रामजन्मभूमि पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय आ जाने के उपरान्त देश ने शांति की सांस ली लेकिन माक्र्सवादी प्राध्यापकों और अलीगढ स्कूल के प्राध्यापकों, जिन्होंने पिछले कुछ अर्से से अपने आपको स्वयं ही ख्यातिप्राप्त इतिहासकार लिखना शुरु कर दिया है, के खेमे में जबरदस्त खलबली मच गयी है। माक्र्सवादियों और मुस्लिम साम्प्रदायिकता में दोस्ती का इतिहास भारत में पुराना है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान मुस्लिम साम्प्रदायिक शक्तियां और माक्र्सवादी एक जुटहोकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का विरोध कर रहे थे, और ब्रिटिश शासन के समर्थन में नुक्कड नाटक करने में मशगूल थे। अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय से जब द्विराष्ट्रवाद की बात उठी और उसे मुहम्मद इकबाल ने आगे बढाया तो माक्र्सवादी तुरंत उनके पक्ष में जा खडे हुए और पाकिस्तान के निर्माण का समर्थन करने लगे । भारत में माक्र्सवादी इतिहासकारों की अपने जन्म से ही एक दिक्कत है । मार्क्सवादी शब्दावली का प्रयोग करते हुए उन्हें इस देश के इतिहास में प्रतिक्रियावादी ताकतों की पडताल करनी है । अब भारत का इतिहास और उसकी अस्मिता हिंदू इतिहास ही है अतः माक्र्सवादियों ने हिन्दू इतिहास और अस्मिता को ही प्रतिक्रियावादी घोषित कर दिया । अब यदि हिन्दू इतिहास प्रतिक्रिया वादी है तो प्रगतिशील कौन है ?कार्ल माक्र्स के दर्शन का उद्गम और साम्यवादी पार्टियों की स्थापना तो कल की बात है उससे पहले हिन्दू प्रतिक्रियावादी शक्तियों को हराने के लिए प्रगतिशील तत्वों की तलाश बहुत जरुरी थी । तभी माक्र्सवादी शब्दावली में भारत का इतिहास लिखा जा सकता था । इस शून्य को भरने के लिए माक्र्सवादी इतिहासकारों ने विदेशी मुस्लिम आका्रंताओं को प्रगतिशील घोषित कर दिया । अब भा।रत का माक्र्सवादी इतिहास मुकम्मल हुआ । भारत पर हिन्दू प्रतिक्रियावादियों का कब्जा था फिर उनकी मुक्ति के लिए विदेशी मुस्लिम आक्रांता आया । अब यदि विदेशी मुस्लिम आक्रांता मुक्तिदाता था तो उनका सकारात्मक चित्रण भी जरुरी था और नायक की भूमिका में स्थापित करना भी लाजमी था । माक्र्सवादी इतिहासकार जी जान से इसी काम में जुट गए । उनकी दृष्टि में मोहम्मद बिन कासिम , महमूद गजनवी , बाबर , औरंगजेब , जहांगीर लोककल्याणकारी राज्य के संस्थापक बने जिन्होंने बिना किसी भेदभाव के भारत में माक्र्सवादी शब्दावली के सर्वहारा राज्य की स्थापना कर दी । इसी तर्क के आधार पर इरफान हबीब और जोआ हसन जैसे साम्प्रदायिक इतिहासकार प्रगतिशील घोषित कर दिए गए । लेकिन दुर्भाग्य से मध्यकालीन भारत का सारा इतिहास इन विदेशी आका्रंताओं के अत्याचारों और हिन्दू दमन से भरा पडा है । अतः जब कोई मध्यकालीन इतिहास कोई ऐसा पृष्ठ पढा जाता है तो ये सभी माक्र्सवादी तथाकथित इतिहासकार चारों खुर उठाकर भारतीयता पर प्रहार करना शुरु कर देते हैं और मुस्लिम साम्प््रादायिकत तत्वों के स्वर में स्वर मिलाकर रेंगना शुरु कर देते हैं ।
