बुधवार, 24 नवंबर 2010

धर्मक्षेत्रे भारतक्षेत्रे …………

गीता का प्रथम श्लोक ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ भारतीय मनीषा को उत्कृष्टतम अभिव्यक्ति देने वाले ग्रंथ की शुरुआत मात्र नहीं है, यह व्यवस्था की एक एक विशेष स्थिति की तरफ संकेत भी करता है। एक ऐसी जब सत्य और असत्य के बीच आमना -सामना अवश्यंभावी बन जाता है। इस स्थिति में पूरी व्यवस्था व्यापक बदलाव के मुहाने पर खड़ी होती है। असात्विक शक्तियों की चालबाजियों, फरेबों और तिकड़मों से आम आदमी कराह रहा होता है। अभिव्यक्ति में असत्य हावी हो जाता है। परंपरागत सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक संरचनाओं में सड़ांध इस कदर बढ़ चुकी होती है अपने हितों के लिए मूल्य एवं आदर्श को ताक पर रखना सहज व्यवहार बन जाता है। राज और समाज को संचालित करने वाली शक्तियां इतनी मदमस्त हो जाती है कि उनके खिलाफ ‘लो इन्टेंसिटी वार’ अप्रासंगिक हो जाता है। लेकिन इस स्थिति का एक सकारात्मक पक्ष भी होता है। वह यह कि सात्विक शक्तियां असात्विक शक्तियों की चुनौती को ताल ठोंककर स्वीकार करती है। इस कारण प्रत्यक्ष संघर्ष अपरिहार्य बन जाना है। दोनों पक्षों को एक दूसरे के खिलाफ शंखनाद करना पड़ता है। चूंकि यह संग्राम धर्म की स्थापना के उद्देश्य से लड़ा जाता है इसलिए जिस भूमि पर सेनाएं डटती हैं , वह धर्मभूमि बन जाती है। इस स्थिति की एक विशेषता यह भी है कि अपने तमाम अच्छे आग्रहों के बावजूद संचार और संचारक (मीडिया और पत्रकार) असात्विक शक्तियों के पाले में ही खड़े दिखायी देते हैं और उनकी भूमिका मात्र ‘आंखो देखा हाल’ सुनाने तक सीमित हो जाती है।

भारत जिस कालखंड से गुजर रहा है उसमें भी भारतीयता और अभारतीयता के बीच का संघर्ष तेजी से ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ की स्थिति की स्थिति की ओर बढ़ रहा है। हालांकि इस युध्द का क्षेत्र कुरुक्षेत्र तक सीमित न रहकर संपूर्ण भारत है। एक लंबी योजना के तहत उन शक्तियों पर निशाना साधा जा रहा है जो वर्तमान प्रणाली में भारतीयता को स्थापित करने का प्रयास कर रही है , भारतीय प्रकृति और तासीर पर आधारित वैकल्पिक व्यवस्था को गढ़ने के लिए प्रयत्नशील हैं।

इस बिंदु पर भारतीयता और अभारतीयता के बीच के संघर्ष को व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझना आवश्यक है। यह संघर्ष दिन, माह, और 100-50 वर्ष की सीमाओं को बहुत पहले ही लांघ चुका है और पिछले 1ं4 सौ वर्षों से सतत जारी है। कई निर्णायक दौर आए। कई बार ऐसा लगा कि भारतीयता सदैव के लिए जमींदोज हो गयी है लेकिन अपनी अदम्य धार्मिक जीजीविषा और प्रबल सांस्कृतिक जठराग्नि की बदौलत ऐसे तमाम झंझावातों को पार करने में वह सफल रही। 17वीं सदी तक भारतीयता पर होने वाले आक्रमणों की प्रकृति बर्बर और स्थूल थी। इस दौर के आक्रांताओं में सांस्कृतिक समझ का अभाव था और वे जबरन भारतीयता को अपने ढांचे में ढालने की कोशिश कर रहे थे। 18 वीं सदी में आए आक्रांताओं ने धर्म और संस्कृति में छिपी भारतीयता की मूलशक्ति को पहचाना और उसे नष्ट करने के व्यवस्थागत प्रयास भी शुरु किए। इस दौर में भारतीयता पर दोहरे आक्रमण की परंपरा शुरु हुई। बलपूर्वक भारतीयता को मिटाने के प्रयास यथावत जारी रहे साथ ही भारतीयों में भारतीयता को लेकर पाए जाने वाले गौरवबोध को नष्ट करने के एक नया आयाम आक्रांताओं ने अपनी रणनीति में जोड़ा। 1990 के बाद मीडिया -मार्केट गठजोड़ के कारण लोगों में तेजी से रोपी जा रही उपभोक्तावादी जीवनशैली के कारण भारतीयता पर आक्रमण का एक नया तीसरा मोर्चा भी खुल गया। मीडिया मार्केट गठजोड़ का भारतीयता से आमना-सामना अवश्यंभावी था क्योंकि भारतीयता त्यागपूर्वक उपभोग के जरिए आध्यात्मिक उन्नति के चरम लक्ष्य को प्राप्त करने की बात कहती है जबकि दूसरा पक्ष उपभोग को ही जीवन का चरम लक्ष्य मानता है और अंधाधुध उपभोग पर आधारित जीवनशैली को बढ़ावा देता है। भारतीयता पर आक्रमण करने वाले इस त्रिकोण के अंतर्संबंध आपस मे बहुत अच्छे नहीं कहे जा सकते। कही कहीं तो वे एकदूसरे पर जानलेवा हमला करते हुए भी दिखते है। लेकिन भारतीयता से इन तीनों को चनौती मिल रही है। इसलिए इस त्रिकोण ने भारतीयता के समाप्ति को अपने साझा न्यूनतम कार्यक्रम का हिस्सा बना लिया है।

इस अभारतीय त्रिकोण के उभार के कारण संघर्ष की प्रकृति और त्वरा में व्यापक बदलाव दिखने लगे हैं। पहले दोनों पक्षों के बीच अनियोजित अथवा अल्पयोजनाबध्द ढंग से विभिन्न मोर्चों पर छोटी – मोटी लडाईयां होती रहती है। अब सुनियोजित और व्यवस्थित तरीके से भारतीयता पर आक्रमण हो रहे और उसके अस्तित्व को समाप्त करने प्रयास किए जा रहे हैं। भारतीयता की वाहक शक्तियां भी चुनौती को स्वीकार करने के मूड में दिख रही है , इसलिए अब महासंग्राम का छिड़ना तय सा दिख रहा है।

पिछले 2 वर्षो सें ‘ हिन्दू आतंकवाद ‘ की अवधारणा को रोपने का जो प्रयास किए जा रहा हैं और उसका जिस तरह से प्रतिवाद हो रहा है , वह भावी महासंग्राम का कारण बन सकता है। हिंदू आतंकवाद की अवधारणा अभारतीय शक्तियों का एक व्यवस्थित और दूरगामी प्रयास है। इस अवधारणा के जरिए वे पश्चिम में तेजी से फैल रही आध्यात्मिकता पर आधारित उदात्त और समग्र भारतीय जीवनशैली को दफनाना चाहती हैं।। योग और आयुर्वेद के प्रति संपूर्ण दुनिया की नई पीढ़ी जिस तरह से आकर्षित हुई है।इसी तरह कई संस्थाएं और संत पश्चिम में आध्यात्मिकता की अलख जगा रहे हैं, और वहां नई पीढ़ी इसकी तरफ तेजी से आकर्षित हो रही है। इस आकर्षण भाव के कारण भारतीयता विरोधी त्रिकोण के हाथ-पांव फूल गए है। भारतीयता की छवि को संकीर्ण और कट्टर पेश कर यह त्रिकोण उसके प्रति तेजी से पनप रहे आकर्षण भाव को भंग करना चाहता है। ‘हिन्दू आतंकवाद’ का नया शिगूफा छोड़कर इस त्रिकोण ने भारतीयता की ध्वजावाहक शक्तियों को भारत में ही घेरने की रणनीति बनायी है।

इस पूरे प्रकरण में मीडिया की अति उत्साही भूमिका भी देखने लायक है। 2 वर्षों पहले तक किसी पंथ को आतंकवाद से न जोड़ने का उपदेश देने वाला मीडिया बिना किसी सबूत और साक्ष्य के ‘हिन्दू आतंकवाद’ शब्द को बार -बार दोहरा रहा है। मजेदार तथ्य यह है कि ‘हिन्दू आतंकवाद’ शब्द को मीडिया के जरिए आमलोगों से परिचित पहले करवाया गया और उसकी पुष्टि के सबूत बाद में जुटाए जा रहे हैं। एक अवधारणा के रुप में हिन्दू आतंकवाद हाल के दिनों में ‘मीडिया ट्रायल’ का सबसे बडा उदाहरण है। सबसे पहले मालेगांव प्रकरण में ‘हिन्दू आतंकवाद’ शब्द का प्रयोग किया गया। इस प्रकरण में सांगठनिक स्तर पर अभिनव भारत तथा व्यक्तिगत स्तर साध्वी प्रज्ञा का नाम उछाला गया। मालेगांव विस्फोट प्रकरण में मीडिया को तमाम मनगढंत कहानियां उपलब्ध कराने के अतिरिक्त आजतक जांच एजेंसियां कोई ठोस सबूत नहीं इकट्ठा कर पायी हैं। अभिनव भारत जैसे अनजान जैसे संगठन को लपेटने पर भी भारतीयता पर कोई आंच आती न देख अब इस त्रिकोण ने भारत और विश्व के सबसे बडे सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हिन्दू आतंकवाद से जोड़ने का कुत्सित प्रयास शुरु कर दिया है। संघ इस त्रिकोण के निशाने पहले भी सबसे उपर रहा है। क्योंकि आतंकवाद, धर्मांतरण और खुली अर्थव्यवस्था की विसंगतियों के प्रति संघ आमजन को जागरुक करता रहा है। इस कारण पूरे भारत में धीरे -धीरे इस त्रिकोण के खिलाफ एक प्रतिरोधात्मक शक्ति खड़ी होती जा रही थी।

अब इन शक्तियों ने संघ के एक वरिष्ठ और दूरदर्शी प्रचारक इंद्रेश का नाम ,जिन्हे मुसलमानों को भी संघ के कार्य से जोड़ने के लिए विशेष रुप से जाना जाता है, अजमेर बम विस्फोट में घसीटा है। यह त्रिकोण इंद्रेश के नाम को अजमेर बम विस्फोट से जोड़कर एक साथ कई निशाने साधने की कोशिश कर रहा है। इससे जहां एक तरफ त्रिक़ोण के सर्वाधिक सशक्त प्रतिरोधी की राष्ट्रवादी और लोक कल्याणकारी छवि को धूमिल किया जा सकेगा , वहीं इस्लामिक आतंकवाद के समकक्ष ‘हिन्दू आतंकवाद’ शब्द खड़ा कर मुसलमानों के कुछ वोट भी हथियाए जा सकेंगे। साथ ही , हिन्दू -मुस्लिम संवाद के एक संभावित धरातल को नष्ट भी किया जा सकेगा। लेकिन संघ ने भी इस चुनौती को स्वीकार करने का मन बन लिया है। संघ ने 10 नवंबर को पूरे देश में हिन्दुत्व और भारतीयता को बदनाम करने के इस कुत्सित प्रयास के खिलाफ धरना देने का फैसला किया है, आमजनता के बीच जाने का निर्णय लिया है। इस निर्णय का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि क्योंकि संघ ने घरने -प्रदर्शन के पूरे अभियान के सूत्र अपने हाथ में रखे है इससे पहले यह काम संघ के अनुषांगिक संगठन करते थे। 1975 के आपातकाल के बाद यह पहला मौका है जब संघ किसी मुद्दे की बागडोर खुद अपने हाथ मे लेकर आमजन के बीच जा रहा है। धरने प्रदर्शन का यह अभियान मात्र अभारतीय त्रिकोण को उत्तर देने की तैयारी मात्र नहीं है , संघ अपने उस आनुषंगिक संगठन को भी संदेश देना चाहता है जो व्यवस्था में भारतीयता को स्थापित करने के लक्ष्य से एकहद तक विचलित हो चुका है और यह मान चुका है कि उनके बिना संघ कोई सार्वजनिक अभियान चलाने में अक्षम है। जाहिर है एक बडे महासंग्राम की स्थितियां पूरी तरह बन गयी है। भारत तेजी से ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ की स्थिति की तरफ बढ़ रहा है। लेकिन कोई ऐसा संजय नहीं दिखाई दे रहा है जो असत्य के पाले मेंं रहते हुए भी अंधी सत्ता को बीच-बीच में टोक कर उसे सत्य मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित करता रहे और स्थिति की भीषणता की तरफ उसका ध्यान भी आकर्षित करे।

