बुधवार, 24 नवंबर 2010

धर्मक्षेत्रे भारतक्षेत्रे …………

गीता का प्रथम श्लोक ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ भारतीय मनीषा को उत्कृष्टतम अभिव्यक्ति देने वाले ग्रंथ की शुरुआत मात्र नहीं है, यह व्यवस्था की एक एक विशेष स्थिति की तरफ संकेत भी करता है। एक ऐसी जब सत्य और असत्य के बीच आमना -सामना अवश्यंभावी बन जाता है। इस स्थिति में पूरी व्यवस्था व्यापक बदलाव के मुहाने पर खड़ी होती है। असात्विक शक्तियों की चालबाजियों, फरेबों और तिकड़मों से आम आदमी कराह रहा होता है। अभिव्यक्ति में असत्य हावी हो जाता है। परंपरागत सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक संरचनाओं में सड़ांध इस कदर बढ़ चुकी होती है अपने हितों के लिए मूल्य एवं आदर्श को ताक पर रखना सहज व्यवहार बन जाता है। राज और समाज को संचालित करने वाली शक्तियां इतनी मदमस्त हो जाती है कि उनके खिलाफ ‘लो इन्टेंसिटी वार’ अप्रासंगिक हो जाता है। लेकिन इस स्थिति का एक सकारात्मक पक्ष भी होता है। वह यह कि सात्विक शक्तियां असात्विक शक्तियों की चुनौती को ताल ठोंककर स्वीकार करती है। इस कारण प्रत्यक्ष संघर्ष अपरिहार्य बन जाना है। दोनों पक्षों को एक दूसरे के खिलाफ शंखनाद करना पड़ता है। चूंकि यह संग्राम धर्म की स्थापना के उद्देश्य से लड़ा जाता है इसलिए जिस भूमि पर सेनाएं डटती हैं , वह धर्मभूमि बन जाती है। इस स्थिति की एक विशेषता यह भी है कि अपने तमाम अच्छे आग्रहों के बावजूद संचार और संचारक (मीडिया और पत्रकार) असात्विक शक्तियों के पाले में ही खड़े दिखायी देते हैं और उनकी भूमिका मात्र ‘आंखो देखा हाल’ सुनाने तक सीमित हो जाती है।

भारत जिस कालखंड से गुजर रहा है उसमें भी भारतीयता और अभारतीयता के बीच का संघर्ष तेजी से ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ की स्थिति की स्थिति की ओर बढ़ रहा है। हालांकि इस युध्द का क्षेत्र कुरुक्षेत्र तक सीमित न रहकर संपूर्ण भारत है। एक लंबी योजना के तहत उन शक्तियों पर निशाना साधा जा रहा है जो वर्तमान प्रणाली में भारतीयता को स्थापित करने का प्रयास कर रही है , भारतीय प्रकृति और तासीर पर आधारित वैकल्पिक व्यवस्था को गढ़ने के लिए प्रयत्नशील हैं।