अयोध्या में 1528 में बाबर के सेनापति द्वारा राम मंदिर को गिराकर बनाया गया बाबरी ढांचा मध्यकालीन भारत का ऐसा ही एक पृष्ठ है जिसे लेकर इन माक्र्सवादियों ने एक प्रकार से घृणा का अभियान छेडा हुआ है । ये लोग स्वयं को इतिहासकार कहते हैं केवल इतना ही नहीं अखबारों में वक्तव्य देते समय इन्होंने स्वयं ही अपने आपको ख्यातिप्राप्त इतिहासकार लिखना शुरु कर दिया । योरोपीय विश्वविद्यालयों की विशेषता है कि भारत में जो लोग हिंदू अस्मिता अथवा भारतीयता के खिलाफ लिखते बोलते है उनको अपने यहां बुलाकर उनका सम्मान किया जाता है । इनमें से अनेक प्राध्यापकों को वहां के विश्वविद्यालयों में लिखन पढने के लिए बुलाया भी जाता है । अब ये प्राध्यापक योरोपीय विश्वविद्यालय के अपने कालखण्ड को माथे पर तिलक की तरह इस्तेमाल कर स्वयं को भारतीय इतिहास के ख्यातिनामा शीर्षपुरुष घोषित कर रहे हैं । भारतीय समाज की नजरों में , ब्रिटिश शासकों द्वारा नवाजे गए रायसाहबों और रायबहादुरों की जो हैसियत थी , वही हैसियत इन प्राध्यापकों की है । ये भारत के अकादमिक जगत के रायसाहब , रायबहादुर हैं । यही माक्र्सवादी प्राध्यापक इतिहास की ढाल में मुसलमानों को भडका रहे हैं और सहमत के झण्डे तले एक नए जिहाद की ललकार दे रहे हैं । रिटायर्ड प्राध्यापक और द्विजेन्द्र नाथ झा की इतिहास में पूरी ख्याति इस बात को लेकर है कि वे एक लम्बे अर्से से यह सिद्ध करने में जुटे हुए हैं कि प्राचीन भारत में भारतीयों के खानपान में गउ का मांस भी शामिल था । झा ने तो इस पर ‘ मिथ आॅफ होली काउ ’ नाम से एक किताब ही लिख डाली । 2004 में इस किताब के बाद ही झा को पश्चिमी जगत में प्रसिद्धि मिली । पंजाब की रोमिला थापर अब भी इसी बात पर बजिद है कि स्कूल से ही बच्चों को पढाया जाना चाहिए कि हिंदूू लोग गोमांस खाते थे । ऐसे ही एक और इतिहासकार के.एम.पणिक्कर जिन्हें अकादमिक जगत मी सी.पी.एम का इतिहासकार कहा जाता है , भारतीय स्वतंत्रता संगा्रम में महात्मा गांधी की भूमिका नगण्य साबित करते हुए और साम्यवादियों की भूमिका को सर्वाधिक महत्वपूर्ण साबित करते हुए , भारतीय इतिहास अनुसंधान परिष्द में अन्य साम्यवादी तत्वों की मिलीभगत से स्वतंत्रता संग्राम झूठी कहानी छपवाना चाहते थे जिसका समय चलते भंडाफोड हो गया और परिषदृ ने उस पांडुलिपी को आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से वापस मंगा लिया । अपने आपको शीर्ष राजनीतिक इतिहासकार घोषित करने वाली बेगम जोआ हसन जामिया मिलिया के उस कुलपति मुशीरुल हसन की पत्नी हैं जो जामिया मिलिया के आतंकवादी गतिविधियोंमें पकडे छात्रों की विधिक सहायता आधिकारिक तौर पर करने की घोषणा कर रहे थे । भारत सरकार ने शायद मुशीरल हसन के इन्हीं ऐतिहासिक कारनामों को देखते हुए उनकी पत्नी जोबा हसन को राश्टृीय अल्पसंख्यक आयोग का सदस्य बनाया था । वैसे रिकार्ड के लिए अपने आपको इतिहासकार कहने वाल अमिय कुमार बागची के अनुसार 12 वी शताब्दी से लेकर अब तक के इतिहासकारों में इरफान हबीब सबसे उंचे हैं ।
द्विजेन्द्रनाथ झा का कहना है कि जब चन्द्रशेखर प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने विश्वहिंदू परिषद् बाबरी एक्शन कमेटी दोनों को ही यह अवसर प्रदान किया था किवह अपना अपना पक्ष सिद्ध करने के लिए और पुरात्वविदों को लेकर बैठक करें और एकदूसरे के द्वारा प्रस्तुत किए गए परिणामों और तथ्यों की जांच पडताल करे । विश्व हिंदू परिषद् की ओर से कुछ इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता इस बैठक में उपस्थित हुए लेकिन बाबरी एक्शन कमेटी किसी भी इतिहासकार को इस बैठक में आने के लिए तैयार नहीं कर सकी तब उनकी सहायता के लिए उसी समूह चार इतिहासकार श्री आर.