हिन्दुत्व के आलोचक

भारत सहित विश्व के ख्यातिनाम विद्वानों एवं दार्शनिकों के लिए हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व को उसके सही और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करना आसान कार्य कभी नहीं रहा। इस संबंध में इलाहाबाद से प्रकाशित एक हिंदी दैनिक के 28 अक्टूबर,2010 के ताजा अंक में किन्हीं श्री सुभाष गाताड़े के लेख ”हिन्दू धर्म एवं हिन्दुत्व के फर्क को आप कब समझेंगे भागवत जी?” को पढ़ाकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ। पूरे लेख में अन्तर्निहित दुर्भावना, अधकचरी जानकारी, पक्षपातपूर्ण सामग्री एवं झूठ के पुलिंदे को पढ़कर बहुत दुख हुआ। किसी लेखक को अपने लेख की प्रकाशनार्थ सामग्री इस आशय से कई बार पढ़नी चाहिए कि उसमें निहित निराधार दुर्भावना प्रकट न होने पायें। लेखक को विनम्र सलाह है कि वे सर्वप्रथम मा. इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ द्वारा विगत् 30 सितम्बर,2010 को अयोध्या विवाद पर घोषित निर्णय को आद्योपांत ध्यान से पढ़ डालें। विशेष रुप से संबंधित पीठ द्वारा वर्ष 2002-03 में दिये गये निर्देशों के अनुपालन में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा विवादित स्थल के आस-पास करीब 90 स्थानों पर की गयी खुदायी के बाद मा. न्यायालय में प्रस्तुत उस आख्या का अध्ययन कर लें जिसमें साफ-साफ कहा गया है कि विवादित भूमि के नीचे एक हिंदू मंदिर के अवशेष अब भी विद्यमान हैं। न्यायपीठ में शामिल तीन जजों में से दो न्यायाधीशों (न्यायमूर्ति शर्मा एवं न्यायमूर्ति सुधीर नारायण) ने पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की आख्या का बारीकी से अध्ययन करने के बाद अपने निर्णय में यह मत व्यक्त किया कि विवादित स्थल पर पहले से मौजूद एक हिंदू मंदिर को ध्वस्त करके उसके मलवे से कथित बाबरी मस्जिद बनवाई गयी थी, जबकि तीसरे न्यायमूर्ति खान इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि कथित बाबरी ढाँचा एक हिंदू मंदिर के खंडहर पर बनवाया गया था। तीनों न्यायाधीशों का असंदिग्ध मत यह था कि मस्जिद एक हिंदू मंदिर स्थल पर बनवाई गयी थी, न कि किसी खाली भूमि पर। साथ ही यह निष्कर्ष भी निकाला गया कि कथित मस्जिद मुस्लिम मान्यताओं के अनुसार पूर्ण रुपेण मस्जिद नहीं थी। अगर लेखक गाताड़े को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की आख्या और उसे एक साक्ष्य के रुप में स्वीकार करने की माननीय न्यायाधीशों के सुविचारित निर्णय में उल्लेख पर कोई आपत्ति है, तो उन्हें अपनी आपत्तियों को तर्क संगत ढंग से प्रचार माध्यमों में व्यस्त करना चाहिए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन राव भागवत ने निर्णय का स्वागत करते हुए कहा था कि इस निर्णय से ‘न कोई जीता-न कोई हारा’। उनका यह वक्तव्य एक अक्टूबर, 2010 के सभी दैनिकों में प्रकाशित हुआ था। दशकों से पाक प्रेरित आतंकियों द्वारा देश के विभिन्न भागों में किये गये विस्फोटों में हजारों निर्दोषों के असमय काल कवलित हो जाने पर लेखक श्री गाताड़े ने कितने लेख लिखे थे? बहुत सी आतंकी घटनाओं में सिमी एवं इंडियन मुजाहिदीन के कर्ता-धर्ता संलिप्त पाये गये थे। उनमें से कुछ को न्यायालयों द्वारा दंडित भी किया जा चुका है और कुछ मामले अब भी न्यायालय में विचाराधीन हैं। तब देश भर के पंथनिरपेक्षतावादी यह कहने से गुरेज नहीं करते थे कि आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता यानी” मुस्लिम आतंकवाद” कहने पर परहेज किया गया और अब इक्का-दुक्का घटनाओं में कुछ हिंदुओं के पकड़े जाने पर न केवल ‘भगवा आतंकवाद’ या ‘हिन्दु आतंकवाद’ का देशव्यापी नारा लगाया जाने लगा, वरन् इसमें पूरी संप्रग सरकार और उसके गृहमंत्री ने खुला योगदान देना शुरु कर दिया। श्री गाताड़े जैसे लेखक भी अपनी अधकचरी जानकारी एवं पक्षपाती दृष्टिकोण के कारण उसके शिकार हो गये। श्री गाताड़े की सीमित जानकारी होने की वजह से संघ में ‘एक चालकानुवर्तित्व’ का सवाल उठाया गया है। उनमें यह साहस नहीं है कि वे देशभर के अधिकांश क्षेत्रीय दलों के आजीवन अध्यक्षों और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय राजनीतिक दल के एक परिवार में सिमट जाने पर कुछ सवाल उठा सकते। क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के वर्तमान अध्यक्षों ने तो अपने परिवार के उत्तराधिकारी को अपने दल की बागडोर सौंपने की तैयारी भी कर ली है। श्री गाताड़े का ध्यान इस ओर भी जाना चाहिए। लेखक गाताडे ने अपनी सम्यक जानकारी के अभाव में महात्मा गांधी की हत्या का प्रसंग उठाया है। उन्हें अगर जानकारी है, तो उसका खुलासा करें कि महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ द्वारा कहां-कहां मिठाई बांटी या बटवाई गयी? महात्मागांधी की हत्या से संबंधित मुकदमें की सुनवाई न्यायमूर्ति आत्माचरण की विशेष अदालत में 26 मई, 1948 को लालकिले में शुरु हुयी थी जिसका निर्णय 110 पृष्ठों में 10 जनवरी, 1949 को घोषित करते हुए माननीय न्यायाधीशों ने असंदिग्ध शब्दों में यह घोषणा कर दी थी कि महात्मा गांधी की हत्या के षडयंत्र से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कोई संबंध नहीं था। इस निर्णय की अपील पंजाब उच्च न्यायालय में की गयी जिसकी सुनवाई न्यायमूर्ति भंडारी, न्यायमूर्ति अच्छूराम और न्यायमूर्ति जी.डी. खोसला की तीन सदस्यीय पूर्ण पीठ द्वारा की गयी। शिमला में घोषित निर्णय में पूर्णपीठ द्वारा असंदिग्ध रुप से संघ को निर्दोष घोषित कर दिया गया। इसके काफी दिनों बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा सन् 1966 में सर्वोच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायमूर्ति टी.एल.कपूर की अध्यक्षता में एक न्यायिक आयोग गठित कर महात्मा गांधी की हत्या की, जाँंच का कार्य सौंपा गया। इस आयोग द्वारा 101 साक्षियों के बयान दर्ज करने के साथ ही 407 दस्तावेजी सबूतों का परीक्षण करके 1968 में अपनी रिपोर्ट सौंपी गयी। इसमें सबसे महत्वपूर्ण गवाही 1948 में गृह सचिव रहे आर.एन.बनर्जी की हुयी जिन्होंने असंदिग्ध रुप से कहा था कि गांधी जी के हत्यारों का संघ से कोई संबंध नहीं था। श्री बनर्जी की गवाही का उल्लेख करते हुए कपूर आयोज की रिर्पोर्ट के पृष्ठ-76, खंड-2 में स्पष्ट रुप से कहा गया कि इस जघन्य हत्या के लिए संघ को कतई जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता। सावरकर जी का भी संघ से कोई संबंध नहीं था। वे हिंदू महासभा के नेता थे। लेखक गाताड़े स्वयं अपने लेख में यह स्वीकार करते हैं कि आतंकवाद का संबंध किसी धर्म से नहीं जाना चाहिए। अतः ‘हिन्दू आतंकवाद ‘ कहना सर्वथा अनुचित है। यह बात गाताड़े जी को भारत के गृहमंत्री चिदंबरम् को समझाना चाहिए। मालेगांव विस्फोट के सिलेसिले में जॉच-पड़ताल के बाद जिन लोगों को अभियुक्त बनाकर गिरफ्तार किया गया, उनमें से किसी का संबंध संघ से नहीं है। वे सभी ‘अभिनव भारत’ नामक किसी अनाम से संगठन के कर्ताधर्ता हैं। जब मुस्लिम समुदाय बड़ी संख्या में पूरे विश्व की आतंकी घटनाओं से जुड़ा पाया गया, तो भी ‘मुस्लिम आतंकवाद’ कहना उचित नहीं माना जाता, तब फिर ‘हिन्दू आतंकवाद’ कहाँ से आ गया? श्री गाताड़े जी को ‘हिन्दू धर्म’ और ‘हिन्दुत्व’ को समझने के लिए माननीय सर्वोच्च न्यायालय की पूर्णपीठ(जिसमें न्यायमूर्ति जे.एस.वर्मा, न्यायमूर्ति एन.पी.सिंह एवं न्यायमूर्ति के. वेंकट स्वामी शामिल थे) द्वारा दिनांक 11.12.95 को घोषित निर्णय का गंभीरता से अध्ययन करना चाहिए। इस निर्णय का एक महत्वपूर्ण अंश निम्नवत् हैः- ”हिन्दू धर्म के बारे में विचार करते हुए हिन्दू धर्म की परिभाषा करना अथवा इसकी संतोषजनक व्याख्या करना यदि असंभव न माना जाय, तो कठिन अवश्य है। अन्य धर्मो (विश्व में प्रचलित) की भांति पूजा नहीं की जाती है। किसी एक ही सिध्दांत में विश्वास करना इसमें आवश्यक नहीं है। यह किसी एक दार्शनिक धारणा में विश्वास रखने का आग्रह नहीं करता है और न ही एक ही प्रकार के धार्मिक कर्मकांडों का पालन करने को कहता है। वस्तुतः यह किसी मत अथवा पांथिक विश्वास के लिए आवश्यक संकीर्ण परंपरागत विशेषताओं अथवा मान्यताओं को यह संतुष्ट करता नहीं दिखायी पड़ता। इसे एक जीवन दर्शन के अतिरिक्त कुछ नहीं कहा जा सकता है।” विश्व प्रसिध्द दार्शनिक एवं भारत के राष्ट्रपति रहे डॉ. राधाकृष्णन् ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ’ के पृष्ठ -12 पर कहा है कि ”सिन्धु नदी के भारतीय तटों की ओर निवास करने वाले जन को फारस और अन्य पश्चिमी आक्रांताओं द्वारा हिंदू ही कहा गया।” डॉ. राधाकृष्णन् के अनुसार हिन्दू शब्द का मूलतः महत्व पांथिक विचार के बजाय भौगोलिक अधिक है। उनकी पुस्तक ‘इंडियन फिलॉसफी’ भाग-1 के पृष्ठ 22-23 पर लिखा गया है- ”इतिहास के सभी ज्ञात काल खंड और सभी परिस्थितियों में से जिनसे भारत गुजरा है, एक स्पष्ट और विशिष्ट पहचान दृष्टिगत होती है। हिन्दू धर्म ने अपने सुनिश्चित मनोवैज्ञानिक रुझान को दृढ़तापूर्वक अपनाये रखा और यह उसकी विशिष्ट विरासत भी बन गयी और यही भारतीय जन की मौलिक चारित्रिक विशेषता भी बनी रहेगी, जब तक उन्हें स्वतंत्र एवं पृथक जीवन जीने का सुअवसर प्राप्त होता रहेगा।” प्रसिध्द स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और स्वराज्य के उद्धोषक बाल गंगाधर तिलक ने अपने महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘गीतारहस्य’ में हिन्दू धर्म की बड़ी उदार व्याख्या इस रुप में की है-” वेदों के प्रति आदरभाव इस विचार की मान्यता कि मुक्ति के मार्ग अनेक है इस सत्य की अनुभूति कि देव अनेक हैं जिनकी पूजा की जा सकती है-यह ही हिन्दू धर्म की मुख्य विशेषतायें हैं।” ‘विश्व शब्दकोश ब्रिटानिया’ के 15 वें संस्करण में सार रुप में हिन्दुत्व को निम्नवत् परिभाषित किया गया हैः-”हिन्दुत्व एक सभ्यता भी है और अनेक धार्मिक विचारों का संग्रहीत रुप भी है जिसका न कोई अन्त है और न ही आदि जिसका न कोई संस्थापक है और न कोई केंद्रीय अधिकारी। जिसकी न कोई वंश परंपरा है और न कोई संगठन। हिन्दुत्व को परिभाषित करने के प्रत्येक प्रयत्न अभी तक किसी न किसी रुप में असंतोषजनक ही रहे हैं। हिंदुत्व के दिग्गज विद्वान जिनमें स्वयं हिन्दू भी थे, इसे पारिभाषित करने में असफल रहे हैं क्योंकि सभी ने इसके भिन्न-भिन्न पक्षों पर ही बल दिया है।” पता नहीं सुभाष गाताड़े ने यह निष्कर्ष किस आधार पर निकाल लिया कि सावरकर जी द्वारा लिखित पुस्तक ‘हिन्दुत्व’ ही सभी सरसंघचालकों के लिए ‘बाइबिल’ है। संघ का हिन्दुत्व स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, अरविंद घोष आदि द्वारा प्रतिपादित सिध्दांतों पर आधारित है जिसमें कट्टरता के लिए कोई स्थान नहीं है। श्री गाताड़े ने देश विभाजन के पूर्व करांची में संघ कार्यकर्ताओं द्वारा किये गये किसी विस्फोट का भी जिक्र किया है। वे देश विभाजन के पूर्व पश्चिमी पाकिस्तान एवं नौवारवाली आदि स्थानों पर दस लाख से अधिक हिंदुओं एवं सिखों के बर्बर नरसंहार का उल्लेख करना शायद भूल गये। यदि उस नरसंहार के जवाब में पाक क्षेत्रों में हिंदुओं ने आत्मरक्षा में कहीं विस्फोट आदि किया हो तो उसे अनुचित कैसे कहा जा सकता है? पाक प्रेरित आतंकियों द्वारा 26.11.2008 को देश की आर्थिक राजधानी मुंबई पर किया गया हमला बिल्कुल ताजा है। अमेरिका, रुस, ब्रिटेन और भारत जैसे गैर मुस्लिम देश वर्षों से आतंकवादियों के निशाने पर हैं। गाताड़े जी का इस विश्वव्यापी आतंकवाद पर क्या कहना है?


