- हरेन्द्र प्रताप
1962 ई. में भारत-चीन युध्द के समय बिहार के बक्सर जिला स्थित मेरे गांव से कुछ कम्युनिस्ट गिरफ्तार हुए थे। 12 वर्ष की आयु में उनकी गिरफ्तारी पर मुझे बहुत आक्रोश आया था। मैंने पिताजी से पूछा कि इन लोगों को क्यों गिरफ्तार किया गया है तो पिता जी ने उत्तार दिया कि चीन ने भारत पर आक्रमण किया है उसकी ये खुशी मना रहे थे। तभी से कम्युनिस्टों के बारे में मेरे मानस पटल पर यह बात बैठ गई कि इन्हें भारत पसंद नहीं है।
भारत में जन्म लेने के बाद कोई व्यक्ति भारत का अहित क्यों सोचता है, इसके मूल में वह व्यक्ति कम उस व्यक्ति की शिक्षा और संस्कार को दोषी मानना चाहिए। बाल्यकाल से जिसके मन मस्तिष्क पर भारत के बारे में भारत की एक नकारात्मक छवि प्रस्तुत की जाये तो स्वाभाविक है कि वह भारत विरोधी हो जायेगा। भारत विरोध के काम में सक्रिय इस्लामिक मौलवी, विदेशी पादरी एवं वामपंथी लेखक ही इस भारत विरोध की जड़ में बैठे हुए हैं।
”पटना से दिल्ली तक की यात्रा में एक मार्क्सवादी कार्यकर्ता के साथ कई विषयों पर जब मैं चर्चा कर रहा था तो वह बार-बार हमें यह समझाने की कोशिश कर रहा था कि मार्क्सवादी ही भारत की सत्य बातों को समाज के सामने लाते हैं। अत: उसने कहा कि आपको सीपीएम दफ्तर में जाकर सीपीएम द्वारा प्रकाशित और प्रचारित साहित्य को पढ़ना चाहिए और मैं दिल्ली स्थित सीपीएम कार्यालय गया और कुछ पुस्तकों को खरीद लिया। खरीदे गए पुस्तकों में से तीन पुस्तकों को मैं पढ़ चुका हूं- पहला, ”आरएसएस और उसकी विचारधारा”, दूसरा ”गोलवलकर या भगत सिंह” एवं तीसरा, ”घृणा की राजनीति।”
”मदन दास देवी के अपने सहजादे का नाम भी कुख्यात पेट्रोल पम्प घोटाले में शामिल रहा है”- यह अपने आप में इतना बड़ा झूठ और चरित्रहनन की कोशिश थी जिसने मुझे कम्युनिस्टों को बेनकाब करने को प्रेरित किया क्योंकि मदन दास जी को पिछले 32 वर्षों से मैं जानता हूं। मदन दास जी अविवाहित हैं। ”गोलवलकर या भगत सिंह” नामक पुस्तक के पृष्ठ-41 पर संघ के लोगों की चरित्र हत्या करते समय ”गोलवलकर या भगत सिंह” के सम्पादक राजेन्द्र शर्मा के ऊपर न केवल गुस्सा आता है बल्कि ऐसे लेखकों के प्रति मन में घृणा का भाव भी उत्पन्न होता है।
कम्युनिस्टों ने अपने प्रत्येक लेख में यह लिखकर साबित करने की कोशिश की कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आजादी की लड़ाई में भाग नहीं लिया बल्कि उसने अंग्रेजों का साथ दिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में लिखते समय इन तीनों पुस्तकों में कम्युनिस्टों ने अमेरिकी शोधकर्ता जे.ए. करान जूनियर के शोधग्रंथ ”मिलिटेन्ट हिन्दुज्म इन इंडियन पॉलिटिक्स स्टडी आफ द आरएसएस” पुस्तक का बार-बार उल्लेख किया है। हंसी तब आती है जब सीताराम येचुरी के नाम से प्रकाशित घृणा की राजनीति पृष्ठ-17 पर प्रकाशित इस पुस्तक का वर्ष 1979 लिखा गया है जबकि आरएसएस और उसकी विचारधारा नामक पुस्तक जिसे अरूण माहेश्वरी ने लिखा है। इसमें इस पुस्तक का प्रकाशन वर्ष 1951 दिखाया गया है। अब यह पाठकों को तय करना है कि जिस अमेरिका को कम्युनिस्ट दिन-रात गाली देते रहते हैं उसी अमेरिका के एक संस्था द्वारा कराये गये एक शोध को ये वामपंथी अपना बाइबल मानकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को गाली देने का काम कर रहे हैं।
‘गोलवलकर या भगत सिंह’ सम्पादक राजेन्द्र शर्मा के पुस्तक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरूजी द्वारा लिखित पुस्तक ”हम अथवा हमारे राष्ट्रीयत्व की परिभाषा” (ये हिन्दी में अनुवादित) नामक पुस्तक को इन लोगों ने प्रकाशित किया है। वामपंथियों ने स्वयं स्वीकार किया है कि आरएसएस ने इस पुस्तक को बाद में वापस ले लिया था फिर भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विचार अंग्रेजों के बारे में क्या था इनके अनुवादित पुस्तक से ही कुछ उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं:-
पृष्ठ-76- इसे भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए कि गोरे मनुष्य की श्रेष्ठता ग्रंथी उनकी दृष्टि को धुंधली कर देती है….. उनमें न तो ऐसी उदारता और न सत्य के लिए ऐसा प्रेम। अभी कल ही की तो बात है जब वे अपनी नंगी देह पर विचित्र गोद ने गुदवाये और रंग पोते जंगलों में आदिम अवस्था में भटकते फिरते थे।
पृष्ठ-79- लेकिन, इससे पहले की इस जीत के फल एकत्र किये जा सकते, इससे पहले की राष्ट्र को शक्ति अर्जित करने के लिए सांस लेने की मोहलत मिल पाती ताकि वह राज्य को संगठित कर पाता, एक पूरी तरह से अप्रत्याशित दिशा से एक नया शत्रु चोरी छिपे विश्वासघाती रूप से देश में घुस आया और मुसलमानों की मदद से तथा जयचन्द, राठौर, सुमेर सिंह जैसे विश्वासघाती शासकों के कबीले के जो लोग अब भी बने हुए थे उनकी मदद से उन्होंने तिकड़मबाजी की और भूमि पर कब्जा करना शुरू कर दिया…. उल्टे कमजोरी के बावजूद वह 1857 में एक बार फिर दुश्मन को खदेड़ने के लिए उठ खड़ा हुआ था।
पृष्ठ-80- बेशक हिन्दू राष्ट्र को जीता नहीं जा सका है वह लड़ाई जारी रखे हुए है…..लेकिन लड़ाई जारी है और अब तक उसका निर्णय नहीं हुआ है……शेर मरा नहीं था सिर्फ सो रहा था वह एक बार फिर जाग रहा है और दुनिया पुनर्जाग्रत हिन्दू राष्ट्र की शक्ति देखेगी वह अपने बलिष्ठ बाजू से कैसे शत्रु के शेखियों को ध्वस्त करता है।
अंग्रेजों के शासन में अंग्रेजों को असभ्य, शत्रु, विश्वासघाती शब्दों के माध्यम से इस देश को जगाने वाला गुरू जी का यह लेख (यदि सचमुच उनका ही लेख है) तो अपने आप में न केवल प्रशंसनीय है बल्कि इस बात को प्रमाणित करता है कि गुरू जी के मन में अंग्रेजों के प्रति यह जो आक्रोश था वह आक्रोश संघ की शाखाओं में तैयार होने वाले स्वयंसेवकों के मन में कितना असर करता होगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कितना देशभक्त है इसका सर्टिफिकेट कम्युनिस्ट नहीं दे सकते। क्योंकि कम्युनिस्टों ने 1942 से लेकर आज तक देश के साथ गद्दारी ही की है।
कम्युनिस्टों के तथाकथित इन पुस्तकों में चरित्र हनन का भी पुरजोर प्रयास किया गया है। गोलवलकर या भगत सिंह नामक पुस्तक के पृष्ठ-42 और 43 पर संघ प्रचारक और भाजपा के बारे में जो चरित्र हत्या की गई है उसकी जितनी भी निन्दा की जाये वह कम है।
”किसी को चरित्र की शिक्षा कम्युनिस्टों से लेने की आवश्यकता नहीं है। चरित्र हनन करना यह हम लोगों का संस्कार नहीं है फिर भी मार्क्स-पुत्रों को इशारे में यह बता देना आवश्यक है कि माउत्सेतुंग (जिसने न केवल 5 शादियां की बल्कि प्रत्येक बुधवार को नाचघर में उसके लिए लड़कियां बुलाई जाती थी….) मन में घृणा के साथ-साथ आक्रोश भी पैदा करता है। चरित्र के धरातल पर ऐसे पतीत लोग ही मार्क्सवादियों के मसीहा बने हुए हैं।
मार्क्सवादी किताबों में भारत के प्रति इनकी भक्ति कैसी है उसके कुछ उदाहरण निम्न हैं तथा ये झूठ को कैसे सत्य साबित करते हैं इसके उदाहरणार्थ इनकी पुस्तकों को देखें:-
”एटम बम बनाने के नाम पर केसरिया पलटन जो घोर अंधराष्ट्रवादी रूख करती रही है”- घृणा की राजनीति, लेखक सीताराम येचुरी, पृष्ठ- 24
”उधर भाजपा सांसद मदन लाल खुराना बांग्लादेशी घुसपैठियों की राजधानी में मौजूदगी की अतिरंजि त तस्वीरों के जरिये मुस्लिम विरोधी उन्माद भड़काने में लगे हुए हैं” घृणा की राजनीति, लेखक सीताराम येचुरी, पृष्ठ- 42
”1938 में ही सावरकर ने खुलेआम यह ऐलान किया था कि भारत में दो राष्ट्र, हिन्दू और मुसलमान बसते हैं। मुस्लिम लीग ने इस सिध्दांत को 1947 में अपनाया था”- घृणा की राजनीति, लेखक सीताराम येचुरी, पृष्ठ- 34
”सन् 1923 में नागपुर की पहली जीत के बाद से ही संघ की गतिविधियां उसी साम्प्रदायिकता भड़काने और मुसलमानों पर हमला करने की षडयंत्र का भी गतिविधियों के अलावा कुछ नहीं थी। तब से आज तक देशभर में संधियों के नियंत्रण की अनेक व्यायामशालाएं दंगाइयों के अड्डे के रूप में काम करते देखी जा सकती है”- आरएसएस और उसकी विचारधारा, पृष्ठ- 65
उपरोक्त वामपंथी शब्द इस बात को प्रमाणित करते हैं कि जब अमेरिका, चीन, सोवियत संघ और पाकिस्तान जैसे देश एटम बम बना सकते हैं तो रक्षार्थ भारत के एटम बम के खिलाफ प्रकट किया गया इनका विचार राष्ट्रद्रोह के सिवा और क्या कहलाएगा? इनके लेख में बंग्लादेशी घुसपैठ को नकारना या भारत एक राष्ट्र है इसका नकारना यह तो पहले से जगजाहिर है पर झूठ बोलने में माहिर मार्क्सवादी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना का काल 1923 से पहले दिखाकर खुद नंगा हो गये। क्योंकि सभी जानते हैं कि संघ की स्थापना 1925 में हुई थी। मुस्लिम लीग को बचाने के लिए इन्होंने पूरी कोशिश की है और सावरकर को ”द्वि-राष्ट्रवाद” का दोषी करार दिया है जबकि यह सर्वविदित है कि मुस्लिम लीग ने इस सिध्दांत को सबसे पहले प्रतिपादित किया था।
वामपंथियों के झूठ का दस्तावेज स्वयं इनके द्वारा प्रकाशित पुस्तक ही है। झूठ बोलते समय इन्हें जरा भी शर्म नहीं आती है। चलते-चलते एक उदाहरण पर्याप्त है- घृणा की राजनीति नामक पुस्तक जो सीताराम येचुरी के नाम से प्रकाशित है उस पुस्तक के पहले ही लेख में इनकी कथनी और चरित्र तार-तार हो जाता हैं इस पुस्तक के साम्प्रदायिक और फांसीवादी ताकतों की चुनौती शीर्षक के तहत पृष्ठ-29 पर ए.के. गोपालन व्याख्यानमाला में 13 अप्रैल, 1998 को भाषण देते हुए सीताराम येचुरी ने कहा था…..
”इसलिए भाजपा को शिकस्त देने के लिए कांग्रेस के साथ रणनीतिक रूप से हाथ मिलाने का अर्थ होगा जिस डाल पर बैठे हों उसी को काटना।”
माक्र्सवादी आज कहां खड़े हैं। उसी कांग्रेस की गोद मे बैठकर मलाई काटने वाले सीताराम येचुरी और उनके पिछलग्गू यह भी भूल गये कि 1998 में कांग्रेस के बारे में उन्होंने उपरोक्त बातें कही थी।
हे भगवान! इन्हें मुक्ति दो क्योंकि ये खुद स्वीकार कर रहे हैं कि जिस डाल पर ये बैठे हैं उस डाल को ही ये काट रहे हैं। भारत में बुरे से बुरे आदमी को भी मरने के बाद हर व्यक्ति भगवान से उसका मुक्ति देने की प्रार्थना करता है। 1990 में पूरी दुनिया में दफनाये गये कम्युनिज्म को भगवान मुक्ति प्रदान करें। भारत में बेचारे केरल और बंगाल समुद्र के किनारे दो प्रांतों में ही सिमटे हुए कांग्रेस की कमजोरियों के कारण राष्ट्रीय राजनीति पर हावी होने का जो असफल प्रयास कर रहे हैं पता नहीं कब इनके पांव फिसल जाएं और भारत में भी ये समुद्र की लहरों में विलीन हो जाएं। मैं अग्रिम रूप से भगवान से यह प्राथना करूंगा कि भारत के कम्युनिस्टों को भी (भले ही कितना ही इन्होंने राष्ट्रद्रोह का काम किया हो और झूठ बोला हो) हे भगवान मुक्ति प्रदान करना।
शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2010
मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010
शत्रु संपत्ति कानून (1968) में संशोधन: शत्रुओं के हमदर्द
आखिर यह वोट बैंक की राजनीति देश को कहा ले जाएगी? पिछले दिनों मंत्रिमंडल ने शत्रु संपत्ति कानून (1968) में संशोधन करने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। उपरोक्त कानून के अंतर्गत देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गए लोगों की संपत्ति को शत्रु संपत्ति घोषित किया गया था। गौर करने योग्य बात यह है कि 1965 में भारत-पाक युद्ध के बाद पाकिस्तान से जान बचाकर आए हिंदुओं की संपत्ति हड़पने के लिए पाकिस्तानी सरकार द्वारा बनाए गए कानून की प्रतिक्रिया में यह अधिनियम बनाया गया था। पाकिस्तान ने हिंदुओं की संपत्ति को जहा बेच डाला वहीं भारत सरकार ऐसी संपत्तियों की संरक्षक बनी रही। परेशानी तब शुरू हुई, जब पाकिस्तान जा चुके लोगों के वारिस अचानक सामने आ गए। संसद के शीतकालीन सत्र में लाए जाने वाले इस संशोधन विधेयक का मकसद शत्रु संपत्ति कानून के तहत कब्जे में ली गई संपत्ति पाकिस्तान चले गए मुसलमानों के कानूनी उत्तराधिकारियों को सौंपना है।
स्वाभाविक प्रश्न यह है कि जिन्होंने अपनी राष्ट्रनिष्ठा बदल ली हो, उनके वारिसों को इस देश में किस आधार पर अधिकार दिया जा सकता है? विभाजन के दौरान बड़ी संख्या में हिंदू पाकिस्तान से जान बचाकर भागे आए और जम्मू व उधमपुर आदि जगहों में शरण ली। बाद में उन्हें भारत की नागरिकता मिली और वे लोकसभा चुनावों में मतदान के अधिकारी भी हुए, किंतु उन्हें जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव में मतदान का अधिकार नहीं है। जो सेक्युलर तंत्र पिछले साठ साल में पाकिस्तान से जान बचाकर आए हिंदुओं को उनके ही देश में उनका मौलिक अधिकार न दिला पाया और जिसने कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की चिंता नहीं की, वह एक झटके में उन लोगों को हजारों करोड़ की संपत्ति देने को लालायित है, जो इस देश का तिरस्कार कर 'दर-उल-इस्लाम' के लिए कूच कर गए थे। क्यों? उपरोक्त कानून में संशोधन करने के पीछे बड़ा कारण महमूदाबाद के राजा के वंशज को राहत देना है, जो करीब 24 हजार करोड़ की संपत्ति का मालिकाना हक सर्वोच्च न्यायालय से प्राप्त कर चुके हैं। जिस समय शत्रु संपत्ति अधिनियम, 1968 लागू हुआ, अमीर अली खान जिंदा थे। उन्होंने तब तक अपनी संपत्ति किसी के नाम नहीं की थी। तत्कालीन काग्रेस सरकार ने राजा महमूदाबाद की संपत्तिया अपने कब्जे में ले उन्हें संरक्षक के हवाले कर दिया। अमीर अली खान के बेटे अमीर मोहम्मद खान ने इन संपत्तियों के स्वामित्व का मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय में जीत लिया, किंतु अदालत के निर्णय में उपरोक्त कानून अवरोध बन रहा था। कट्टरपंथियों का तर्क था कि इस कानून की आड़ में मुसलमानों का शोषण हो रहा है।
भारत का रक्तरंजित विभाजन आबादी के हस्तातरण की शर्त पर तो हुआ नहीं था, फिर भारत से पकिस्तान चले जाने वालों की आखिर मानसिकता क्या थी? पाकिस्तान चले जाने वालों ने यदि भारत को दारूल हर्ब समझा तो कुछ ने यहीं बसकर कुफ्र का कलंक क्यों मोल लिया? जो कल तक मजहब के आधार पर पाकिस्तान के प्रबल पैरोकार थे, वे आजादी के बाद रातोरात काग्रेसी बन गए। क्यों?
