बुधवार, 24 नवंबर 2010

हिन्दुत्व के आलोचक

भारत सहित विश्व के ख्यातिनाम विद्वानों एवं दार्शनिकों के लिए हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व को उसके सही और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करना आसान कार्य कभी नहीं रहा। इस संबंध में इलाहाबाद से प्रकाशित एक हिंदी दैनिक के 28 अक्टूबर,2010 के ताजा अंक में किन्हीं श्री सुभाष गाताड़े के लेख ”हिन्दू धर्म एवं हिन्दुत्व के फर्क को आप कब समझेंगे भागवत जी?” को पढ़ाकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ। पूरे लेख में अन्तर्निहित दुर्भावना, अधकचरी जानकारी, पक्षपातपूर्ण सामग्री एवं झूठ के पुलिंदे को पढ़कर बहुत दुख हुआ। किसी लेखक को अपने लेख की प्रकाशनार्थ सामग्री इस आशय से कई बार पढ़नी चाहिए कि उसमें निहित निराधार दुर्भावना प्रकट न होने पायें। लेखक को विनम्र सलाह है कि वे सर्वप्रथम मा. इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ द्वारा विगत् 30 सितम्बर,2010 को अयोध्या विवाद पर घोषित निर्णय को आद्योपांत ध्यान से पढ़ डालें। विशेष रुप से संबंधित पीठ द्वारा वर्ष 2002-03 में दिये गये निर्देशों के अनुपालन में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा विवादित स्थल के आस-पास करीब 90 स्थानों पर की गयी खुदायी के बाद मा. न्यायालय में प्रस्तुत उस आख्या का अध्ययन कर लें जिसमें साफ-साफ कहा गया है कि विवादित भूमि के नीचे एक हिंदू मंदिर के अवशेष अब भी विद्यमान हैं। न्यायपीठ में शामिल तीन जजों में से दो न्यायाधीशों (न्यायमूर्ति शर्मा एवं न्यायमूर्ति सुधीर नारायण) ने पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की आख्या का बारीकी से अध्ययन करने के बाद अपने निर्णय में यह मत व्यक्त किया कि विवादित स्थल पर पहले से मौजूद एक हिंदू मंदिर को ध्वस्त करके उसके मलवे से कथित बाबरी मस्जिद बनवाई गयी थी, जबकि तीसरे न्यायमूर्ति खान इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि कथित बाबरी ढाँचा एक हिंदू मंदिर के खंडहर पर बनवाया गया था। तीनों न्यायाधीशों का असंदिग्ध मत यह था कि मस्जिद एक हिंदू मंदिर स्थल पर बनवाई गयी थी, न कि किसी खाली भूमि पर। साथ ही यह निष्कर्ष भी निकाला गया कि कथित मस्जिद मुस्लिम मान्यताओं के अनुसार पूर्ण रुपेण मस्जिद नहीं थी। अगर लेखक गाताड़े को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की आख्या और उसे एक साक्ष्य के रुप में स्वीकार करने की माननीय न्यायाधीशों के सुविचारित निर्णय में उल्लेख पर कोई आपत्ति है, तो उन्हें अपनी आपत्तियों को तर्क संगत ढंग से प्रचार माध्यमों में व्यस्त करना चाहिए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन राव भागवत ने निर्णय का स्वागत करते हुए कहा था कि इस निर्णय से ‘न कोई जीता-न कोई हारा’। उनका यह वक्तव्य एक अक्टूबर, 2010 के सभी दैनिकों में प्रकाशित हुआ था। दशकों से पाक प्रेरित आतंकियों द्वारा देश के विभिन्न भागों में किये गये विस्फोटों में हजारों निर्दोषों के असमय काल कवलित हो जाने पर लेखक श्री गाताड़े ने कितने लेख लिखे थे? बहुत सी आतंकी घटनाओं में सिमी एवं इंडियन मुजाहिदीन के कर्ता-धर्ता संलिप्त पाये गये थे। उनमें से कुछ को न्यायालयों द्वारा दंडित भी किया जा चुका है और कुछ मामले अब भी न्यायालय में विचाराधीन हैं। तब देश भर के पंथनिरपेक्षतावादी यह कहने से गुरेज नहीं करते थे कि आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता यानी” मुस्लिम आतंकवाद” कहने पर परहेज किया गया और अब इक्का-दुक्का घटनाओं में कुछ हिंदुओं के पकड़े जाने पर न केवल ‘भगवा आतंकवाद’ या ‘हिन्दु आतंकवाद’ का देशव्यापी नारा लगाया जाने लगा, वरन् इसमें पूरी संप्रग सरकार और उसके गृहमंत्री ने खुला योगदान देना शुरु कर दिया। श्री गाताड़े जैसे लेखक भी