वामपंथी सेकुलरिज़्म को निर्वस्त्र करती दो खबरें…

जैसा कि सभी जानते हैं वामपंथी भले ही सिद्धान्तों की कितनी भी दुहाई दे लें, कितनी ही शाब्दिक लफ़्फ़ाजियाँ हाँक लें परन्तु उनका “असली रंग” गाहे-बगाहे सामने आता ही रहता है, और वह असली रंग है वोटों की खातिर मुस्लिमों के सामने आये दिन नतमस्तक होने का…। वैसे तो देश के सौभाग्य से अब यह कौम सिर्फ़ दो ही राज्यों (केरल और पश्चिम बंगाल) में ही जीवित है, तथा अपने कैडर की गुण्डागर्दी और कांग्रेस द्वारा मुस्लिम वोटों के शिकार के बाद जो जूठन बच जाती है उस पर ये अपना गुज़र-बसर करते हैं। पश्चिम बंगाल और केरल के आगामी चुनावों को देखते हुए इन दोनों “सेकुलर चैम्पियनों” के बीच मुस्लिम वोटों को लेकर घमासान और भी तीखा होगा। पश्चिम बंगाल में देगंगा के दंगों में (यहाँ देखें…) हम यह देख चुके हैं… हाल ही में केरल से दो खबरें आई हैं जिसमें वामपंथियों का “सेकुलर नकाब” पूरी तरह फ़टा हुआ दिखता है…

1) मुस्लिम बच्चों को मुफ़्त कोचिंग क्लास सुविधा, स्कॉलरशिप एवं मुफ़्त होस्टल की सुविधा, मौलवियों को पेंशन तथा पाकिस्तान को पाँच करोड़ का दान देने जैसे “सत्कर्म” करने के बाद केरल की वामपंथी सरकार ने हाल ही में एक सर्कुलर जारी करके सभी राशन दुकानों को आदेश दिया है कि राज्य के सभी गरीब मदरसा शिक्षकों को दो रुपये किलो चावल दिया जाये। जैसा कि सभी जानते हैं केरल के कई इलाके लगभग 70% मुस्लिम जनसंख्या वाले हो चुके हैं और कई सीटों पर स्वाभाविक रुप से “जेहादी” निर्णायक भूमिका में हैं, हाल ही में ईसाई प्रोफ़ेसर का हाथ काटने वाली गैंग में शामिल एक अपराधी, जेल से पंचायत चुनाव जीत चुका है तथा कई नगर निगमों अथवा जिला पंचायतों में मुस्लिम लीग व PFI (पापुलर फ़्रण्ट ऑफ़ इंडिया) के उम्मीदवार निर्णायक स्थिति में आ गये हैं… तो अब हमें मान लेना चाहिये कि वामपंथियों ने प्रोफ़ेसर का हाथ काटने के “उपलक्ष्य” (यहाँ देखें…) में इनाम के बतौर मदरसा शिक्षकों को दो रुपये किलो चावल का तोहफ़ा दिया होगा।

उल्लेखनीय है कि केरल में “देवस्वम बोर्ड” के गठन में नास्तिक(?) वामपंथियों की घुसपैठ की वजह से मन्दिरों के पुजारियों की आर्थिक स्थिति बहुत खराब चल रही है, जहाँ एक तरफ़ पुजारियों को यजमानों से दक्षिणा लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है, वहीं दूसरी तरफ़ पुजारियों की तनख्वाह मन्दिर के सफ़ाईकर्मियों के बराबर कर दी गई है।

2) दूसरी खबर वामपंथियों की “सेकुलर बेशर्मी” के बारे में है – पिछले कई साल से केरल के वामपंथी राज्य में “इस्लामिक बैंक” स्थापित करने के लिये जी-जान से जुटे हुए हैं, वह तो भला हो डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी का जिनकी याचिकाओं के कारण केरल हाईकोर्ट ने इस्लामिक बैंक पर रोक लगा दी है (यहाँ देखें…), वहीं दूसरी तरफ़ हाल ही में रिज़र्व बैंक ने एक आदेश जारी करके यह कहा कि केरल में किसी भी प्रकार के इस्लामिक बैंक को अनुमति प्रदान करने का सवाल ही नहीं पैदा होता, क्योंकि इस्लामिक बैंक की अवधारणा ही असंवैधानिक है।

इतनी लताड़ खाने के बावजूद, केरल राज्य औद्योगिक विकास निगम द्वारा प्रवर्तित अल-बराका इंटरनेशनल फ़ाइनेंशियल सर्विसेज़ ने बेशर्मी से दावा किया उसे “इस्लामिक बैंक” बनाने की मंजूरी मिल गई है। “अल-बराका” द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि प्रस्तावित बैंक पूर्णतः “शरीयत कानून” पर आधारित होगा। खाड़ी देशों में कार्यरत “कुछ खास गुट” ऐसी इस्लामिक बैंक बनवाने के लिये पूरा जोर लगा रहे हैं ताकि जो पैसा उन्हें हवाला अथवा अन्य गैरकानूनी रास्तों से भेजना पड़ता है, उसे एक “वैधानिकता” हासिल हो जाये। इसी में अपना सुर मिलाते हुए केरल सरकार ने कहा कि “इस्लामिक बैंक” पूरी तरह से सेकुलर है…।वामपंथ के लिये यह एक स्वाभाविक सी बात है कि जहाँ “इस्लामिक” शब्द आयेगा वह तो सेकुलर होगा ही और जहाँ “हिन्दू” शब्द आयेगा वह साम्प्रदायिक… जैसे कि मुस्लिम लीग सेकुलर है, विश्व हिन्दू परिषद साम्प्रदायिक… मजलिस-इत्तेहाद-ए-मुसलमीन सेकुलर है लेकिन शिवसेना साम्प्रदायिक… इत्यादि।

(चित्र में – वरिष्ठ वामपंथी नेता विजयन, कोयंबटूर बम विस्फ़ोट के आरोपी अब्दुल नासेर मदनी के साथ मंच शेयर करते हुए)

पहले भी एक बार वामपंथियों के पूज्य बुज़ुर्ग नम्बूदिरीपाद ने अब्दुल नासेर मदनी की तुलना महात्मा गाँधी से कर डाली थी, जो बाद में कड़े विरोध के कारण पलटी मार गये। तात्पर्य यह किवामपंथियों के नारे “धर्म एक अफ़ीम है” का मतलब सिर्फ़ “हिन्दू धर्म” से होता है (यहाँ देखें…), मुस्लिम वोटों को खुश करने के लिये ये लोग “किसी भी हद तक” जा सकते हैं। शुक्र है कि ये सिर्फ़ दो ही राज्यों में बचे हैं, असली दिक्कत तो कांग्रेस है जिससे इन्होंने यह शर्मनिरपेक्ष सबक सीखा है।

चलते-चलते एक अन्य खबर महाराष्ट्र से - जवाहरलाल नेहरु अन्तर्राष्ट्रीय बन्दरगाह (ज़ाहिर है कि अन्तर्राष्ट्रीय है तो इसका नाम नेहरु या गाँधी पर ही होगा…) पर कुवैत के एक जहाज को सुरक्षा एजेंसियों ने जाँच के लिये रोका है। तफ़्तीश से यह साबित हुआ है कि जहाज के कर्मचारी बन्दरगाह पर इस्लाम के प्रचार सम्बन्धी पुस्तकें बाँट रहे थे। 12 पेज वाली इस पुस्तक का मुखपृष्ट “निमंत्रण पत्र” जैसा है जहाँ लिखा है “उन्हें एक बेहतर धर्म “इस्लाम” की तरफ़ बुलाओ, जो हिन्दू धर्म अपनाये हुए हैं…”। CGM एवरेस्ट नामक जहाज के कैप्टन हैं सैयद हैदर, जो कि कराची का निवासी है। 12 पेज की यह बुकलेट कुवैत के इस्लामिक दावा एण्ड गाइडेंस सेण्टर द्वारा प्रकाशित की गई है, तथा जहाज के सभी 33 कर्मचारियों के पास मुफ़्त में बाँटने के लिये बहुतायत में उपलब्ध पाई गई।

हालांकि पहले सुरक्षा एजेंसियों की निगाह से यह छूट गया था, लेकिन बन्दरगाह के ही एक भारतीय कर्मचारी द्वारा पुलिस को यह पुस्तिका दिखाने से उनका माथा ठनका और जहाज को वापस बुलाकर उसे विस्तृत जाँच के लिये रोका गया। जहाज महाराष्ट्र के कोंकण इलाके की तरफ़ बढ़ रहा था, यह वही इलाका है जहाँ दाऊद इब्राहीम का पैतृक गाँव भी है एवं मुम्बई में ट्रेन विस्फ़ोट के लिये इन्हीं सुनसान समुद्र तटों पर RDX उतारा गया था। जहाज के कैप्टन की सफ़ाई है कि वे भारतीय तट पर नहीं उतरे थे, बल्कि जो लोग जहाज में बाहर से (यानी भारत की ज़मीन से) आये थे उन्हें बाँट रहे थे। अधिकारियों ने जाँच में पाया कि अन्तर्राष्ट्रीय जल सीमा में “धार्मिक प्रचार” का यह पहला मामला पकड़ में आया है, तथा यह बुकलेट मजदूरों और कुलियों को निशाना बनाकर बाँटी जा रही थी तथा पूरी तरह हिन्दी में लिखी हुई हैं…