पाकिस्तान सृजन के पैरोकारो को यह गिला था कि हिंदूबहुल काग्रेस में मुसलमानों के हित सुरक्षित नहीं हैं। मुस्लिम लीग संयुक्त प्रात, बिहार, मध्य प्रात और मुंबई की काग्रेस सरकार पर मुस्लिम उत्पीड़न का आरोप लगाकर मुसलमानों को एकजुट करने में पहले से ही लगी थी। उसका आरोप था कि काग्रेस मुसलमानों की मजहबी मान्यताओं में हस्तक्षेप कर रही है, उनकी अनिच्छा के बावजूद उर्दू की जगह हिंदुओ की बोली हिंदी थोप रही है। भारत माता की जय और वंदे मातरम् को मुसलमानों की संस्कृति पर चोट बताया गया। काग्रेस को हिंदू बनियों की पार्टी बताते हुए उस पर हिंदू राज थोपने का आरोप लगाया गया। क्या यह विडंबना नहीं कि जो लोग अंग्रेजों का साथ देते हुए जिन गालियों और विशेषणों से तब काग्रेस को गरियाते थे, आजादी के बाद वही गालिया पहले जनसंघ और अब भाजपा सहित अन्य राष्ट्रनिष्ठ तत्वों के लिए प्रयुक्त होती हैं?
पीरपुर के राजा, मो. मेहदी राजा सैय्यद ने सन् 1938 में एक रिपोर्ट तैयार की थी, जिसमें कहा गया कि हिंदुओं से ज्यादा जालिम दूसरा नहीं हो सकता।..हम मुसलमान समझते हैं कि काग्रेस के बहुसंख्य सदस्य हिंदू हैं, जो हिंदू राज की बहाली की राह देख रहे हैं। रिपोर्ट में काग्रेसी झडे, वंदे मातरम्, गौरक्षा और हिंदी के प्रयोग को मुसलमानों के नागरिक और सास्कृतिक अधिकारों पर हमला बताया गया। इसके बाद शरीफ समिति रिपोर्ट (1938) और फजलुल हक रिपोर्ट (1939) में भी इसी तरह का प्रलाप किया गया। महमूदाबाद के राजा, जो सन् 1937 से ही उत्तर प्रदेश में मुस्लिम लीग के बड़े नेता थे, ने 1970 में लिखा था, ''मुसलमानों में आम राय यह थी कि हिंदू राज का समय आ गया है..।'' अलग पाकिस्तान के लिए मुसलमानों का भयादोहन करने में सर सैय्यद अहमद खान द्वारा स्थापित अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने बड़ी भूमिका निभाई। अक्टूबर, 1939 में एएमयू ने काग्रेस की कथित 'फासीवादी' नीतियों के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया था। 31 अगस्त, 1941 को एएमयू के छात्रो को संबोधित करते हुए लियाकत अली खान ने कहा था, ''हम स्वतंत्र मुस्लिम कौम पाने की लड़ाई में हर तरह का असलहा आपसे पाने की उम्मीद करते हैं।'' अक्टूबर, 1944 में राजा महमूदाबाद ने अलीगढ़ में 'लीग कैंप' की स्थापना की और अलग पाकिस्तान की मुहिम के लिए इसमें एएमयू के डॉ. जफरूल हसन, डॉ. अफजल हुसैन कादिरी, जमीलुद्दीन अहमद, एबीए हलीम आदि शिक्षकों ने सक्रिय भूमिका निभाई।
विभाजन के बाद भारत में रह गए पाकिस्तान सृजन के इन्हीं पैरोकारों ने काग्रेस का दामन थाम लिया। पीरपुर के राजा के सुपुत्र सैयद अहमद मेंहदी 1957 से लेकर 1967 तक काग्रेस के सासद रहे। कृषि मंत्रालय में संसदीय सचिव के साथ वह केंद्र में स्टील व खान मंत्री भी थे। नवाब मो. इस्माइल खान, बेगम ऐजाज रसूल, खलिक जुम्मन, नफीस उल हसन, ताहिर मोहम्मद, ताजमुल हुसैन, सैयद हुसैन इमाम, सादुल्लाह, मोइनुल हक, एचएस सुहरावर्दी (जिनके राज में अगस्त,1946 में कोलकाता की सड़कें हिंदुओं के खून से लाल हुई थीं), अब्दुल हमीद खान आदि अलग पाकिस्तान के मुस्लिम लीगी पैरोकारों ने आजाद भारत में काग्रेस के झडाबरदार बन मुसलमानों की रहनुमाई की। इन सब मुस्लिम लीगी सेकुलरिस्टों के समावेश से आजादी के पूर्व तथाकथित साप्रदायिक काग्रेस से एक नए ब्राड का 'सेकुलरिज्म' विकसित हुआ। शत्रु संपत्ति अधिनियम में संशोधन कर संप्रग सरकार वस्तुत: उसी ब्राड के सेकुलरिज्म को आगे बढ़ा रही है।
[बलबीर पुंज]
स्वाभाविक प्रश्न यह है कि जिन्होंने अपनी राष्ट्रनिष्ठा बदल ली हो, उनके वारिसों को इस देश में किस आधार पर अधिकार दिया जा सकता है? विभाजन के दौरान बड़ी संख्या में हिंदू पाकिस्तान से जान बचाकर भागे आए और जम्मू व उधमपुर आदि जगहों में शरण ली। बाद में उन्हें भारत की नागरिकता मिली और वे लोकसभा चुनावों में मतदान के अधिकारी भी हुए, किंतु उन्हें जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव में मतदान का अधिकार नहीं है। जो सेक्युलर तंत्र पिछले साठ साल में पाकिस्तान से जान बचाकर आए हिंदुओं को उनके ही देश में उनका मौलिक अधिकार न दिला पाया और जिसने कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की चिंता नहीं की, वह एक झटके में उन लोगों को हजारों करोड़ की संपत्ति देने को लालायित है, जो इस देश का तिरस्कार कर 'दर-उल-इस्लाम' के लिए कूच कर गए थे। क्यों? उपरोक्त कानून में संशोधन करने के पीछे बड़ा कारण महमूदाबाद के राजा के वंशज को राहत देना है, जो करीब 24 हजार करोड़ की संपत्ति का मालिकाना हक सर्वोच्च न्यायालय से प्राप्त कर चुके हैं। जिस समय शत्रु संपत्ति अधिनियम, 1968 लागू हुआ, अमीर अली खान जिंदा थे। उन्होंने तब तक अपनी संपत्ति किसी के नाम नहीं की थी। तत्कालीन काग्रेस सरकार ने राजा महमूदाबाद की संपत्तिया अपने कब्जे में ले उन्हें संरक्षक के हवाले कर दिया। अमीर अली खान के बेटे अमीर मोहम्मद खान ने इन संपत्तियों के स्वामित्व का मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय में जीत लिया, किंतु अदालत के निर्णय में उपरोक्त कानून अवरोध बन रहा था। कट्टरपंथियों का तर्क था कि इस कानून की आड़ में मुसलमानों का शोषण हो रहा है।
भारत का रक्तरंजित विभाजन आबादी के हस्तातरण की शर्त पर तो हुआ नहीं था, फिर भारत से पकिस्तान चले जाने वालों की आखिर मानसिकता क्या थी? पाकिस्तान चले जाने वालों ने यदि भारत को दारूल हर्ब समझा तो कुछ ने यहीं बसकर कुफ्र का कलंक क्यों मोल लिया? जो कल तक मजहब के आधार पर पाकिस्तान के प्रबल पैरोकार थे, वे आजादी के बाद रातोरात काग्रेसी बन गए। क्यों?
पाकिस्तान सृजन के पैरोकारो को यह गिला था कि हिंदूबहुल काग्रेस में मुसलमानों के हित सुरक्षित नहीं हैं। मुस्लिम लीग संयुक्त प्रात, बिहार, मध्य प्रात और मुंबई की काग्रेस सरकार पर मुस्लिम उत्पीड़न का आरोप लगाकर मुसलमानों को एकजुट करने में पहले से ही लगी थी। उसका आरोप था कि काग्रेस मुसलमानों की मजहबी मान्यताओं में हस्तक्षेप कर रही है, उनकी अनिच्छा के बावजूद उर्दू की जगह हिंदुओ की बोली हिंदी थोप रही है। भारत माता की जय और वंदे मातरम् को मुसलमानों की संस्कृति पर चोट बताया गया। काग्रेस को हिंदू बनियों की पार्टी बताते हुए उस पर हिंदू राज थोपने का आरोप लगाया गया। क्या यह विडंबना नहीं कि जो लोग अंग्रेजों का साथ देते हुए जिन गालियों और विशेषणों से तब काग्रेस को गरियाते थे, आजादी के बाद वही गालिया पहले जनसंघ और अब भाजपा सहित अन्य राष्ट्रनिष्ठ तत्वों के लिए प्रयुक्त होती हैं?
