भारतवर्ष एक पुरातन, बहुभाषी और सांस्कृतिक विभिन्नता वाला राष्ट्र है। यहां लोकतंत्र भी अखण्डता, एकता और सम्प्रभुता के चिन्तन पर आधारित है। देश के बंटवारे के साथ हिन्दू-मुस्लिम एक विरोधाभासी सम्प्रदाय के रूप में उभरने लगे। राजनेताओं ने इस विचारधारा को खूब हवा दी। गंगा-जमुनी संस्कृति को आमने-सामने खड़ा कर दिया।
देश टूटने लगा और नफरत की बढ़ती आग में नेता रोटियां सेकने लगे। जब इससे भी पेट नहीं भरा, तब अल्पसंख्यक शब्द का अविष्कार कर डाला। अच्छे भले मुख्य धारा में जीते लोगों को मुख्य धारा से बाहर कर दिया। अपने ही देश में लोग द्वितीय श्रेणी के नागरिक बन गए। उनके ‘कोटे’ निर्घारित हो गए। जन प्रतिनिघियों की क्रूरता की यह पराकाष्ठा ही है कि संविधान में बिना ‘बहुसंख्यक’ की व्याख्या किए ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को थोप दिया गया। आप अल्पसंख्यकों को पूछें कि क्या उत्थान का चेहरा देखा?
राजनीति में संवेदना नहीं होती। अब तो लोकतंत्र में भी कांग्रेस/ भाजपा के प्रधानमंत्री/ मुख्यमंत्री होने लग गए। राष्ट्र और राज्यों का प्रतिनिघि कोई भी दिखाई नहीं देता। कोई किसी का रहा ही नहीं। कोई किसी को फलता-फूलता सुहाता ही नहीं। बस सत्ता-धन लोलुपता रह गई। इनका भी अपराधीकरण नेताओं ने ही किया। देश के सीने पर फिर आरक्षण के घाव किए गए। विष उगलने लगे, अपने ही गांव वाले, पड़ोसी। घर बंट गए, कार्यालय बंट गए।
एकता और अखण्डता को मेरे ही प्रतिनिघियों ने तार-तार कर दिया। नेताओं ने खूब जश्न मनाया। अब इन नासूरों से मवाद आने लगा है। आम आदमी कराह रहा है। आरक्षण के अनुपात (प्रतिशत) की सूची देखें तो सभी अल्पसंख्यक नजर आएंगे। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद जिस ‘साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा निरोधक बिल-2011′ को कानूनी जामा पहनाना चाहती है, बहुसंख्यकों के विरूद्ध, उसे पहले परिभाषित तो करे। किसको बहुसंख्यक के दायरे में रखना चाहेगी?
हाल ही में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की ओर से जारी इस बिल के मसौदे को पढ़कर लगता है कि हमने क्यों आजादी के लिए संघर्ष किया था। क्यों हमने जन प्रतिनिघियों को देश बेचने की छूट दे दी। क्यों हमने समान नागरिकता के अघिकार को लागू नहीं किया? क्यों हमने कश्मीर को अल्पसंख्यकों के हवाले कर दिया और वोट की खातिर तीन करोड़ (लगभग) बांग्लादेशी अल्पसंख्यकों को भारत में अनाघिकृत रूप से बसने की छूट दे दी।
इस नए बिल को देखकर तो लगता है कि हमारे नीति निर्माता पूरे देश को ही थाली में सजाकर पाकिस्तान के हवाले कर देना चाहते हैं। आश्चर्य है कि परिषद के साथ-साथ उसके अध्यक्ष ने भी बिल तैयार करके सरकार के पास भेज दिया। ऎसा घिनौना बिल आजादी के बाद पढ़ने-सुनने में भी नहीं आया। घिक्कारने लायक है। राष्ट्रीय स्तर के कानून बनाने के लिए संसद, संविधान एवं राष्ट्रीय एकता परिषद के होते हुए किसी नागरिक परिषद की आवश्यकता ही क्या है? क्यों बना रखी है सफेद हाथी जैसी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद?
