वामपंथ में शब्दों का विशेष महत्व है । अपने आंदोलन की शुरुआत से ही कम्युनिस्टों को नारों की ताकत का अंदाजा था । मानवीय विचारों का अणुरूप शब्द यदि सही चुना जाये तो विचारधारा का प्रसार तेजी से होता है ।
कम्युनिस्ट विचारधारा एक रंगीन चश्मे से देख कर लिखी गयी एक शानदार इबारत है , शब्द हैं जो अनजानों को खींचते है, आकर्षित करते हैं और धीरे से एक सोची समझी शब्द रचना के द्वारा हमारी लोकतान्त्रिक और देसी सामाजिक संरचनाओं को बेकार, बदनुमा और बुरा घोषित करते हैं .
पर वक्त बदल चुका है, परियों और जिन्नों की कहानियों की तहकीकात की जा सकती है, मसीहा और गरीब के रिश्तों पर बनी फिल्मों की परतों के नीचे छिपे लाल रंग की खूनी वीभत्सता को पहचाना जा सकता है .
यह एक विचारणीय बात है कि कम्युनिस्ट दलों के पास लेखकों का एक बड़ा दस्ता होता है । जिसे वह हरावल दस्ता भी कहते हैं । यह लोग मजदूर नहीं होते हैं। यह लोग शब्द गढ़ने में माहिर होते हैं । एक तरफ यह लोग विरोधयों को तीखे शब्द प्रहार से हराते हैं तो दूसरी ओर यही लोग भोले-भाले श्रमिक वर्ग को हृदय को छू लेने वाले नारों से मर मिटने के लिए आंदोलित करते हैं ।
इस दलों के नेता तीव्र भावनात्मक व्यक्तित्व के मालिक होने के साथ साथ प्रतिक्रियावादी एवं उग्र होते हैं । आइये इन्हीं संदर्भों में इस विचारधारा के एक मूल स्तंभ – लेनिन – की समीक्षा की जाय ।
रूस की अक्टूबर क्रांति के महानायक लेनिन एक अभिजात्य वर्ग मे जन्मे थे । उनका आरंभिक जीवन आराम और सुविधाओं में बीता था । लेनिन ने अपने पिता को सत्ता से नजदीक होने पर मिलने वाले सुखों को घर लाते हुए देखा था ।
सोलह वर्ष की उम्र में लेनिन के पिता की आकस्मिक मृत्यु हो गई । इसी दौरान लेनिन के बड़े भाई को रूस के शासक ‘ज़ार’ – अलेक्सेंडर तृतीय – की हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने के आरोप में फाँसी हो गई । उनकी बहन को देश निकाला दिया गया । यह 1887 की बात है । रूस की क्रांति से 30 साल पहले की । इन घटनाओं ने उनके जीवन को अस्तव्यस्त कर दिया । संघर्ष और शासन से बचते हुए उन्होंने कानून की डिग्री प्राप्त की । इसी बीच उनका मार्क्स के विचारों से परिचय हुआ ।
लेनिन ने अपनी वकालत के दौरान देखा कि श्रमिक वर्ग भावनात्मक रूप से आंदोलित वर्ग था । उनके दुख सुख की बात करने मात्र से वह अपना सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार हो जाता था ।
लेनिन का हृदय शासन के प्रति विद्रोह से भरा था । उनके परिवार की और स्वयं की कठिनाइयों का कारण रूसी शासक यदि नष्ट किया जा सके तो ही उन्हें जीवन में शांति मिल सकती थी । इस विद्रोही विचारधारा को कम्युनिस्ट विचारधारा के साँचे में ढाल कर एक बारूद का निर्माण हो चुका था । श्रमिक वर्ग इसमें एक विशेष भूमिका निभाने वाले थे । श्रमिकों के भविष्य के शासक की पूर्ण एवं महान सत्ता के रूप में एक नया इतिहास रचा जा रहा था ।
ध्यान रहे कि भावी सत्ता श्रमिकों की नहीं थी – केवल उनके नाम पर थी । सत्ता लेनिन की थी । एक ऐसी केंद्रीकृत सत्ता जो किसी को भी मानवीय मूल्यों से भ्रष्ट कर सकती थी ।
1905 की रूसी क्रांति ने परिवर्तनों की शुरुआत की । पर यह मूल रूप से एक असफल क्रांति थी । इस काल में रूस में हत्याओं का एक नया दौर शुरू हुआ जो शासन एवं विरोधी – दोनों ही पक्षों के द्वारा – अपने मंसूबों को पूरा करने के लिए प्रयोग में लाया गया ।
इस पूरे दौर में भारतीय आंदोलनों की नैतिक एवं मूलतः अहिंसापरक पृष्ठभूमि एवं समाज सुधार की विचारधारा रूसी आंदोलनों में एक सिरे से गायब थी । रूस में लेनिन समर्थकों का ज़ोर सत्ता को ताकत के बल पर पाने में था । लोकतान्त्रिक मूल्यों का दूर-दूर तक कोई निशान न था ।