पीरपुर के राजा, मो. मेहदी राजा सैय्यद ने सन् 1938 में एक रिपोर्ट तैयार की थी, जिसमें कहा गया कि हिंदुओं से ज्यादा जालिम दूसरा नहीं हो सकता।..हम मुसलमान समझते हैं कि काग्रेस के बहुसंख्य सदस्य हिंदू हैं, जो हिंदू राज की बहाली की राह देख रहे हैं। रिपोर्ट में काग्रेसी झडे, वंदे मातरम्, गौरक्षा और हिंदी के प्रयोग को मुसलमानों के नागरिक और सास्कृतिक अधिकारों पर हमला बताया गया। इसके बाद शरीफ समिति रिपोर्ट (1938) और फजलुल हक रिपोर्ट (1939) में भी इसी तरह का प्रलाप किया गया। महमूदाबाद के राजा, जो सन् 1937 से ही उत्तर प्रदेश में मुस्लिम लीग के बड़े नेता थे, ने 1970 में लिखा था, ''मुसलमानों में आम राय यह थी कि हिंदू राज का समय आ गया है..।'' अलग पाकिस्तान के लिए मुसलमानों का भयादोहन करने में सर सैय्यद अहमद खान द्वारा स्थापित अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने बड़ी भूमिका निभाई। अक्टूबर, 1939 में एएमयू ने काग्रेस की कथित 'फासीवादी' नीतियों के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया था। 31 अगस्त, 1941 को एएमयू के छात्रो को संबोधित करते हुए लियाकत अली खान ने कहा था, ''हम स्वतंत्र मुस्लिम कौम पाने की लड़ाई में हर तरह का असलहा आपसे पाने की उम्मीद करते हैं।'' अक्टूबर, 1944 में राजा महमूदाबाद ने अलीगढ़ में 'लीग कैंप' की स्थापना की और अलग पाकिस्तान की मुहिम के लिए इसमें एएमयू के डॉ. जफरूल हसन, डॉ. अफजल हुसैन कादिरी, जमीलुद्दीन अहमद, एबीए हलीम आदि शिक्षकों ने सक्रिय भूमिका निभाई।
विभाजन के बाद भारत में रह गए पाकिस्तान सृजन के इन्हीं पैरोकारों ने काग्रेस का दामन थाम लिया। पीरपुर के राजा के सुपुत्र सैयद अहमद मेंहदी 1957 से लेकर 1967 तक काग्रेस के सासद रहे। कृषि मंत्रालय में संसदीय सचिव के साथ वह केंद्र में स्टील व खान मंत्री भी थे। नवाब मो. इस्माइल खान, बेगम ऐजाज रसूल, खलिक जुम्मन, नफीस उल हसन, ताहिर मोहम्मद, ताजमुल हुसैन, सैयद हुसैन इमाम, सादुल्लाह, मोइनुल हक, एचएस सुहरावर्दी (जिनके राज में अगस्त,1946 में कोलकाता की सड़कें हिंदुओं के खून से लाल हुई थीं), अब्दुल हमीद खान आदि अलग पाकिस्तान के मुस्लिम लीगी पैरोकारों ने आजाद भारत में काग्रेस के झडाबरदार बन मुसलमानों की रहनुमाई की। इन सब मुस्लिम लीगी सेकुलरिस्टों के समावेश से आजादी के पूर्व तथाकथित साप्रदायिक काग्रेस से एक नए ब्राड का 'सेकुलरिज्म' विकसित हुआ। शत्रु संपत्ति अधिनियम में संशोधन कर संप्रग सरकार वस्तुत: उसी ब्राड के सेकुलरिज्म को आगे बढ़ा रही है।
[बलबीर पुंज]
27 अक्टूबर, 1947: शौर्य और बलिदान की तिथि
जो देश अपने नायकों को याद नहीं रखता वहां भविष्य में नायक जन्म नहीं लेते। अफसोस है कि हम 27 अक्टूबर, 1947 के अपने वीर जवानों को भूल गए हैं। यह कश्मीर के इतिहास और शेष भारत से इसके संबंधों के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण तिथि है। इस दिन भारतीय जवानों ने वीरता और शौर्य की नई गाथा लिखी थी। हममें से आज कितनों को एयर कमांडर मेहर सिंह की जाबाजी याद है, जब उन्होंने सामान्य से टेकोटा हवाई जहाज को बिना ऑक्सीजन के 23 हजार फीट की ऊंचाई तक उड़ाया था और इसे 11,555 फीट की ऊंचाई पर लेह की उबड़-खाबड़ हवाई पट्टी पर उतारकर लद्दाख में भारतीय सेना को पहुंचाने का मार्ग प्रशस्त किया था। मेजर जनरल केएस थिमैया ने 11,578 फीट की ऊंचाई पर बर्फ से ढके जोजिला दर्रे पर टैंक ले जाने का अद्भुत कारनाम कर दिखाया था। इसकी तुलना हनीबल द्वारा अपने हाथियों के साथ एल्प्स पर्वतमाला को लांघने से ही की जा सकती है।
आज शायद ही कोई इन घटनाओं को सलाम करता हो, किंतु सच्चाई यही है कि अगर ये अधिकारी इन साहसिक कारनामों को अंजाम न देते तो आज लद्दाख का विशाल भूभाग भी गिलगित और बाल्टिस्तान की तरह पाकिस्तान के हाथ में होता। क्या यह हमारे इतिहासबोध और एक गौरवशाली राष्ट्रनिर्माण की प्रेरणा पर दुखद टिप्पणी नहीं है? स्मरण होना चाहिए कि स्वतंत्रता के बाद सिद्धांत रूप में तमाम राज्य खुद को आजाद घोषित करने के लिए स्वतंत्र थे, किंतु व्यवहार में भारत या पाकिस्तान के साथ मिलना उनकी मजबूरी थी। तत्कालीन गृह सचिव लॉर्ड लिस्टोवेल ने इसे स्पष्ट किया था, 'ब्रिटिश सरकार किसी भी राज्य को प्रथक अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्रदान नहीं करेगी।' जून में लॉर्ड माउंटबेटन महाराजा हरिसिंह से उनकी इच्छा जानने श्रीनगर गए थे, किंतु महाराजा ने अपने पत्ते नहीं खोले। बाद में माउंटबेटन ने बताया, 'एकमात्र समस्या यह उठ सकती है कि कश्मीर किसी भी तरफ न जाए और दुर्भाग्य से महाराजा इसी रास्ते पर चल रहे थे।' हालांकि जिन्ना और उनके सलाहकारों ने धोखाधड़ी, हमले और घुसपैठ के माध्यम से राज्य पर कब्जा जमाने के प्रयास में जरा भी समय नहीं गंवाया। कागजों पर 15 अगस्त 1947 से ही पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में यथा-स्थिति समझौता किया हुआ था, किंतु असलियत में उसने कड़े आर्थिक प्रतिबंध थोप दिए। पाकिस्तानी समाचार पत्र डॉन के 16 अक्टूबर के अंक में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, 'कश्मीर सरकार गिर रही है। इसे अपने चार करोड़ के बजट में से दो करोड़ का पहले ही घाटा हो चुका है। कीमतों में जबरदस्त बढ़ोतरी से लोगों में असंतोष व्याप्त है।'
इससे पहले, जिन्ना ने अपने निजी सचिव को कश्मीर में भेजकर अपने पक्ष में माहौल तैयार करना शुरू कर दिया था। जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री एमसी महाजन के अनुसार, 'सांप्रदायिक सोच वाले लोगों और मुसलमानों को तैयार किया गया कि वे महाराजा पर कश्मीर के पाकिस्तान में विलय का दबाव डालें।' 23 अक्टूबर को ट्रिब्यून में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, 'पश्चिम पंजाब और फ्रंटियर पाकिस्तान के आततायी कश्मीर में घुस गए और छूरेबाजों व बंदूकचियों के दल बनाने लगे। इस सबमें जिन्ना का हाथ प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा था।' करीब-करीब इसी समय सीमा पर धावा बोल दिया गया ताकि राज्य की शक्तियों को छितराया जा सके। तब कश्मीर के पास महज नौ बटालियनें और दो माउंटेन बैटरीज थीं। 22 अक्टूबर से कबीलाई हमला बोल दिया गया, जिसे पाकिस्तान संचालित कर रहा था। कबीलाइयों का नेतृत्व पाकिस्तान का मेजर जनरल अकबर खान कर रहा था, जिसे कूट नाम जनरल तारिक दिया गया था। राज्य प्रशासन की तैयारी इतनी कम थी कि वह विस्फोटकों के अभाव में कृष्णा-गंगा पुल को नहीं उड़ा पाया। ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह की कमान में राज्य के सुरक्षा बलों ने उड़ी में आखिरी सैनिक और आखिरी गोली तक बड़ी बहादुरी से मोर्चा लिया, यद्यपि उन्हें मुसलमान सैनिकों के विद्रोह का सामना करना पड़ रहा था। इस प्रकार उन्होंने हमलावरों को दो महत्वपूर्ण दिनों तक आगे नहीं बढ़ने दिया। ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह एक हीरो की तरह शहीद हुए और उनके मूल्यवान सहयोग से राज्य को बचा लिया गया।
24-26 अक्टूबर को बारामूला पर हमलावरों का कब्जा हो गया। अपनी बर्बर प्रवृत्ति के कारण उन्होंने वहां बड़े पैमाने पर लूटपाट, आगजनी, दुष्कर्म और मार-काट मचानी शुरू कर दी। हमलावर नहीं जानते थे कि वे जो जघन्य अपराध कर रहे हैं उसकी सजा उन्हें मिलनी है। इसी मारकाट के कारण महाराजा 27 अक्टूबर को कश्मीर के भारत में विलय पर राजी हो गए और उन्होंने भारत से सहायता की मांग की। 27 अक्टूबर को भारतीय वायु सेना का लड़ाकू विमान श्रीनगर के हवाई अड्डे पर उतरा, जिसमें लेफ्टिनेंट कर्नल रंजीत राय के नेतृत्व में भारतीय सैनिकों की पहली टुकड़ी थी। कर्नल राय ने तुरंत अपनी टुकड़ी को बारामूला की तरफ कूच करने का आदेश दिया। इस खूनी जंग में उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ी। 3 नवंबर को एक और साहसी कदम में मेजर सोमनाथ शर्मा ने बडगाम में हमलावरों से टक्कर ली। हमलावरों की तुलना में उनकी संख्या सात के मुकाबले एक थी। फिर भी उन्होंने अदम्य साहस का प्रदर्शन करते हुए दुश्मनों को भारी नुकसान पहुंचाया। इस लड़ाई में उन्हें अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।
जब हमलावर श्रीनगर के बाहर तक पहुंच गए थे और लेफ्टिनेंट रंजीत राय और मेजर सोमनाथ शर्मा शहीद हो चुके थे तब रक्षा मंत्री बलदेव सिंह के साथ गृहमंत्री सरदार पटेल राज्य की राजधानी पहुंचे और हालात का जायजा लिया। दिल्ली लौटकर उन्होंने श्रीनगर के ऊपर तमाम हवाई जहाजों की उड़ानें प्रतिबंधित कर दीं। यहां तक कि कश्मीर की रक्षा के लिए भारतीय सेना के इस्तेमाल का महात्मा गांधी ने भी तत्परता से अनुमोदन किया। भारतीय सेना को समय पर मिली मदद के कारण ब्रिगेडियर सेन हमलावरों को भारतीय सेना के जाल में फंसाने में कामयाब हो गए और 5 नवंबर को शलतांग के निकट उन पर तीन तरफ से हमला बोल दिया गया। करीब छह सौ हमलावर मारे गए और घाटी को बचा लिया गया। सोमनाथ शर्मा, रंजीत राय और राजिंदर सिंह जैसे वीरों का बलिदान और मेहर सिंह व थिमैया जैसे जाबाजों का अप्रतिम शौर्य बेकार नहीं गया है। हमें साल में कम से कम एक बार उन्हें सलाम करना नहीं भूलना चाहिए। अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी का कथन हमेशा याद रखना चाहिए, 'एक राष्ट्र खुद का आकलन उन लोगों के आधार पर करता है जिनका वह सम्मान करता है, जिन्हें वह याद रखता है।'
[27 अक्टूबर 1947 को कश्मीर में भारतीय सैनिकों की वीरता को याद कर रहे हैं जगमोहन]
आज शायद ही कोई इन घटनाओं को सलाम करता हो, किंतु सच्चाई यही है कि अगर ये अधिकारी इन साहसिक कारनामों को अंजाम न देते तो आज लद्दाख का विशाल भूभाग भी गिलगित और बाल्टिस्तान की तरह पाकिस्तान के हाथ में होता। क्या यह हमारे इतिहासबोध और एक गौरवशाली राष्ट्रनिर्माण की प्रेरणा पर दुखद टिप्पणी नहीं है? स्मरण होना चाहिए कि स्वतंत्रता के बाद सिद्धांत रूप में तमाम राज्य खुद को आजाद घोषित करने के लिए स्वतंत्र थे, किंतु व्यवहार में भारत या पाकिस्तान के साथ मिलना उनकी मजबूरी थी। तत्कालीन गृह सचिव लॉर्ड लिस्टोवेल ने इसे स्पष्ट किया था, 'ब्रिटिश सरकार किसी भी राज्य को प्रथक अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्रदान नहीं करेगी।' जून में लॉर्ड माउंटबेटन महाराजा हरिसिंह से उनकी इच्छा जानने श्रीनगर गए थे, किंतु महाराजा ने अपने पत्ते नहीं खोले। बाद में माउंटबेटन ने बताया, 'एकमात्र समस्या यह उठ सकती है कि कश्मीर किसी भी तरफ न जाए और दुर्भाग्य से महाराजा इसी रास्ते पर चल रहे थे।' हालांकि जिन्ना और उनके सलाहकारों ने धोखाधड़ी, हमले और घुसपैठ के माध्यम से राज्य पर कब्जा जमाने के प्रयास में जरा भी समय नहीं गंवाया। कागजों पर 15 अगस्त 1947 से ही पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में यथा-स्थिति समझौता किया हुआ था, किंतु असलियत में उसने कड़े आर्थिक प्रतिबंध थोप दिए। पाकिस्तानी समाचार पत्र डॉन के 16 अक्टूबर के अंक में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, 'कश्मीर सरकार गिर रही है। इसे अपने चार करोड़ के बजट में से दो करोड़ का पहले ही घाटा हो चुका है। कीमतों में जबरदस्त बढ़ोतरी से लोगों में असंतोष व्याप्त है।'
