एक मस्जिद को भी बुलडोजर चलाकर मटियामेट कर दिया गया।

यह विस्‍तृत समाचार अमरीकी समाचार पत्र हेरल्‍ड ट्रिब्‍युन में 8 मार्च 1995 को छपा। समाचार लाने वाला संवाददाता लिखता है कि उस टेकड़ी पर पांच सौ साल पहले नष्‍ट किये गये चर्च की एक घंटी पड़ी हुई थी। महापौर ने अस्‍थायी क्रॉस पर घंटी टांककर उसको बजाया। घंटी गुंजायमान होने के बाद महापौर ने कहा कि, ‘मैं परमेश्‍वर से प्रार्थना करता हूं कि वह क्लिंटन (अमरीकी राष्‍ट्रपति) को थोड़ी अक्‍ल दे ताकि वह मुसलमानों का साथ छोड़कर उसके सच्‍चे मित्र ईसाइयों का साथ दे।

सोमनाथ का कलंक मिटाया गया

भारत में जब तक सत्ता की भूख नेताओं के सर पर सवार नहीं हुई थी, गुलामी के प्रतीकों को मिटाने का प्रयत्‍न किया गया। नागपुर के विधानसभा भवन के सामने लगी रानी विक्‍टोरिया की संगमरमर की मूर्ति आजादी के बाद हटा दी गई। मुम्‍बई के काला घोड़ा स्‍थान पर घोड़े पर सवार इंग्‍लैंड के राजा की प्रतिमा हटाई गई। विक्‍टोरिया, एंडवर्ड और जार्ज पंचम से जुड़े अस्‍पताल, भवन, सड़कों आदि तक के नाम बदले गये। लेकिन जब सत्ता का स्‍वार्थ और चाहे जैसे हो सत्ता में बने रहने की अंधी लालसा जगी तो दिल्‍ली की सड़कों के नाम अकबर, जहांगीर, शाहजहां तथा औरंगजेब रोड तक रख दिये गये।

भारत के आजाद होते ही सरदार पटेल ने सोमनाथ का जीर्णोद्धार कराया। उस स्‍थान पर बनी मस्जिदों व मजारों को ध्‍वस्‍त कर भव्‍य मंदिर का निर्माण कराया गया। मंदिर की प्राण-प्रतिष्‍ठा के समारोह में सेकुलरवादी पं. नेहरु के विरोध के बावजूद तत्‍कालीन राष्‍ट्रपति डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद सम्मिलित हुए। उस समय किसी ने मुस्लिम भावनाओं की या मस्जिदें नष्‍ट न करने की बात नहीं उठाई। इसलिए कि उस समय सरदार पटेल जैसे राष्‍ट्रवादी नेता थे और देश की जनता में भी आजाद के आंदोलन का कुछ जोश बाकी था। (पाथेय कण)

गिलानी-मलिक-मीरवायज़ के सामने घिघियाता हुआ सा सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल…

दिल्ली में सम्पन्न हुई सर्वदलीय बैठक के बेनतीजा रहने के बाद मनमोहन सिंह, सोनिया गाँधी, अब्दुल्ला पिता-पुत्र तथा “सेकुलर देशद्रोही मीडिया” के दबाव में एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमण्डल ने कश्मीर जाकर सभी पक्षों से बात करने का फ़ैसला किया था। 20 सितम्बर को यह सर्वदलीय प्रतिनिधिमण्डल श्रीनगर में अवतरित हुआ। इस प्रतिनिधिमण्डल के स्वागत में पलक-पाँवड़े बिछाते हुए, अली शाह गिलानी ने इनसे बात करने से ही मना कर दिया और महबूबा मुफ़्ती की पार्टी PDP ने इनका बहिष्कार कर दिया। इधर के लोग भी कम नहीं थे, प्रतिनिधिमण्डल की इस फ़ौज में चुन-चुनकर ऐसे लोग भरे गए जो मुस्लिम वोटों के सौदागर रहे, एक चेहरा तो ऐसा भी था जिनके परिवार का इतिहास जेहाद और हिन्दू-विरोध से भरा पड़ा है। इस तथाकथित “मरहम-टीम” का शान्ति से कोई लेना-देना नहीं था, ये लोग विशुद्ध रुप से अपने-अपने क्षेत्र के मुस्लिम वोटों की खातिर आये थे, इस प्रतिनिधिमण्डल में जाने वालों के चुनाव का कोई पैमाना भी नहीं था।

महबूबा मुफ़्ती और लोन-गिलानी के अलगाववादी तेवर कोई नई बात नहीं है, इसलिये इसमें कोई खास आश्चर्य की बात भी नहीं है, आश्चर्य की बात तो यह थी कि प्रतिनिधिमंडल में गये हुए नेताओं की मुखमुद्रा, भावभंगिमा और बोली ऐसी थी, मानो भारत ने कश्मीर में बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो। शुरु से आखिर तक अपराधीभाव से गिड़गिड़ाते नज़र आये सभी के सभी। मुझे अभी तक समझ नहीं आया कि अरुण जेटली और सुषमा स्वराज जैसे लोग इस प्रतिनिधिमण्डल में शामिल हुए ही क्यों? रामविलास पासवान और गुरुदास दासगुप्ता जैसे नेताओं की नज़र विशुद्ध रुप से बिहार और पश्चिम बंगाल के आगामी चुनावों के मुस्लिम वोटों पर थी। यह लोग गये तो थे भारत के सर्वदलीय प्रतिनिधिमण्डल के रुप में, लेकिन उधर जाकर भी मुस्लिम वोटरों को लुभाने वाली भाषा से बाज नहीं आये। जहाँ एक ओर रामविलास पासवान के “नेतृत्व”(?) में एक दल ने यासीन मलिक के घर जाकर मुलाकात की, वहीं दूसरी तरफ़ दासगुप्ता ने मीरवायज़ के घर जाकर उनसे “बातचीत”(?) की। यासीन मलिक हों, अली शाह गिलानी हों या कथित उदारवादी मीरवायज़ हों, सभी के सभी लगभग एक ही सुर में बोल रहे थे जिसका मोटा और स्पष्ट मतलब था “कश्मीर की आज़ादी”, यह राग तो वे कई साल से अलाप ही रहे हैं, लेकिन दिल्ली से गये वामपंथी नेता गुरुदास दासगुप्त और पासवान अपनी मुस्लिम भावनाओं को पुचकारने वाली गोटियाँ फ़िट करने के चक्कर में लगे रहे।

