बुधवार, 29 सितंबर 2010

मंदिरों की कमाई पर कब्जे की फिराक में सरकार

महाराष्ट्र सरकार की नजर अब मंदिरों पर है। दो मंदिरों का संचालन करके मलाई काट रही सरकार अब प्रदेश के दो लाख मंदिरों पर नजरें गड़ाए हुए है। अशोक चव्हाण की सरकार ने प्रदेश के तकरीबन दो लाख से भी ज्यादा मंदिरों को अपने कब्जे में लेने के लिए एक व्यापक प्रस्ताव तैयार किया है। सरकार का कहना है कि पब्लिक ट्रस्ट एक्ट के तहत जिन दो लाख मंदिरों का संचालन हो रहा है, उनके संचालन में गड़बड़ी की शिकायतें है।

इन मंदिरों के फंड में बडे पैमाने पर भ्रष्टाचार भी हो रहा है। सरकार का कहना है कि उसने इन मंदिरों के संचालन पर नजर रखने के लिए भले ही चैरिटी कमिश्नर की नियुक्ति कर रखी है। लेकिन मंदिरों के भ्रष्टाचार को रोकने में चैरिटी कमिश्नरी भी फेल रही है। इसीलिए सरकार इन मंदिरों का संचालन करने और उनकी निगरानी रखने के लिए एक सरकारी ट्रस्ट का गठन करेगी, जिस पर सीधे सरकार का नियंत्रण होगा।

महाराष्ट्र सरकार के इस प्रस्ताव पर बवाल मच गया है। बवाल इसलिए, क्योंकि मामला नीयत का है। सरकार का यह प्रस्ताव, कहीं पे निगाहें - कहीं पे निशाना, जैसा लग रहा है। जो लोग जानकार है, और ऐसे प्रस्तावों के असली उद्देशय से अच्छी तरह वाकिफ हैं, वे यह भी अच्छी तरह जानते हैं कि सरकार ने यह प्रस्ताव तो तैयार कर लिया है, पर नीयत साफ नहीं लग रही। कुल मिलाकर मामला कमाई का है। महाराष्ट्र के मंदिरों में भी देश के बाकी हिस्सों की तरह पैसा खूब बरसता है। खासकर जैन मंदिरों में सालाना अरबों रूपयों का चढ़ावा आता है। प्रदेश में जैन मंदिरों बहुत बड़ी संख्या में हैं। लगातार नए जैन मंदिरों का निर्माण भी बहुत तेजी से हो रहा है। पिछले कुछेक सालों का आंकड़ा देखें तो, सिर्फ मुंबई और आस पास के इलाकों में ही सालाना डेढ़ सौ सो भी ज्यादा जैन मंदिरों का निर्माण हो रहा है।

सरकार की इस कोशिश पर सबसे पहले एतराज जताया मलबार हिल के विधायक मंगल प्रभात लोढ़ा और शिवसंनै की नीलम गोरे ने। यह प्रस्ताव तैयार करने वाले महाराष्ट्र के कानून मंत्री राधाकृष्ण विखे पाटिल को एक पत्र भेजकर विधायक लोढ़ा ने इन करीब दो लाख मंदिरों को सरकारी कब्जे में लेने के प्रस्ताव का जोरदार विरोध किया। विधायक लोढ़ा ने सरकार से यहां तक कह दिया है कि सरकार को अगर भ्रष्टाचार की इतनी ही चिंता है तो सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार तो सरकार में है। सो, सबसे पहले सरकार को ही मंदिरों की तरह किसी ट्रस्ट को सौंप देना चाहिए। लोढ़ा ने चेतावनी देते हुए कहा सरकार से कहा है कि मंदिरों को कब्जे में लेने के बारे में सरकार अपना प्रस्ताव तत्काल वापस ले, वरना अंजाम ठीक नहीं होगा। नीलम गोरे भी भन्नाई हुई पहुंच गई मंत्री के दरवाजे पर और खूब सुनाकर आ गई। दोनों ही विधायक अपनी मजबूत छवि के मुताबिक सरकार को धमका कर आगे की तैयारी में है। लेकिन सरकारों पर ऐसी धमकियों का अगर कहां होता है। वे तो अपने सारे आंख - नाक – कान बंद कर के राज किया करती है। पर, वह जरूर सुनती है, जो उनको सुनना होता है।