इससे पहले, जिन्ना ने अपने निजी सचिव को कश्मीर में भेजकर अपने पक्ष में माहौल तैयार करना शुरू कर दिया था। जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री एमसी महाजन के अनुसार, 'सांप्रदायिक सोच वाले लोगों और मुसलमानों को तैयार किया गया कि वे महाराजा पर कश्मीर के पाकिस्तान में विलय का दबाव डालें।' 23 अक्टूबर को ट्रिब्यून में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, 'पश्चिम पंजाब और फ्रंटियर पाकिस्तान के आततायी कश्मीर में घुस गए और छूरेबाजों व बंदूकचियों के दल बनाने लगे। इस सबमें जिन्ना का हाथ प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा था।' करीब-करीब इसी समय सीमा पर धावा बोल दिया गया ताकि राज्य की शक्तियों को छितराया जा सके। तब कश्मीर के पास महज नौ बटालियनें और दो माउंटेन बैटरीज थीं। 22 अक्टूबर से कबीलाई हमला बोल दिया गया, जिसे पाकिस्तान संचालित कर रहा था। कबीलाइयों का नेतृत्व पाकिस्तान का मेजर जनरल अकबर खान कर रहा था, जिसे कूट नाम जनरल तारिक दिया गया था। राज्य प्रशासन की तैयारी इतनी कम थी कि वह विस्फोटकों के अभाव में कृष्णा-गंगा पुल को नहीं उड़ा पाया। ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह की कमान में राज्य के सुरक्षा बलों ने उड़ी में आखिरी सैनिक और आखिरी गोली तक बड़ी बहादुरी से मोर्चा लिया, यद्यपि उन्हें मुसलमान सैनिकों के विद्रोह का सामना करना पड़ रहा था। इस प्रकार उन्होंने हमलावरों को दो महत्वपूर्ण दिनों तक आगे नहीं बढ़ने दिया। ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह एक हीरो की तरह शहीद हुए और उनके मूल्यवान सहयोग से राज्य को बचा लिया गया।
24-26 अक्टूबर को बारामूला पर हमलावरों का कब्जा हो गया। अपनी बर्बर प्रवृत्ति के कारण उन्होंने वहां बड़े पैमाने पर लूटपाट, आगजनी, दुष्कर्म और मार-काट मचानी शुरू कर दी। हमलावर नहीं जानते थे कि वे जो जघन्य अपराध कर रहे हैं उसकी सजा उन्हें मिलनी है। इसी मारकाट के कारण महाराजा 27 अक्टूबर को कश्मीर के भारत में विलय पर राजी हो गए और उन्होंने भारत से सहायता की मांग की। 27 अक्टूबर को भारतीय वायु सेना का लड़ाकू विमान श्रीनगर के हवाई अड्डे पर उतरा, जिसमें लेफ्टिनेंट कर्नल रंजीत राय के नेतृत्व में भारतीय सैनिकों की पहली टुकड़ी थी। कर्नल राय ने तुरंत अपनी टुकड़ी को बारामूला की तरफ कूच करने का आदेश दिया। इस खूनी जंग में उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ी। 3 नवंबर को एक और साहसी कदम में मेजर सोमनाथ शर्मा ने बडगाम में हमलावरों से टक्कर ली। हमलावरों की तुलना में उनकी संख्या सात के मुकाबले एक थी। फिर भी उन्होंने अदम्य साहस का प्रदर्शन करते हुए दुश्मनों को भारी नुकसान पहुंचाया। इस लड़ाई में उन्हें अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।
जब हमलावर श्रीनगर के बाहर तक पहुंच गए थे और लेफ्टिनेंट रंजीत राय और मेजर सोमनाथ शर्मा शहीद हो चुके थे तब रक्षा मंत्री बलदेव सिंह के साथ गृहमंत्री सरदार पटेल राज्य की राजधानी पहुंचे और हालात का जायजा लिया। दिल्ली लौटकर उन्होंने श्रीनगर के ऊपर तमाम हवाई जहाजों की उड़ानें प्रतिबंधित कर दीं। यहां तक कि कश्मीर की रक्षा के लिए भारतीय सेना के इस्तेमाल का महात्मा गांधी ने भी तत्परता से अनुमोदन किया। भारतीय सेना को समय पर मिली मदद के कारण ब्रिगेडियर सेन हमलावरों को भारतीय सेना के जाल में फंसाने में कामयाब हो गए और 5 नवंबर को शलतांग के निकट उन पर तीन तरफ से हमला बोल दिया गया। करीब छह सौ हमलावर मारे गए और घाटी को बचा लिया गया। सोमनाथ शर्मा, रंजीत राय और राजिंदर सिंह जैसे वीरों का बलिदान और मेहर सिंह व थिमैया जैसे जाबाजों का अप्रतिम शौर्य बेकार नहीं गया है। हमें साल में कम से कम एक बार उन्हें सलाम करना नहीं भूलना चाहिए। अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी का कथन हमेशा याद रखना चाहिए, 'एक राष्ट्र खुद का आकलन उन लोगों के आधार पर करता है जिनका वह सम्मान करता है, जिन्हें वह याद रखता है।'
[27 अक्टूबर 1947 को कश्मीर में भारतीय सैनिकों की वीरता को याद कर रहे हैं जगमोहन]
सोमवार, 25 अक्टूबर 2010
हिन्दू आंतकवाद कश्मीर जैसे मुद्दों से ध्यान हटाने का षड़यंत्र
जो लोग सदियों से हिंसा के खिलाफ रहे है । तथा अंहिंसा के पुजारी है । क्या वो धर्म के नाम से आंतकवाद फैला सकते है । मुझे नहीं लगता की यह हो सकता है हिन्दू हमेसा से सहिष्णु और विश्व बन्धुत्वा की भावना के साथ ही पैदा होता है । वो कभी आंतकवादी नहीं होता । कांग्रेस पार्टी के युवराज जो मन ही मन में इस देश के प्रधानमंत्री बनाने का खवाब पाले बेठे है और इस देश के मुस्लिमो को अपना सबसे बड़ा वोते बैंक बनाने के लिए अपने भाषण में बोल बेठे की संघ और सिमी दोनों एक तरह के संघठन है । उसके दुसरे दिन ही भरता के गृह मंत्रालय का बयां आता है की संघ और सिमी दोनों की विचारधार एक जैसी नहीं हो सकती । संघ अखंड भारत के निर्माण की पवित्र विचार के साथ काम करता है । जबकि सिमी भारत विभाजन जैसे कुत्सित विचार के साथ काम करता है ॥ पर इसमे राहुल जैसे मदमस्त नेता की कोई गलती नहीं है क्योंकि उसके दिमाग में तो बस एक ही विचार है की जैसे तैसे मुस्लिम वोट कांग्रेस के साथ हो जाये ॥ और राहुल गाँधी और सोनिया गाँधी के नेतृत्वा में काम कर रही भारत की सी बी आई और इन्ही के एक महत्वपूर्ण और ख़ास आदमी हमारे राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नेतृत्वा में काम कर रही ऐ टी एस ने एक नया सगुफा छोड़ा है हिन्दू आंतकवाद .... संघ के प्रचारको को निशाना बनाना और मुस्लिम वोट बैंक को मजबूत करने के लिए हिन्दू आंतकवाद के नाम से संघ के प्रचारको को आंतकवादी घोषित करना । अभी अजमेर धमाको की चार्ज शीट में संघ के एक ऐसे व्यक्ति का नाम लिया है जिसकी कोई कल्पना ही नहीं कर सकता .... और हाँ उस व्यक्ति ने राष्ट्रवादी मुस्लिमो के लिए एक मंच भी बना रखा है ..जिसमे हिन्दू और मुस्लिम लोग मिलाकर राष्ट्र को मजबूत बनाने के लिए काम करते है ... इस व्यक्ति का नाम है इन्द्रेश जी ... ऐसे देवता स्वरुप इंसान का नामइस में घसीट कर निश्चित रूप से पुरे राष्ट्रवादी भारतीय समाज को ही बदनाम करने का प्रयत्न किया जा रहा है । और हाँ इनका नाम आने के साथ ही राजस्थान के गृह मंत्री ने ठीक अपने लोगो के विपरीत कहा की लश्कर ऐ तोयबा कुछ लालची हिन्दुओ को लालच देकर अपने साथ मिला रही है । तो इन बातो से यह तो साफ़ होता है की ऐसे कार्यो में आर एस एस का होना नामुमकिन है । या यूँ कहे की संघ का नाम इन कार्यो में घसीटने के पीछे हिंदुस्तान के सबसे महत्वपूर्ण अंग कश्मीर की तरफ से ध्यान हटाना तो नहीं या अराष्ट्र वादी ताकतों की मसीहा सोनिया गाँधी अपना कोई छिपा हुआ एजेंडा तो लागू नहीं कर रही है। आज कश्मीर जल रहा है । कश्मीर का मुख्यमंत्री कहता है की कश्मीर का भारत में विलय नहीं हुआ । में कहता हूँ की यह सब हिन्दू लोगो को और राष्ट्रवादी ताकतों को कमजोर करके कश्मीर मुद्दे से लोगो का ध्यान हटाना है । दोस्तों यह एक प्रकार से मजाक सा लगता है की जिस संघठन का उद्देश्य अखंड भारत का निर्माण कर के भारत माता को परम वैभव पर पहुँचाना हो । और वो हर रोज यह प्रार्थना करते है की भारत विश्व गुरु के सिंघासन पर फिर से विराजमान हो । उसके बारे में ऐसे आरोप लगाना निश्चित रूप से कंही न कंही एक बड़ी साजिश की बू आती है । और कश्मीर को भारत से अलग करने का को षडयन्त्र लगता है । जय हिंद वन्दे मातरम
दिल्ली में कश्मीर आज़ादी के नारे- Aal iz well
पिछले दिनों कश्मीर के मुद्दे पर दिल्ली में एक सेमिनार करवाया गया जिसका विषय था- "आज़ादी: एक ही रास्ता", इस सेमिनार में कश्मीर के अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी, माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखने वाले तेलुगू कवि वरवर राव, लेखिका अरुंधति रॉय जैसे लोगों ने हिस्सा लिया, ये लोग कौन है और इनका अतीत कैसा रहा है ये हमसे छुपा नहीं है, इन लोगो का चयन वाकई शानदार है, न तो इनका विश्वास भारत में है और न ही भारतीयता में, ऐसे भारत की राजधानी में बैठ कर भारत विरोधी उवाच, धन्य है हिंदुस्तान और इसकी उदारता आखिरकार भारतीय संविधान देश के सभी नागरिकों को बोलने की आज़ादी का अधिकार देता है.
बहुत सारे लोग बुश को एक राक्षश के रूप में मानते है , हो सकता है की वो हो भी, पर सच ये भी है की अमेरिका अब ज्यादा सुरक्षित है, सलमान खान से जब ये पूछा गया की अमेरिका में एयरपोर्ट पर इतनी चेकिंग होती है तो उन्हें बुरा नहीं लगता तो उन्होंने कहा की “नहीं”, काश अपने यहाँ भी ऐसा होता कम से कम सुरक्षा की गारंटी तो मिलती, बुश ने जिस तरह स्पष्ट शब्दों में दुनिया से ये कहा (चेतावनी) था की या तो आप हमारे साथ है, या हमारे खिलाफ, उसने अमेरिका की मानसिकता को बताया था, बताया था की एक राष्ट्र अपनी सुरक्षा, एकता और अखंडता के लिए कितना ढृढ़ है, मुझे लगता है राष्ट्रीय एकता, अखंडता और नागरिक सुरक्षा के मामले में हम एक रीढविहीन देश है
खैर लौटते है पुरानी चर्चा पर, विचारों की स्वतंत्रता का महत्व है यह माना, ये भी माना की हमारे लोकतंत्र में हमें ये आज़ादी मिली है की हम सरकार और यहाँ तक की स्टेट के खिलाफ भी भावना और विचारो की अभिव्यक्ति कर सकते है, लेकिन देशद्रोहियों को देश की राजधानी में पाकिस्तान का प्रचार और भारत विरोधी नारे लगाने की की इजाजत देना केवल मूर्खता ही कही जायेगी। गिलानी और अरुंधती राय के जहरीले राष्ट्रीय बयानों पर न तो सरकार ने पहले भी कुछ किया था और अब भी ढुलमुल रवैया ही है , बिडम्बना यह थी कि इसी जगह प्रदर्शन कर रहे रूट्स इन कश्मीर, भारतीय जनता युवा मोर्चा के लडको को लाठियो से मार कर भगा दिया गया. हो सकता है की उनके विरोध प्रदर्शन का तरीका गलत हो, हो सकता नहीं माना की उनका तरीका गलत था, लेकिन अब आपको ये चुनना ही होगा की कोई बाहरी ताकतों का एजेंट आपको आकर आपकी जगह पर गाली दे और आपके अपने लड़के जब उसका विरोध करे तो आप किसके हितो की रक्षा करेंगे.... अफ़सोस की ज्यादातर मीडिया ने इस घटना पर विशेष ध्यान नहीं दिया
हकीकत ये है की गिलानी समेत इन तमाम लोगो ने घाटी को तालिबान के रंग में रंग दिया है, ध्यान रहे की ये रंग इस्लाम का रंग हरगिज़ नहीं है, ये रंग है सामंती तालिबानी इस्लाम का, कश्मीर के तालिबानीकरण ने वहां की पुरानी सूफी परम्परा को भी ध्वस्त कर दिया है। वहाबी मुस्लिम कट़टरवाद ने घाटी में हिन्दू मुस्लिम एक्य के तमाम पुलों को ही तोड़ दिया है। अगस्त में मै जम्मू में था, जो थोडा बहुत पता लगाया पाया या जितना मैंने देखा उसके पता चला की घाटी में हिन्दू महिलाओं का बाजार में बिन्दी लगाकर चलना असंभव हो गया है, हिन्दू पुरूष और महिलाएं अपनी पहचान छिपा कर चलना ज्यादा मुनासिब और सुरक्षित मानते हैं। श्रीनगर में पहले हजारो की संख्या में हिन्दू परिवार थे। आज वहां सिर्फ बीस-तीस परिवार ही बचे हैं। उन्हें भी निकल जाने के लिए पिछले साल धमकियां मिली थीं। जब स्थानीय कश्मीरी हिन्दू संगठनों के नेता पुलिस अधिकारियों से मिली तो उन्होंने उनकी मदद करने से कदम पीछे हटा लिए। एक वरिष्ठ अधिकारी ने उनसे कहा कि यदि आपको सच में हिफाजत चाहिए तो आप सैयद अली शाह गिलानी के पास जाएं। मजबूर होकर वे हिन्दू गिलानी के पास गये तो उन्हे हिफाजत मिली। इस प्रकार अलगाववादी नेता अपनी शर्तें सिख व हिन्दू परिवारों से भी मनवाने में कामयाब रहते हैं। पूरे कश्मीर में एक ज़माने में करीब डेढ़ लाख से अधिक रहने वाले सिख्खो में से बचे खुचे पच्चास हजार सिखों को इस्लाम कबूल करने वरना घाटी छोड़ने की धमकी मिली, ये धमकी उसी सिलसिले के तहत है जिसके अन्तर्गत पहले सात सौ से अधिक मन्दिर तोड़े गए , पांच लाख हिन्दुओं को निकाला गया , लद्दाख के बौद्धों को सताया और छितीसिंह पुरा जैसे सिख नरसंहार किए गए। दिल्ली में भी गिलानी के साथ स्टेज पर एक सरदार को बैठे देखा तो सोचा धन्य है "भय" और उसकी "सत्ता".
वैसे गिलानी एंड कंपनी की प्लानिंग शानदार है, इस वक़्त कश्मीर की जिंदगी में में पत्थरबाजी, आगजनी और तोड़फोड़ की घटनाएं आम बात है। नवजवानों में सुरक्षाबलों के खिलाफ ज़हर और आक्रामकता पैदा की जा रही है। जानबूझकर ऐसी स्थिति गिलानी एंड कंपनी बना रही है की सुरक्षाबलों को आत्मरक्षा के लिए गोली चलानी पड़े - वे पहले पानी की बौछार फेंकते हैं, फिर रबर की गोलियां चलाते हैं। रबर की गोली भी यदि नजदीक से लगती है तो जानलेवा साबित हो सकती है , ऐसे में कोई पत्थरबाज लड़का मारा जाता है तो उसकी प्रतिक्रिया में और हिंसा भड़कती है और इस प्रकार एक दुष्चक्र चल पड़ता है और चलती रहती है गिलानी एंड कंपनी की दूकान भी .