चैनलों पर हमने कांग्रेस के शाहिद सिद्दीकी और वामपंथी गुरुदास दासगुप्ता के साथ मीरवायज़ की बात सुनी और देखी। मीरवायज़ लगातार इन दोनों महानुभावों को कश्मीर में मारे गये नौजवानों के चित्र दिखा-दिखाकर डाँट पिलाते रहे, जबकि गुरुदास जैसे वरिष्ठ नेता “वुई आर शेमफ़ुल फ़ॉर दिस…”, “वुई आर शेमफ़ुल फ़ॉर दिस…” कहकर घिघियाते-मिमियाते रहे। मीरवायज़ का घर हो या गिलानी का अथवा यासीन मलिक का, वहाँ मौजूद इस सेकुलर प्रतिनिधिमण्डल के एक भी सदस्य की हिम्मत नहीं हुई कि वह यह पूछे कि कश्मीर से जब हिन्दू खदेड़े जा रहे थे, तब ये सब लोग कहाँ थे? क्या कर रहे थे? आतंकवादियों और हत्यारों से अस्पताल जा-जाकर मुलाकातें की गईं, पत्थरबाजों से सहानुभूति दर्शाई गई, पासवान ने बिहार के चुनाव और गुरुदास ने बंगाल के चुनाव के मद्देनज़र आज़ाद कश्मीर की माँग करने वाले सभी को जमकर तेल लगाया… लेकिन किसी ने भी नारकीय परिस्थिति में रह रहे जम्मू के पण्डितों और हिन्दुओं के ज़ख्मों के बारे में एक शब्द नहीं कहा… किसी भी नेता(?) में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह उन आतंकवादियों से पूछे कि धारा 370 खत्म क्यों न की जाये? मुफ़्त की खाने के लिये अरबों का पैकेज चाहिये तो हिन्दुओं को फ़िर से घाटी में बसाने के लिये उनकी क्या योजना है? कुछ भी नहीं… एक शब्द भी नहीं… क्योंकि कश्मीर में पिटने वाला हिन्दू है, मरने-कटने वाला अपना घर-बार लुटाकर भागने वाला हिन्दू है… ऐसे किसी प्रतिनिधिमण्डल का हिस्सा बनकर जेटली और सुषमा को जरा भी शर्म नहीं आई? उन्होंने इसका बहिष्कार क्यों नहीं किया? जब कश्मीर से हिन्दू भगाये जा रहे थे, तब तो गुरुदास ने कभी नहीं कहा कि “वुई आर शेमफ़ुल…”?

“पनुन कश्मीर” संगठन के कार्यकर्ताओं को बैठक स्थल से खदेड़ दिया गया, इसके नेताओं से जम्मू क्षेत्र को अलग करने, पण्डितों के लिये एक होमलैण्ड बनाने, पर्याप्त मुआवज़ा देने, दिल्ली के शरणार्थी बस्तियों में मूलभूत सुविधाओं को सुधारने जैसे मुद्दों पर कोई बात तक नहीं की गई, उन्हें चर्चा के लिये बुलाया तक नहीं। इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है कि 1947 में पाकिस्तान से भागकर भारत आये हुए सैकड़ों लोगों को अभी तक भारत की नागरिकता नहीं मिल सकी है, जबकि पश्चिम बंगाल में लाखों घुसपैठिये बाकायदा सारी सरकारी सुविधाएं भोग रहे हैं… कभी गुरुदास ने “वुई आर शेमफ़ुल…” नहीं कहा।

वामपंथियों और सेकुलरों से तो कोई उम्मीद है भी नहीं, क्योंकि ये लोग तो सिर्फ़ फ़िलीस्तीन और ईराक में मारे जा रहे “बेकसूरों”(?) के पक्ष में ही आवाज़ उठाते हैं, हिन्दुओं के पक्ष में आवाज़ उठाते समय इन्हें मार्क्स के तमाम सिद्धान्त याद आ जाते हैं, लेकिन जेटली और सुषमा से ऐसी उम्मीद नहीं थी कि ये लोग पासवान जैसे व्यक्ति (जो खुलेआम घुसपैठिए बांग्लादेशियों की पैरवी करता हो) के साथ खड़े होकर तस्वीर खिंचवाएं, या फ़िर असदुद्दीन ओवैसी जैसे घोर साम्प्रदायिक हैदराबादी (जिनका इतिहास हिन्दुओं के साथ खूंरेज़ी भरा है) के साथ हें-हें-हें-हें करते हुए एक “मक्खनमार बैण्ड” में शामिल होकर फ़ोटो खिंचवायें…। लानत है इन पर… अपने “मूल” स्टैण्ड से हटकर “शर्मनिरपेक्ष” बनने की कोशिश के चलते ही भाजपा की ऐसी दुर्गति हुई है लेकिन अब भी ये लोग समझ नहीं रहे। जब नरेन्द्र मोदी के साथ दिखाई देने में, फ़ोटो खिंचवाने में देशद्रोही सेकुलरों को “शर्म”(?) आती है, तो फ़िर भाजपा के नेता क्यों ओवैसी-पासवान और सज्जन कुमार जैसों के साथ खड़े होने को तैयार हो जाते हैं? इनकी बजाय तो कश्मीर की स्थानीय कांग्रेस इकाई ने खुलेआम हिम्मत दिखाई और मांग की कि सबसे पहले इन अलगाववादी नेताओं को तिहाड़ भेजा जाए… लेकिन सेकुलर प्रतिनिधिमण्डल के किसी सदस्य ने कुछ नहीं कहा।