एस.शर्मा , ए.अली , श्री .सूरजभान और श्री डी.एन झा हाजिर हुए । यह चारों सज्जन इतिहासकारों के उसी समूह से ताल्लुक रखते हैं जो पिछले दो दशकों से मुसलमानों की साम्प्रदायिक भावनाएं भडकाने के लिए जी जान से जुटे हुए हैं । इस समूह में ज्यादातर अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्राध्यापक हैं जो कभी न कभी वहां के इतिहास विभाग में पढाते रहे हैं । अकादमिक जगत में वह अपनी योग्यता और गुणवत्ता के आधार पर इतिहास जगत में अपना नाम स्थापित नहीं कर पाए इसलिए अखबारों में इधर -उधर बयान देकर यह सामान्य जन को प्रभावित अवश्य करते रहते हैं । जब यह प्राध्यापक भारत सरकार द्वारा इतिहासकारों के बुलाई गयी बैठकों में अपने तर्कों द्वारा कुछ नहीं सिद्ध कर पाए तो इन्होंने पम्फलेट वगैरह छापकर बाबरी मस्जिद के समर्थन में जनअभियान चलाया । जिसका प्रत्यक्ष उद्देश्य मुससमानों की भावनाओं को भडकाना ही था । इन प्राध्यापकों का जो इसी बात पर लगा रहा कि जिस स्थान पर बाबरी मस्जिद बनायी गयी है वहां कभी कोई मंदिर नहीं था । लेकिन एलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश पर जब भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने वहां खुदाई शुरु कर दी और वहां से मंदिर के भग्नावशेष मिलने लगे तो जाहिर है इन प्राध्यापकों की बोलती बंद होने लगी तब इन्होंने दूसरा रास्ता अपनाया । जो विश्वविद्यालयों में विभागों की अंदरुनी लडाई कई बार लोग अपनाते हैं । यह रास्ता था बचाव की बजाय आक्रमण करो ।इन्होंने कहना शुरु कर दिया कि पुरातत्व विभाग तो सरकारी विभाग है और वैसे भी वह हिंदू इतिहासकारों से भरा पडा है यह तर्क देते हुए वह इस बात को भूल गए कि अब देश स्वतंत्र हो चुका है और यहां अंग्रेजों की हुकुमत नहीं है यदि ऐसा होता तो भारत सरकार का पुरातत्वविभाग अवश्य अ्रंग्रेजी इतिहासकारों से भरा होता । यदि अरबों का राज होता तो यह विभाग अरबी इतिहास कारों से भरा होता । अब भारत में भारतीयों का राज्य है तो विभाग में भारतीय अथवा हिन्दू इतिहासकार ही होगें । मुसलमानों की साम्प्रदायिक भावनाओं को भडकाने और उसे तुष्ट करने के लिए अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के नए पुराने प्राध्यापकों के नेत्त्व में यह दल इतनी दूर तक गया कि इसने अयोध्या में राम के जन्म पर ही प्रश्नचिन्ह लगाना शुरु कर दिया और कुछ ने तो राम के अस्तित्व को ही नकार दिया । डी.एन. झा बार -बार इस बात पर जिद करते रहे कि अयोध्या कभी भारतीयों का तीर्थ स्थान नहीं रहा । झा तो मध्यप्रदेश में रामजन्मभूमि की तलाश करने लगे । ख्ु।दा कि शुक्र है कि वह मध्यप्रदेश में ही रुक गए । कही वह थाईलैंड नही पहुच गए । थाईलैंड में भी अयोध्या नाम का शहर है जो काफी लम्बे अरसे तक थाईलैण्ड की राजधानी रहा और थाईलैण्ड के लोग अभी -अभी भी मानते हैं कि राम कि जन्मभूमि इसी अयोध्या में हैं । झा ने एक और मजेदार तर्क दिया । वह अयोध्या को रामजन्मभूमि मानने पर भी प्रश्नचिन्ह लगाते हैं और उसके तीर्थस्थान होने पर भी अयोध्या में मंदिर गिराकर बाबरी मस्जिद बनायी गयी , इसे तो वह एक शिरे से इनकारते हैं । पुरातत्वविभाग के इतिहासकार उनकी दृष्टि में निहायत अयोग्य हैं । खुदाई में मिले मंदिर के खंडहर उनकी दृष्टि में झूठे हैं और यह सब कुछ सिद्ध करने के लिए उनके पास स्काटलैण्ड के एक चिकित्सक फ्रांसिस बुचानक है जिन्होंने कभी 1810 में लिख दिया था कि अयोध्या में मंदिर गिराकर मस्जिद नहीं बनायी गयी । झा इतिहासकारों के दिए गए प्रमाणों को मानने के लिए तैयार नहीं हैं लेकिन एक विदेशी चिकित्सक जिसका इतिहास से कुछ भी लेना देना नहीं है , उसके इस कथन को सीने से लगाए घुमते हैं । उनके इस बचकाने तर्क उनकी क्लास के बी.