इसी कम्पनी में एक महिला भी है जिनके बारे में जम्मू-राजधानी के सफ़र में मुझे पता चला, इनका नाम है “असिया अन्दराबी”। यह मोहतरमा कश्मीर की आज़ादी के आंदोलन (?) की प्रमुख नेता मानी जाती हैं, एक कट्टरपंथी संगठन भी चलाती हैं जिसका नाम है “दुख्तरान-ए-मिल्लत” (धरती की बेटियाँ)। अधिकतर समय यह मोहतरमा अण्डरग्राउण्ड रहती हैं और परदे के पीछे से कश्मीर के पत्थर-फ़ेंकू गिरोह को नैतिक और आर्थिक समर्थन देती रहती हैं। मसला ये है की मैडम ने घाटी के बच्चो से और युवको से शिक्षा के बहिष्कार की अपील की है, यही नहीं स्कूल कालेज जाने वालो को बाकायदा रोकती भी है, न मानो तो रूकवाती भी है, एक बयान में असिया अन्दराबी ने कहा कि “कुछ ज़िंदगियाँ गँवाना, सम्पत्ति का नुकसान और बच्चों की पढ़ाई और समय की हानि तो स्वतन्त्रता-संग्राम का एक हिस्सा हैं, इसके लिये कश्मीर के लोगों को इतनी हायतौबा नहीं मचाना चाहिये… आज़ादी के आंदोलन में हमें बड़ी से बड़ी कुर्बानी के लिये तैयार रहना चाहिये…”...क्या बात है........., आपको लग रहा होगा की कश्मीर की आज़ादी के लिये मैडम कितनी समर्पित नेता हैं.............लेकिन 30 अप्रैल 2010 को जम्मू-कश्मीर के उच्च न्यायालय में दाखिल दस्तावेजों के मुताबिक इस फ़ायरब्राण्ड नेत्रीअसिया अन्दराबी के सुपुत्र मोहम्मद बिन कासिम ने पढ़ाई के लिये मलेशिया जाने हेतु आवेदन किया है और उसे “भारतीय पासपोर्ट” चाहिये… चौंक गये, हैरान हो गये न आप? जी हाँ, भारत के विरोध में लगातार ज़हर उगलने वाली अंदराबी के बेटे को “भारतीय पासपोर्ट” चाहिये… और वह भी किसलिये? बारहवीं के बाद उच्च अध्ययन हेतु…। यानी कश्मीर में जो युवा और किशोर रोज़ाना पत्थर फ़ेंक-फ़ेंक कर, अपनी जान हथेली पर लेकर 200-300 रुपये रोज कमाते हैं, उन गलीज़ों में उनका “होनहार” शामिल नहीं होना चाहता… न वह खुद चाहती है, कि कहीं वह सुरक्षा बालो के हाथो मारा न जाये…। कैसा पाखण्ड भरा आज़ादी का आंदोलन है यह? एक तरफ़ तो कई महीनो कश्मीर के स्कूल-कॉलेज खुले नहीं हैं जिस कारण हजारों-लाखों युवा और किशोरो ने अपनी पढ़ाई का नुकसान झेला, इनके चक्कर में आकर बेचारे 200-300 रुपये के लिए पत्थर फ़ेंक रहे हैं… और दूसरी तरफ़ यह मोहतरमा लोगों को भड़काकर, खुद के बेटे को विदेश भेजने की फ़िराक में हैं…
इसी तरह के तमाम ड्रामो से भरी है ये गिलानी और इसकी कम्पनी..... नेशनल मीडिया में बैठे तमाम तत्वों को कश्मीर की कलह दिखती है पर लाखो की तादात में कश्मीर से विस्थापित हुए लोगो का दर्द कभी नहीं, आज विस्थापित जम्मू में जिस तरह रह रहे है- वो इन्हें कभी द्रवित नहीं करता.. दिल्ली में गिलानी और अरुंधती राय जैसे भारत विरोधी तत्वों की उपस्थिति और उनके जहर बुझे बयान यदि किसी दूसरे देश में हुए होते तो या तो सरकार कड़े से कड़ा कदम उठाती जिसमे जेल में डालना शायद सबसे सरल कदम होता, और अगर सरकार ऐसा न करती तो जनता में इतना गुस्सा उमड़ता कि सरकार पलट जाती, पर धन्य है हम, ……वैसे भी "आल इज वेल" हमारा नया नारा है, लेकिन ये सवाल आपके लिए ज़रूर है की आखिरकार गिलानी और अरुंधती के भारत विरोधी बयान क्या विचार स्वतंत्रता की श्रेणी में आते हैं , और क्या उन्हें इतनी सरलता के साथ स्वीकार किया जाना चाहिए था. खैर छोडिये, चलिए पता लगते है की ये साले संघी अब देश को कौन सा नुक्सान करने वाले है .अंत में Aaal iz well , Aaal iz well, Aaal iz well, Aaal iz well
बहुत सारे लोग बुश को एक राक्षश के रूप में मानते है , हो सकता है की वो हो भी, पर सच ये भी है की अमेरिका अब ज्यादा सुरक्षित है, सलमान खान से जब ये पूछा गया की अमेरिका में एयरपोर्ट पर इतनी चेकिंग होती है तो उन्हें बुरा नहीं लगता तो उन्होंने कहा की “नहीं”, काश अपने यहाँ भी ऐसा होता कम से कम सुरक्षा की गारंटी तो मिलती, बुश ने जिस तरह स्पष्ट शब्दों में दुनिया से ये कहा (चेतावनी) था की या तो आप हमारे साथ है, या हमारे खिलाफ, उसने अमेरिका की मानसिकता को बताया था, बताया था की एक राष्ट्र अपनी सुरक्षा, एकता और अखंडता के लिए कितना ढृढ़ है, मुझे लगता है राष्ट्रीय एकता, अखंडता और नागरिक सुरक्षा के मामले में हम एक रीढविहीन देश है
खैर लौटते है पुरानी चर्चा पर, विचारों की स्वतंत्रता का महत्व है यह माना, ये भी माना की हमारे लोकतंत्र में हमें ये आज़ादी मिली है की हम सरकार और यहाँ तक की स्टेट के खिलाफ भी भावना और विचारो की अभिव्यक्ति कर सकते है, लेकिन देशद्रोहियों को देश की राजधानी में पाकिस्तान का प्रचार और भारत विरोधी नारे लगाने की की इजाजत देना केवल मूर्खता ही कही जायेगी। गिलानी और अरुंधती राय के जहरीले राष्ट्रीय बयानों पर न तो सरकार ने पहले भी कुछ किया था और अब भी ढुलमुल रवैया ही है , बिडम्बना यह थी कि इसी जगह प्रदर्शन कर रहे रूट्स इन कश्मीर, भारतीय जनता युवा मोर्चा के लडको को लाठियो से मार कर भगा दिया गया. हो सकता है की उनके विरोध प्रदर्शन का तरीका गलत हो, हो सकता नहीं माना की उनका तरीका गलत था, लेकिन अब आपको ये चुनना ही होगा की कोई बाहरी ताकतों का एजेंट आपको आकर आपकी जगह पर गाली दे और आपके अपने लड़के जब उसका विरोध करे तो आप किसके हितो की रक्षा करेंगे.... अफ़सोस की ज्यादातर मीडिया ने इस घटना पर विशेष ध्यान नहीं दिया
हकीकत ये है की गिलानी समेत इन तमाम लोगो ने घाटी को तालिबान के रंग में रंग दिया है, ध्यान रहे की ये रंग इस्लाम का रंग हरगिज़ नहीं है, ये रंग है सामंती तालिबानी इस्लाम का, कश्मीर के तालिबानीकरण ने वहां की पुरानी सूफी परम्परा को भी ध्वस्त कर दिया है। वहाबी मुस्लिम कट़टरवाद ने घाटी में हिन्दू मुस्लिम एक्य के तमाम पुलों को ही तोड़ दिया है। अगस्त में मै जम्मू में था, जो थोडा बहुत पता लगाया पाया या जितना मैंने देखा उसके पता चला की घाटी में हिन्दू महिलाओं का बाजार में बिन्दी लगाकर चलना असंभव हो गया है, हिन्दू पुरूष और महिलाएं अपनी पहचान छिपा कर चलना ज्यादा मुनासिब और सुरक्षित मानते हैं। श्रीनगर में पहले हजारो की संख्या में हिन्दू परिवार थे। आज वहां सिर्फ बीस-तीस परिवार ही बचे हैं। उन्हें भी निकल जाने के लिए पिछले साल धमकियां मिली थीं। जब स्थानीय कश्मीरी हिन्दू संगठनों के नेता पुलिस अधिकारियों से मिली तो उन्होंने उनकी मदद करने से कदम पीछे हटा लिए। एक वरिष्ठ अधिकारी ने उनसे कहा कि यदि आपको सच में हिफाजत चाहिए तो आप सैयद अली शाह गिलानी के पास जाएं। मजबूर होकर वे हिन्दू गिलानी के पास गये तो उन्हे हिफाजत मिली। इस प्रकार अलगाववादी नेता अपनी शर्तें सिख व हिन्दू परिवारों से भी मनवाने में कामयाब रहते हैं। पूरे कश्मीर में एक ज़माने में करीब डेढ़ लाख से अधिक रहने वाले सिख्खो में से बचे खुचे पच्चास हजार सिखों को इस्लाम कबूल करने वरना घाटी छोड़ने की धमकी मिली, ये धमकी उसी सिलसिले के तहत है जिसके अन्तर्गत पहले सात सौ से अधिक मन्दिर तोड़े गए , पांच लाख हिन्दुओं को निकाला गया , लद्दाख के बौद्धों को सताया और छितीसिंह पुरा जैसे सिख नरसंहार किए गए। दिल्ली में भी गिलानी के साथ स्टेज पर एक सरदार को बैठे देखा तो सोचा धन्य है "भय" और उसकी "सत्ता".
वैसे गिलानी एंड कंपनी की प्लानिंग शानदार है, इस वक़्त कश्मीर की जिंदगी में में पत्थरबाजी, आगजनी और तोड़फोड़ की घटनाएं आम बात है। नवजवानों में सुरक्षाबलों के खिलाफ ज़हर और आक्रामकता पैदा की जा रही है। जानबूझकर ऐसी स्थिति गिलानी एंड कंपनी बना रही है की सुरक्षाबलों को आत्मरक्षा के लिए गोली चलानी पड़े - वे पहले पानी की बौछार फेंकते हैं, फिर रबर की गोलियां चलाते हैं। रबर की गोली भी यदि नजदीक से लगती है तो जानलेवा साबित हो सकती है , ऐसे में कोई पत्थरबाज लड़का मारा जाता है तो उसकी प्रतिक्रिया में और हिंसा भड़कती है और इस प्रकार एक दुष्चक्र चल पड़ता है और चलती रहती है गिलानी एंड कंपनी की दूकान भी .
इसी कम्पनी में एक महिला भी है जिनके बारे में जम्मू-राजधानी के सफ़र में मुझे पता चला, इनका नाम है “असिया अन्दराबी”। यह मोहतरमा कश्मीर की आज़ादी के आंदोलन (?) की प्रमुख नेता मानी जाती हैं, एक कट्टरपंथी संगठन भी चलाती हैं जिसका नाम है “दुख्तरान-ए-मिल्लत” (धरती की बेटियाँ)। अधिकतर समय यह मोहतरमा अण्डरग्राउण्ड रहती हैं और परदे के पीछे से कश्मीर के पत्थर-फ़ेंकू गिरोह को नैतिक और आर्थिक समर्थन देती रहती हैं। मसला ये है की मैडम ने घाटी के बच्चो से और युवको से शिक्षा के बहिष्कार की अपील की है, यही नहीं स्कूल कालेज जाने वालो को बाकायदा रोकती भी है, न मानो तो रूकवाती भी है, एक बयान में असिया अन्दराबी ने कहा कि “कुछ ज़िंदगियाँ गँवाना, सम्पत्ति का नुकसान और बच्चों की पढ़ाई और समय की हानि तो स्वतन्त्रता-संग्राम का एक हिस्सा हैं, इसके लिये कश्मीर के लोगों को इतनी हायतौबा नहीं मचाना चाहिये… आज़ादी के आंदोलन में हमें बड़ी से बड़ी कुर्बानी के लिये तैयार रहना चाहिये…”...क्या बात है........., आपको लग रहा होगा की कश्मीर की आज़ादी के लिये मैडम कितनी समर्पित नेता हैं.............लेकिन 30 अप्रैल 2010 को जम्मू-कश्मीर के उच्च न्यायालय में दाखिल दस्तावेजों के मुताबिक इस फ़ायरब्राण्ड नेत्रीअसिया अन्दराबी के सुपुत्र मोहम्मद बिन कासिम ने पढ़ाई के लिये मलेशिया जाने हेतु आवेदन किया है और उसे “भारतीय पासपोर्ट” चाहिये… चौंक गये, हैरान हो गये न आप? जी हाँ, भारत के विरोध में लगातार ज़हर उगलने वाली अंदराबी के बेटे को “भारतीय पासपोर्ट” चाहिये… और वह भी किसलिये? बारहवीं के बाद उच्च अध्ययन हेतु…। यानी कश्मीर में जो युवा और किशोर रोज़ाना पत्थर फ़ेंक-फ़ेंक कर, अपनी जान हथेली पर लेकर 200-300 रुपये रोज कमाते हैं, उन गलीज़ों में उनका “होनहार” शामिल नहीं होना चाहता… न वह खुद चाहती है, कि कहीं वह सुरक्षा बालो के हाथो मारा न जाये…। कैसा पाखण्ड भरा आज़ादी का आंदोलन है यह? एक तरफ़ तो कई महीनो कश्मीर के स्कूल-कॉलेज खुले नहीं हैं जिस कारण हजारों-लाखों युवा और किशोरो ने अपनी पढ़ाई का नुकसान झेला, इनके चक्कर में आकर बेचारे 200-300 रुपये के लिए पत्थर फ़ेंक रहे हैं… और दूसरी तरफ़ यह मोहतरमा लोगों को भड़काकर, खुद के बेटे को विदेश भेजने की फ़िराक में हैं…
इसी तरह के तमाम ड्रामो से भरी है ये गिलानी और इसकी कम्पनी..... नेशनल मीडिया में बैठे तमाम तत्वों को कश्मीर की कलह दिखती है पर लाखो की तादात में कश्मीर से विस्थापित हुए लोगो का दर्द कभी नहीं, आज विस्थापित जम्मू में जिस तरह रह रहे है- वो इन्हें कभी द्रवित नहीं करता.. दिल्ली में गिलानी और अरुंधती राय जैसे भारत विरोधी तत्वों की उपस्थिति और उनके जहर बुझे बयान यदि किसी दूसरे देश में हुए होते तो या तो सरकार कड़े से कड़ा कदम उठाती जिसमे जेल में डालना शायद सबसे सरल कदम होता, और अगर सरकार ऐसा न करती तो जनता में इतना गुस्सा उमड़ता कि सरकार पलट जाती, पर धन्य है हम, ……वैसे भी "आल इज वेल" हमारा नया नारा है, लेकिन ये सवाल आपके लिए ज़रूर है की आखिरकार गिलानी और अरुंधती के भारत विरोधी बयान क्या विचार स्वतंत्रता की श्रेणी में आते हैं , और क्या उन्हें इतनी सरलता के साथ स्वीकार किया जाना चाहिए था. खैर छोडिये, चलिए पता लगते है की ये साले संघी अब देश को कौन सा नुक्सान करने वाले है .अंत में Aaal iz well , Aaal iz well, Aaal iz well, Aaal iz well
गिलानी के आज़ाद कश्मीर फ्री बंटेगी शराब
"राज करेगा गिलानी " हम क्या चाहते आज़ादी जैसे नारों के बीच दिल्ली के एल टी जी सभागार आज़ाद कश्मीर का मनोरम दृश्य प्रस्तुत कर रहा था लेकिन गुस्साए कश्मीरी पंडित के नौजवान बन्दे मातरम का नारा लगाकर आज़ादी के इस महान उत्सव का रंग फीका कर रहा था .आज़ादी द ओनली वे के इस महान जलसे मे सैयद अली शाह गिलानी अपने आज़ाद कश्मीर मे न्याय और कानून व्यवस्था पर कुछ इस तरह प्रकाश डाल रहे थे "आजाद कश्मीर मे बहुसंख्यक मुसलमानों को शराब पीने की इजाजत नही होगी यानि वे शरियत के कानून से बंधे होंगे जबकि दुसरे हिन्दू ,सिख और बौध तबके को शराब पीने की पूरी आज़ादी होगी .वे जहाँ और जब चाहे शराब पी सकते है और कानून इतना सख्त होगा कि अगर धोके मे भी कोई मुसलमान किसी के शराब की बोतल तोड़ेगा तो उसे इसका हर्जाना देना होगा ." .गिलानी साहब के इस आज़ादी को समर्थन करने अरुंधती राय के आलावा देश के कई नामी अलगाववादी नेता इस समारोह मे जमा हुए थे .खालिस्तान के समर्थक से लेकर माओवाद के समर्थक ,मिज़ो विद्रोही से लेकर नागा विद्रोही हर ने भारतीय अस्मिता को रौंदते हुए भारत की संप्रभुता और अखंडता पर सवाल उठाने मे कोई कसर नही छोड़ी .क्योंकि ये भारत है, क्योंकि प्रजातंत्र मे इन्हें कुछ भी बोलने किसी भी मत का प्रचार करने का पूरा हक है .देश का कानून भले ही इसका इजाजत नही दे लेकिन फिर बुद्धिजीवी कहलाने का मतलब क्या होगा अगर इन्होने कुछ अलग नही कहा .सो खालिस्तान समर्थक बुद्धिजीवी ने इंडिया एज ए नेशन को बकवास करार दिया तो गिलानी ने अपनी तुलना सुभाष चन्द्र बोस से की .अरुंधती राय ने देश के तमाम अलगाववादियों और विद्रोहियों से कश्मीर को आजाद कराने और गिलानी के हाथ मजबूत करने की अपील की .कई नामी गिरामी प्रोफेसर कई नामी गिरामी भुत पूर्व उग्रवादी भारत के खिलाफ जहर उगलकर गिलानी के समर्थन मे महान ऐतिहासिक तथ्यों को प्रस्तुत करते नज़र आये .इस विहंगम दृश्य का अवलोकन मेरे जैसे नाचीज पत्रकार और सैकड़ो की तादाद मे उपस्थित कानून के पहरुए भी कर रहे थे लेकिन सबकी अपनी जिम्मेदारी थी अपना ज्ञान बढ़ाने के अलावा और कोई चारा नही था ,ऐसी ही कुछ मजबूरी गृह मंत्री चिदम्बरम की भी थी जो पहले तो राजधानी दिल्ली मे इस तरह के सम्मलेन पर चुप रहे अब कारवाई की बात कर रहे है लेकिन जम्मू के जसविंदर को प्रो सुजाता भद्रो की बात बेहद अपमानित लगा तो उसने मंच पर अपना जूता उछाल दिया .जसविंदर को पुलिस ने तुरंत गिरफ्तार कर लिया था लेकिन वह यह जरूर बता गया कि जम्मू कश्मीर का मतलब सिर्फ गिलानी नही है .
जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्ला ने इस घटना की निंदा करते हुए जम्हूरियत मे सबको अपनी बात रखने और बोलने की आज़ादी का सम्मान करने की नशिहत दे डाली .लेकिन दो दिन पहले मुख्यमंत्री अब्दुल्ला की विजय पुर रैली मे किसी ने ओमर अब्दुल्ला के कश्मीर पर दिए गए बयान की निंदा करने की कोशिश की तो पुलिस ने मुख्यमंत्री के सामने उसकी जमकर धुनाई कर दी.शायद धारा ३७० मे किसी को मुख्यमंत्री के खिलाफ बोलने की आज़ादी नही है .इसी धारा ३७० की व्याख्या करते हुए ओमर अब्दुल्ला कहते है कि रियासते जम्मू कश्मीर का पूर्ण विलय अभी भारत के साथ नही हुआ है .अब्दुल्ला मानते है कि भारत के साथ जम्मू कश्मीर का इह्लाक कुछ शर्तों के साथ हुआ था .ओमर अब्दुल्ला आज वही बात कह रहे है जो ७० के दौर मे उनके महरूम दादा शेख अब्दुल्ला ने कहा था .तो क्या ओमर अब्दुल्ला मान रहे है कि कश्मीर मे सियासत भारत के खिलाफ माहोल बनाकर ही की जा सकती है या अपनी निष्क्रियता को छिपाने के लिए ओमर अब्दुल्ला ने भारत विरोधी बयानों का सहारा लिया है .
रियासत जम्मू कश्मीर का भारत मे विलय मुल्क के ६०० राजे रजवाड़े के विलय की एक कड़ी थी. लेकिन कश्मीर मे मुस्लिम बहुसंख्यक मे थे इसलिए पाकिस्तान यहाँ अपना सियासी आधार लगातार दुढ़ता रहा .उधर कश्मीर के सियासत दा लगातार इस कोशिश मे रहे कि कश्मीर को लेकर भारत पर एक दवाब बना रहे .१९४८ से लेकर १९७५ तक इसी दवाब को जारी रखने के लिए शेख अब्दुल्ला ने कई बार अपना सियासी पैतरा बदला .जब कभी भी कश्मीर मे शेख अब्दुल्ला को अपना अस्तित्वा खतरे मे पड़ते दिखा उसने भारत के खिलाफ जहर उगलना शुरू कर दिया .लेकिन कभी भी कश्मीर मे लोकतंत्र को विकसित नही होने दिया .४०० से ज्यादा बोली ५० से ज्यादा धार्मिक मान्यता मानने वाले लोग ,अलग अलग संस्कृति अलग क्षेत्र अलग पहचान लेकिन रियासत मे सियासत की डोर हमेशा कश्मीर के ७ जिलो के संपन्न सुन्नी मुस्लिम तबके के हाथ रही .तक़रीबन २० फिसद की आवादी वाला यह समुदाय मुख्यधारा की सियासत मे अपनी पकड़ बनाने मे कामयाबी पायी तो कश्मीर मे अलगाववाद की सियासत को इसी तबके ने चलाया .बन्दूक उठाने वाले लोग भी इसी तबके से थे तो मौजूदा दौर मे पत्थर उठाने वाले नौजवान भी इसी तबके से है . सरकार मे आला अधिकारी से लेकर निचले स्तर के अहलकारो मे इसी तबके का बोलवाला है .इस हालत मे यह सवाल उठाना लाजिमी है कि क्या कश्मीर के पंडित समुदाय ,गुज्जर बकरवाल ,सिया समुदाय ,जम्मू के हिन्दू ,लदाख के बौध शायद इसलिए अपनी सियासी आधार मजबूत नही कर पाए क्योंकि इनका लगाव भारत से है या फिर भारत की सियासत ने इन्हें अपना मानकर इन्हें त्रिस्क्रित कर दिया है .कश्मीर के लोग अपना ऐतिहासिक आधार राज्तार्न्गिनी मे ढूंढ़ते है .वे अपने को भारत की परंपरा की एक मजबूत कड़ी मानते है .क्या इस ऐतिहासिक तथ्य को झुठलाया जा सकता है .क्या आज़ादी की बात करने वाले लोगों को नही पता है कि वे जिस संयुक्त राष्ट्र का हवाला देते है उसके रेजोलुसों मे भारत या पाकिस्तान किसी एक को चुनने की बात की गयी है .आज़ादी वहां कोई विकल्प नही है .क्या उन्हें नही पता कि जनमत संग्रह कराने के लिए पाकिस्तान कभी तैयार नही होगा क्योंकि उसे अपने कब्जे के कश्मीर से अपनी फौज हटानी होगी .आज गिलगित बल्तिस्तान पाकिस्तान का एक प्रान्त का दर्जा पा चुका है तो पाकिस्तान मक्बुजा कश्मीर की पूरी आवादी ही बदल गयी है .लेकिन फिर अगर गिलानी रायशुमारी की बात कर रहे है तो जाहिर है वे कश्मीर के लोगों को गुमराह कर रहे है .ऐसी गुमराह करने वाली बाते ओमर अब्दुल्ला भी कर रहे है तो इनकी सियासत को समझा जा सकता है .
लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या वाकई मे भारत के आमलोगों को कश्मीर की जरूरत है .क्या कश्मीर की अपार खनिज संपदा भारत को आर्थिक ताक़त बना सकता है ?आज भारत के आर्थिक संसाधन का सबसे ज्यादा उपयोग कश्मीर के लोग कर रहे है .भारत की आर्थिक संसाधनो की सबसे ज्यादा लूट इसी कश्मीर मे है लेकिन यहाँ के सियासतदान इस लूट को छिपाने के लिए भारत जब तब नशिहत भी देते है .पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला कहते है कि रियासत अपने संसाधनों से अपने कर्मचारियों को एक महीने की तनख्वा भी नही दे सकती है इस संसाधन से आम लोगों की तरक्की की बात तो सोची भी नही जा सकती लेकिन फिर भी फारूक साहब को ऑटोनोमी चाहिए तो गिलानी को आज़ादी .भारत के पैसे से फारूक साहब बनायेंगे खुशहाल कश्मीर ? तो पाकिस्तान के पैसे से गिलानी साहब बाटेंगे फ्री शराब ...
जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्ला ने इस घटना की निंदा करते हुए जम्हूरियत मे सबको अपनी बात रखने और बोलने की आज़ादी का सम्मान करने की नशिहत दे डाली .लेकिन दो दिन पहले मुख्यमंत्री अब्दुल्ला की विजय पुर रैली मे किसी ने ओमर अब्दुल्ला के कश्मीर पर दिए गए बयान की निंदा करने की कोशिश की तो पुलिस ने मुख्यमंत्री के सामने उसकी जमकर धुनाई कर दी.शायद धारा ३७० मे किसी को मुख्यमंत्री के खिलाफ बोलने की आज़ादी नही है .इसी धारा ३७० की व्याख्या करते हुए ओमर अब्दुल्ला कहते है कि रियासते जम्मू कश्मीर का पूर्ण विलय अभी भारत के साथ नही हुआ है .अब्दुल्ला मानते है कि भारत के साथ जम्मू कश्मीर का इह्लाक कुछ शर्तों के साथ हुआ था .ओमर अब्दुल्ला आज वही बात कह रहे है जो ७० के दौर मे उनके महरूम दादा शेख अब्दुल्ला ने कहा था .तो क्या ओमर अब्दुल्ला मान रहे है कि कश्मीर मे सियासत भारत के खिलाफ माहोल बनाकर ही की जा सकती है या अपनी निष्क्रियता को छिपाने के लिए ओमर अब्दुल्ला ने भारत विरोधी बयानों का सहारा लिया है .
रियासत जम्मू कश्मीर का भारत मे विलय मुल्क के ६०० राजे रजवाड़े के विलय की एक कड़ी थी. लेकिन कश्मीर मे मुस्लिम बहुसंख्यक मे थे इसलिए पाकिस्तान यहाँ अपना सियासी आधार लगातार दुढ़ता रहा .उधर कश्मीर के सियासत दा लगातार इस कोशिश मे रहे कि कश्मीर को लेकर भारत पर एक दवाब बना रहे .१९४८ से लेकर १९७५ तक इसी दवाब को जारी रखने के लिए शेख अब्दुल्ला ने कई बार अपना सियासी पैतरा बदला .जब कभी भी कश्मीर मे शेख अब्दुल्ला को अपना अस्तित्वा खतरे मे पड़ते दिखा उसने भारत के खिलाफ जहर उगलना शुरू कर दिया .लेकिन कभी भी कश्मीर मे लोकतंत्र को विकसित नही होने दिया .४०० से ज्यादा बोली ५० से ज्यादा धार्मिक मान्यता मानने वाले लोग ,अलग अलग संस्कृति अलग क्षेत्र अलग पहचान लेकिन रियासत मे सियासत की डोर हमेशा कश्मीर के ७ जिलो के संपन्न सुन्नी मुस्लिम तबके के हाथ रही .तक़रीबन २० फिसद की आवादी वाला यह समुदाय मुख्यधारा की सियासत मे अपनी पकड़ बनाने मे कामयाबी पायी तो कश्मीर मे अलगाववाद की सियासत को इसी तबके ने चलाया .बन्दूक उठाने वाले लोग भी इसी तबके से थे तो मौजूदा दौर मे पत्थर उठाने वाले नौजवान भी इसी तबके से है . सरकार मे आला अधिकारी से लेकर निचले स्तर के अहलकारो मे इसी तबके का बोलवाला है .इस हालत मे यह सवाल उठाना लाजिमी है कि क्या कश्मीर के पंडित समुदाय ,गुज्जर बकरवाल ,सिया समुदाय ,जम्मू के हिन्दू ,लदाख के बौध शायद इसलिए अपनी सियासी आधार मजबूत नही कर पाए क्योंकि इनका लगाव भारत से है या फिर भारत की सियासत ने इन्हें अपना मानकर इन्हें त्रिस्क्रित कर दिया है .कश्मीर के लोग अपना ऐतिहासिक आधार राज्तार्न्गिनी मे ढूंढ़ते है .वे अपने को भारत की परंपरा की एक मजबूत कड़ी मानते है .क्या इस ऐतिहासिक तथ्य को झुठलाया जा सकता है .क्या आज़ादी की बात करने वाले लोगों को नही पता है कि वे जिस संयुक्त राष्ट्र का हवाला देते है उसके रेजोलुसों मे भारत या पाकिस्तान किसी एक को चुनने की बात की गयी है .आज़ादी वहां कोई विकल्प नही है .क्या उन्हें नही पता कि जनमत संग्रह कराने के लिए पाकिस्तान कभी तैयार नही होगा क्योंकि उसे अपने कब्जे के कश्मीर से अपनी फौज हटानी होगी .आज गिलगित बल्तिस्तान पाकिस्तान का एक प्रान्त का दर्जा पा चुका है तो पाकिस्तान मक्बुजा कश्मीर की पूरी आवादी ही बदल गयी है .लेकिन फिर अगर गिलानी रायशुमारी की बात कर रहे है तो जाहिर है वे कश्मीर के लोगों को गुमराह कर रहे है .ऐसी गुमराह करने वाली बाते ओमर अब्दुल्ला भी कर रहे है तो इनकी सियासत को समझा जा सकता है .
लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या वाकई मे भारत के आमलोगों को कश्मीर की जरूरत है .क्या कश्मीर की अपार खनिज संपदा भारत को आर्थिक ताक़त बना सकता है ?आज भारत के आर्थिक संसाधन का सबसे ज्यादा उपयोग कश्मीर के लोग कर रहे है .भारत की आर्थिक संसाधनो की सबसे ज्यादा लूट इसी कश्मीर मे है लेकिन यहाँ के सियासतदान इस लूट को छिपाने के लिए भारत जब तब नशिहत भी देते है .पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला कहते है कि रियासत अपने संसाधनों से अपने कर्मचारियों को एक महीने की तनख्वा भी नही दे सकती है इस संसाधन से आम लोगों की तरक्की की बात तो सोची भी नही जा सकती लेकिन फिर भी फारूक साहब को ऑटोनोमी चाहिए तो गिलानी को आज़ादी .भारत के पैसे से फारूक साहब बनायेंगे खुशहाल कश्मीर ? तो पाकिस्तान के पैसे से गिलानी साहब बाटेंगे फ्री शराब ...
पूर्ण विलय के पश्चात जनमत संग्रह का औचित्य?