अब एक सवाल भाजपा के नेताओं से (क्योंकि सेकुलरों-कांग्रेसियों-वामपंथियों और देशद्रोहियों से सवाल पूछने का कोई मतलब नहीं है), सवाल काल्पनिक है लेकिन मौजूं है कि – यदि कश्मीर से भगाये गये, मारे गये लोग “मुसलमान” होते तो? तब क्या होता? सोचिये ज़रा… तीस्ता जावेद सीतलवाड कितने फ़र्जी मुकदमे लगाती? कांग्रेसी और वामपंथी जो फ़िलीस्तीन को लेकर छाती कूटते हैं वे कश्मीर से भगाये गये मुस्लिमों के लिये कितने मातम-गीत गाते? यही है भारत की “धर्मनिरपेक्षता”…

जो लोग कश्मीर की समस्या को राजनैतिक या आर्थिक मानते हैं वे निरे बेवकूफ़ हैं… यह समस्या विशुद्ध रुप से धार्मिक है… यदि भारत सरकार गिलानी-लोन-शब्बीर-महबूबा-यासीन जैसों को आसमान से तारे तोड़कर भी ला देगी, तब भी कश्मीर समस्या जस की तस बनी रहेगी… सीधी सी बात है कि एक बहुसंख्यक (लगभग 100%) मुस्लिम इलाका कभी भी भारत के साथ नहीं रह सकता, न खुद चैन से रहेगा, न भारत को रहने देगा… निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा (अल्लाह के शासन) से कुछ भी कम उन्हें कभी मंजूर नहीं होगा, चाहे जितने पैकेज दे दो, चाहे जितने प्रोजेक्ट दे दो…।

इस आग में घी डालने के लिये अब जमीयत उलेमा-ए-हिन्द (JUH) ने भी तैयारी शुरु कर दी है। जमीयत ने अगले माह देवबन्द में मुस्लिमों के कई समूहों और संगठनों की एक बैठक बुलाई है, जिसमें कश्मीर में चल रही हिंसा और समग्र स्थिति पर विचार करने की योजना है। JUH की योजना है कि भारत के तमाम प्रमुख मुस्लिम संगठन एक प्रतिनिधिमण्डल लेकर घाटी जायें… हालांकि जमीयत की इस योजना का आन्तरिक विरोध भी शुरु हो गया है, क्योंकि ऐसे किसी भी कदम से कश्मीर समस्या को खुल्लमखुल्ला “मुस्लिम समस्या” के तौर पर देखा जाने लगेगा। 4 अक्टूबर को देवबन्द में जमीयत द्वारा सभी प्रमुख शिया, सुन्नी, देवबन्दी, बरेलवी संगठनों के 10000 नुमाइन्दों को बैठक के लिये आमंत्रित किया गया है। क्या “जमीयत” इस सम्मेलन के जरिये कश्मीर समस्या को “मुस्लिम नरसंहार” के रुप में पेश करना चाहती है? लगता तो ऐसा ही है, क्योंकि जमीयत के प्रवक्ता फ़ारुकी के बयान में कहा गया है कि “कश्मीर में हालात बेहद खराब हैं, वहाँ के “मुसलमान” (जी हाँ, सिर्फ़ मुसलमान ही कहा उन्होंने) कई प्रकार की समस्याएं झेल रहे हैं, ऐसे में मुस्लिम समुदाय मूक दर्शक बनकर नहीं रह सकता…”, अब वामपंथियों और कांग्रेसियों को कौन समझाये कि ऐसा बयान भी “साम्प्रदायिकता” की श्रेणी में ही आता है और जमीयत का ऐसा कदम बहुत खतरनाक साबित हो सकता है। सम्मेलन में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमात-ए-इस्लामी, ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुशवारत तथा ऑल इंडिया मिल्ली काउंसिल जैसे कई संगठनों के भाग लेने की उम्मीद है। भगवान (या अल्लाह) जाने, कश्मीर के “फ़टे में टाँग अड़ाने” की इन्हें क्या जरुरत पड़ गई? और जब पड़ ही गई है तो उम्मीद की जानी चाहिये कि देवबन्द के सम्मेलन में माँग की जायेगी की कश्मीर से भगाये गये हिन्दुओं को पुनः घाटी में बसाया जाये और सदभाव बढ़ाने के लिये कश्मीर का मुख्यमंत्री किसी हिन्दू को बनाया जाये… (ए ल्ललो… लिखते-लिखते मैं सपना देखने लगा…)।

सुन रहे हैं, जेटली जी और सुषमा जी? “शर्मनिरपेक्षता” के खेल में शामिल होना बन्द कर दीजिये… ये आपका फ़ील्ड नहीं है… खामख्वाह कपड़े गंदे हो जायेंगे… हाथ कुछ भी नहीं लगेगा…। आधी छोड़, पूरी को धाये, आधी भी जाये और पूरी भी हाथ न आये… वाली स्थिति बन जायेगी…। जब सभी राजनैतिक दल बेशर्मी से अपने-अपने वोट बैंक के लिये काम कर रहे हैं तो आप काहे को ऐसे सर्वदलीय प्रतिनिधिमण्डल में जाकर अपनी भद पिटवाते हैं? क्या कोई मुझे बतायेगा, कि असदुद्दीन ओवैसी को इसमें किस हैसियत से शामिल किया गया था और औचित्य क्या है? क्या सपा छोड़कर कांग्रेसी बने शाहिद सिद्दीकी इतने बड़े नेता हो गये, कि एक राष्ट्रीय प्रतिनिधिमण्डल में शामिल होने लायक हो गये? सवाल यही है कि चुने जाने का आधार क्या है?