इस बिंदु पर भारतीयता और अभारतीयता के बीच के संघर्ष को व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझना आवश्यक है। यह संघर्ष दिन, माह, और 100-50 वर्ष की सीमाओं को बहुत पहले ही लांघ चुका है और पिछले 1ं4 सौ वर्षों से सतत जारी है। कई निर्णायक दौर आए। कई बार ऐसा लगा कि भारतीयता सदैव के लिए जमींदोज हो गयी है लेकिन अपनी अदम्य धार्मिक जीजीविषा और प्रबल सांस्कृतिक जठराग्नि की बदौलत ऐसे तमाम झंझावातों को पार करने में वह सफल रही। 17वीं सदी तक भारतीयता पर होने वाले आक्रमणों की प्रकृति बर्बर और स्थूल थी। इस दौर के आक्रांताओं में सांस्कृतिक समझ का अभाव था और वे जबरन भारतीयता को अपने ढांचे में ढालने की कोशिश कर रहे थे। 18 वीं सदी में आए आक्रांताओं ने धर्म और संस्कृति में छिपी भारतीयता की मूलशक्ति को पहचाना और उसे नष्ट करने के व्यवस्थागत प्रयास भी शुरु किए। इस दौर में भारतीयता पर दोहरे आक्रमण की परंपरा शुरु हुई। बलपूर्वक भारतीयता को मिटाने के प्रयास यथावत जारी रहे साथ ही भारतीयों में भारतीयता को लेकर पाए जाने वाले गौरवबोध को नष्ट करने के एक नया आयाम आक्रांताओं ने अपनी रणनीति में जोड़ा। 1990 के बाद मीडिया -मार्केट गठजोड़ के कारण लोगों में तेजी से रोपी जा रही उपभोक्तावादी जीवनशैली के कारण भारतीयता पर आक्रमण का एक नया तीसरा मोर्चा भी खुल गया। मीडिया मार्केट गठजोड़ का भारतीयता से आमना-सामना अवश्यंभावी था क्योंकि भारतीयता त्यागपूर्वक उपभोग के जरिए आध्यात्मिक उन्नति के चरम लक्ष्य को प्राप्त करने की बात कहती है जबकि दूसरा पक्ष उपभोग को ही जीवन का चरम लक्ष्य मानता है और अंधाधुध उपभोग पर आधारित जीवनशैली को बढ़ावा देता है। भारतीयता पर आक्रमण करने वाले इस त्रिकोण के अंतर्संबंध आपस मे बहुत अच्छे नहीं कहे जा सकते। कही कहीं तो वे एकदूसरे पर जानलेवा हमला करते हुए भी दिखते है। लेकिन भारतीयता से इन तीनों को चनौती मिल रही है। इसलिए इस त्रिकोण ने भारतीयता के समाप्ति को अपने साझा न्यूनतम कार्यक्रम का हिस्सा बना लिया है।

इस अभारतीय त्रिकोण के उभार के कारण संघर्ष की प्रकृति और त्वरा में व्यापक बदलाव दिखने लगे हैं। पहले दोनों पक्षों के बीच अनियोजित अथवा अल्पयोजनाबध्द ढंग से विभिन्न मोर्चों पर छोटी – मोटी लडाईयां होती रहती है। अब सुनियोजित और व्यवस्थित तरीके से भारतीयता पर आक्रमण हो रहे और उसके अस्तित्व को समाप्त करने प्रयास किए जा रहे हैं। भारतीयता की वाहक शक्तियां भी चुनौती को स्वीकार करने के मूड में दिख रही है , इसलिए अब महासंग्राम का छिड़ना तय सा दिख रहा है।

पिछले 2 वर्षो सें ‘ हिन्दू आतंकवाद ‘ की अवधारणा को रोपने का जो प्रयास किए जा रहा हैं और उसका जिस तरह से प्रतिवाद हो रहा है , वह भावी महासंग्राम का कारण बन सकता है। हिंदू आतंकवाद की अवधारणा अभारतीय शक्तियों का एक व्यवस्थित और दूरगामी प्रयास है। इस अवधारणा के जरिए वे पश्चिम में तेजी से फैल रही आध्यात्मिकता पर आधारित उदात्त और समग्र भारतीय जीवनशैली को दफनाना चाहती हैं।। योग और आयुर्वेद के प्रति संपूर्ण दुनिया की नई पीढ़ी जिस तरह से आकर्षित हुई है।इसी तरह कई संस्थाएं और संत पश्चिम में आध्यात्मिकता की अलख जगा रहे हैं, और वहां नई पीढ़ी इसकी तरफ तेजी से आकर्षित हो रही है। इस आकर्षण भाव के कारण भारतीयता विरोधी त्रिकोण के हाथ-पांव फूल गए है। भारतीयता की छवि को संकीर्ण और कट्टर पेश कर यह त्रिकोण उसके प्रति तेजी से पनप रहे आकर्षण भाव को भंग करना चाहता है। ‘हिन्दू आतंकवाद’ का नया शिगूफा छोड़कर इस त्रिकोण ने भारतीयता की ध्वजावाहक शक्तियों को भारत में ही घेरने की रणनीति बनायी है।