ए. भाग प्रथम की छात्र तो ध्यान से सुन सकते है, इतिहासविदों के संसार में तो झा के इस प्रमाण पर अफसोस ही जाहिर किया जाएगा । ताज्जुब है कि अमेरिका को दिन -रात गाली देने वाले झा यह सिद्ध करने के लिए कि विदेशी मुसलमान हमलावरों ने भारत में मंदिरों को नही ंतोडा , अमेरिका के ही एक इतिहासकार रिचर्ड एटोन का ही हवाला देते हैं ।
प्राध्यापकों का यह टोला इस बात पर व्यथित दिखाई देता है कि रामजन्मभूमि के प्रश्न पर उच्च न्यायायलय का निर्णय आ जाने के बाद देश में हिदू मुस्लिम फसाद क्यों नहीं हुआ । आम भारतीयों ने , चाहे उनका मजहइ कोई भी हो इस निर्णय को शांति से स्वीकार किया । रिटायर्ड प्राध्यापकों की यह मण्डली शुरु से ही अखबारों और छोटे -छोटे पम्फलेटों के माध्यम से यह वातावरण बनाने में लगी हुई थी राम कोरी कल्पना है और बाबरी मस्जिद मुसलमानों का इबादतखाना है और बुतपरस्तों के किसी मंदिर को तोड कर नही बनाया गया । इनको लगता था कि न्यायायलय भी उनके इस बहकावे में आ जाएगा । इन्होंने अंग्रेजी मीडिया और विदेशी मीडिया की प्रत्यक्ष , अप्रत्यक्ष सहायता से इस केस का मीडिया ट्रायल कर ही दिया था । इनको आशा थी कि इस ट्रायल के फेर में उच्च न्यायालय भी आ जाएगा और राम के अस्तित्व को नकारकर बाबरी ढांचे के पक्ष में निर्णय दे देगा । परन्तु इनके दुर्भाग्य से इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनउ पीठ ने ऐसा नहीं किया । लेकिन अभी भी यह मण्डली हार मानने के लिए तैयार नहीं थी ।इनको लगता था कि इस निर्णय से हिंदू मुस्लिम दंगे भडकेंगे और उन्हें यह कहने का अवसर मिल जाएगा कि न्यायालय ने इनकी सलाह न मानकर गलत निर्णय दिया है जिसके परिणामस्वरुप हिंदू मुस्लिम दंगे हुए हैं । यदि फसाद होते तो इन प्राध्यापकों को बैठे बिठाए एक और धंधा मिल जाता और ये अपने उसी पुराने शगल में जुट जाते कि हिंदू अल्पसंख्यक मुसलमानों को आतंकित कर रहे हैं परंतु इनके दुर्भाग्य से यह दंगे भी नही हुए । अब इस टोली की एक ही आशा बची थी अब कम से कम मुसलमान तो भडकेंगे ही और सडकों पर उतर आएंगे लेकिन अल्लाह के फजल से ऐशा भी नहीं हुआ । जाहिर है इस मंडली की हालत खिसियानी बिल्ली खम्भा जैसी हो रही है इसलिए इन्होंने नए सिरे से साम्प्रदायिक आग भडकाने के लिए अंग्रेजी अखबारों के माध्यम से (जिसका उर्दू तर्जुमा भी बाकायदा छपता रहता है )मुसलमानों को भडकाना शुरु कर दिया कि आपके साथ अन्याय हुआ है और आप फिर भी चुप बैठे हो । सम्बंधित पक्ष उच्चतम न्यायालय में जा रहे हैं इसकी इन्हें कोई चिंता नहीं है इसलिए इन्होंने अपनी विशेषज्ञ राय जाहिर करनी शुरु कर दी है कि न्यायालय मुसलमानों को कैसा न्याय दे सकता है इसका नमूना तो इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने दे ही दिया है । ये तो चाहते हैं कि आम मुसलमान गाजी बनकर सडकों पर उतरे और इस तथाकथित अन्याय का बदला ले ले ।