1914 में प्रथम विश्व युद्ध के शुरू होने के बाद रूसी अर्थ व्यवस्था चौपट हो गई, विशाल स्तर पर बदहाली और अराजकता फैली ।
1917 में विश्व युद्ध के अंतिम दौर में रूस के जर्जर हालातों, तीव्र जन विरोध और अपने ही विफल शासन से हार कर ज़ार – निकोलस द्वितीय – ने सत्ता छोड़ दी । निकोलस द्वितीय के शासन ने यहूदीयों के खिलाफ अभियान भी देखा था । रूसी इतिहास में यह एक भयानक समय था ।
एक कामचलाऊ / अल्पकालिक राजनैतिक शासन की स्थापना हुई । लेनिन अभी भी निर्वासन में थे । लेनिन ने तुरंत ही एक नया नारा दिया – सत्ता की ओर बढ़ते हुए उनके कदम इस नई बदली हुई परिस्थिति में सफलता भाँप सकते थे । लेनिन एक विशेष रेलगाड़ी में अप्रैल 1917 में एक विशिष्ट व्यक्ति की भाँति रूस लौटे । मज़दूरों के हितों के नारे देने वाला कथित महानायक एक विशिष्ट रेलगाड़ी में एक अधिनायक की भाँति रूस लौट रहा था ।
लेनिन ने लौटते ही पूर्ण क्रांति का नारा दिया और सत्ता की तरफ नए सिरे से बढ़ना प्रारंभ किया ।
तेजी से बढ़ते घटनाक्रमों में सेना के द्वारा अल्पकालिक सरकार को ख़तरे की परिस्थितियों ने लेनिन की राजनैतिक सत्ता पर पकड़ बढ़ा दी। अगस्त और सितंबर 1917 में पेट्रोग्राड एवं मॉस्को कर्मचारी सभाओं (सोवियेत) में बहुमत हासिल करने के साथ ही अक्टूबर क्रांति का रास्ता प्रशस्त हुआ । लेनिन इस बीच पुनः छुपे हुए थे और उनकी अक्टूबर में वापसी के साथ ही उन्होंने सत्ता को कब्जे में लेने का नारा दिया ।
लेनिन का शासन प्रारंभ हुआ । बहुत आशाएँ थी इससे ।
लेकिन ‘लाल आतंक’ जैसे विरोधियों की हत्याओं वाले कार्यक्रमों ने आने वाले दशकों में सभ्य एवं लोकतान्त्रिक समाजों में लेनिन को क्रांति के महानायक की बजाय एक क्रूर सत्ताधीश के रूप में स्थापित किया ।
जुलाई 1918 में ज़ार निकोलस द्वितीय की परिवार सहित हत्या के साथ कई विचारकों का मानना है कि लेनिन की राजघराने से संबद्ध प्रतिशोध भरी जीवन यात्रा का एक विशेष पड़ाव पूरा हुआ । कुछ लोगों का ऐसा भी कहना है कि लेनिन को इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता ।
कम्युनिस्ट शासन के पतन के बाद राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन का स्वयं ज़ार – निकोलस द्वितीय – के आधिकारिक रूप से आयोजित अंतिम संस्कार में आयोजित कार्यक्रम में उपस्थित होने को कम्युनिस्ट शासन के क्रियाकलापों पर रूस के लोगों की अंतिम राय के रूप में समझा जा सकता है ।
लेनिन एक वकील थे । मजदूर नहीं । मजदूर और केवल मजदूर के नारे ने उन्हें ताकत और सत्ता के केंद्र में एकमात्र निर्णायक के रूप में स्थापित किया । यह एक बड़ा ही सफल लेकिन झूठा प्रचार था । एक वकील मजदूरों का शासक बन गया और मजदूर सोचते रहे कि सत्ता उनके हाथ में थी । नारेबाजी और सत्ता की यह बेइंतिहा चाह स्टालिन और बाद में भी जारी रही ।
रूस में जो हुआ उसके जटिल सामाजिक एवं राजनैतिक कारण थे, लेकिन उसका तथाकथित क्रांति के द्वारा समाधान करने की कोशिश एक भूखे इंसान को ‘चोकलेट’ की दुकान बाँट कर वाह-वाही लूटने के समान था . इस शासन में खाई जाने वाली ‘चोकलेट’ की मात्रा, ‘चोकलेट’ की दुकान, एवं ‘चोकलेट’ की दुकान को लूटने के अधिकार – तीनों पर लेनिन का पूर्ण एवं एकमात्र अधिकार था ।
इसकी तुलना में हमारे भारतीय आन्दोलन एवं विचारधाराएँ महानता की श्रेणी में आते हैं . अक्टूबर क्रांति बौनी हो क्षितिज पर धूमिल हो जाती है ।
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