तात्पर्य यह कि हिन्दुओं पर “वैचारिक हमले” चौतरफ़ा हो रहे हैं, और हमलावरों का साथ देने के लिये कांग्रेस-वामपंथ जैसे जयचन्द भी इफ़रात में मौजूद हैं…

मीडिया द्वारा अपनी “सेकुलर इमेज” बनाये रखने के तरह ऐसी खबरों को जानबूझकर दबा दिया जाता है ताकि “कुम्भकर्णी हिन्दू” कभी असलियत न जान सकें, रही बात कई राज्यों में सत्ता की मलाई चख रहे भाजपाईयों की, तो उनमें से किसी में भी डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसी लगन और हिम्मत तो है ही नहीं… (उल्लेखनीय है कि डॉ स्वामी ने अकेले दम पर याचिकाएं और आपत्तियाँ लगा-लगा कर इस्लामिक बैंक की स्थापना में अड़ंगे लगाये, रामसेतु टूटने से बचाया, इटली की रानी के नाक में दम तो कब से किये ही हैं, अब राजा बाबू के बहाने “ईमानदार बाबू” पर भी निशाना साधा हुआ है…), शायद “थकेले” केन्द्रीय भाजपा नेताओं को डॉ स्वामी से कोई प्रेरणा मिले…

Source : http://www.financialexpress.com/news/ship-docked-in-mumbai-invites-hindus-to-convert-to-islam/710021/

महत्वपूर्ण ये है कि हाथ "किसका" काटा गया है… उसके अनुसार कार्रवाई होगी… … Communist NDF Relations Kerala Secularism

बात शुरु करने से पहले NDF के बारे में संक्षेप में जान लीजिये -

1) केरल के जज थॉमस पी जोसफ़ आयोग ने अपनी विस्तृत जाँच के बाद अपनी रिपोर्ट में "मराड नरसंहार" (यहाँ पढ़िये
http://en.wikipedia.org/wiki/Marad_massacre) के मामले में NDF और इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग को दोषी पाया है। इसी रिपोर्ट में उन्होंने उदारवादी और शांतिप्रिय मुस्लिमों पर भी NDF के हमले की पुष्टि की है और कहा है कि यह एक चरमपंथी संगठन है।

2) भाजपा तो शुरु से आरोप लगाती रही है कि NDF के रिश्ते पाकिस्तान की ISI से हैं, लेकिन खुद कांग्रेस के कई पदाधिकारियों ने NDF की गतिविधियों को संदिग्ध मानकर रिपोर्ट की है। 31 अक्टूबर 2006 को कांग्रेस ने मलप्पुरम जिले में आतंकवाद विरोधी अभियान की शुरुआत की और वाम दलों, PDP (पापुलर डेमोक्रेटिक पार्टी) और NDF पर कई गम्भीर आरोप लगाये।

3) बरेली में पदस्थ रह चुकीं वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी नीरा रावत ने जोसफ़ आयोग के सामने अपने बयान में कहा है कि उनकी जाँच के मुताबिक NDF के सम्बन्ध पाकिस्तान के ISI और ईरान से हैं, जहाँ से इसे भारी मात्रा में पैसा मिलता है। इसी प्रकार एर्नाकुलम के ACP एवी जॉर्ज ने अदालत में अपने बयान में कहा है कि NDF को विदेश से करोड़ों रुपया मिलता है जिससे इनके "ट्रेनिंग प्रोग्राम"(?) चलाये जाते हैं। NDF के कार्यकर्ताओं को मजदूर, कारीगर इत्यादि बनाकर फ़र्जी तरीके से खाड़ी देशों में भेजा जाता है, और यह सिलसिला कई वर्ष से चल रहा है। (यहाँ देखें… http://www.indianexpress.com/oldStory/70524/)

4) 23 मार्च 2007 को कोटक्कल के पुलिस थाने पर हुए हमले में भी NDF के 27 कार्यकर्ता दोषी पाये गये थे।

5) NDF के कार्यकर्ताओं के पास से बाबरी मस्जिद और गुजरात दंगों की सीडी और पर्चे बरामद होते रहते हैं, जिनका उपयोग करके ये औरों को भड़काते हैं।

6) 29 अप्रैल 2007 को पाकिस्तान के सांसद मोहम्मद ताहा ने NDF और अन्य मुस्लिम संगठनों के कार्यक्रम में भाग लिया और गुप्त मुलाकातें की। (यहाँ देखें…http://www.hindu.com/2007/04/29/stories/2007042900971100.htm)

7) यह संगठन "शरीयत कानून" लागू करवाने के पक्ष में है और एक-दो मामले ऐसे भी सामने आये हैं जिसमें इस संगठन के कार्यकर्ताओं ने मुसलमानों की भी हत्या इसलिये कर दी क्योंकि वे लोग "इस्लाम" के सिद्धान्तों(??) के खिलाफ़ चल रहे थे। पल्लानूर में एक मुस्लिम की हत्या इसलिये की गई क्योंकि उसने रमज़ान के माह में रोज़ा नहीं रखा था।

वामपंथियों द्वारा पाले-पोसे गये इस "महान देशभक्त" संगठन के बारे में जानने के बाद आईये इस केस पर वापस लौटें…



प्रोफ़ेसर टीजे जोसफ़ पर हुए हमले ने केरल पुलिस को मानो नींद से हड़बड़ाकर जगा दिया हैऔर इस हमले के बाद ताबड़तोड़ कार्रवाई करते हुए केरल पुलिस ने 9 जुलाई को पापुलर फ़्रण्ट के एक कार्यकर्ता(?) कुंजूमोन को आतंकवाद विरोधी अधिनियम के तहत गिरफ़्तार किया, कुंजूमोन के घर से बरामद की गई कार में तालिबान और अल-कायदा के प्रचार से सम्बन्धित सीडी और लश्कर-ए-तोईबा से सम्बन्धित दस्तावेज लैपटॉप से बरामद किये गये। राज्य पुलिस ने कहा है कि प्रोफ़ेसर के हाथ काटने वाले दोनों मुख्य आरोपियों जफ़र और अशरफ़ से कुंजूमोन के सम्बन्ध पहले ही स्थापित हो चुके हैं। इसी प्रकार पुलिस ने त्वरित कार्रवाई करते हुए NDF के ही एक और प्रमुख नेता अय्यूब को अलुवा के पास से 10 जुलाई को गिरफ़्तार कर लिया है और उसके पास से भी हथियार और NDF का अलगाववादी साहित्य बरामद किया है।

http://www.asianetindia.com/news/pfi-leader-kunhumon-booked-antiterror-laws_171699.html

पाठक सोच रहे होंगे, वाह… वाह… क्या बात है, केरल की पुलिस और वामपंथी सरकार अपने कर्तव्यों के प्रति कितने तत्पर और मुस्तैद हैं। प्रोफ़ेसर पर हमला होने के चन्द दिनों में ही मुख्य आरोपी और उन्हें "वैचारिक खुराक" देने वाले दोनों नेताओं को गिरफ़्तार भी कर लिया… गजब की पुलिस है भई!!! लेकिन थोड़ा ठहरिये साहब… जरा इन दो घटनाओं को भी पढ़ लीजिये…

1) अप्रैल 2008 में रा स्व संघ के एक कार्यकर्ता बिजू को NDF के कार्यकर्ताओं ने दिनदहाड़े त्रिचूर के बाजार में मार डाला था। कन्नूर, पावारत्ती आदि इलाकों में RSS और NDF के कार्यकर्ताओं में अक्सर झड़पें होती रहती हैं, लेकिन वामपंथी सरकार के मूक समर्थन की वजह से अक्सर NDF के कार्यकर्ता RSS के स्वयंसेवकों को हताहत कर जाते हैं और उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती।

2) कन्नूर जिले के संघ के बौद्धिक प्रमुख श्री टी अश्विनी कुमार जो कि सतत देशद्रोही तत्वों के खिलाफ़ अभियान चलाये रहते थे, उन्हें भी NDF के चरमपंथियों ने कुछ साल पहले सरे-बाज़ार तलवारों से मारा था और जो लोग अश्विनी की मृतदेह उठाने आये उन पर भी हमला किया गया। उस समय तत्कालीन वाजपेयी सरकार और गृह मंत्रालय ने केरल में NDF की संदिग्ध गतिविधियों की विस्तृत रिपोर्ट केन्द्र को सौंपने को कहा था, लेकिन वामपंथी सरकार ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया, क्योंकि उन्हें चुनाव जीतने के लिये NDF और मुस्लिम लीग की आवश्यकता पड़ती रहती है।

जैसा कि पहले भी कहा गया है माकपा को मुस्लिम वोटों की भारी चिंता रहती है, हाल ही में माकपा ने अपनी राज्य कांग्रेस की बैठक मलप्पुरम में रखी थी जो कि 80% मुस्लिम बहुलता वाला इलाका है। माकपा के राज्य सचिव अक्सर मुस्लिमों के धार्मिक कार्यक्रमों में देखे जाते हैं (फ़िर भी इस बात की रट लगाये रहते हैं कि कम्युनिस्ट धर्म के खिलाफ़ हैं, यानी कि "धर्म अफ़ीम है" जैसे उदघोष से उनका मतलब सिर्फ़ "हिन्दू धर्म" होता है, बाकी से नहीं), तो फ़िर अचानक केरल पुलिस इतनी सक्रिय क्यों हो गई है? जवाब है "हाथ किसका काटा गया है, उसके अनुसार कार्रवाई होगी…" पहले तो संघ कार्यकर्ताओं के हाथ काटे जाते थे या हत्याएं की जा रही थीं, लेकिन अब तो "तालिबानियों" ने सीधे चर्च को ही चुनौती दे डाली है। पहले तो वे "लव जेहाद" ही करते थे और ईसाई लड़कियाँ भगाते थे, पर अब खुल्लमखुल्ला एक ईसाई प्रोफ़ेसर का हाथ काट दिया, सो केरल पुलिस का चिन्तित होना स्वाभाविक है। मैं आपको सोचने के लिये विकल्प देता हूं कि पुलिस की इस तत्परता के कारण क्या-क्या हो सकते हैं -

1) केरल पुलिस के अधिकतर उच्च अधिकारी ईसाई हैं, इसलिये? या…

2) एक अल्पसंख्यक(?) ने दूसरे अल्पसंख्यक(?) पर हमला किया, इसलिये? या…

3) एक "अल्पसंख्यक" मनमोहन सिंह का प्यारा है (यानी "देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का है…" वाला ब्राण्ड) और जिसका हाथ काटा गया वह "अल्पसंख्यक", सोनिया आंटी के समुदाय का है (एण्डरसन, क्वात्रोची ब्राण्ड), इसलिये? या…

4) कहीं करोड़ों का चन्दा देने वाले, "चर्च" ने माकपा को यह धमकी तो नहीं दे दी, कि अगले चुनाव में फ़ूटी कौड़ी भी नहीं मिलेगी… इसलिये?

बहरहाल, जो भी कारण हों, प्रोफ़ेसर टी जोसफ़ के मामले में त्वरित कार्रवाई हो रही है, खुद राज्य के DGP जोसफ़ के घर सांत्वना जताने पहुँच चुके हैं, गिरफ़्तारियाँ हो रही हैं… अब्दुल नासिर मदनी के साथ दाँत निपोरते हुए फ़ोटो खिंचवाने वाले माकपा नेता पिनरई विजयन अब कह रहे हैं कि NDF एक साम्प्रदायिक संगठन है, माकपा इस मामले को गम्भीरता से ले रही है और इसकी रिपोर्ट केन्द्र सरकार को भेजी जा रही है… तात्पर्य यह है कि जोसफ़ का हाथ काटने के बाद बहुत तेजी से "काम" हो रहा है।

जिस "तालिबानी" NDF कार्यकर्ता कुंजूमान को केरल पुलिस ने अब आतंकवादी कहकर गिरफ़्तार किया है, इसी कुंजूमान पर RSS के कार्यकर्ता कलाधरन के हाथ काटने के आरोप में केस चल रहा है… चल रहा है और चलता ही रहेगा… क्योंकि कार्रवाई यह देखकर तय की जाती है कि "हाथ किसका काटा गया है…"…

यह है "वामपंथ" और "धर्मनिरपेक्षता" (सॉरी… बेशर्मनिरपेक्षता) की असलियत!!!!!!