इस हडबडी में इस प्राध्यापक टोली ने सहमत के लेटर पैड पर बाकायदा एक बयान जारी कर दिया । रोमिला थापर , के.एम श्रीमाली , के.एन. पणिक्कर , इरफान हबीब ,अमिय कुमार बागची , विवान सुन्दरम्, उत्स पटनायक , सी.पी. चंद्रश्े।खर , जयति धोष , गीता कपूर , जोया हसन इस बयान पर हस्ताक्षर करने वालों में शामिल हैं । वैसे हस्ताक्षर करने वालों में 40-50 और नाम भी हैं और शायद वे भी अपने आपको को कानून और इतिहास से जुडे मसलों का विशेषज्ञ ही मानते होंगे । यह जरुर है कि इनमें से कुछ ऐसे लोग हैं जो इस विषय के विशेषज्ञ हैं कि किस होटल में कैसा खाना मिलता है । रसोईघर में अच्छा खाना कैसे बनाए इस पर राय देने वाले विशेषज्ञ भी इनमें शामिल हैं । स्त्रियां बाल कैसे लम्बे करें , पुरुषों और महिलाओं को फैशन के लिए कैसे कपडे पहनने चाहिए इन महत्वपूर्ण प्रश्नों पर गम्भीर विवेचन करने वाले विद्वान भी हस्ताक्षरकर्ताओं में शामिल हैं । सहमत सफदर हाशमी की स्मृति में बनाया गया एक न्यास है जो समय समय पर रंगमंच और कलामंच से जुडे मुद्दों पर अपनी राय जाहिर करता रहता है । सहमत का इतिहास से कुछ लेना देना नहीं है लेकिन सहमत इस बात पर सहमत है कि इस देश में प्रगतिशीलता का अर्थ मुुस्लिम तुष्टीकरण ही होना चाहिए । महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के इतिहास विभागों से रिटायर हो चुके इन प्राध्यापकों ने यह भी ध्यान नहीं रखा कि यदि उन्हें बाबरी ढांचे और राममंदिर की ऐतिहासिकता से ताल्लुक रखने वाले कुछ मुद्दे उठाने ही थे तो वे इतिहासकारों के किसी लेटरपैड का इस्तेमाल करते । परन्तु प्राध्यापकों की यह मण्डली शायद मुस्लिम कट्टरपंथियों का मार्गदर्शन करने के लिए इतनी हडबडी में थी कि इसने निकटस्थ सहमत के लेटरपैड का ही इस्तेमाल किया । शायद तभी बाद में एक जाने माने इतिहासकार ने टिप्पडी भी कि – ‘ जब मैंने इन लोगों के हस्ताक्षर से जारी बयान के बारे में सुना तो मुझे उत्सुकता हुई कि कही इस पर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में इतिहास पढा चुके श्री सूरजभान के भी हस्ताक्षर तो नहीं है । क्योंकि उन्हें संसार छोडे काफी समय हो चुका है और मुझे डर था कि कही इन्होंने हडबडी में उनके भी हस्ताक्षर न कर दिए हों । इनका यह बयान एक प्रकार से मुसलमानों को ही सम्बोधित था । इन्होंने कहा इस निर्णय से देश के हिंदू मुस्लिम की एकता के ताने -बाने को जबरदस्त धक्का लगा है । न्यायपालिका की ख्याति पर सवालिया निशा।न लग ही गया है । सर्वाेच्च न्यायालय में क्या होगा यह तो बाद में देखा जाएगा लेकिन इस निर्णय से जो नुकसान हो चुका है उसकी भरपाई नहीं हो सकती ।
अब यह इन माक्र्सवादी प्राध्यापकों की बदकिस्मती ही कहनी चाहिए कि इतने सीधे -सीधे संकेतों के बावजूद भी लोग सडकों पर नहीं उतरे और यह बिचारे सीपीएम के दफ्तर में बैठकर ताने -बाने को उधेडने के षडयंत्र रचते रहे ।