अपनी अधकचरी जानकारी एवं पक्षपाती दृष्टिकोण के कारण उसके शिकार हो गये। श्री गाताड़े की सीमित जानकारी होने की वजह से संघ में ‘एक चालकानुवर्तित्व’ का सवाल उठाया गया है। उनमें यह साहस नहीं है कि वे देशभर के अधिकांश क्षेत्रीय दलों के आजीवन अध्यक्षों और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय राजनीतिक दल के एक परिवार में सिमट जाने पर कुछ सवाल उठा सकते। क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के वर्तमान अध्यक्षों ने तो अपने परिवार के उत्तराधिकारी को अपने दल की बागडोर सौंपने की तैयारी भी कर ली है। श्री गाताड़े का ध्यान इस ओर भी जाना चाहिए। लेखक गाताडे ने अपनी सम्यक जानकारी के अभाव में महात्मा गांधी की हत्या का प्रसंग उठाया है। उन्हें अगर जानकारी है, तो उसका खुलासा करें कि महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ द्वारा कहां-कहां मिठाई बांटी या बटवाई गयी? महात्मागांधी की हत्या से संबंधित मुकदमें की सुनवाई न्यायमूर्ति आत्माचरण की विशेष अदालत में 26 मई, 1948 को लालकिले में शुरु हुयी थी जिसका निर्णय 110 पृष्ठों में 10 जनवरी, 1949 को घोषित करते हुए माननीय न्यायाधीशों ने असंदिग्ध शब्दों में यह घोषणा कर दी थी कि महात्मा गांधी की हत्या के षडयंत्र से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कोई संबंध नहीं था। इस निर्णय की अपील पंजाब उच्च न्यायालय में की गयी जिसकी सुनवाई न्यायमूर्ति भंडारी, न्यायमूर्ति अच्छूराम और न्यायमूर्ति जी.डी. खोसला की तीन सदस्यीय पूर्ण पीठ द्वारा की गयी। शिमला में घोषित निर्णय में पूर्णपीठ द्वारा असंदिग्ध रुप से संघ को निर्दोष घोषित कर दिया गया। इसके काफी दिनों बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा सन् 1966 में सर्वोच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायमूर्ति टी.एल.कपूर की अध्यक्षता में एक न्यायिक आयोग गठित कर महात्मा गांधी की हत्या की, जाँंच का कार्य सौंपा गया। इस आयोग द्वारा 101 साक्षियों के बयान दर्ज करने के साथ ही 407 दस्तावेजी सबूतों का परीक्षण करके 1968 में अपनी रिपोर्ट सौंपी गयी। इसमें सबसे महत्वपूर्ण गवाही 1948 में गृह सचिव रहे आर.एन.बनर्जी की हुयी जिन्होंने असंदिग्ध रुप से कहा था कि गांधी जी के हत्यारों का संघ से कोई संबंध नहीं था। श्री बनर्जी की गवाही का उल्लेख करते हुए कपूर आयोज की रिर्पोर्ट के पृष्ठ-76, खंड-2 में स्पष्ट रुप से कहा गया कि इस जघन्य हत्या के लिए संघ को कतई जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता। सावरकर जी का भी संघ से कोई संबंध नहीं था। वे हिंदू महासभा के नेता थे। लेखक गाताड़े स्वयं अपने लेख में यह स्वीकार करते हैं कि आतंकवाद का संबंध किसी धर्म से नहीं जाना चाहिए। अतः ‘हिन्दू आतंकवाद ‘ कहना सर्वथा अनुचित है। यह बात गाताड़े जी को भारत के गृहमंत्री चिदंबरम् को समझाना चाहिए। मालेगांव विस्फोट के सिलेसिले में जॉच-पड़ताल के बाद जिन लोगों को अभियुक्त बनाकर गिरफ्तार किया गया, उनमें से किसी का संबंध संघ से नहीं है। वे सभी ‘अभिनव भारत’ नामक किसी अनाम से संगठन के कर्ताधर्ता हैं। जब मुस्लिम समुदाय बड़ी संख्या में पूरे विश्व की आतंकी घटनाओं से जुड़ा पाया गया, तो भी ‘मुस्लिम आतंकवाद’ कहना उचित नहीं माना जाता, तब फिर ‘हिन्दू आतंकवाद’ कहाँ से आ गया? श्री गाताड़े जी को ‘हिन्दू धर्म’ और ‘हिन्दुत्व’ को समझने के लिए माननीय सर्वोच्च न्यायालय की पूर्णपीठ(जिसमें न्यायमूर्ति जे.एस.वर्मा, न्यायमूर्ति एन.पी.