जम्मू-कश्मीर में आत्मनिर्णय या जनमत संग्रह कराने की मांग का कहीं कोई औचित्य नहीं है। ये मांगें किसी भी प्रकार से न तो संवैधानिक हैं और न ही मानवाधिकार की परिधि में ही कहे जाएंगे। अलगाववादियों द्वारा इस विषय को मानवाधिकार से जोड़ना केवल एक नाटक भर है। क्योंकि इससे विश्व बिरादरी का ध्यान ज्यादा आसानी से आकृष्ट किया जा सकेगा। यह सारा वितंडावाद विशुद्ध रूप से कश्मीर को हड़पने के लिए पाकिस्तानी नीति का ही एक हिस्सा है।
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के भारत आगमन से पूर्व पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी गतिविधियों में यकायक बढ़ोतरी हुई है। यहाँ तक कि कश्मीर घाटी के अलगाववादी संगठन और उसके नेता भी ज्यादा सक्रिय दिखने लगे हैं। अलगाववादी हुर्रियत नेता गिलानी का नई दिल्ली में “आजादी ही एक मात्र रास्ता” विषयक सेमीनार में शिरकत करना विश्व बिरादरी का ध्यान आकृष्ट कराने के अभियान का ही एक हिस्सा है। सेमीनार की खास बात यह रही कि इसमें कश्मीरी अलगाववाद के समर्थक कई जाने-माने बुद्धिजीवी भी भारत के खिलाफ जहर उगलने के लिए उपस्थित थे। सेमीनार में गिलानी के बोलने से पहले ही उनके सामने कुछ राष्ट्रवादी युवकों ने जूता उछाल दिया। इससे भारी शोर-शराबा हुआ, जिसको देखते हुए सेमीनार बीच में ही रोकना पड़ा। इस कारण से अलगाववादियों की सारी सोची-समझी रणनीति धरी की धरी रह गई।
ओबामा की भारत यात्रा के मद्देनजर पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी रणनीतिक दृष्टि से अमेरिका में थे। यहां पर कुरैशी ने अमेरिका से कश्मीर मसले के समाधान के लिए भारत-पाकिस्तान के बीच दखल देने का अनुरोध किया। लेकिन अमेरिका ने पाकिस्तान के अनुरोध को सुनने से ही इन्कार कर दिया। अमेरिका का कहना है कि कश्मीर मसला दो देशों के बीच का मामला है। इसलिए दोनों देशों के बीच में दखल देना या मध्यस्थता करना उसके लिए संभव नहीं है। इस तरह से अमेरिका ने कश्मीर मसले पर भारत के रुख का ही समर्थन किया है।
जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में पाकिस्तान समर्थित अलगाववादियों की मांगे विशुद्ध रूप से भारत के एक और विभाजन की पक्षधर हैं। आत्मनिर्णय के अधिकार या जनमत संग्रह और मानवाधिकार की बड़ी-बड़ी बातें तो अलगाववादियों का महज मुखौटा भर है। क्योंकि जम्मू-कश्मीर का सशर्त विलय नहीं बल्कि पूर्ण विलय हुआ है। जम्मू-कश्मीर रियासत के तत्कालीन महाराजा हरिसिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को एक विलय पत्र पर हस्ताक्षर करके उसे भारत सरकार के पास भेज दिया था। 27 अक्टूबर 1947 को भारत के गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन द्वारा इस विलय पत्र को उसी रूप में तुरन्त स्वीकार कर लिया गया था। यहाँ इस बात का विशेष महत्व है कि महाराजा हरिसिंह का यह विलय पत्र भारत की शेष 560 रियासतों से किसी भी प्रकार से भिन्न नहीं था और इसमें कोई पूर्व शर्त भी नहीं रखी गई थी।
प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने देशहित को अनदेखा करते हुए इस विलय को राज्य की जनता के निर्णय के साथ जोड़ने की घोषणा करके अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल की। इस हेतु 26 नवंबर 1949 को संविधानसभा में अनुच्छेद-370 का प्रावधान रखा गया, जिसके कारण इस राज्य को विशेष दर्जा प्राप्त हुआ। विशेष बात यह है कि राज्य को अपना संविधान रखने की अनुमति दी गई। भारतीय संसद के कानून लागू करने वाले अधिकारों को इस राज्य के प्रति सीमित किया गया, जिसके अनुसार, भारतीय संसद द्वारा पारित कोई भी कानून राज्य की विधानसभा की पुष्टि के बिना यहां लागू नहीं किया जा सकता। इन्हीं सब कारणों से उस दौर के केंद्रीय विधि मंत्री डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने इस अनुच्छेद को देशहित में न मानते हुए इसके प्रति अपनी असहमति जताई थी। संविधान सभा के कई वरिष्ठ सदस्यों के विरोध के बावजूद नेहरू जी ने हस्तक्षेप कर इसे अस्थाई बताते हुए और शीघ्र समाप्त करने का आश्वासन देकर पारित करा लिया।
हम सब जानते हैं कि भारत का संविधान केवल एक नागरिकता को मान्यता प्रदान करता है लेकिन जम्मू-कश्मीर के नागरिकों की नागरिकता दोहरी है। वे भारत के नागरिक हैं और जम्मू-कश्मीर के भी। इस देश में दो विधान व दो निशान होने का प्रमुख कारण यह कथित अनुच्छेद है। सबसे बड़ी बिडंबना यह है कि 17 नवबंर 1956 को जम्मू-कश्मीर की जनता द्वारा विधिवत चुनी गई संविधान सभा ने इस विलय की पुष्टि कर दी। इसके बावजूद भी यह विवाद आज तक समाप्त नहीं हो सका है।
तत्कालीन कांग्रेस नेताओं की अदूरदर्शिता का परिणाम आज हमारे सामने है कि महाराजा द्वारा किए गए बिना किसी पूर्व शर्त के विलय को भी शेख की हठधर्मिता के आगे झुकते हुए केन्द्र सरकार द्वारा ‘जनमत संग्रह’ या ‘आत्मनिर्णय’ जैसे उपक्रमों की घोषणा से महाराजा के विलय पत्र का अपमान तो किया ही साथ-साथ स्वतंत्रता अधिनियम का भी खुलकर उल्लघंन हुआ है। इस स्वतंत्रता अधिनियम के अनुसार, राज्यों की जनता को आत्मनिर्णय का अधिकार न देते हुए केवल राज्यों के राजाओं को ही विलय के अधिकार दिए गए थे।
ये बातें एकदम सिद्ध हो चुकी हैं कि 63 वर्षों बाद भी यदि जम्मू-कश्मीर राज्य की समस्या का समाधान नहीं हो सका है तो इसके जिम्मेदार कांग्रेसी राजनेता हैं। नेहरू का कश्मीर से विशेष लगाव होना, शेख अब्दुल्ला के प्रति अत्यधिक प्रेम और महाराजा हरिसिंह के प्रति द्वेषपूर्ण व्यवहार ही ऐसे बिंदु थे, जिसके कारण कश्मीर समस्या एक नासूर बनकर समय-समय पर अत्यधिक पीड़ा देती रही है, उसी तरह समस्या के समाधान में अनुच्छेद-370 भी जनाक्रोश का विषय बनती रही है।
इस विघटनकारी अनुच्छेद को समाप्त करने की मांग देश के बुद्धिजीवियों और राष्ट्रवादियों द्वारा बराबर की जाती रही है। दूसरी ओर पंथनिरपेक्षता की आड़ में मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति करने वाले इसे हटाए जाने का विरोध करते रहे हैं। अस्थाई रूप से जोड़ा गया यह अनुच्छेद-370 गत 61 वर्षों में अपनी जड़ें गहरी जमा चुकी है। इसे समाप्त करना ही देशहित में होगा, नहीं तो देश का एक और विभाजन तय है।
अलगाववाद को शह दे रही है कांग्रेस
जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने हाल ही में अलगाववाद का समर्थन करते हुए जो बयान दिया था, वास्तव में उस बयान के बाद उनको मुख्यमंत्री पद पर बने रहने का कोई लोकतांत्रिक और नैतिक अधिकार नहीं रह गया है। उमर ने कहा था- “जम्मू-कश्मीर का पूर्ण विलय नहीं बल्कि सशर्त विलय हुआ है। इसलिए इस क्षेत्र को भारत का अविभाज्य अंग कहना उचित नहीं है। यह मसला बिना पाकिस्तान के हल नहीं किया जा सकता है।”
उमर के इस प्रकार के बयान से वहां की सरकार और अलगाववादियों में कोई अंतर नहीं रह गया है। जो मांगे अलगाववादी कर रहे हैं, उन्हीं मांगों को राज्य सरकार के मुखिया उमर भी दुहरा रहे हैं। आखिर, सैयद अली शाह गिलानी व मीरवाइज उमर फारूख सहित अन्य अलगाववादी नेताओं और राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला में क्या फर्क बचा है ?
यदि उमर अब्दुल्ला अलगाववादी भाषा बोलने के बाद भी राज्य के मुख्यमंत्री बने हुए हैं, तो इसकी प्रत्यक्ष जिम्मेदार कांग्रेस है। क्योंकि कांग्रेस के समर्थन से ही अब्दुल्ला सरकार टिकी हुई है। सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि जम्मू-कश्मीर मसले पर बातचीत के लिए केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त वार्ताकार भी उमर अब्दुल्ला की ही तरह अलगाववादी भाषा बोल रहे हैं। यानी उमर अब्दुल्ला, कांग्रेस, वार्ताकारों और राज्य के अलगाववादियों के विचार एक हैं। चारो अलगाववाद के समर्थन में हैं।
कांग्रेस भी अलगाववादियों के सुर में सुर मिला रही है। यह चिन्तनीय है। अब यह प्रश्न उठता है कि क्या कांग्रेस भी पंडित नेहरू के ही नक्शे-कदम पर चल पड़ी है ? सभी जानते हैं कि स्वतंत्रता के तत्काल बाद कबाइलियों के भेस में पाकिस्तानी आक्रमण के दौरान कश्मीर की जीती हुई लड़ाई को संयुक्त राष्ट्र में ले जाकर पंडित नेहरू ने ऐतिहासिक भूल की थी। ठीक उसी प्रकार की भूल कांग्रेस भी कर रही है। इतिहास गवाह है कि यदि पंडित नेहरू कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र में नहीं ले गए होते तो आज अपने पूरे जम्मू-कश्मीर पर भारत का ध्वज फहराता और ‘पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर’ का कहीं कोई नामोनिशान नहीं होता।
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के भारत आगमन से पूर्व पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी गतिविधियों में यकायक बढ़ोतरी हुई है। यहाँ तक कि कश्मीर घाटी के अलगाववादी संगठन और उसके नेता भी ज्यादा सक्रिय दिखने लगे हैं। अलगाववादी हुर्रियत नेता गिलानी का नई दिल्ली में “आजादी ही एक मात्र रास्ता” विषयक सेमीनार में शिरकत करना विश्व बिरादरी का ध्यान आकृष्ट कराने के अभियान का ही एक हिस्सा है। सेमीनार की खास बात यह रही कि इसमें कश्मीरी अलगाववाद के समर्थक कई जाने-माने बुद्धिजीवी भी भारत के खिलाफ जहर उगलने के लिए उपस्थित थे। सेमीनार में गिलानी के बोलने से पहले ही उनके सामने कुछ राष्ट्रवादी युवकों ने जूता उछाल दिया। इससे भारी शोर-शराबा हुआ, जिसको देखते हुए सेमीनार बीच में ही रोकना पड़ा। इस कारण से अलगाववादियों की सारी सोची-समझी रणनीति धरी की धरी रह गई।
ओबामा की भारत यात्रा के मद्देनजर पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी रणनीतिक दृष्टि से अमेरिका में थे। यहां पर कुरैशी ने अमेरिका से कश्मीर मसले के समाधान के लिए भारत-पाकिस्तान के बीच दखल देने का अनुरोध किया। लेकिन अमेरिका ने पाकिस्तान के अनुरोध को सुनने से ही इन्कार कर दिया। अमेरिका का कहना है कि कश्मीर मसला दो देशों के बीच का मामला है। इसलिए दोनों देशों के बीच में दखल देना या मध्यस्थता करना उसके लिए संभव नहीं है। इस तरह से अमेरिका ने कश्मीर मसले पर भारत के रुख का ही समर्थन किया है।
जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में पाकिस्तान समर्थित अलगाववादियों की मांगे विशुद्ध रूप से भारत के एक और विभाजन की पक्षधर हैं। आत्मनिर्णय के अधिकार या जनमत संग्रह और मानवाधिकार की बड़ी-बड़ी बातें तो अलगाववादियों का महज मुखौटा भर है। क्योंकि जम्मू-कश्मीर का सशर्त विलय नहीं बल्कि पूर्ण विलय हुआ है। जम्मू-कश्मीर रियासत के तत्कालीन महाराजा हरिसिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को एक विलय पत्र पर हस्ताक्षर करके उसे भारत सरकार के पास भेज दिया था। 27 अक्टूबर 1947 को भारत के गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन द्वारा इस विलय पत्र को उसी रूप में तुरन्त स्वीकार कर लिया गया था। यहाँ इस बात का विशेष महत्व है कि महाराजा हरिसिंह का यह विलय पत्र भारत की शेष 560 रियासतों से किसी भी प्रकार से भिन्न नहीं था और इसमें कोई पूर्व शर्त भी नहीं रखी गई थी।
प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने देशहित को अनदेखा करते हुए इस विलय को राज्य की जनता के निर्णय के साथ जोड़ने की घोषणा करके अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल की। इस हेतु 26 नवंबर 1949 को संविधानसभा में अनुच्छेद-370 का प्रावधान रखा गया, जिसके कारण इस राज्य को विशेष दर्जा प्राप्त हुआ। विशेष बात यह है कि राज्य को अपना संविधान रखने की अनुमति दी गई। भारतीय संसद के कानून लागू करने वाले अधिकारों को इस राज्य के प्रति सीमित किया गया, जिसके अनुसार, भारतीय संसद द्वारा पारित कोई भी कानून राज्य की विधानसभा की पुष्टि के बिना यहां लागू नहीं किया जा सकता। इन्हीं सब कारणों से उस दौर के केंद्रीय विधि मंत्री डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने इस अनुच्छेद को देशहित में न मानते हुए इसके प्रति अपनी असहमति जताई थी। संविधान सभा के कई वरिष्ठ सदस्यों के विरोध के बावजूद नेहरू जी ने हस्तक्षेप कर इसे अस्थाई बताते हुए और शीघ्र समाप्त करने का आश्वासन देकर पारित करा लिया।
हम सब जानते हैं कि भारत का संविधान केवल एक नागरिकता को मान्यता प्रदान करता है लेकिन जम्मू-कश्मीर के नागरिकों की नागरिकता दोहरी है। वे भारत के नागरिक हैं और जम्मू-कश्मीर के भी। इस देश में दो विधान व दो निशान होने का प्रमुख कारण यह कथित अनुच्छेद है। सबसे बड़ी बिडंबना यह है कि 17 नवबंर 1956 को जम्मू-कश्मीर की जनता द्वारा विधिवत चुनी गई संविधान सभा ने इस विलय की पुष्टि कर दी। इसके बावजूद भी यह विवाद आज तक समाप्त नहीं हो सका है।
तत्कालीन कांग्रेस नेताओं की अदूरदर्शिता का परिणाम आज हमारे सामने है कि महाराजा द्वारा किए गए बिना किसी पूर्व शर्त के विलय को भी शेख की हठधर्मिता के आगे झुकते हुए केन्द्र सरकार द्वारा ‘जनमत संग्रह’ या ‘आत्मनिर्णय’ जैसे उपक्रमों की घोषणा से महाराजा के विलय पत्र का अपमान तो किया ही साथ-साथ स्वतंत्रता अधिनियम का भी खुलकर उल्लघंन हुआ है। इस स्वतंत्रता अधिनियम के अनुसार, राज्यों की जनता को आत्मनिर्णय का अधिकार न देते हुए केवल राज्यों के राजाओं को ही विलय के अधिकार दिए गए थे।
ये बातें एकदम सिद्ध हो चुकी हैं कि 63 वर्षों बाद भी यदि जम्मू-कश्मीर राज्य की समस्या का समाधान नहीं हो सका है तो इसके जिम्मेदार कांग्रेसी राजनेता हैं। नेहरू का कश्मीर से विशेष लगाव होना, शेख अब्दुल्ला के प्रति अत्यधिक प्रेम और महाराजा हरिसिंह के प्रति द्वेषपूर्ण व्यवहार ही ऐसे बिंदु थे, जिसके कारण कश्मीर समस्या एक नासूर बनकर समय-समय पर अत्यधिक पीड़ा देती रही है, उसी तरह समस्या के समाधान में अनुच्छेद-370 भी जनाक्रोश का विषय बनती रही है।
इस विघटनकारी अनुच्छेद को समाप्त करने की मांग देश के बुद्धिजीवियों और राष्ट्रवादियों द्वारा बराबर की जाती रही है। दूसरी ओर पंथनिरपेक्षता की आड़ में मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति करने वाले इसे हटाए जाने का विरोध करते रहे हैं। अस्थाई रूप से जोड़ा गया यह अनुच्छेद-370 गत 61 वर्षों में अपनी जड़ें गहरी जमा चुकी है। इसे समाप्त करना ही देशहित में होगा, नहीं तो देश का एक और विभाजन तय है।
अलगाववाद को शह दे रही है कांग्रेस
जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने हाल ही में अलगाववाद का समर्थन करते हुए जो बयान दिया था, वास्तव में उस बयान के बाद उनको मुख्यमंत्री पद पर बने रहने का कोई लोकतांत्रिक और नैतिक अधिकार नहीं रह गया है। उमर ने कहा था- “जम्मू-कश्मीर का पूर्ण विलय नहीं बल्कि सशर्त विलय हुआ है। इसलिए इस क्षेत्र को भारत का अविभाज्य अंग कहना उचित नहीं है। यह मसला बिना पाकिस्तान के हल नहीं किया जा सकता है।”
उमर के इस प्रकार के बयान से वहां की सरकार और अलगाववादियों में कोई अंतर नहीं रह गया है। जो मांगे अलगाववादी कर रहे हैं, उन्हीं मांगों को राज्य सरकार के मुखिया उमर भी दुहरा रहे हैं। आखिर, सैयद अली शाह गिलानी व मीरवाइज उमर फारूख सहित अन्य अलगाववादी नेताओं और राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला में क्या फर्क बचा है ?