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय मेंज ब ये प्राध्यापक बाबरी ढांचे के पक्ष में आधी अधूरी दलीलें लेकर पहुंचे तो जाहिर था कि वहा इनके बयानों पर बाकायद जिरह होती । न्यायालय इनका क्लासरुम तो था नहीं जहां बच्चे चुपचाप इन ख्यातिनाम विद्धानों की अधकचरी जानकारियां और उनके आधार पर निकाले गए एकतरफा निष्कर्षों को चुपचाप स्वीकार कर लेते । न्यायालय में तो इन्हें अपनी बातों को प्रमाण और तर्क से सिद्ध करना था और यही इनके पास नहीं हैं । । इसलिए इन्होंने दोहरी नीति अपनायी । इनमें से कुछ तो न्यायालय में सुन्नी वक्फ बोर्ड के पक्ष में गवाहियां देने पहुंचे और कुछ बाहर बने रहे ताकि न्यायालय का निर्णय आने के उपरान्त समयानुकूल रणनीति के तहत उस पर आक्रमण किया जा सके । या फिर इनको पहले ही आशंका होगी कि न्यायालय में इनके ढोल की पोल खुल जाएगी इसलिए अपने टोली के कुछ लोगों के सम्मान को आम लोगों की नजर में बचाए रखने के लिए न्यायायलय से दूर ही रखा जाए । रोमिला थापर और इरफान हबीब जैसे लोग तो कचहरी के दरवाजे पर पहुंचे ही नहीं । लेकिन न्यायालय में जो गए उन तथाकथित इतिहासकारों की योग्यता , उनके झूठ और उनके ज्ञान की ऐसी पोल खुली और छीछालेदर हुई जैसी शायद उनके विरोधियों की भी आशा नहीं थी । न्यायालय में बाबरी ढांचे के पक्ष में गवाही देने गए ये प्राध्यापक वैसे तो अपने आपको किसी भी पक्ष से असम्बंधित और निष्पक्ष बता रहे थे । इनका यह भी कहना था कि वे अपनी इच्छा से , न्यायपूर्ण निर्णय तक पहुंचने के लिए न्यायालय की सहायता करने के लिए कचहरी के दरवाजे तक आए हैं । लेकिन जब परतें खुली तो पता चला कि सभी एकदूसरे से किसी न किसी प्रकार से सम्बंधित है कोई किसी का विद्यार्थी है और कोई किसी का अध्यापक । किसी ने किसी के किताब की प्रस्तावना लिखी है और किसी ने दूसरे के पक्ष में स्तुतिगान किया था । मतलब साथ था न तो यह निष्पक्ष थे , न एकदूसरे से असम्बंधित और नही पूर्वाग्र्रहों से मुक्त । यह एक खास विचारधारा से बंधा हुए प्राध्यापकों को ऐसा टोला था जो मिलजुलकर एक खास उद्देश्य के लिए एक गुट के रुप में काम कर रहा है । शायद , इसी के कारण न्यायालय को मजबूर होकर कहना पडा कि इन विद्धानों के शुतुर्मुर्गी व्यवहार से हैरानी होती है । न्यायालय ने तो यहां तक कहां कि न्यायालय किसी गवाह की गवाही को विश्वसनीय या अविश्वसनीय तो मानता है परन्तु गवाही को लेकर विपरीत टिप्पडियां करने से बचता है परन्तु बहुत दुःख के साथ कहना पडता है कि इन विद्वानों ने उत्तरदायित्वविहीन और आधारहीन व्यवहार किया है । ये विद्धान अपने विषय का अध्ययन किए बिना ही और उस पर शोध किए बिना ही अपनी राय को विशेषज्ञों की राय बता रहे है । यही तक बस नहीं । कुछ प्राध्यापकों ने तो जिरह में यह भी स्वीकार किया कि जिरह में वह झूठ बोले है । ताज्जुब की बात तो यह है कि सुन्नी वक्फ बोर्ड की तरफ से गवाही देने पहुंचे प्राध्यापक जो अपने आपको प्राचीन भारत के इतिहास के विशेषज्ञ बता रहे थे , वे संस्कृत , पाली या प्राकृत नहीं जानते थे और जो अपने आपको मध्यकालीन भारत का विशेषज्ञ बता रहे थे उन्हें अरबी या फारसी नहीं आ रही थी । अपने आपको सुप्रसिद्ध इतिहासकार का स्वयं ही दर्जा देने वाले श्री सुरेशचंद्र मिश्रा की जिरह में पोल खुली । वे लम्बे समय से अखबारों में उछल कूद कर रहे हैं और इसके लिए वे पुरातत्वविभाग द्वारा किए गए खनन कार्य का चुनौती दे रहे थे । वे दो बार कचहरी में गवाही देने आए पहली बार उन्होंने कहा कि ढांचे में फारसी भाषा में एक आलेख लिखा हुआ था लेकिन दूसरी बार कहा कि यह अरबी भाषा में था । जब थोडी जिरह हुई तो बोले मुझे ने फारसी आती है और न अरबी इसलिए मैं अंतर नहीं कर पाया मैंेने तो किसी पत्रिका में ऐसा पढा था । झूठ बोलने में महारत हासिल कर चुके ये इतिहासकार यही नहीं रुके उन्होंने कहा किवे विवादित ढांचे में बारबनामा पुस्तक लेकर गए थे और ढांचे में लिखे गए लेख का मिलान बाबरनामा के उद्धरण से किया था । लेकिन जब थोडी कडाई से पूछताछ हुई तो उन्होंने स्वीकार किया वे बाबरनाम पुस्तक को ढांचे के बाहर ही छोड गए थे । तब आखिर इन महाशय ने दोनों आलेखों का मिलान कैसे किया?