सिंह एवं न्यायमूर्ति के. वेंकट स्वामी शामिल थे) द्वारा दिनांक 11.12.95 को घोषित निर्णय का गंभीरता से अध्ययन करना चाहिए। इस निर्णय का एक महत्वपूर्ण अंश निम्नवत् हैः- ”हिन्दू धर्म के बारे में विचार करते हुए हिन्दू धर्म की परिभाषा करना अथवा इसकी संतोषजनक व्याख्या करना यदि असंभव न माना जाय, तो कठिन अवश्य है। अन्य धर्मो (विश्व में प्रचलित) की भांति पूजा नहीं की जाती है। किसी एक ही सिध्दांत में विश्वास करना इसमें आवश्यक नहीं है। यह किसी एक दार्शनिक धारणा में विश्वास रखने का आग्रह नहीं करता है और न ही एक ही प्रकार के धार्मिक कर्मकांडों का पालन करने को कहता है। वस्तुतः यह किसी मत अथवा पांथिक विश्वास के लिए आवश्यक संकीर्ण परंपरागत विशेषताओं अथवा मान्यताओं को यह संतुष्ट करता नहीं दिखायी पड़ता। इसे एक जीवन दर्शन के अतिरिक्त कुछ नहीं कहा जा सकता है।” विश्व प्रसिध्द दार्शनिक एवं भारत के राष्ट्रपति रहे डॉ. राधाकृष्णन् ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ’ के पृष्ठ -12 पर कहा है कि ”सिन्धु नदी के भारतीय तटों की ओर निवास करने वाले जन को फारस और अन्य पश्चिमी आक्रांताओं द्वारा हिंदू ही कहा गया।” डॉ. राधाकृष्णन् के अनुसार हिन्दू शब्द का मूलतः महत्व पांथिक विचार के बजाय भौगोलिक अधिक है। उनकी पुस्तक ‘इंडियन फिलॉसफी’ भाग-1 के पृष्ठ 22-23 पर लिखा गया है- ”इतिहास के सभी ज्ञात काल खंड और सभी परिस्थितियों में से जिनसे भारत गुजरा है, एक स्पष्ट और विशिष्ट पहचान दृष्टिगत होती है। हिन्दू धर्म ने अपने सुनिश्चित मनोवैज्ञानिक रुझान को दृढ़तापूर्वक अपनाये रखा और यह उसकी विशिष्ट विरासत भी बन गयी और यही भारतीय जन की मौलिक चारित्रिक विशेषता भी बनी रहेगी, जब तक उन्हें स्वतंत्र एवं पृथक जीवन जीने का सुअवसर प्राप्त होता रहेगा।” प्रसिध्द स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और स्वराज्य के उद्धोषक बाल गंगाधर तिलक ने अपने महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘गीतारहस्य’ में हिन्दू धर्म की बड़ी उदार व्याख्या इस रुप में की है-” वेदों के प्रति आदरभाव इस विचार की मान्यता कि मुक्ति के मार्ग अनेक है इस सत्य की अनुभूति कि देव अनेक हैं जिनकी पूजा की जा सकती है-यह ही हिन्दू धर्म की मुख्य विशेषतायें हैं।” ‘विश्व शब्दकोश ब्रिटानिया’ के 15 वें संस्करण में सार रुप में हिन्दुत्व को निम्नवत् परिभाषित किया गया हैः-”हिन्दुत्व एक सभ्यता भी है और अनेक धार्मिक विचारों का संग्रहीत रुप भी है जिसका न कोई अन्त है और न ही आदि जिसका न कोई संस्थापक है और न कोई केंद्रीय अधिकारी। जिसकी न कोई वंश परंपरा है और न कोई संगठन। हिन्दुत्व को परिभाषित करने के प्रत्येक प्रयत्न अभी तक किसी न किसी रुप में असंतोषजनक ही रहे हैं। हिंदुत्व के दिग्गज विद्वान जिनमें स्वयं हिन्दू भी थे, इसे पारिभाषित करने में असफल रहे हैं क्योंकि सभी ने इसके भिन्न-भिन्न पक्षों पर ही बल दिया है।” पता नहीं सुभाष गाताड़े ने यह निष्कर्ष किस आधार पर निकाल लिया कि सावरकर जी द्वारा लिखित पुस्तक ‘हिन्दुत्व’ ही सभी सरसंघचालकों के लिए ‘बाइबिल’ है। संघ का हिन्दुत्व स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, अरविंद घोष आदि द्वारा प्रतिपादित सिध्दांतों पर आधारित है जिसमें कट्टरता के लिए कोई स्थान नहीं है। श्री गाताड़े ने देश विभाजन के पूर्व करांची में संघ कार्यकर्ताओं द्वारा किये गये किसी विस्फोट का भी जिक्र किया है। वे देश विभाजन के पूर्व पश्चिमी पाकिस्तान एवं नौवारवाली आदि स्थानों पर दस लाख से अधिक हिंदुओं एवं सिखों के बर्बर नरसंहार का उल्लेख करना शायद भूल गये। यदि उस नरसंहार के जवाब में पाक क्षेत्रों में हिंदुओं ने आत्मरक्षा में कहीं विस्फोट आदि किया हो तो उसे अनुचित कैसे कहा जा सकता है? पाक प्रेरित आतंकियों द्वारा 26.11.2008 को देश की आर्थिक राजधानी मुंबई पर किया गया हमला बिल्कुल ताजा है। अमेरिका, रुस, ब्रिटेन और भारत जैसे गैर मुस्लिम देश वर्षों से आतंकवादियों के निशाने पर हैं। गाताड़े जी का इस विश्वव्यापी आतंकवाद पर क्या कहना है?


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