इस पूरे प्रकरण में मीडिया की अति उत्साही भूमिका भी देखने लायक है। 2 वर्षों पहले तक किसी पंथ को आतंकवाद से न जोड़ने का उपदेश देने वाला मीडिया बिना किसी सबूत और साक्ष्य के ‘हिन्दू आतंकवाद’ शब्द को बार -बार दोहरा रहा है। मजेदार तथ्य यह है कि ‘हिन्दू आतंकवाद’ शब्द को मीडिया के जरिए आमलोगों से परिचित पहले करवाया गया और उसकी पुष्टि के सबूत बाद में जुटाए जा रहे हैं। एक अवधारणा के रुप में हिन्दू आतंकवाद हाल के दिनों में ‘मीडिया ट्रायल’ का सबसे बडा उदाहरण है। सबसे पहले मालेगांव प्रकरण में ‘हिन्दू आतंकवाद’ शब्द का प्रयोग किया गया। इस प्रकरण में सांगठनिक स्तर पर अभिनव भारत तथा व्यक्तिगत स्तर साध्वी प्रज्ञा का नाम उछाला गया। मालेगांव विस्फोट प्रकरण में मीडिया को तमाम मनगढंत कहानियां उपलब्ध कराने के अतिरिक्त आजतक जांच एजेंसियां कोई ठोस सबूत नहीं इकट्ठा कर पायी हैं। अभिनव भारत जैसे अनजान जैसे संगठन को लपेटने पर भी भारतीयता पर कोई आंच आती न देख अब इस त्रिकोण ने भारत और विश्व के सबसे बडे सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हिन्दू आतंकवाद से जोड़ने का कुत्सित प्रयास शुरु कर दिया है। संघ इस त्रिकोण के निशाने पहले भी सबसे उपर रहा है। क्योंकि आतंकवाद, धर्मांतरण और खुली अर्थव्यवस्था की विसंगतियों के प्रति संघ आमजन को जागरुक करता रहा है। इस कारण पूरे भारत में धीरे -धीरे इस त्रिकोण के खिलाफ एक प्रतिरोधात्मक शक्ति खड़ी होती जा रही थी।

अब इन शक्तियों ने संघ के एक वरिष्ठ और दूरदर्शी प्रचारक इंद्रेश का नाम ,जिन्हे मुसलमानों को भी संघ के कार्य से जोड़ने के लिए विशेष रुप से जाना जाता है, अजमेर बम विस्फोट में घसीटा है। यह त्रिकोण इंद्रेश के नाम को अजमेर बम विस्फोट से जोड़कर एक साथ कई निशाने साधने की कोशिश कर रहा है। इससे जहां एक तरफ त्रिक़ोण के सर्वाधिक सशक्त प्रतिरोधी की राष्ट्रवादी और लोक कल्याणकारी छवि को धूमिल किया जा सकेगा , वहीं इस्लामिक आतंकवाद के समकक्ष ‘हिन्दू आतंकवाद’ शब्द खड़ा कर मुसलमानों के कुछ वोट भी हथियाए जा सकेंगे। साथ ही , हिन्दू -मुस्लिम संवाद के एक संभावित धरातल को नष्ट भी किया जा सकेगा। लेकिन संघ ने भी इस चुनौती को स्वीकार करने का मन बन लिया है। संघ ने 10 नवंबर को पूरे देश में हिन्दुत्व और भारतीयता को बदनाम करने के इस कुत्सित प्रयास के खिलाफ धरना देने का फैसला किया है, आमजनता के बीच जाने का निर्णय लिया है। इस निर्णय का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि क्योंकि संघ ने घरने -प्रदर्शन के पूरे अभियान के सूत्र अपने हाथ में रखे है इससे पहले यह काम संघ के अनुषांगिक संगठन करते थे। 1975 के आपातकाल के बाद यह पहला मौका है जब संघ किसी मुद्दे की बागडोर खुद अपने हाथ मे लेकर आमजन के बीच जा रहा है। धरने प्रदर्शन का यह अभियान मात्र अभारतीय त्रिकोण को उत्तर देने की तैयारी मात्र नहीं है , संघ अपने उस आनुषंगिक संगठन को भी संदेश देना चाहता है जो व्यवस्था में भारतीयता को स्थापित करने के लक्ष्य से एकहद तक विचलित हो चुका है और यह मान चुका है कि उनके बिना संघ कोई सार्वजनिक अभियान चलाने में अक्षम है। जाहिर है एक बडे महासंग्राम की स्थितियां पूरी तरह बन गयी है। भारत तेजी से ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ की स्थिति की तरफ बढ़ रहा है। लेकिन कोई ऐसा संजय नहीं दिखाई दे रहा है जो असत्य के पाले मेंं रहते हुए भी अंधी सत्ता को बीच-बीच में टोक कर उसे सत्य मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित करता रहे और स्थिति की भीषणता की तरफ उसका ध्यान भी आकर्षित करे।

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