पश्चिम बंगाल में बजरंग बली की मूर्ति प्रतिबन्धित हैं?…… Communist Secularism and Islamic Fanatics

कोलकाता में बजबज इलाके के चिंगरीपोटा क्षेत्र में रहने वाले एक व्यवसायी श्री प्रशान्त दास ने अपने घर की बाउंड्रीवाल के प्रवेश द्वार पर बजरंग बली की मूर्ति लगा रखी है। 14 अगस्त की रात को बजबज पुलिस स्टेशन के प्रभारी राजीव शर्मा इनके घर आये और इन्हें वह मूर्ति तुरन्त हटाने के लिये धमकाया। पुलिस अफ़सर ने यह कृत्य बिना किसी नोटिस अथवा किसी आधिकारिक रिपोर्ट या अदालत के निर्देश के बिना मनमानी से किया। पुलिस अफ़सर का कहना है कि उनके मुख्य द्वार पर लगी बजरंग बली की मूर्ति से वहाँ नमाज़ पढ़ने वाले मुस्लिमों की भावनाएं आहत होती हैं।

पुलिस अफ़सर ने उन्हें "समझाया"(?) कि या तो वह बजरंग बली की मूर्ति का चेहरा घर के अन्दर की तरफ़ कर लें या फ़िर उसे हटा ही लें। स्थानीय मुसलमानों ने (मौखिक) शिकायत की है कि नमाज़ पढ़ते समय इस हिन्दू भगवान की मूर्ति को देखने से उनका ध्यान भंग होता है और यह गैर-इस्लामिक भी है। उल्लेखनीय है कि उक्त मस्जिद प्रशान्त दास के मकान के पास स्थित प्लॉट पर अवैध रुप से कब्जा करके बनाई गई है, यह प्लॉट दास का ही था, लेकिन कई वर्षों तक खाली रह जाने के दौरान उस पर कब्जा करके अस्थाई मस्जिद बना ली गई है और अब उनकी निगाह दास के मुख्य मकान पर है इसलिये दबाव बनाने की कार्रवाई के तहत यह सब किया जा रहा है।


श्री दास का कहना है कि पवनपुत्र उनके परिवार के आराध्य देवता हैं और यह उनकी मर्जी है कि वे अपनी सम्पत्ति में हनुमान की मूर्ति कहाँ लगायें या कहाँ न लगायें। मूर्ति मेरे घर में लगी है न कि कहीं अतिक्रमण करके लगाई गई है, इसलिये एक नागरिक के नाते यह मेरा अधिकार है कि अपनी प्रापर्टी में मैं कोई सा भी पोस्टर अथवा मूर्ति लगा सकता हूं, बशर्ते वह अश्लीलता की श्रेणी में न आता हो। परन्तु पुलिस अफ़सर ने लगातार दबाव बनाये रखा है, क्योंकि उस पर भी शायद ऊपर से दबाव है।

पश्चिम बंगाल जिस तेजी से इस्लामी रंग में रंगता जा रहा है उसके कई उदाहरण आते रहे हैं, परन्तु आगामी विधानसभा चुनाव को देखते हुए सभी पार्टियाँ मुस्लिम वोट बैंक के पालन-पोषण में जोर-शोर से लगी हैं, हाल ही में ममता बनर्जी ने रेल्वे के एक उदघाटन समारोह के सरकारी पोस्टर में खुद को नमाज़ पढ़ते दिखाया था। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि बजबज इलाके के माकपा कार्यालय को हनुमान की मूर्ति हटाने के अनाधिकृत आदेश के बारे में जानकारी न हो, परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह से वामपंथ और इस्लाम एक दूसरे से हाथ मिलाते जा रहे हैं, उस स्थिति में बंगाल और केरल के हिन्दुओं की कोई सुनवाई होने वाली नहीं है। फ़िलहाल प्रशान्त दास ने अदालत की शरण ली है कि वह पुलिस को धमकाने से बाज आने को कहे, पर लगता है अब पश्चिम बंगाल में कोई अपने घर में ही हिन्दू भगवानों की मूर्ति नहीं लगा सकता, क्योंकि इससे वहाँ अवैध रुप से नमाज़ पढ़ रहे मुस्लिमों की धार्मिक भावनाएं आहत होती हैं, मजे की बात तो यह है कि यही "कमीनिस्ट" लोग खुद को सबसे अधिक धर्मनिरपेक्ष कहते नहीं थकते…

अब दो तस्वीरें इन्हीं कमीनिस्ट इतिहासकारों और उन रुदालियों के लिये जो बाबरी ढाँचा टूटने और अयोध्या के अदालती निर्णय आने के बाद ज़ार-ज़ार रो रही हैं और अपने कपड़े फ़ाड़ रही हैं…

पहली तस्वीर 1989 में कश्मीर में स्थित एक शिव मन्दिर की है…



यह दूसरी तस्वीर उसी मन्दिर की है 2009 की, जिसमें शिवलिंग तो गायब ही है, जलाधरी और गर्भगृह की दीवार भी टूटी हुई साफ़ दिखाई दे रही है…


अमन की आशा कार्यक्रम चलाने वाले बिकाऊ, कश्मीर पर समितियाँ बनाने वाले नादान, अलगाववादियों के आगे गिड़गिड़ाने वाले पिलपिले नेता, आतंकवादियों को मासूम बताने वाले पाखण्डी, अयोध्या निर्णय आने के बाद एक फ़र्जी मस्जिद के लिये आँसू बहाने वाले मगरमच्छ… सभी सेकुलर, कांग्रेसी और वामपंथी अब कहीं दुबके बैठे होंगे… उन्हें यह तस्वीरें देखकर उनके सबसे निकटस्थ पोखर में डूब मरना चाहिये…। अब सोचिये, इस जगह पर पाकिस्तान से मोहम्मद हाफ़िज़ सईद आकर एक मस्जिद बना दे, उसमें नमाज़ पढ़ी जाने लगे, फ़िर 400 साल बाद फ़र्जी वामपंथी इतिहासकार इसे "पवित्र मस्जिद" बताकर अपनी छाती कूटें तो क्या होगा? जी हाँ सही पहचाना आपने… उस समय भी गाँधीवादियों द्वारा हिन्दुओं को ही उपदेश पिलाना जारी रहेगा…

ताज़ा खबरों के अनुसार पश्चिम बंगाल के देगंगा इलाके के 500 हिन्दू परिवारों ने उनके साल के सबसे बड़े त्योहार दुर्गापूजा को नहीं मनाने का फ़ैसला किया है, आसपास के सभी गाँवों की पूजा समितियों ने इस मुहिम में साथ आने का फ़ैसला किया है, क्योंकि देगंगा में सितम्बर माह में हुए भीषण दंगों (यहाँ पढ़ें…) के बावजूद किसी प्रमुख उपद्रवी की गिरफ़्तारी नहीं हुई है, न ही तृणमूल सांसद नूर-उल-इस्लाम के खिलाफ़ कोई कार्रवाई की गई है। 1946-47 में भी इसी तरह नोआखाली में नृशंस जातीय सफ़ाये के विरोध में हिन्दुओं ने "काली दीपावली" मनाई थी, जब वध किये जाने से पहले एक "तथाकथित शान्ति का मसीहा" उपवास पर बैठ गया था। आज इतने सालों बाद भी देगंगा के हिन्दू… मीडिया की बेरुखी और मुस्लिम वोटों के बेशर्म सौदागरों की वजह से "काला दशहरा" मनाने को मजबूर हैं…
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विशेष नोट - मेरे नियमित पाठक वर्धा सम्बन्धी मेरी पिछली पोस्ट को "इग्नोर" करें, उसे "बकवास निरुपित करने" और "इससे हमें क्या मतलब?" जैसे मंतव्य वाले कुछ शिकायती ईमेल भी प्राप्त हुए हैं…। प्रिय पाठक निश्चिन्त रहें जल्दी ही "वैसी" पोस्टों के लिये एक अलग ब्लॉग शुरु करने की योजना है। बीच में 3-4 दिन वर्धा ब्लॉगर सम्मेलन के कारण टिप्पणियों को प्रकाशित करने में देरी हो गई, इसके लिये भी क्षमाप्रार्थी हूं…


कश्मीर सम्बन्धी दोनों चित्र - श्री पवन दुर्रानी के सौजन्य से (via Twitter)

अन्य स्रोत -
http://southbengalherald.blogspot.com/2010/10/bajrangbali-banned-in-bengal.html

सोमवार, 22 नवंबर 2010

THE STATUS OF HINDUS IN AN ISLAMIC STATE

Now I can take up the next NCERT guideline, namely, that historians cannot identify Muslims as rulers and Hindus as subjects, and that the state in medieval India under Muslim rule cannot be described as a theocracy without examining the role of religion in political conflicts.

I will take up the second half of this guideline first.

The modern apologists of Islam have been trying to rescue this “religion” from its macabre record as presented by the medieval Muslim historians. Firstly, they accuse the medieval historians of gross exaggeration. Secondly, they blame the Turks for barbarities committed in the name of Islam. The third pillar of this apologetics is to present as politically motivated the dismal deeds which the medieval historians regarded as religiously inspired.

AN EXAMPLE OF ISLAMIC APOLOGETICS

I have already analysed the first two approaches. An example will illustrate the third approach. M. Nazim writes in his well-known monograph, The Life and Times of Sultan Mahmud of Ghazna: “The critics who accuse the Sultan of wanton bloodshed and reckless spoliation of Hindu temples forget that theseso-called barbarities were committed in the course of legitimate warfare, when such acts are sanctioned by the practices of all the great conquerors of the world. Spoils captured from the defeated enemy have always been considered lawful property of the victorious army. In India, however, wealth was accumulated not only in the coffers of the kings, as in other countries, but also in the vaults of the temples, which were consecrated in the service of various deities. The consequence was that, while elsewhere the capture of the defeated monarch’s treasury usually gratified the conqueror’s lust for mammon, in India temples were also ransacked to secure the piles of gold and precious stones in them. The religious considerations rarely carry weight with a conqueror, and the Sultan does not appear to have been influenced by them in his schemes of conquest.” (emphasis added).

Nazim has a similar explanation for Hindu hostility to Islam. It is an essay in philosophy and sociology, as he understands them. He writes: “Some critics hold that a ‘burning hatred for Islam was created in the Hindu mind because Islam was presented in the guise of plundering armies.’ This view, however, is not convincing. The Hindus rejected Islam as their national religion because of the fundamental and irreconcilable differences between Islam and Hinduism. Islam with its definite articles of faith, could not appeal to the average Hindu to whom religion had never meant any specified set of doctrines. To regard an idol as a helpless piece of stone instead of a source of life and death, and to believe in one Omnipotent God instead of myriads of deities each one of which could be played against the other, was diametrically opposed to Hindu ways of thinking. To this fundamental difference was added the hostility of the Brahmin, whose keen eye must have foreseen that the propagation of democratic principles of Islam would undoubtedly bring about a social revolution and break-down of the caste system on which depended his own exclusive privileges. The Brahmins, therefore, as a class must have thrown the whole weight of their position against the spread of Islam. Besides this, hatred of change inherent in the Hindu mind would in any case have offered strong though passive resistance to the onward march of Islam.” (emphasis added).

I am not commenting on the contradictions, prevarications, pretensions, and plain lies contained in these lines from a “learned historian” whose monograph was published by a prestigious British publisher. I am sure the readers will see for themselves the sheer scoundrelism of this apologetics. What I want to show in these quotations is the mind which the secularists in India have swallowed - hook, line, and sinker. It is this mind which our secularists have been cultivating over the years. And I am absolutely sure that the NCERT is out to patronise this mind.

POISON IN THE CORE OF ISLAM

What are the facts?

The seed is sown by the Kalimah - there is no god but Allah and Muhammad is the prophet. This is not a religious precept which may be verified by spiritual experience, or referred to any system of logic. It is a purely political pronouncement which divides mankind into mu‘mins and kãfirs, like the Communist division of people into “progressives” and “reactionaries”, or the Nazi division of them into “superior” and “inferior” races.