बहरहाल, ऊपर दिया हुआ मेरा प्रश्न भले ही भाजपा वालों से हो, लेकिन “सेकुलर”(?) लोग चाहें तो इसका जवाब दे सकते हैं कि – कल्पना करो, कश्मीर से भगाये गये लोग पण्डितों की बजाय मुस्लिम होते… तब समस्या की, उस पर उठाये गये कदमों की और राजनीतिबाजों की क्या स्थिति होती?

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

राजस्थान का एकीकरण

१ सितम्बर १९३९ को द्वितीय विश्वयुद्ध आरम्भ होने के कुछ सप्ताह पश्चात् ही भारत के युद्ध में प्रवेश की घोषणा कर दी गई। वायसराय लार्ड लिनलिथगों ने भारत को संघ बनाने की ब्रिटिश साम्राज्य की नीति को दुहराया तथा देशी शासकों को आश्वासन देते हुए सन्धियों और समझौतों की शर्त्तों का सम्मान करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लिया। नरेन्द्र-मडल ने भावी रियासतो की स्वायत्तता की मांग को दुहराया। युद्ध के नाजुक दौर में पहुँच जाने पर चैम्बरलेन के स्थान पर सर विन्स्ट चर्चिल की राष्ट्रीय सरकार का गठन हुआ। वायसराय के अगस्त प्रस्ताव में नवीन-संविधान के परिकल्पना की बात कही गयी।


चर्चिल ने १९४२ में संवैधानिक गतिरोध को समाप्त करने हेतु-क्रिप्स को भारत भेजा। क्रिप्स योजना में देशी शासकों की अवहेलना कर दी गई। देशी शासकों के सम्बन्ध में कहा गया कि उन्हे केवल जनता के अनुपात में ही प्रतिनिधित्व उपलब्ध होगा प्रथा नवीन परिस्थितियों में इन राज्यों के साथ किसी नवीन संधि की व्यवस्था करनी होगी। देशी रियासतों ने समानान्तर स्वंतत्र संघ बनाने की इच्छा प्रकट की जबकि क्रिप्स की योजना में भारतीय संघ के निर्माण कर प्रस्ताव था।

२४ अक्टूबर १९४३ को लार्ड वेवल ने गवर्नर जनरल पद का भार सम्भाला। उन्होने युद्ध के समय देशी रियासतों का समर्थन तथा सहयोग प्राप्त करने के लिए उन्हे यह आश्वासन दिया कि सरकार कोई भी राजनैतिक निर्णय लेते समय उनके हितों और अधिकारों की उपेक्षा नहीं करेगी। युद्ध के निर्णायक दौर में भोपाल के नवाब को नरेन्द्र - मण्डल का चांसलर निर्वाचित किया गया। वे छोटे राज्यों के सहयोग से देशी रियासतों को देश की राजनीति में तृतीय शक्ति बनाना चाहते थे। १५ जून १९४५ को ठवेवल योजना' की घोषणा की गई। नरेन्द्र-मण्डल को सम्बोधित करते हुए कहा गया कि प्रत्येक राज्य में राजनैतिक स्थिरता, पर्याप्त आर्थिक साधन तथा जनता की प्रतिनिधियों की राज्य प्रशासन में प्रभावशाली भूमिका आवश्यक है। यदि कोई राज्य इन शर्तों को पुरा नहीं कर सकता तो उसे किसी बड़ी इकाई के साथ मिल जाना चाहिए अथवा छोटे-छोटे राज्यों को मिलाकर बड़े राज्य की स्थापना करनी चाहिए।

इग्लैंड की मजदूरदलीय सरकार ने १९४६ में केविनेट मिशन भारत भेजा। मिशन ने देशी रियासतों को आश्वासन दिया कि ब्रिटिश सरकार रियासतों की सहमति के बिना राजनैतिक प्रशासनिक सम्बन्धों में परिवर्त्तन नहीं करेगी। १६ मई १९४६ को मिशन ने अपनी संवैधानिक योजना घोषित की जिस में रियासतों के सम्बन्ध में स्पष्ट कहा गया कि ब्रिटिश सरकार के पास जो प्रभुसत्ता है वह उसके हटते ही देशी शासकों को मिल जाएगी तथा देशी शासक भारतीय या किसी भी संघ में साम्मिलित होने या न होने के लिए स्वतंत्र होगे। देशी रियासतों ने इसे स्वीकार कर लिया। मिशन की घोषणा के अनुसार नरेन्द्र-मंडल ने राज्यों की एक वार्ता समिति रियासती प्रश्नों के सम्बन्ध में देश के राजनैतिक दलों में समझौते के लिए भोपाल के नवाब की अध्यक्षता में इसे गठित किया।

१९३९ में अखिल भारतीय रियासती प्रजा परिषद के लुधियाना अधिवेशन में नेहरु ने अध्यक्षीय भाषण में अंग्रेजों के साथ की गई संधियों को मानने से इंकार कर दिया तथा देशी रियासतों को ही समाप्त घोषित कर दिया। यह स्पष्ट किया गया कि वे ही रियासतें योग्य प्रशासनिक इकाइयां मानी जा सकती है जिसकी जनसंख्या कम से कम २० लाख तथा राज कम से कम ५० लाख रुपये हो।

रियासतों को या तो आपस में मिल जाना चाहिए या समीपवर्ती रियासतों अथवा प्रान्तों में सम्मलित हो जाना चाहिए। इस अधिवेशन में राजपूताना की सभी रियासतों को एक वर्ग में रखा गया। बाद में रियासती प्रजा परिषद ने नेहरु की अध्यक्षता में उदयपुर अधिवेशन में २० लाख के स्थान पर ५० लाख जनसंख्या तथा ५० लाख राज के स्थान पर ३ करोड़ वार्षिक आय सम्बन्धी विचार दिये गये। रियासती प्रजा परिषद की राजपूताना शाखा की कार्यकारिणी ने प्रस्ताव पारित किया कि राजपूताना की कोई भी रियासत आधुनिक प्रगतिशील राज्य की सुविधा उपलब्ध नही कर सकती इसलिए सभी रियासतों को अजमेर-मेरवाड़ा प्रान्त में मिलाकर एक इकाई बना दिया जाना चाहिए। जवाहर लाल नेहरु ने रियासती प्रजा-परिषद के ग्वालियर अधिवेशन में यह महत्वपूर्ण घोषणा की, कि जो देशी रियासत संविधान सभा में भाग नहीं लेगी, उसे शत्रु रियासत समझा जाएगा। फरवरी, १९४७ में ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की, कि यदि अप्रैल के अधिवेशन तक देशी रियासतों के प्रतिनिधि संविधान-सभा में नहीं पहुँचे तो रियासतों के हितों को क्षति होगी। शासकगण जनता को अधिकार न देकर अपनी निरंकुशता को बनाये रखने के लिए मांगे रख रहे थे।