मिश्रा जी के पास इसका भी उत्तर था । उनके अनुसार बाबरनामा में जो लिखा हुआ था वह पढने के बाद उनके दिमाग मेंसुरक्षित हो गया था । बस उसी के आधार पर उन्होंने अंदर के आलेख का मिलान कर लिया । यहां तथाकथित इतिहासकार का सफेद झूठ फिर पकडा गया । जब इन्हें अरबी और फारसी दोनों नहीं आती तो इन्होंने अंदर का आलेख पढा कैसे और इसका मिलान कैसे किया । जब इनसे पूछा गया कि दिल्ली से लखनउ गवाही देने के लिए आप कैसे आते जाते हैं तो पहली बार इन्होंने कहा कि हवाई जहाज से लेकिन अगली बार भूल सुधारकर कहा कि रेलगाडी से । अंत में इन्होंने कहा कि मैं झूठ बोलने का आदी नहीं हूं लेकिन कभी गलती से बोला जाता है ।
इस टोले के एक और प्राध्यापक सुशील श्रीवास्तव जो स्वयं को एक सुप्रसिद्ध इतिहासकार बताते है वह भी बाबरी ढांचे के पक्ष में गवाही देने के लिए आए हुए थे । उनहोंने इस पिषय पर एक किताब भी लिखी हुई है बाबरी मस्जिद बाबर द्वारा नहीं बनायी गयी थी और वह यह भी मानते हैंं कि मंदिर नहीं गिराया गया था । जिरह में इनकी योग्याता की भी पोल खुल गयी । । पहले हल्ले में इन्होंने माल लिया कि वह फारसी अरबी नहीं जानते तथा संस्कृत का भी उन्हें विशेष ज्ञान नहीं हैं । इन्होंने यह भी स्वीकार किया कि इन्हें इतिहास का भी विशेष ज्ञान नहीं है । तबयह इस निश्कर्ष पर कैसे पहुंचं कि बाबरी ढांचा बाबर या मीरबाकी द्वारा नहीं बनाया गया था । इनका कहना था इनके ससुर ऐसे। मानते हैं । लेकिन जब और गहराई से जिरह हुई तो एक और बात सामने आयी कि अरसा पहले श्रीवास्तव जी ने इस्लाम मजहब में दीक्षित हो चुके हैं और यह सब इन्होंने मेहर अफसान फारुखी से षादी करने के लिए किया था । । इनका विवाह भी ठसलामी रीतिरिवाज के अनुसार ही हुआ था । और मुसलमा।न बनने के बाद इन्होंने अपना नाम सज्जाद कर रख लिया है । और ठन्होंने यह भी स्वीकार किया कि मुझे बाबरी ढांचे असै। एयये जुडी ऐसी बातें लिखने के लिए उन्हें उनकी पत्नी ने ही प्रेरित किया था अन्यथा उन्हें इस विवाद से जुडे वैज्ञानिक विषयों की कोई भी जानकारी नहीं है । न्यायालय ने इस बात पर भी खेद व्यक्त किया कि ऐस व्यक्ति अपने आप को सुविख्यात इतिहासकार बता रहा है और इस प्रकार के संवेदनशील विषय पपर बिना किसी ज्ञान के पुस्तक भी लिख रहा है ।
इसी प्रकार एक और स्वनामधन्य विशेषज्ञा जो कभी जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में पढाती रही है श्रीमती सुवीरा जायसवाल गवाही देने के लिए आयी थी । इस विशेषज्ञा ने बडा देकर कहा कि राममंदिर गिरा कर बाबरी ढांचे बनाया गया है इसका कोई प्रमाण मौजूद नहीं है । । उन्होंने यह भी कहा कि इस बात को कोई प्रमाण मौजूद नहीं है कि राम का जन्म उसी स्थान पर हुआ था । लेकिन जिरह सख्त हुई तो इन्होंने कहा कि मैंने बाबरी ढांचे के इतिहास का अध्ययन नहीं किया है । और इसे बारे में जो बयान रे रही हूं वह न तो मेरे ज्ञान पर आधारित है और नह ही किसी