Next, the Quran calls upon the mu‘mins “to fight them till not a trace of unbelief is left”, or “to fight those who do not profess the true faith till they payjizyah with the hand in humility”, or to “cut their throats wherever you find them”, or you are no prophet until “you have made a great slaughter amongst them”. This is called jihãd (glorified as holy war) which is as fundamental a tenet of Islam as the Kalimah, namãz, rozah, hajj, and zakãt.

The Hadis and the four “pious” Khalifas elaborated the principles which are to be applied in jihãd against those who do not accept Islam nor agree to payjizyah. The infidel males capable of bearing arms are to be massacred; the infidel women and children are to be enslaved; the movable properties of the infidels are to be plundered; their lands are to be expropriated; their places of worship are to be destroyed; their priests and monks are to be killed and their scriptures burnt.

Those who agree to pay jizyah are to be treated as zimmîs who are allowed to live and work for the Islamic state under the following 20 disabilities: (1) they are not to build any new places of worship; (2) they are not to repair any old places of worship which have been destroyed by the Muslims; (3) they are not to prevent Muslim travellers from staying in their places of worship; (4) they are to entertain for three days any Muslim who wants to stay in their homes, and for a longer period if the Muslim falls ill; (5) they are not to harbour any hostility towards the Islamic state, or give any aid and comfort to hostile elements; (6) they are not to prevent any one of them from getting converted to Islam; (7) they have to show respect towards every Muslim; (8) they have to allow Muslims to participate in their private meetings; (9) they are not to dress like Muslims; (10) they are not to name themselves with Muslim names; (11) they are not to ride on horses with saddle and bridle; (12) they are not to possess arms; (13) they are not to wear signet rings or seals on their fingers; (14) they are not to sell or drink liquor openly; (15) they are to wear a distinctive dress which shows their inferior status, and which separates them from the Muslims; (16) they are not to propagate their customs and usages amongst the Muslims; (17) they are not to build their houses in the neighbourhood of Muslims; (18) they are not to bring their dead near the graveyards of the Muslims; (19) they are not to observe their religious practices publicly, or mourn their dead loudly; and (20) they are not to buy Muslim slaves.

The “law” of Islam also prescribes death penalty for those who (1) question the exclusive claim of Islam as the only true religion, and of Muhammad as thelast prophet; (2) try to revert to their ancestral faith after having been forced or lured to embrace Islam; and (3) marry Muslim women without first getting converted to Islam. Non-Muslims are also discriminated against in matters of testimony in law courts, taxation, and appointment to public offices. To sum up, the status of non-Muslims in an Islamic state is that of hewers of wood and drawers of water. They are subjected to every possible indignity and pressure in order to force them into the fold of Islam.

DEBATE OVER “ISLAM OR DEATH”

When an Islamic state was established over parts of northern India, the Ulama raised a great controversy. By now the interpreters of Islamic law had become divided into four schools - Hanafi, Hanbali, Maliki, and Shafii. The Hanafi school alone was in favour of extending the status of zimmîs to the Hindus. The other three schools were insistent that the only choice the Hindus had was between Islam and death. Ziyauddin Barani voiced his opinion against the Hanafi school when he wrote as follows in his Fatwa-i-Jahãndãri: “If Mahmud… had gone to India once more, he would have brought under his sword all the Brahmans of Hind who, in that vast land, are the cause of the continuance of the laws of infidelity and of the strength of idolators; he would have cut off the heads of two or three hundred thousand Hindu chiefs. He would not have returned his Hindu-slaughtering sword to its scabbard until the whole of Hind had accepted Islam. For Mahmud was a Shafiite, and according to Imam Shafii the decree for Hindus is Islam or death, that is to say, they should either be put to death or accept Islam. It is not lawful to accept jiziya from Hindus who have neither a prophet nor a revealed book.”

Shykh Nuruddin Mubarak Ghaznavi was the most important disciple of Shykh Shihabuddin Suhrawardi, founder of the second most important sufi silsilã after the Chishtiyya, who died in Baghdad in 1235 AD. Ghaznavi had come and settled down in India where he passed away in 1234-35 AD. He served asShykh-ul-Islãm in the reign of Shamsuddin Iltutmish (AD 1210-1236), and propounded the doctrine of Dîn Panãhî. Barani quotes the first principle of this doctrine as follows in his Tãrîkh-i-Fîruzshãhî. “The kings should protect the religion of Islam with sincere faith… And kings will not be able to perform the duty of protecting the Faith unless, for the sake of God and the Prophet’s creed, they overthrow and uproot kufr and kãfiri (infidelity), shirk (setting partners to God) and the worship of idols. But if the total uprooting of idolatry is not possible owing to the firm roots of kufr and the large number of kãfirs andmushriks (infidels and idolaters), the kings should at least strive to insult, disgrace, dishonour and defame the mushrik and idol-worshipping Hindus, who are the worst enemies of God and the Prophet. The symptom of the kings being the protectors of religion is this:- When they see a Hindu, their eyes grow red and they wish to bury him alive; they also desire to completely uproot the Brahmans, who are the leaders of kufr and shirk and owning to whom kufr and shirk are spread and the commandments of kufr are enforced… Owing to the fear and terror of the kings of Islam, not a single enemy of God and the Prophet can drink water that is sweet or stretch his legs on his bed and go to sleep in peace.” (emphasis added; read Allah for God).

Amir Khusru, the dearest disciple of Nizamuddin Awliya and supposed to be the pioneer of Secularism in India by India’s secularist historians, echoed the same opinion when he wrote as follows in his Khazãin-ul-Futûh also known as the Tãrîkh-i-Alãî: “The whole country by means of the sword of our holy warriors has become like a forest denuded of its thorns by fire. The land has been saturated by the waters of the sword, and the vapours of infidelism [Hinduism] have been dispersed. The strong men of Hind have been trodden under foot, and all are ready to pay tribute. Islam is triumphant, idolatry is subdued. Had not the law (of Hanifa) granted exemption from death by the payment of jiziya, the very name of Hind, root and branch, would have been extinguished.”

The Muslim monarchs, however, knew better. They did not live in a fool’s paradise like the mullahs and the sufis. The exponents of the “law” of Islam lived amidst leisure and luxury in towns protected by Islamic armies. They could very well afford to blow any amount of hot air about the “beauties” of their “religion”. The Muslim monarchs, on the other hand, had to live mostly on the battlefields, and could feel in their guts the power equations of a situation in which they had to wage a constant war against stiff Hindu resistance and repeated reassertion of Hindu independence. They had discovered very soon that Hindus hated Islam as a system of black barbarism, and would fight rather than submit to this criminal creed. Moreover, they needed the Hindus for doing work which the mullahs, or the sufis, or the swordsmen of Islam were neither equipped for nor inclined to do - agriculture, commerce, industry, book keeping scavenging, and so on. No wonder the Muslim monarchs fell for the Hanafi school of Islamic “law” as soon as it was expounded to them, not because they liked this school but simply because they had no other choice. They recognized the Hindus as zimmîs, imposed jizyah and other disabilities on them, and reduced them, wherever they could, to the status of hewers of wood and drawers of water.

The mullahs and the sufis howled at this “sacrilege”. Barani mourned: “Should the king consider the payment of a few tankas by way of jiziya as sufficient justification for their allowing all possible freedom to the infidels to observe and demonstrate all orders and detail of infidelity, to read the misleading literature of their faith, and to propagate their teachings, how could the true religion get the upper hand over other religions, and how could the emblems of Islam be held high? How will the true faith prevail if rulers allow the infidels to keep their temples, adorn their idols, and to make merry during their festivals with beating of drums and dhols, singing and dancing?”

THE STATE OF HINDU SOCIETY

But Barani and his likes were being unfair to the Muslim monarchs who were trying their best to serve Islam, under the circumstances. They were also painting far too rosy a picture of the condition of Hindu society in areas where the Islamic state had secured a stranglehold. Of course, the Hindus were singing and dancing in those parts of their motherland where their Rajas had retained or regained independence. But in areas controlled by the Muslim monarchs, Hindus had been turned into dumb driven cattle, always at the mercy of the meanest Muslim. Barani himself writes: “Sultan Alauddin (Khalji) demanded from learned men rules and regulations, so that the Hindu could be ground down and property and possession, which are the cause of disaffection and rebellion, could not remain in his house.” One of these “learned men” was Qazi Mughisuddin. He advocated very stern measures and advised: “If the revenue collector spits into a Hindu’s mouth, the Hindu should open his mouth to receive it without hesitation.”

Alauddin Khalji raised the land revenue to one-half of the gross produce. He imposed a grazing tax on all milch cattle and a house-tax. Barani himself reports: “The people were brought to such a state of obedience that one revenue officer would string twelve khuts, muqaddams and chaudharies (all Hindus) together by the neck and enforce payment by blows.” Hindus were so much impoverished that their wives had to work as servants in Muslim houses. Next came Alauddin’s market regulations which our secularists and the All India Radio have been hailing as “the first experiment in socialism in India’s history”. The peasants, who were Hindus, were ordered to sell their grains to the merchants at arbitrarily fixed prices. The merchants, who were also Hindus, were forced to sell this grain to the State, again at arbitrarily fixed prices which hardly left any margin of profit. There was so much grain stored in state godowns that Ibn Battutah who visited Delhi 18 years after Alauddin’s death, ate rice which had been procured during Alauddin’s reign. The Hindu merchants had to procure all sorts of merchandise from areas where there was no fixation of prices. But the prices at which they had to sell to the state were fixed without any reference to costs involved. And the merchants had to keep their wives and children as hostages at the capital to ensure that they brought regular supplies. This was expropriation, pure and simple, under conditions from which there was no escape except death.

Ghiyasuddin Tughlaq issued an ordinance which proclaimed that “there should be left only so much to the Hindus that neither on the one hand they should become intoxicated on account of their wealth, nor on the other should they become so destitute as to leave their lands and cultivation in despair”. His son, Muhammad bin Tughlaq, enhanced the land revenue in a very steep manner. Barani reports: “The taxation in the Doab was increased ten and twenty times and the royal officials consequently created such abwabs or cesses and collected them with such rigour that the ryots were reduced to impotence, poverty and ruin… Thousands of people perished, and when they tried to escape, the Sultan led expeditions to various places and hunted them like wild beasts.” Ibn Battutah who visited Delhi during Muhammad bin Tughlaq’s reign, reports in his Rehla an Id celebration in the Sultan’s palace: “Then enter the musicians, the first batch being the daughters of the infidel rajas captured in war that year. They sing and dance, and the Sultan gives them away to his amirs and aizza. Then come the other daughters of the infidels who sing and dance, and the Sultan gives them away to his relations, his brothers-in-law and the malik’s sons.” At a later date, “there arrived in Delhi some female infidel captives, ten of whom the vazir sent to me”. Again, the Sultan sent to the emperor of China “one hundred male slaves and one hundred slave songstresses and dancers from among the Indian infidels”. He also reports how the Muslim commandant of Alapur “would fall upon the infidels and would kill them or take them prisoner”. The scoundrel was killed by the Hindus one day. His slaves fell upon Alapur, and “they put its male population to the sword and made the womenfolk prisoner and seized everything in it.”

Firuz Shah Tughlaq organised an industry out of catching slaves. Shams-i-Siraj Afif writes in his Tãrîkh-i-Fîrûz Shãhî: “The Sultan commanded his great fief-holders and officers to capture slaves whenever they were at war (that is, suppressing Hindu rebellions), and to pick out and send the best for the service of the court. The chiefs and officers naturally exerted themselves in procuring more and more slaves and a great number of them were thus collected. When they were found to be in excess, the Sultan sent them to important cities… It has been estimated that in the city and in the various fiefs, there were 1,80,000 slaves… The Sultan created a separate department with a number of officers for administering the affairs of these slaves.”