अखिल भारतीय रियासती प्रजा परिषद - ने नरेन्द्र-मण्डल को देशी-रियासतों का प्रतिनिधित्व करने के अधिकार को चुनौती दी थी।

२० फरवरी, १९४७ को इंगलैड़ के प्रधानमंत्री एटली ने ऐतिहासिक घोषणा की, कि जुन १९४८ तक भारत के सत्ता का हस्तान्तरण हो जाएगा।

देशी शासकों में संविधान सभा में प्रवेश के प्रश्न पर मतभेद था। बीकानेर के शासक सार्दूलसिंह ने भोपाल के नवाब की ठरुको एवं देखो' नीति का विरोध किया। उन्होने इस नीति को आत्मघाती बताया तथा देशी शासकों को रियासतों में उत्तरदायी सरकारों की स्थापना की आवश्यकता पर बल दिया। इस राजनैतिक परिस्थिति पर जादुई असर पड़ा तयारु नरेन्द्र-मण्डल की स्थायी-समिति से कई शासको ने त्यागपत्र दे दिया।

लार्ड माउन्टबेटन ने भारत आने के पश्चात् हस्तान्तरण की योजना बनाई। उन्होने घोषणा की कि १५ अगस्त १९४७ को दो स्वतंत्र राष्ट्रों, भारत व पाकिस्तान की स्थापना होगी तथा देशी रियासतों को स्वतंत्रता होगी कि वे चाहे तो भारत या पाकिस्तान में सम्मिलित हो या स्वयं का स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखे। वायसराय के संवैधानिक सलाहकार वी. पी. मेनन ने निर्णायक भूमिका निभाई। राष्ट्रीय नेताओं तथा सरकारी अधिकारियों से विचार-विमर्श कर ५ जून १९४७ को माउन्टबेटन ने अलग से रियासती विभाग की स्थापना की। सरदार पटेल उसके कार्यकारी मंत्री तथा वी.पी. मेनन सचिव बनाये गये।

५ जूलाई १९४७ को सरदार पटेल ने रियासतों के प्रति नीति को स्पष्ट करते हुए कहा कि रियासतों को तीन विषयों सुरक्षा, विदेशा तथा संचार-व्यवस्था के आधार पर भारतीय संघ में सम्मिलित किया जाएगा। धीरे-धीरे बहुत-सी देशी रियासतों के शासक भोपाल के नवाब से अलग हो गये तथा इस प्रकार नवस्थापित रियासती विभाग की योजना को सफलता मिली। १५ अगस्त १९४७ तक हैदराबाद, कश्मीर तथा जूनागढ़ को छोड़कर शेष भारतीय रियासतें भारत संघ में सम्मिलित हो गयी। देशी रियासतों का विलय स्वतंत्र भारत की पहली उपलाब्धि थी तथा निर्विवाद रुप से पटेल का इसमें विशेष योगदान था।

१५ जून १९४६ को कोटा के प्रधानमंत्री ने राजपूताना के विभिन्न देशी रियासतों के प्रधानमंत्रियों की बैठक का सुझाव दिया। इस बैठक में राजपूताना संघ के निर्माण पर विचार-विमर्श किया गया। राजपूताना के रियासतों ने यह महसूस किया कि अगर इस अवसर पर वे एक नहीं हुए तो आर्थिक तथा औधौगिक विकास में पिछड़ जाऐगे। इसलिये यह निष्कर्ष निकाला गया कि राजपूताना का भू-भाग,जिसका ऐतिहासिक महत्व है, जिसकी एक संस्कृति हैं और जिस के सामान्य सामाजिक रीति-रिवाज समान है, एक होकर एक प्रभावशाली संघ की स्थापना करे। यह भी सुझाव दिया गया कि यह संघ दक्षिणी तथा दक्षिण-पश्चिमी सीमा पर स्थित रियासतों का भी स्वागत करेगी।

इस रिपोर्ट में दिये गये सुझावों को राजपूताना के शासकों ने, विशेषकर बड़ी रियासतों ने स्वीकार नहीं किया। उन्हे भय था कि ऐसे संघ की स्थापना से भारत में उनके राज्य विलुप्त हो जाऐगे। बीकानेर के प्रधानमंत्री के. एम. पणिक्कर की मान्यता थी कि बड़ी रियासतों के पास इतने साधन है कि वे प्रान्तीय स्तर तक प्रशासन को स्वयं देख सकती है और चला सकती है। बीकानेर, जयपुर, जोधपुर और उदयपुर की रियासतें स्वयं अपने साधनों को विकसित कर सकती है। वे उच्च शिक्षा एवं उच्च न्यायालय के दृष्टिकोण से भी राजस्थान संघ के निर्माण को उचित नहीं मानते थे। उनके अनुसार इस में वैद्यानिक और कार्यकारणी के क्षेत्र में कोई विशेष लाभ नहीं हो सकता।