बिल कहता है कि जब साम्प्रदायिक दंगे हों तो इसका दोष केवल बहुसंख्यकों के माथे ही मढ़ा जाए। अल्पसंख्यकों को मुक्त ही रखा जाए। तब अल्पसंख्यक अपराघियों के मन में भय कहां रहेगा? वे कभी भी बहुसंख्यकों के विरूद्ध कुछ भी उत्पात खड़ा कर सकते हैं। तब कश्मीर के अल्पसंख्यक कभी भी सेना के जवानों के विरूद्ध कोई भी शिकायत कर सकते हैं। जांच में उनको तो दोषी माना ही नहीं जाएगा। आज जिस आम्र्ड फोर्सेज स्पेशल प्रोटेक्शन एक्ट ने सेना को कश्मीर और उत्तर पूर्व में सुरक्षित रखा हुआ है, वह भी बेअसर हो जाएगा। बांग्लादेशी भी अल्पसंख्यकों के साथ जुड़े ही हैं।
दोनों मिलकर आबादी का 20 प्रतिशत हिस्सा हैं। क्या अपराध भाव किसी के ललाट पर लिखा होता है? क्या अफगानिस्तान, पाकिस्तान जैसे देशों में यही अल्पसंख्यक आतंकवाद के सूत्रधार नहीं है और यहां किसी तरह की साम्प्रदायिक हिंसा में लिप्त नहीं होने की कसम खाकर पैदा होते हैं। आपराघिक प्रवृत्ति व्यक्तिगत होती है। इसे किसी समूह पर लागू नहीं किया जा सकता जैसा कि यह प्रस्तावित बिल कह रहा है। इसी प्रकार नेकी या उदारता भी सामूहिक रूप से लागू नहीं की जा सकती।
एक अन्य घोष्ाणा भी आश्चर्यजनक है। दंगों की अथवा अल्पसंख्यक की शिकायत पर होने वाली जांच में जो बयान अल्पसंख्यक देता है, उस बयान के आधार पर अल्पसंख्यक के विरूद्ध किसी प्रकार की कानूनी कार्रवाई नहीं होगी या कार्रवाई का आधार नहीं बनेगा। याद है न, जब दहेज विरोधी कानून बना था, तब किस प्रकार लड़के वालों की दुर्दशा करते थे पुलिस वाले। झूठी शिकायतों पर? किस प्रकार अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अघिनियम के हवाले से बिना जांच किए सजा देते हैं। अपने ही देशवासी कानून के पर्दे में देश को तोड़ने का निमित्त बन रहे हैं। अब यदि यह बिल पास हो गया, तब वैसे ही जुल्म होंगे, जैसे कुछ अफ्रीकी देशों में होते हैं। सबकी आंखें और कान बंद होंगे।
एक मुद्दा और भी है जिसका अवलोकन भी यहां कर लेना चाहिए। वह है आरक्षण कानून। इसमें अंकित सभी जातियां किस श्रेणी में आएंगी? हिन्दुत्व कोई धर्म या सम्प्रदाय नहीं है। क्या इन सभी जातियों को भी अल्प संख्यक माना जाएगा। क्या सिख, ईसाई, मुस्लिम आदि सम्प्रदायों के बीच आपसी हिंसा होने पर साम्प्रदायिक हिंसा के आरोप से सभी मुक्त रहेंगे? तब क्या यह सच नहीं है कि इस कानून का उपयोग येन-केन प्रकारेण बहुसंख्यकों को आतंकित करने के लिए किया जायेगा।
इसकी अन्य कोई भूमिका दिखाई ही नहीं देती। आज जो कानून हमारे संविधान में हैं, वे हर परिस्थिति से निपटने के लिए सक्षम हैं। जरूरत है उन्हें ईमानदारी और बिना भेदभाव लागू करने की। जो साठ साल में तो संभव नहीं हो पाया। राष्ट्रीय एकता परिषद भी यही कार्य देखती है। सजा का अघिकार नई समिति को भी नहीं होगा। निश्चित ही है कि इसका राजनीतिक दुरूपयोग ही होगा। इसके पास स्वतंत्र पुलिस भी होगी। मध्यप्रदेश में लोकायुक्त पुलिस जो कर रही है, उसे कौन नहीं जानता। सरकारें, राजनेताओं तथा अपने चहेतों को मंत्र देकर बिठाती जाएंगी।
मजे की बात यह है कि अल्पसंख्यक समूह की व्याख्या में एसटी/एससी को भी शामिल किया गया है। अर्थात उन्हें बहुसंख्यकों के समूह से बाहर निकाल दिया। तब अन्य आरक्षित वर्गो को कैसे साथ रखा जा सकेगा? यदि उनको भी अल्पसंख्यक मान लिया जाए तो, बहुसंख्यक कोई बचेगा ही नहीं। ब्राह्मण एवं राजपूत भी आंदोलन करते रहते हैं आरक्षण के लिए। उनको भी दे दो। तब आज के अल्पसंख्यक ही कल बहुसंख्यक भी हो जाएंगे।
क्या होगा, क्या नहीं होगा यह अलग बात है। प्रश्न यह है कि मोहल्ले के कोई दो घर मिलकर नहीं रह पाएंगे। बल्कि दुश्मन की तरह एक-दूसरे को तबाह करने के सपने देखने लग जाएंगे। अल्पसंख्यक पड़ोसियों को पूरी छूट होगी कि देश में आएं, कानून से मुक्त रहकर अपराध करें और समय के साथ देश को हथिया लें। धन्य-धन्य मेरा लोकतंत्र एवं उसके प्रहरी!!!
जनोक्ति.कॉम
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