Firuz Shah beat all previous records in his treatment of the Hindus. He himself writes in his Futûhãt-i-Fîrûz Shãhî: “The Hindus and idol worshippers had agreed to pay the money for toleration (zar-i-zimmiya), and had consented to the poll-tax (jiziya) in return for which they and their families enjoyed security. These people now erected new idol temples in the city and in the environs in opposition to the law of the Prophet which declares that such temples are not to be tolerated. Under divine guidance I destroyed these edifices, and killed those leaders of infidelity who seduced others into error, and the lower orders I subjected to stripes and chastisement, until this abuse was entirely abolished. The following is an instance. In the village of Maluh there is a tank which they call kund. Here they had built idol temples and on certain days the Hindus were accustomed to proceed thither on horseback, and wearing arms. Their women and children also went out in palankins and carts. There they assembled in thousands and performed idol-worship. The abuse had been so overlooked that the bazar people took out there all sorts of provisions and set up stalls and sold their goods… When intelligence of this came to my ears, my religious feelings prompted me at once to put a stop to this scandal and offence to the religion of Islam. On the day of the assembling I went there in person, and I ordered that the leaders of these people and the promoters of this abomination should be put to death… I destroyed their idol temples, and instead thereof raised mosques.”

He records another instance in which Hindus who had built new temples were butchered before the gate of his palace, and their books, images, and vessels of Worship were publicly burnt. According to him “this was a warning to all men that no zimmi could follow such wicked practices in a Musulman country”. Afif reports yet another case in which a Brahmin of Delhi was accused of “publicly performing idol-worship in his house and perverting Mohammedan women leading them to become infidels”. The Brahmin “was tied hand and foot and cast into a burning pile of faggots”. The historian who witnessed this scene himself expresses his satisfaction by saying, “Behold the Sultan’s strict adherence to law and rectitude, how he would not deviate in the least from its decrees.”

Sikandar Lodi’s “empire” was much smaller than that of Firuz Shah Tughlaq. But he enforced the “law” of Islam with no less zeal. A typical case of his reign is recorded by Abdulla in his Tãrîkhi-i-Dãûdî: “It is related in the Akbar Shahithat there came a Brahman by name Bodhan who had asserted one day in the presence of Musulmans that Islam was true, as was also his own religion. This speech of his was aired abroad, and came to the ears of the ulema… Azam Humayun, the governor of that district, sent the Brahman into the king’s presence at Sambal. Sultan Sikander …summoned all the wise men of note from every quarter… After investigating the matter, the ulema determined that he should be imprisoned and converted to Islam, or suffer death, and since the Brahman refused to apostatize he was accordingly put to death by the decree of the ulema. The Sultan after rewarding the learned casuists, gave them permission to depart.”

Hindu records of what the “law” of Islam meant to the Hindus are few and far between. But whenever they are available, they confirm the medieval Muslim historians. Gangadevi the wife of Kumar Kampana (died 1374 AD) of Vijayanagara writes as follows in her Madhurãvijayam regarding the state of things in the Madurai region when it was under Muslim rule: “The wickedmlechchas pollute the religion of the Hindus every day. They break the images of gods into pieces and throw away the articles of worship. They throw into fireSrimad Bhagwat and other holy scriptures, forcibly take away the conchshell and bell of the Brahmanas, and lick the sandal paints on their bodies. They urinate like dogs on the tulsi plant and deliberately pass faeces in the Hindu temples. They throw water from their mouths on the Hindus engaged in worship, and harass the Hindu saints as if they were so many lunatics let large.”

Chaitanya-mañgala, a biography of the great Vaishnava saint of medieval India, presents the plight of Hindus in Navadvipa on the eve of the saint’s birth in 1484 AD. The author, Jayananda, writes: “The king seizes the Brahmanas, pollutes their caste and even takes their lives. If a conch-shell is heard to blow in any house, its owner is made to forfeit his wealth, caste and even life. The king plunders the houses of those who wear sacred threads on the shoulder and put scared marks on the forehead, and then binds them. He breaks the temples and uproots tulsi plants… The bathing in Ganga is prohibited and hundreds of scared asvattha and jack trees have been cut down.”

Vijaya Gupta wrote a poem in praise of Husain Shah of Bengal (1493-1519 AD). The two qazi brothers, Hasan and Husain, are typical Islamic characters in this poem. They had issued orders that any one who had a tulsi leaf on his head was to be brought to them bound hand and foot. He was then beaten up. The peons employed by the qazis tore away the sacred threads of the Brahmans and spat saliva in their mouths. One day a mullah drew the attention of these qazis to some Hindu boys who were worshipping Goddess Manasa and singing hymns to her. The qazis went wild, and shouted: “What! the harãmzãdah Hindus make so bold as to perform Hindu rituals in our village! The culprit boys should be seized and made outcastes by being forced to eat Muslim food.” The mother of these qazis was a Hindu lady who had been forcibly married to their father. She tried to stop them. But they demolished the house of those Hindu boys, smashed the sacred pots, and threw away thepûjã materials. The boys had to run away to save their lives.

This was the state of things in those parts of India which were ruled by Muslim monarchs ever since Qutbuddin Aibak set up his first Islamic state in Delhi in 1206 AD. Punjab upto the Ravi and the whole of Sindh had passed under Muslim rule during the days of Mahmud Ghaznavi. Kashmir met the same fate early in the 14th century. If the state which treated the Hindus in such an abominable manner out of religious inspiration was not a theocracy, the NCERT “experts” would have to redefine the concept of theocracy. In common parlance so far, theocracy has meant the dominance of a single creed over the state apparatus, and discrimination against those who do not subscribe to that creed. Scoundrels like M. Nazim and Hindu secularists who preside over our education and “national integration”, have tried to invent political explanations for measures which the Muslim monarchs adopted purely out of religious zeal. But in that case politics as well as religion miss their common parlance meanings, and become esoteric terms which scoundrels and secularists alone can decipher.

THE MYTH OF AKBAR

It is curious but true that the very historians who refuse to see the pre-Akbar period of Muslim rule as a nightmare for Hindus, hail Akbar as the harbinger of a dazzling dawn for the same Hindus. They point out as to how Akbar abolished the pilgrim tax and the jizyah, how he appointed Hindus to high positions, and how he extended to them this or that concession which they had not enjoyed earlier. One may very well ask these worthies that if these discriminatory taxes and disabilities did not exist earlier, how come you find Akbar freeing the Hindus from them? All that one is bound to get by way of an answer will be another bundle of casuistry.

There is no dearth of Hindu historians who heap Akbar with the choicest encomiums. Ashirbadi Lal Srivastava is a typical example. Pandit Jawaharlal Nehru goes much further and proclaims Akbar as the father of Indian nationalism. A Hindu who takes all these high-sounding stories with a pinch of salt, is rather rare nowadays.

On the other hand, most Muslim historians and theologians frown upon Akbar as a villain in the history of Islam in India. Ishtiaq Husain Qureshi who believes that Hindus were far more happy under Muslim rule than under that of their own princes, accuses Akbar of jeopardising Pax Moslemaica by tempering with the established tenets of Muslim polity. Maulana Abul Kalam Azad has written that if Ahmad Sirhindi had not come to the rescue, Akbar had almost finished Islam in India. It is only in post-Independence India that some Muslim historians have come forward to present Akbar as the pioneer of Secularism in this country. But we know what Secularism means in Muslim mouths, particularly if the Muslim happens to be a Marxist as well. For them, Akbar is no more than a Muslim hero for Hindu consumption.

One has, therefore, to go to the original sources in order to find the truth about Akbar. The story which these sources tell can be summed up as follows:

1. There was nothing Indian about Akbar except that he lived his life in India, fought his wars in India, built his empire in India, and dragged many Indian women into his harem. He knew nothing about India’s spiritual traditions, or India’s history, or India’s culture except for what he heard from some native sycophants who visited his court for very mundane reasons. No Hindu saint or scholar worth his salt cared to meet or educate him about things Indian. It was only some Jain munis who came close to him. But then Jain munis have always been in search of royal patronage like the Christian missionaries. Moreover, Akbar used these munis for influencing some Rajput princes who would have otherwise remained recalcitrant.

2. Akbar was every inch an Islamic bandit from abroad who conquered a large part of India mainly on the strength of Muslim swordsmen imported from Central Asia and Persia. He took great pride in proclaiming that he was a descendant of Taimur and Babur, and longed to recover the homelands of his forefathers in Transoxiana. He continued to decorate his name with the Islamic honorific ghãzî which he had acquired at the commencement of his reign by beheading the half-dead Himu. The wars he waged against the only resistant Hindu kingdoms - Mewar and Gondwana - had all the characteristics of classicjihãd. Whenever he wanted to celebrate some happy event or seek blessing for some great undertaking - which was quite often - he went on a pilgrimage to the dargah of Muinuddin Chishti, the foremost symbol of Islam’s ceaseless war on Hindus and Hinduism. He sent rich gifts to many centres of Muslim pilgrimage including Mecca and Medina, and carried on negotiations with the Portuguese so that voyages by Muslim pilgrims could be facilitated. In his letters to the Sharifs of Mecca and the Uzbek king of Bukhara, he protested that he was not only a good Muslim but also a champion of Islam, and that the orthodox Ulama who harboured doubts about him did not understand his game of consolidating a strong and durable Islamic empire in India.

3. The concessions which Akbar made to Hindus were not motivated by any benevolence towards Hindus or Hinduism on his part. He was out to win Hindu support in his fight with two inveterate foes of every Muslim empire-builder - the Muslim chieftains and the die-hard Ulama. Alauddin Khalji and Muhammad bin Tughlaq had faced the same foes earlier, but failed to overcome them because they could not break out of the closed circle of the foreign Muslim fraternity in India. Akbar succeeded in fixing both the foes because he tried a new method, and discovered very soon that it worked. He fixed the Muslim chieftains with the help of Rajput princes and their retinues. He fixed the Ulama partly by making them fall foul of each other in the Ibadat Khana, and partly by flirting with jogisand Jains munis and Christian missionaries in order to frighten them. They had nothing except royal patronage to fatten upon. There is no evidence that Akbar’s association with some spokesmen of rival religions was inspired by any sincere seeking on his part, or that the association improved his mind in any way. He remained a prisoner of Islamic thought-categories to the end of his days.

4. Nor did he have to pay a heavy price for Hindu support. Fortunately for him, he started functioning at a time when Hindu resistance to Islamic imperialism stood at a low ebb except in small pockets like Mewar and Gondwana. Hindu resistance had been led so far by the Rajput princes. But numerous wars fought by them with Muslim marauders for several centuries had exhausted their manpower as well as material resources. Akbar discovered it very soon that he could buy Rajput help in exchange for a few gestures which might have sounded ominous to orthodox Islam at that time but which proved only superficial in the long run. In fact, when one comes to think of it all, Hindus had to pay a very heavy price for those gestures from Akbar. He demanded Hindu princesses for his harem, which meant surrender of Hindu honour. He employed Hindu warriors not only against Muslim rebels but also against Hindu freedom fighters, which meant prostitution of Hindu heroism. For all practical purposes, he made the Hindus wield the sword of Islam not only in his own lifetime but right upto our own times. The pecuniary loss suffered by the Islamic state due to abolition of the pilgrim tax and the jizyah was compensated more than many times by the consolidation of an Islamic empire with a streamlined revenue system such as extracted from the Hindu masses, particularly the peasantry, the heavy cost of extending that empire by means of numerous wars, maintaining Mughal pomp and pageantry, and building monuments like the Taj. By the end of the Mughal empire, Hindu masses stood reduced to the subsistence level.

5. It was during the reign of Akbar that Muslim adventurers from many Islamic countries abroad started flocking towards India on an unprecedented scale, and made the Islamic establishment in the country stronger than ever before. They occupied all the top positions in the army as well as the administration of the Mughal empire. Statistics may be marshalled in order to show that Hindu share in government posts went on increasing till the time of Aurangzeb. But there is no gainsaying the fact that Hindu say in the policies of the Mughal empire went on decreasing from the days of Akbar’s immediate successor onwards. Even during the reign of Akbar, Muslim functionaries at the lower levels did not stop molesting Hindus in various ways normal to Islam. Many instances can be cited. Many a magnate in Akbar’s court were in close contact with the orthodox Ulama and Sufis led by Shykh Ahmad Sirhindi who went about saying publicly that Hindu should either be made to embrace Islam or treated like dogs. They came out into the open as soon as Akbar was dead, and their progeny continued to progress towards renewed power and prestige from the reign of Jahangir onwards till they again rose to the top under Aurangzeb.