राजस्थान निर्माण की प्रक्रिया जटिल थी। राजपूताना में उस समय १९ सलामी रियासतें तथा तीन गैर सलामी रियासतें थी। इनकी अपनी परम्पराएँ थी। शासकों में राजतंत्र की तीव्र भावना थी। इन परिस्थितियों ने समझौतों की प्रक्रिया को धीमा तो कर दिया था लेकिन सभी तरह के विरोधो व मतान्तरों के बावजुद राजस्थान के एकीकरण की प्रक्रिया चरणबद्ध रुप से शुरु हो चुकी थी। नि:सन्देह स्वतंत्रता-पश्चात् विभाजन के अवसर पर भड़की हुई साम्प्रदायिक आग में इसे और आसान बना दिया।

राजस्थान संघ के निर्माण हेतु अनेक प्रस्ताव रखे गये। मेवाड़ के शासक भूपाल सिंह के अनुसार जो रियासतें आर्थिक दृष्टिकोण से पिछड़ी हुई थी, वे स्वंतत्र भारत में अपना महत्व बनाये नहीं रख सकेगी। अत: रियासतों को अपने सभी साधन एक कर देने चाहिए। उनकी सार्थक कोशिश से एक प्रस्ताव पारित हुआ जिसके अन्तर्गत राजस्थान संघ (राजस्थान युनियन) की योजना स्वीकार कर ली गयी। जयपुर, जोधपुर तथा बीकानेर आदि बड़ी रियासतों को छोड़कर उदयपुर के महाराणा, बूंदी के राव राजा, कोटा के महाराज, डूंगरपुर के महारावल, विजयनगर, करौली, प्रतापगढ़, रतलाम, बांसवाड़ा और किरानगढ़ के महाराजा, झालावाड़ के महाराजा, शाहपुर के राजाधिराज, जैसलमेर के महाराजकुमार, ईडर के महाराजा के प्रतिनिधि, पालनपुर के नवाब तथा दाँता के महाराणा ने सिद्धान्त रुप से राजस्थान यूनियन की स्थापना का निर्णय लिया। २५ मार्च १९४८ को इसके निर्माण की औपचारिकता पुरी हो गयी। जयपुर, जोधपुर तथा बीकानेर के प्रधानमंत्रियों को भी आमंत्रित किया गया ताकि सम्पूर्ण राजस्थान यूनियन का निर्माण संभव हो सके।

अलवर के शासक ने हिन्दू महासभा को अधिक महत्व देते हुए डॉ. एन. वी. खरे को प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया। डॉ. खरे कांग्रेस विरोधी थे। भारत सरकार ने उसके प्रशासन को अपने अधीन कर लेने का निश्चय किया। भारत सरकार ने वी. पी. मेनन को परिस्थितियों का अध्ययन हेतु अलवर भेजा। मेनन के सुझाव से डॉ. खरे को पद से हटा दिया गया तथा सी. एन. वेंकटाचार्य को प्रशासक के रुप में नियुक्त कर दिया गया।

राजनैतिक अस्थिरता तथा तनाव के कारण भरतपुर के महाराजा को फरवरी १०, १९४८ को दिल्ली बुलाया गया तथा सुझाव दिया गया कि वे भरतपुर राज्य का प्रशासन भारत सरकार के अधीन कर दे। १४ फरवरी १९४८ को रायबहादुर सूरजमल के नेतृत्व में राज्य के मंत्रीमंडल ने त्यागपत्र दे दिया तथा एस. एन. सप्रू को भरतपुर राज्य का प्रशासक नियुक्त किया गया।

भारत सरकार में अलवर, भरपुर, धौलपुर तथा कसौली को मिलाकर एक संघ बनाने का निश्चय किया।
फरवरी २७ १९४८ को सम्बद्ध राज्यों के शासकों को दिल्ली बुलाया गया तथा उनके सामने यह प्रस्ताव रखा गया। संघ को भविष्य में राजस्थान संघ में सम्मिलित करने की बात स्पष्ट कर दी गई।

चूकि महाभारत काल में यह क्षेत्र मत्स्य-क्षेत्र के नाम से जाना जाता था अत: मत्स्य-संघ का नाम प्रस्तावित किया गया। चूकि अलवर और भरतपुर के शासकों के विरुद्ध जाँच चल रही थी अत: धौलपुर के महाराजा उदय मानसिंह को, जो सबसे वृद्ध थे राजप्रमुख बनाया गया। राजधानी अलवर रखी गई। मार्च १८, १९४८ को भारत सरकार के वरिष्ठ मंत्री नरहरि विष्णु गाडगिल ने इस संघ का उदघाटन किया।

इस नये राज्य का क्षेत्रफल करीब ३०,००० वर्ग कि. मी., जनसंख्या लगभग १९ लाख तथा आय लगभग १.८३ करोड़ रुपये थी। चारो रियासतों के प्रशासन को मिलाकर उसे भारत सरकार द्वारा नियुक्त एक प्रशासन के अधीन कर दिया गया। सेना, पुलिस, कानून-व्यवस्था एवं राजनीतिक विभाग सीधे प्रशासक के हाथ में दे दिये गये।

भरतपुर शासक के छोटे भाई राजा मानसिंह ने भरतपुर के विलय के विरोध में स्थानीय जाट समुदाय को मिलाकर उग्र आन्दोलन शुरु किया। मत्स्य-संघ की स्थापना से पूर्व भरतपुर में सरकार-विरोधी आन्दोलन भी हुए लेकिन उनपर उचित समय अविलम्ब नियंत्रण प्राप्त कर लिया गया।

३ मार्च १९४८ को कोटा, बूँदी, झालावाड़, टौंक डूंगरपुर बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, किशानगढ़ तथा शाहपुरा रियासतों को मिलाकर संयुक्त राजस्थान संघ के निर्माण का प्रस्ताव रखा गया। रियासती विभाग की नीति के अन्तर्गत उदयपुर अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखने का अधिकारी था। दीवान रामामूर्ति और उदयपुर के महाराणा ने रियासती विभाग के प्रस्ताव का विरोध किया अत: उदयपुर के बिना संयुक्त राजस्थान राज्य के निर्माण का फैसला किया गया।