जांच पर । यह तो आज मेरी राय है कि विवादित ढांचे के बारे में जो भी मेरा ज्ञान है , उसका आधार अखबार में छपी खबरें हैं या फिर जो दूसरे लोगों ने बताया था । ध्यान रहे डां अजीज अहमद की एक पुस्तक भी न्यायायालय में पेश की गयी थी । डां अजीज अहमद के निष्कर्ष इन तथाकथित इतिहासकारों के भिन्न है । जब इसकी चर्च हुई तब सुवीरा जायसवाल ने कहा कि अजीज अहमद के निष्कर्षो से मैं सहमत नहीं हूं । । जब उनसे पूछा गया कि क्या आपने यह किताब पढी है तो उन्होंने स्वीकार कर लिया कि उन्होंने यह किताब नही पढी है । । न्यायालय की दुःख से यह टिप्पणी करनी पडी कि सुवीरा जायसवाल अपने आप को इतिहास की विशेषज्ञा बता रही हैं , बिना किसी अध्ययन के और जांच के बयान दे रही हैं । अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शीरी मुसबी भी कचहरी में यही कहने के लिए आयी थी जो कहने के लिए समीरा जायसवाल आई थी । इन्होंने यह भी कहा कि मध्यकालीन युग में अयोध्या में राम का जन्म होने की काई चर्चा इतिहास में कहीं भी नहीं है । लेकिन इन्होंने जिरह में स्वीकार किया कि ठनहोंने अयोध्या पर कोई पुस्तक पढी नहीं एस.पी गुप्ता कि किताब में जो लिखा हुआ है उसी को मैंने स्वीकार किया है । एसे ही एक और सज्जन जो कभी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढा चुके है । मुसलमानों की ओर से गवाही देने पहुंचे थे । बातें इन्होने भी वही की कि विवादित स्थल पर न तो किसी मंदिर होने के सबूत मिले है और न ही किसी मंदिर को गिराकर मस्जिद बनायी गयी है । जिरह के दौरान इन्होंने माना कि बबार के बारे में इनका कुल ज्ञान यह है है कि यह 16 शताब्दी के शासक थे और अयोध्या भी कभ्ज्ञी नहीं गए नहीं । यह महाशय अपने आप को पुरातत्व का विशेषज्ञ बता रहे हैं । परन्तु इन्होंने स्वयं स्वीकार किय किइस शास्त्र का अध्यापन उन्होंने विधिवत नहीं किया और और इस शास्त्र की उनके पास कोई डिग्री या डिप्लोमा नहीं है । लेकिन अंत मं प्रो मण्डल ने एक बात कहकर सभी को चैंका दिया किवह कम्युनिस्ट पार्टी के कार्ड होल्डर है ।
जाहिर है कि जब न्यायायल ने इन लोगों की अज्ञान , पूर्वाग्रह और बिना किसी अध्ययन के दी गई दलीलों को काई वनज नहीं दिया तो निर्णरू आने के तुरन्त बाद रोमिला थापर ने पूर्व निर्धारित रणनीति के तहत हल्लाबोल दिया । कहा कि न्यायालय ने ऐतिहासिक तथ्यों की ओर ध्यान नहीं दिया । रिटायर्ड और असन्तुष्ट प्राध्यापकों का यह टोला देष भर में घूम -घूम कर मुसलमाने।ं को भडका रहा है कि इस तथाकथित अन्याय का बदला लेने के लए सडाकें पर आओं । तमाम अकादमिक मानदण्डों को ताक पर रखकर यह प्राध्यापक निम्न स्तर पर उतर आए है । इसीलिए अकादमिक जगत तो स्तम्भित है परन्तु सराकार चुप क्यों बैठी है । शायद । सरकार की और प्राध्यापकों की मुस्लिम तुष्टीकरण की यह सांझी रणनीति है जो प्राध्यापक जितनी लाभकारी भूमिका निभाएगा उसे उतना ही ज्यादा ईनाम दिया जाएगा । । विश्वविद्यालयों के कुलपति रिटायर्ड होने के बाद भी बनाए जाते रहे हैं ।नहीं तो आई .सी.एच.आर., आ.सी.एस.एस.आर और यूजीसी तो है हीं । इससे भी आगे राष्टृीय अल्पसंख्यक आयोग , राष्ट्रीय ज्ञान आयोग और न जाने क्या -क्या है । यह प्राध्यापक इतना तो जानते ही है कि बादशाह खुश होगा तो ईनाम तो देगा ही ।
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