It is true that the main fault lay with the Hindus for not being able to see through Akbar’s camouflage, and for helping him in consolidating an imperial power which Islam had never known in India in the pre-Akbar period of Muslim rule. But the fact remains that but for Akbar laying the firm foundations, there would have been no sadist scoundrel like Jahangir, no abominable criminal like Shah Jahan, and no Islamic monster like Aurangzeb for heaping endless torments and humiliations on Hindus. Let there be no doubt that far from being a dazzling dawn, the reign of Akbar was only the beginning of a darker night which continues till today in the form of Nehruvian Secularism.

IN THE NAME OF NATIONAL INTEGRATION

Comrade Radek, whom Stalin liquidated in the late ‘thirties, was a Communist intellectual endowed with acid humour. He coined many jokes at the cost of the Communist Party and the Soviet State. One of these jokes which did the rounds in Moscow was as follows:

One day Comrade Radek stood stark naked in the Red Square in broad daylight. A courageous citizen approached and asked him, “Aren’t you afraid of the police, Comrade Commissar?”

Radek stared at him, and shot back, “Police? Where is the police?”

The citizen pointed towards a number of policemen positioned on all sides of the Square, and said, “There is a policeman. There is another. And yet another… Why, the whole place is crawling with policemen.”

Radek replied, “You can see them. I can’t. I am a party member. I am not supposed to see them. For party members there is no police anywhere in the Soviet Union.”

The ruling class of secularists and socialists in India today is in a similar situation of ideological blindness. It is not supposed to see the violent waves of Islamic imperialism surging all around it. That would be a sacrilege and a serious slur on its reputation as progressive, liberal, and large-hearted.

It is in the living memory of this ruling class that Islamic imperialism became a blood-thirsty monster, and carved out large limbs of the motherland on our East and West. It is in the living memory of this ruling class that Islamic imperialism “cleaned up” its separate state of Pakistan from the “curse” of Hindu infidels. And it is under the very nose of this ruling class that Islamic imperialism, aided and abetted by petro-dollars, has started claiming for itself the rest of India as well, by a right of conquest in the past.

Islamic imperialism has only to dispute the fact that India is a Hindu homeland, and that the age-old Hindu society constitutes the core of the Indian nation with which non-Hindu communities should get integrated.

Our ruling class of secularists and socialists immediately starts seeing Hindu society as a heterogeneous mass divided by race, religion, sect, caste, class, language, dress, food habits, local traditions, manners and mores, and what not, and united by nothing better than a shared slavery under the erstwhile British rulers!

It is of no avail to tell this ruling class that the British rulers were acutely aware of a deeper unity informing the vast and variegated fabric of Hindu society. It is not convinced by any amount of evidence that the British rulers did all in their power to undermine that unity in pursuance of their imperialist interests.

This ruling class has inherited many things from its British mentors. It has inherited the British state system in which the “natives” who do not know the English language and the modern Western lore, have no say. It has inherited the British style of high-living which sets it apart from the “seething mass of poor and illiterate humanity”. It has inherited the British psychology of paternalism which persuades it that it alone knows what is good for the “common man”. Above all, it has inherited the British “moral responsibility” for protecting the “Muslim minority”. The only thing it has managed not to inherit is the British awareness of a deeper unity which holds the Hindu society together.

It is, therefore, logical for this ruling class to assert, rather aggressively, that Hindus have never been a nation. It is also logical for this ruling class to proclaim that it is too late in the day for Hindus to become, even try to become, a nation. India, we are told, is now a land of many races, religions, and cultures. The best that can be done under the circumstances, they say, is that India evolves a “secular nationalism” based on a “composite culture”. The ruling class is prepared to preside over the birth-pangs of such a nationalism. The exercise is eulogised as “national integration”.

It is significant that harangues for “national integration” become hectic, almost hysterical, in the wake of every street riot staged by Muslims. Our ruling class immediately starts hurling long-winded sermons on Hindus - stop being communal killers of a helpless minority; get rid of this big-brother behaviour; protect the lives and properties of your younger brethren; respect the religious and cultural rights of Muslims; and so on.

This ruling class never waits for the findings of enquiry commissions it has itself appointed to look into the causes of earlier communal riots. It does not remember or manages to forget the findings of many enquiry commissions which held that almost all riots were started by Muslims.

Hindus are expected to listen to these lectures from the ruling class with bowed heads, and with an orgy of moral self-reproach. Woe betide the irreverent Hindu who questions the legitimacy of these lectures, or who cites the evidence of enquiry commissions. He is not only a “Hindu communalist” and a “Hindu chauvinist” but also a “reactionary” and a “revivalist”, putting the future of “secular and democratic India” in jeopardy. The ruling class is joined in this chorus by some pious people like the Gandhians according to whom such an unrepentant Hindu is not a Hindu at all. There is a lot of tongue-clicking all around.

In plain and simple language, therefore, national integration has come to mean only one thing, namely, that a meek Hindu society should get integrated with a militant Muslim millat. One waits in vain for a voice which so much as whispers a why in the face of boisterous Muslim bigotry. Muslims have a god-given right to go on raising accusing fingers at the Hindus for refusing to give them this or that. And the Hindus have a god-given duty to go on conceding every exclusive and imperialist claim of an incurable fanaticism.

The results of this “national integration” patronised by our ruling class over the past many years are there for every one to see, except, of course, its authors who are under an ideological compulsion not to see them. Caste which was for ages the most cohesive factor and a sure source of strength for Hindu society, has been converted into a cancer which poisons the very springs of our politics. Regionalism fostered by local patriotism, missionary machinations, and sectarian separatism has assumed alarming proportions such as imperil the very unity of the motherland. And Islamic imperialism has become many times more self-confident and self-righteous than on the eve of Partition.

THE CHARACTER OF HINDU UNITY

The only stumbling block which has so far stood in the way of this “national integration” promoted by our ruling class is the spirit of unity that still survives in Hindu society.

It is quite some time that Hindus lost the consciousness of their spiritual centre which unites their society, culture, and way of life. The only source of Hindu unity now is a consciousness of common history, particularly the history of freedom struggles fought against Islamic and British imperialism.

Hindu society still takes pride in its great past when it made major contributions to the spiritual, cultural, philosophical, and scientific wealth of mankind. Hindu society still cherishes the memory of its great sages, seers, saints, scientists, scholars, soldiers, and statesmen. Hindu society still remembers the days of its distress when it had to struggle ceaselessly and very hard against horde after horde of Islamic invaders who not only slaughtered, burnt, pillaged, and enslaved but also tried too foist by force its own brand of barbarism.

It is this common consciousness of its history which prevents Hindu society from accepting the Mamluks, the Khaljis, the Tughlaqs, the Bahmanis, the Sharqis, the Sayyids, the Lodis, and the Mughals as native dynasties on par with the Mauryas, the Sungas, the Guptas, the Cholas, the Maukharis, the Pandyas, the Palas, the Rashtrakutas, the Yadavas, the Kaktiyas, the Hoysalas, the Sangamas, the Saluvas, the Marathas, the Sikhs, and the Jats. Hindu society can never concede that Jaypala Shahiya of Kabul, Maharani Nayakidevi of Gujarat, Prithiviraj Chauhan of Delhi, Jayachandra Gahadvad of Kanauj, Singhanadeva of Devagiri, Vikrama Pandya of Madura, Prolaya Nayak of Andhra, Harihar and Bukka and Krishnadevaraya of Vijayanagara, Maharanas Kumbha and Sanga and Pratap, Shivaji, Banda Bahadur, Maharajas Surajmal and Ranjit Singh, who resisted the Islamic invaders, were petty local chieftains conspiring for personal gains. Hindu society honours these heroes as freedom fighters against Islamic imperialism, in the same way as it honours its freedom fighters against British imperialism.

THE CHARACTER OF ISLAMIC IMPERIALISM

That is what causes no end of trouble for our promoters of “national integration”. The Muslim component of the “composite nation” has serious objections to this Hindu view of history and hero-worship. Muslim Indians are not at all prepared to take pride in any period of pre-Islamic Indian history, or honour any hero who flourished in that period. They want the pre-Islamic period of Indian history to be disowned even by Hindus as an “era of darkness”. This, they swear, is demanded by the scriptures of Islam. But, at the same time, they want Hindus to honour criminals, gangsters, mass murderers, criminals and tyrants like Muhammad bin Qasim, Mahmud Ghaznavi, Muhammad Ghuri, Alauddin Khalji, Muhammad Tughlaq, Sikandar Lodi, Babur, Aurangzeb, and Ahmad Shah Abdali. They also expect the Hindus to denounce as disgruntled rebels, if not as traitors, the medieval Hindu heroes who resisted and ultimately routed Islamic imperialism in India.

Coming nearer to our own times, Muslim Indians are not prepared to honour Hindu rebels and revolutionaries who fought for freedom against British imperialism. They denounce as “show-boys” of the Hindus those few Muslims who cooperated with the freedom fighters. But they insist that Hindus should honour as freedom fighters the revivalists of Islamic imperialism such as Shah Walliullah and Syed Ahmad Barelvi, or separatists like Sir Syed Ahmed Khan and the Ali Brothers, or murderers of Hindus like the Wahhabis and the Moplahs, or secessionists like Mohammed Ali Jinnah.

In the field of culture, Muslim Indians harbour only a feeling of indifference, if not of contempt, for the Sanskrit, Prakrit, and Vernacular literature of ancient and medieval India. They have no use for Indian philosophies and sciences even when a lot of their own Islamic lore is borrowed from these sources and only dressed up in Arabic or Persian. They denounce Hindu spiritual traditions as polytheism and pantheism. They show no appreciation for Hindu masterpieces of architecture, sculpture, and other plastic arts. It is only in the field of music that they have shown some appreciation, simply because there has never been any Islamic music as such and many Indian musicians happen to be converts from Hinduism to Islam. The more orthodox Muslims frown even on this Muslim fondness for Hindu music.

But when it comes to what they regard as Muslim culture, they want Hindus to be as enthusiastic about it as they are themselves. They want Hindus to raise a non-stop wãh-wãh to the “wealth” of Persian and Urdu poetry, and accept as national heritage even the compositions of a Hindu-hater like Amir Khusru and a promoter of Pakistan such as Sir Muhammad Iqbal. They want Hindus to go into raptures over the beauties of Muslim architecture, miniature painting, calligraphy, culinary arts, dress, demeanour, and what not. They insist that Hindus should hail all this Islamic heritage as an inseparable part of the national heritage.

THE NATURE OF NATIONAL INTEGRATION

Our ruling class cannot see any justice in the Hindu consciousness of its pre-Islamic past, nor any injustice in the Muslim insistence on glorifying an inglorious interregnum in India’s long history. The only way which this ruling sees out of what it calls “the communal strife” is that Hindu history should be substantially diluted and tailored to the needs of Islamic imperialism, and that Muslim history should be given a liberal coat of whitewash or even made to pass muster as national history. This has been the main plank in the platform for “national integration”.

Hitherto this Experiment with Untruth was confined mainly to Muslim and Communist “historians” who have come to control the Indian History Congress, the Indian Council of Historical Research, and even the University Grants Commission. Now it has been taken up by the National Integration Council. The Ministry of Education of the Government of India has directed the education departments in the States to extend this experiment to school-level text-books of history. And this perverse programme of suppressing truth and spreading falsehood is being sponsored by a state which inscribes Satyameva Jayate on its emblem.

Mrs. Coomi Kapoor has given a summary of the guidelines prepared by the National Council of Educational Research and Training (NCERT) in the Indian Express date-lined New Delhi, January 17, 1982. She writes: “History and Language textbooks for schools all over India will soon be revised radically. In collaboration with various state governments the Ministry of Education has begun a phased programme to weed out undesirable textbooks and remove matter which is prejudicial to national integration and unity and which does not promote social cohesion. The Ministry of Education’s decision to re-evaluate textbooks was taken in the light of the recommendations of the National Integration Council of which the Prime Minister is Chairman. The Ministry’s view was that history had often been used to serve narrow sectarian and chauvinistic ends.” Accordingly, “Twenty states and three Union Territories have started the work of evaluation according to guidelines prepared by the NCERT. In September (1981), two evaluators from each state attended a course at NCERT headquarters in New Delhi. The evaluators are now scrutinising the relevant texts in their home states and submitting their reports. The evaluations will be examined by an expert committee appointed by the state.”

We shall examine and evaluate the guidelines laid down by the NCERT in the chapters that follow.