संयुक्त राजस्थान में कोटा सबसे बड़ी रियासत थी अत: रियासती विभाग के निर्णयानुसार राजप्रमुख का पद कोटा के महाराव भीमसिंह को दिया गया। यह प्रस्ताव बूंदी के महाराव बहादुरसिंह को मान्य नहीं था। वंश परम्परा के अनुसार कोटा के महाराव बूंदी के महाराव के छुटभैया थे। बूंदी के महाराव ने उदयपुर जाकर महाराणा से प्रार्थना की कि वे इस नये राज्य में सम्मिलित हो जाते है तो राजप्रमुख बन जाऐंगे तथा समस्या का समाधान हो जाएगा, लेकिन सफलता नहीं मिली। कोटा के महाराव को राजप्रमुख बनाने का प्रस्ताव बूँदी को स्वीकार करना पड़ा। मार्च २५, १९४८ को वी. एन. गाडगिल ने संयुक्त राजस्थान संघ का उद्घाटन किया। इस संघ का क्षेत्रफल १७,००० वर्ग मील, जनसंख्या करीब २४ लाख तथा राज दो करोड़ था।

बाद में राजनैतिक बदलाव व जनता के विरोध के कारण उदयपुर के महाराणा ने संघ में सम्मिलित होने का इच्छा व्यक्त की। इसके बदले में उन्हें अनेक रियासतें व भत्ते दिये गये। महाराणा भूपालसिंह को राजप्रमुख बनाने का निर्णय लिया गया तथा उदयपुर को संयुक्त राजस्थान की राजधानी बनाई गई। कोटा के महत्व को बनाये रखने के लिए एरोनाटिकल कॉलेज, फॉरेस्ट स्कूल, पुलिस ट्रेनिंग रेन्ज तथा अन्य संस्थानों के कोटा में ही बने रहने का कोटा के महाराव का आग्रह स्वीकार कर लिया गया। यह भी निश्चय किया गया कि कोटा के महाराव वरिष्ठ उपराजप्रमुख तथा बूंदी और डूंगरपुर के शासक कनिष्ठ उपराजप्रमुख होंगे। अप्रैल १८, १९४८ को पं. जवाहरलाल नेहरु ने इसका उद्घाटन किया। माणिक्यलाल वर्मा को मुख्यमंत्री तथा गोकुललाल असावा को उप-मुख्यमंत्री बनाया गया।

संयुक्त राजस्थान संघ के निर्माण के बाद भारत सरकार ने अपना ध्यान जयपुर, जोधपुर तथा बीकानेर की ओर केन्द्रित किया अखिल भारतीय देशी रियासत लोक परिषद् की राजपूताना प्रान्तीय सभा ने जनवरी २०, १९४८ को प्रस्ताव पारित कर राजस्थान की सभी रियासतों को मिलाकर वृहद् राजस्थान के निर्माण की मांग की। इसी बीच समाजवादी दल ने वृहद् राजस्थान के निर्माण कर नारा दिया। अखिल भारतीय स्तर पर ठराजस्थान आन्दोलन समिति' की स्थापना की गई।भारत सरकार की इन राज्यों के प्रति विशेष चिन्ता उनकी भौगोलिक स्थिति के कारण भी था। जयपुर के अतिरिक्त अन्य रियासतों की सीमाएँ पाकिस्तान से जुड़ी हुई थी। ये रियासतें आर्थिक दृष्टिकोण से भी पिछड़ी हुई थी। अत: अन्ततोगत्वा अनेक बैठकों के पश्चात् वी. पी. मेनन इन शासकों को विलय के लिए मनाने में सफल हो गये। उदयपुर के महाराणा को महाराजप्रमुख तथा जयपुर नरेश को राजप्रमुख बनाया गया।

मत्स्य संघ के निर्माण के समय वहाँ के शासकों को स्पष्ट बता दिया गया था कि राजस्थान संघ के निर्माण के बाद मत्स्य-संघ को उसमें मिला दिया जाएगा। मत्स्य-संघ की रियासतों में इस प्रश्न पर मतभेद था। अलवर और कसौली राजस्थान संघ में मिलना चाहते थे वही भरतपुर और धौलपुर भाषा के आधार पर संयुक्त प्रान्त में मिलना चाहते थे। भारत सरकार ने शंकर राव देव समिति की सिफारिशों को मानते हुए चारों रियासतों को १५ मई १९४९ को राजस्थान संघ में मिला दिया। जनवरी २६, १९५० को सिरोही रियासत भी वृहत्तर राजस्थान में सम्मिलित हो गयी।

अब तक स्वतंत्र भारत में जो संघ बने थे राजस्थान उनमें सबसे बड़ा था। इसका क्षेत्रफल १,२८,४२९ वर्ग मील था। जनसंख्या लगभग १५३ लाख तथा वार्षिक राज १८ करोड़ था। प्रदेश कांग्रेस ने सर्वसम्मति से हीरालाल शास्री को नेता चुना तथा मार्च ३०, १९४९ को उन्हे प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलवाई गई। जयपुर के महाराजा सवाई मानसिंह को राजप्रमुख तथा कोटा के महाराव भीमसींह को उपराजप्रमुख नियुक्त किया गया।

बाद में राज्य पुनर्गठन आयोग ने इकलौते बचे अजमेर के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया तथा अजमेर तथा माउण्ट आबू को राजस्थान में मिला देने की सिफारिश की। इस प्रकार राजस्थान के निर्माण की प्रकिया मार्च, १९४७ में प्रारम्भ हुई थी, नवंबर १, १९५६ को समाप्त हुई। अब राजस्थान का क्षेत्रफल १,३२, २१२ वर्गमील हो गया तथा यह देश का तीसरा बड़ा प्रान्त बन गया। राजप्रमुख तथा उपराजप्रमुख के पद को समाप्त कर गवर्नर के पद का सृजन किया गया। नवंबर १, १९५६ को सरदार गुरुमुख निहालसिंह को प्रथम गवर्नर के रुप में नियुक्त किया गया। मोहनलाल सुखाड़िया नवंबर १९५४ से जुलाई १९७१ तक मुख्यमंत्री के उत्तरदायित्व को पुरा करते रहे।