सबसे बड़ा सवाल यह है कि जो सरकार अपने कब्जे के दो मंदिरों का संचालन भी ईमानदारी से नहीं कर सकती, वह दो लाख मंदिरों का संचालन कैसे करेगी, यह सभी अच्छी तरह जानते हैं। और यह इसलिए जानते हैं कि मुंबई का सिद्धि विनायक मंदिर और शिर्ड़ी का सांई बाबा मंदिर महाराष्ट्र के सीधे कब्जे में हैं। इन दोनों ही बहुत प्रतिष्ठित और श्रद्धा के सबसे बड़े स्थलों की हालत सरकार ने क्या कर रखी है, और यहां के चढ़ावों की कमाई का किस तरह उपयोग होता है, यह महाराष्ट्र की आम जनता अच्छी तरह जानती है। इसीलिए मंदिरों को सरकार ने कब्जे में लेने की जो तैयारी की है, उसके परिणाम बहुत खतरनाक साबित होंगे, यह साफ लग रहा है।

दरअसल, सरकार का यह प्रस्ताव को जनता की धार्मिक भावनाओं के साथ बहुत बड़ा खिलवाड़ है। धार्मिक स्थल हमारी भावनाओं के प्रतीक और आस्था के स्थल हैं। लाखों लोग अपनी आस्था की वजह से मुंबई के सिद्धि विनायक मंदिर और शिर्ड़ी के सांई बाबा मंदिर में चढ़ावा चढ़ाते हैं। लेकिन सरकारी नियंत्रण वाले इन मंदिरों की आय में से सालाना करोड़ों रुपया नेताओं के अपने ट्रस्टों और उन संस्थाओं को जाता है, जिनसे श्रद्धलुओं को कोई लेना – देना नहीं होता। दक्षिण भारत के तमिलनाड़ु, आंध्र प्रदेश और कर्नाटर राज्यों के कई मंदिर सरकारी ट्रस्टों के कब्जे में हैं। और पूरा देश जानता है कि उन मंदिरों में श्रद्धालुओं द्वारा पूरी आस्था के साथ चढ़ाई गई भेंट – पूजा से इकट्ठा हुआ करोड़ों रुपया वहां के मदरसों को अनुदान के रूप में सरकारें दे देती है। पर, कोई कुछ नहीं कर पाता। क्योंकि उन मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण है। चार साल पहले राजस्थान में भी तत्कालीन भाजपा सरकार ने ऐसा ही एक कमाऊ प्रस्ताव तैयार करके मंदिरों पर सरकारी कब्जा करने की कोशिश की थी। लेकिन जनता के जोरदार विरोध के सामने वसुंधरा राजे जैसी हैकड़ीबाज और जबरदस्त जननेता की छवि वाली मुख्यमंत्री को भी आखिर झुकना पड़ा था। तो, फिर महाराष्ट्र में तो सोनिया गांधी की मेहरबानी से खैरात में मिली कुर्सी पर मजे मार रहे अशोक चव्हाण मुख्यमंत्री हैं। जिनके ना तो पीछे कोई जनता है, और ना ही आगे कोई जानता है कि कल वे कहां होंगे। सो, मंदिरों के अधिग्रहण के इस संवेदनशील मुद्दे पर शोक चव्हाण को झुकना ही पड़ेगा, यह तय है।

लोग तो भक्ति में भावुक और आस्था से ओत-प्रोत होकर धर्म का मार्ग प्रशस्त करने के लिए मंदिरों का निर्माण कर रहे हैं। और सरकार में बैठे नेता हैं कि हमारी पूजा की प्रतिमाओं को ही अपनी कमाई का जरिया बनाने पर उतर गई है। माना कि महाराष्ट्र की आर्थिक हालत कोई बहुत अच्छी नहीं है। सरकार चलाने को पैसा बहुत चाहिए। और सरकार में बैठे लोगों का अपना पेट भी कोई कम छोटा नहीं होता। लेकिन मंदिरों पर तो हक जताने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। घर में भुखमरी अगर कुछ ज्यादा ही फैल जाए, फिर भी लोग अपने दादा – पड़दादा की फोटू बेचकर तो पेट पालने से परहेज करते है। लेकिन यहां तो हालात यह है कि मंदिरों पर भी हाथ साफ करने की कोशिश चल रही है। सरकारों की लिए कमाई के रास्ते बहुत बड़े और बहुत लंबे होते हैं हुजूर....., इन मंदिरों को बख्श कर कोई और जेब ढूंढिए। बात गलत तो नहीं...?

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