मोहम्मद अली जिन्ना मारवाड़ (जोधपुर) की रियासत को पाकिस्तान में मिलाना चाहता था। जोधपुर के शासक हनवन्त सिंह जो कांग्रेस-विरोधी माने जाते थे, पाकिस्तान में सम्मिलित होकर अपनी स्वतंत्रता का स्वप्न देख रहे थे। अगस्त १९४७ में वे धौलपुर के महाराजा तथा भोपाल के नवाब की मदद से जिन्ना से व्यक्तिगत रुप से मिले। महाराजा की जिन्ना से बन्दरगाह की सुविधा, रेलवे का अधिकार, अनाज तथा शास्रों के आयात आदि के विषय में बातचीत हुई। जिन्ना ने उन्हे हर तरह की शर्त्तो को पुरा करने का आश्वासन दिया। लेकिन बातचीत के दौरान ही उन्होने यह महसूस किया कि एक हिन्दू शासक हिन्दू रियासत को मुसलमानों के साथ शामिल कर रहा है। इस बारे में वे और सोचना चाहते थे।

भोपाल के नवाब के प्रभाव में आकर महाराजा हनवन्त सिंह ने उदयपुर के महाराणा से भी पाकिस्तान में सम्मिलित होने का आग्रह किया। लेकिन उन्होने उनके आग्रह को ठुकराते हुए महाराजा हनवन्तसिंह को पाकिस्तान में न मिलने के लिए पुन: विचार करने को मजबूर कर दिया।

पाकिस्तान में सम्मिलित होने के प्रश्न पर जोधपुर का वातावरण दूषित तथा तनावपूर्ण हो चुका था। महाराजा ने महसुस किया कि ज्यादातर जागीरदार तथा वहाँ की जनता पाकिस्तान में विलय के बिल्कुल विरुद्ध है। माउन्टबेटन ने भी महाराजा को स्पष्ट शब्दों में समझाया कि धर्म के आधार पर बँटे देशो में मुस्लिम रियासत न होते हुए भी पाकिस्तान में मिलने के निर्णय से साम्प्रदायिक प्रतिक्रिया हो सकती है। सरदार पटेल भी किसी कीमत पर जोधपुर को पाकिस्तान में मिलते हुए नहीं देखना चाहते थे। अत: उन्होने जोधपुर के महाराजा की शर्तो को स्वीकार कर लिया जिसके अनुसार-

- महाराजा बिना किसी रुकावट के शास्रों का आयात कर सकेंगे।
- अकालग्रस्त इलाकों में खाधान्नों की सतत् आपूर्ति की जाएगी।
- महाराजा द्वारा जोधपुर रेलवे लाइन को कच्छ राज्य के बन्दरगाह तक मिलाने में कोई रुकावट नहीं पैदा की जाएगी।

परन्तु मारवाड़ के कुछ जागीरदार अभी तक विलय का विरोध कर रहे थे। वे मारवाड़ को एक स्वतंत्र राज्य के रुप में देखना चाहते थे लेकिन महाराजा हनवन्त सिंह ने समय को पहचानते हुए भारत-संघ के विलयपत्र पर अगस्त ९, १९४७ को हस्ताक्षर कर दिये। इस समय तक यह बात परिप हो चुका था कि मारवाड़ का राजस्थान संघ में विलय होगा क्योकि मारवाड़, भाषा व संस्कृति की दृष्टि से अपने पड़ोसी राज्यों से साम्य रखता था।

सिरोही का शासक नाबालिग था। वहाँ के शासन प्रबन्ध की देखभाल दोवागढ़ की महारानी की अध्यक्षता में एजेन्सी कॉउन्सिल कर रही थी। उत्तराधिकार के प्रश्न पर भी विवाद था। सिरोही राजपूताने की अन्य रियासतों के समान ठराजपूताना एजेन्सी' के अन्तर्गत आती थी। देश की स्वतंत्रता के कुछ समय पश्चात् रियासती विभाग ने सिरोही को राजपूताना एजेन्सी से हटा कर ठवेस्टर्न इण्डिया एण्ड गुजराज स्टेट्स एजेन्सी' के अधीन कर दिया था। सिरोही की जनता ने रियासती विभाग के निर्णय का विरोध किया। सिरोही का वकील संघ भी इस निर्णय के खिलाफ था।

गोकुलभाई भ जो राजस्थान कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष होने के साथ साथ दोवागढ़ महारानी के सलाहकार भी थे, ने सिरोही को तत्काल केन्द्रशासित राज्य के रुप में ले लेने का सुझाव दिया। नवम्बर ८, १९४८ को एक समझौते के अन्तर्गत सिरोही को केन्द्रशासित राज्य बना दिया गया।

गुजराती समाज चाहता था कि सिरोही का विलय बंबई में हो माउन्ट आबू परम्परा तथा इतिहास की दृष्टि से गुजराती सम्यता से जुड़ा है। दूसरी तरफ राजपूताना की जनता का तर्क था कि सिरोही की अधिकांश जनता गुजराती नहीं बल्कि राजस्थानी भाषा बोलती है। राजपूताना के अनेक शासकों ने अपने निवास हेतु आबू में अनेक विशाल भवनों का निर्माण कराया है।

सरदार पटेल ने चतुराई से सिरोही राज्य का विभाजन कर दिया जिसके अनुसार आबूरोड और दिलवाड़ा तहसील बंबई में तथा शेष राज्य को राजस्थान में मिला दिया गया।

इस निर्णय के विरुद्ध सिरोही में आन्दोलन शुरु हो गया जिसमें गोकुलभाई भ तथा बलवन्त सिंह मेहता की महत्वपूर्ण भागीदारी थी। लेकिन सरदार पटेल ने अपनी कार्य कुशलता व कुटनीति से विलय सम्बंधी समस्याओं का हल कर दिया।