यदि उमर अब्दुल्ला अलगाववादी भाषा बोलने के बाद भी राज्य के मुख्यमंत्री बने हुए हैं, तो इसकी प्रत्यक्ष जिम्मेदार कांग्रेस है। क्योंकि कांग्रेस के समर्थन से ही अब्दुल्ला सरकार टिकी हुई है। सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि जम्मू-कश्मीर मसले पर बातचीत के लिए केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त वार्ताकार भी उमर अब्दुल्ला की ही तरह अलगाववादी भाषा बोल रहे हैं। यानी उमर अब्दुल्ला, कांग्रेस, वार्ताकारों और राज्य के अलगाववादियों के विचार एक हैं। चारो अलगाववाद के समर्थन में हैं।
कांग्रेस भी अलगाववादियों के सुर में सुर मिला रही है। यह चिन्तनीय है। अब यह प्रश्न उठता है कि क्या कांग्रेस भी पंडित नेहरू के ही नक्शे-कदम पर चल पड़ी है ? सभी जानते हैं कि स्वतंत्रता के तत्काल बाद कबाइलियों के भेस में पाकिस्तानी आक्रमण के दौरान कश्मीर की जीती हुई लड़ाई को संयुक्त राष्ट्र में ले जाकर पंडित नेहरू ने ऐतिहासिक भूल की थी। ठीक उसी प्रकार की भूल कांग्रेस भी कर रही है। इतिहास गवाह है कि यदि पंडित नेहरू कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र में नहीं ले गए होते तो आज अपने पूरे जम्मू-कश्मीर पर भारत का ध्वज फहराता और ‘पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर’ का कहीं कोई नामोनिशान नहीं होता।
कुछ भी कहने की आजादी बनाम हिंदुस्तान का जनतंत्र
भारतीय जनतंत्र ने अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर क्या वास्तव में लोगों को खुला छोड़ दिया है। एक बहुलतावादी,बहुधार्मिक एवं सांस्कृतिक समाज ने अपनी सहनशीलता से एक ऐसा वातावरण सृजित किया है जहां आप कुछ कहकर आजाद धूम सकते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के लोकतांत्रिक अधिकार का दुरूपयोग भारत में जितना और जिसतरह हो रहा है उसकी मिसाल न मिलेगी। बावजूद इसके ये ताकतें भारत के लोकतंत्र को, हमारी व्यवस्था को लांछित करने से बाज नहीं आती। क्या मामला है कि नक्सलियों के समर्थक और कश्मीर की आजादी के समर्थक एक मंच पर नजर आते हैं। क्या ये देशद्रोह नहीं है। क्या भारत की सरकार इतनी आतंकित है कि वह इन देशद्रोही विचारों के खिलाफ कुछ भी नहीं कर सकती। आखिर ये देश कैसे बचेगा। एक तरफ देश के नौ राज्यों में बंदूकें उठाए हुए वह हिंसक माओवादी विचार है जो 2050 में भारत की राजसत्ता की कब्जा करने का घिनौना सपना देख रहा है। दूसरी ओर वे लोग हैं जो कश्मीर की आजादी का स्वप्न दिखाकर घाटी के नौजवानों में भारत के खिलाफ जहर भर रहे हैं। किंतु देश की एकता अखंडता के खिलाफ चल रहे ये ही आंदोलन नहीं हैं। पूर्वोत्तर के राज्यों से लेकर सीमावर्ती राज्यों में अलग-अलग नामों, समूहों के रूप में अलगाववादी ताकतें सक्रिय हैं जिन्होंने विदेशी पैसे के आधार पर भारत को तोड़ने का संकल्प ले रखा है। अद्भुत यह कि इन सारे संगठनों की अलग-अलग मांगें है किंतु अंततः वे एक मंच पर हैं। यह भी बहुत बेहतर हुआ कि हुर्रियत के कट्टपंथी नेता अली शाह गिलानी और अरूंधती राय दिल्ली में एक मंच पर दिखे। इससे यह प्रमाणित हो गया कि देश को तोड़ने वाली ताकतों की आपसी समझ और संपर्क बहुत गहरे हैं।
किंतु अफसोस इस बात का है कि गणतंत्र को चलाने और राजधर्म को निभाने की जिम्मेदारी जिन लोगों पर है वे वोट बैंक से आगे की सोच नहीं पाते। वे देशद्रोह को भी जायज मानते हैं और उनके लिए अभिव्यक्ति के नाम पर कोई भी कुछ भी कहने और बकने को हर देशद्रोही आजाद है। दुनिया का कौन सा देश होगा जहां उसके देश के खिलाफ ऐसी बकवास करने की आजादी होगी। भारत ही है जहां आप भारत मां को डायन और राष्ट्रपिता को शैतान की औलाद कहने के बाद भी भारतीय राजनीति में झंडे गाड़ सकते हैं। राजनीति में आज लोकप्रिय हुए तमाम चेहरे अपने गंदे और धटिया बयानों के आधार पर ही आगे बढ़े हैं। अभिव्यक्ति की आजादी का ऐसा दुरूपयोग निश्चय ही दुखद है। गिलानी लगातार भारत विरोधी बयान दे रहे हैं किंतु उनके खिलाफ हमारी सरकार के पास कोई रास्ता नहीं है। वे देश की राजधानी में आकर भारत विरोधी बयान दें और जहर बोने का काम करें किंतु हमारी सरकारें खामोश हैं। गिलानी का कहना है कि “ घाटी ही नहीं जम्मू और लद्दाख के लोगों को भी हिंदुस्तान के बलपूर्वक कब्जे से आजादी चाहिए। राज्य के मुसलमानों ही नहीं हिंदुओं और सिखों को भी आत्मनिर्णय का हक चाहिए।”ऐसे कुतर्क देने वाले गिलानी बताएंगें कि वे तब कहां थे जब लाखों की संख्या में कश्मीरी पंडितो को घाटी छोड़कर हिंदुस्तान के तमाम शहरों में अपना आशियाना बनाना पड़ा। उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया, महिलाओं को अपमानित किया गया। जिन पत्थर बाजों को वे आजादी का योद्धा बता रहे हैं वे ही जब श्रीनगर में सिखों के घरों पर पत्थर फेंककर उन्हें गालियां दे रहे थे, तो वे कहां थे। इन पत्थरबाजों और आतंकियों ने वहां के सिखों को घमकी दी कि वे या तो इस्लाम कबूल करें या घाटी छोड़ दें। तब गिलानी की नैतिकता कहां थी। आतंक और भय के व्यापारी ये पाकपरस्त नेता भारत ही नहीं घाटी के नौजवानों के भी दुश्मन हैं जिन्होंने घरती के स्वर्ग कही जाने धरती को नरक बना दिया है। दिल्ली में गिलानी पर जूते फेंकने की घटना को उचित नहीं ठहराया जा सकता किंतु एक आक्रोशित हिंदुस्तानी के पास विकल्प क्या है। जब वह देखता है उसकी सरकार संसद पर हमले के अपराधी को फांसी नहीं दे सकती, लाखों हिंदूओं को घाटी छोड़नी पड़े और वे अपने ही देश में शरणार्थी हो जाएं, पाकपरस्तों की तूती बोल रही हो, देश को तोड़ने के सारे षडयंत्रकारी एक होकर खड़ें हों तो विकल्प क्या हैं। एक आम हिंदुस्तानी मणिपुर के मुईया, दिल्ली के बौद्धिक चेहरे अरूंधती, घाटी के गिलानी, बंगाल के छत्रधर महतो के खिलाफ क्या कर सकता है। हमारी सरकारें न जाने किस कारण से भारत विरोधी ताकतों को पालपोस कर बड़ा कर रही हैं। जिनको फांसी होनी चाहिए वे जेलों में बिरयानी खा रहे हैं, जिन्हें जेल में होना चाहिए वे दिल्ली की आभिजात्य बैठकों में देश को तोडने के लिए भाषण कर रहे हैं। एक आम हिंदुस्तानी इन ताकतवरों का मुकाबला कैसे करे। जो अपना घर वतन छोड़कर दिल्ली में शरणार्थी हैं,वे अपनी बात कैसे कहें। उनसे मुकाबला कैसे करें जिन्हें पाकिस्तान की सरकार पाल रही है और हिंदुस्तान की सरकार उनकी मिजाजपुर्सी में लगी है। कश्मीर का संकट दरअसल उसी देशतोड़क द्विराष्ट्रवाद की मानसिकता से उपजा है जिसके चलते भारत का विभाजन हुआ। पाकिस्तान और द्विराष्ट्रवाद की समर्थक ताकतें यह कैसे सह सकती हैं कि कोई भी मुस्लिम बहुल इलाका हिंदुस्तान के साथ रहे। किंतु भारत को यह मानना होगा कि कश्मीर में उसकी पराजय आखिरी पराजय नहीं होगी। इससे हिदुस्तान में रहने वाले हिंदु-मुस्लिम रिश्तों की नींव हिल जाएगी और सामाजिक एकता का ताना-बाना खंड- खंड हो जाएगा। इसलिए भारत को किसी भी तरह यह लड़ाई जीतनी है। उन लोगों को जो देश के संविधान को नहीं मानते, देश के कानून को नहीं मानते उनके खिलाफ हमें किसी भी सीमा तक जाना पड़े तो जाना चाहिए।
किंतु अफसोस इस बात का है कि गणतंत्र को चलाने और राजधर्म को निभाने की जिम्मेदारी जिन लोगों पर है वे वोट बैंक से आगे की सोच नहीं पाते। वे देशद्रोह को भी जायज मानते हैं और उनके लिए अभिव्यक्ति के नाम पर कोई भी कुछ भी कहने और बकने को हर देशद्रोही आजाद है। दुनिया का कौन सा देश होगा जहां उसके देश के खिलाफ ऐसी बकवास करने की आजादी होगी। भारत ही है जहां आप भारत मां को डायन और राष्ट्रपिता को शैतान की औलाद कहने के बाद भी भारतीय राजनीति में झंडे गाड़ सकते हैं। राजनीति में आज लोकप्रिय हुए तमाम चेहरे अपने गंदे और धटिया बयानों के आधार पर ही आगे बढ़े हैं। अभिव्यक्ति की आजादी का ऐसा दुरूपयोग निश्चय ही दुखद है। गिलानी लगातार भारत विरोधी बयान दे रहे हैं किंतु उनके खिलाफ हमारी सरकार के पास कोई रास्ता नहीं है। वे देश की राजधानी में आकर भारत विरोधी बयान दें और जहर बोने का काम करें किंतु हमारी सरकारें खामोश हैं। गिलानी का कहना है कि “ घाटी ही नहीं जम्मू और लद्दाख के लोगों को भी हिंदुस्तान के बलपूर्वक कब्जे से आजादी चाहिए। राज्य के मुसलमानों ही नहीं हिंदुओं और सिखों को भी आत्मनिर्णय का हक चाहिए।”ऐसे कुतर्क देने वाले गिलानी बताएंगें कि वे तब कहां थे जब लाखों की संख्या में कश्मीरी पंडितो को घाटी छोड़कर हिंदुस्तान के तमाम शहरों में अपना आशियाना बनाना पड़ा। उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया, महिलाओं को अपमानित किया गया। जिन पत्थर बाजों को वे आजादी का योद्धा बता रहे हैं वे ही जब श्रीनगर में सिखों के घरों पर पत्थर फेंककर उन्हें गालियां दे रहे थे, तो वे कहां थे। इन पत्थरबाजों और आतंकियों ने वहां के सिखों को घमकी दी कि वे या तो इस्लाम कबूल करें या घाटी छोड़ दें। तब गिलानी की नैतिकता कहां थी। आतंक और भय के व्यापारी ये पाकपरस्त नेता भारत ही नहीं घाटी के नौजवानों के भी दुश्मन हैं जिन्होंने घरती के स्वर्ग कही जाने धरती को नरक बना दिया है। दिल्ली में गिलानी पर जूते फेंकने की घटना को उचित नहीं ठहराया जा सकता किंतु एक आक्रोशित हिंदुस्तानी के पास विकल्प क्या है। जब वह देखता है उसकी सरकार संसद पर हमले के अपराधी को फांसी नहीं दे सकती, लाखों हिंदूओं को घाटी छोड़नी पड़े और वे अपने ही देश में शरणार्थी हो जाएं, पाकपरस्तों की तूती बोल रही हो, देश को तोड़ने के सारे षडयंत्रकारी एक होकर खड़ें हों तो विकल्प क्या हैं। एक आम हिंदुस्तानी मणिपुर के मुईया, दिल्ली के बौद्धिक चेहरे अरूंधती, घाटी के गिलानी, बंगाल के छत्रधर महतो के खिलाफ क्या कर सकता है। हमारी सरकारें न जाने किस कारण से भारत विरोधी ताकतों को पालपोस कर बड़ा कर रही हैं। जिनको फांसी होनी चाहिए वे जेलों में बिरयानी खा रहे हैं, जिन्हें जेल में होना चाहिए वे दिल्ली की आभिजात्य बैठकों में देश को तोडने के लिए भाषण कर रहे हैं। एक आम हिंदुस्तानी इन ताकतवरों का मुकाबला कैसे करे। जो अपना घर वतन छोड़कर दिल्ली में शरणार्थी हैं,वे अपनी बात कैसे कहें। उनसे मुकाबला कैसे करें जिन्हें पाकिस्तान की सरकार पाल रही है और हिंदुस्तान की सरकार उनकी मिजाजपुर्सी में लगी है। कश्मीर का संकट दरअसल उसी देशतोड़क द्विराष्ट्रवाद की मानसिकता से उपजा है जिसके चलते भारत का विभाजन हुआ। पाकिस्तान और द्विराष्ट्रवाद की समर्थक ताकतें यह कैसे सह सकती हैं कि कोई भी मुस्लिम बहुल इलाका हिंदुस्तान के साथ रहे। किंतु भारत को यह मानना होगा कि कश्मीर में उसकी पराजय आखिरी पराजय नहीं होगी। इससे हिदुस्तान में रहने वाले हिंदु-मुस्लिम रिश्तों की नींव हिल जाएगी और सामाजिक एकता का ताना-बाना खंड- खंड हो जाएगा। इसलिए भारत को किसी भी तरह यह लड़ाई जीतनी है। उन लोगों को जो देश के संविधान को नहीं मानते, देश के कानून को नहीं मानते उनके खिलाफ हमें किसी भी सीमा तक जाना पड़े तो जाना चाहिए।
है किसी में दम….
-जो पाकिस्तान की जमीं पर खड़ा होकर हिन्दुस्तान जिंदाबाद-पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगा सके
-जो लाहौर में खड़ा होकर पाकिस्तानी अवाम को गाली दे सके
-जो इस्लामाबाद की सड़कों पर तिरंगा लहरा सके
-जो कराची में रहकर पाकिस्तानी फौज को पाकिस्तानी कुत्ता कह सके
शायद जवाब मिलेगा (ना), मेरा भी जवाब है (ना)। और अगर ऐसी हिम्मत करने की कोई सोच भी ले तो अंजाम क्या होगा ये सब जानते हैं, बताने की जरूरत नहीं। पाकिस्तान ही क्या कोई भी मुल्क अपनी जमीं पर ऐसा किसी भी सूरत में नहीं होने देगा सिवाय हिंदुस्तान को छोड़ के। जी हां, सारी दुनिया में हिंदुस्तान ही ऐसा इकलौता मुल्क है जहां सब कुछ मुमकिन है यानि ‘इट्स हैपिंड ऑनली इन इण्डिया’। यहां की जमीं पर पाकिस्तान जिंदाबाद -हिंदुस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाने की पूरी आजादी है, कहने को कश्मीर हमारा है पर यहां तिरंगा जलाने और पाकिस्तानी झंडे को लहराने की पूरी छूट है, यहां भारतीय फौज को जी भर के गाली दी जा सकती है। ऐसा क्यों है? तो तर्क समझ लीजिए – क्योंकि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है, दूसरा तर्क – यह धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, तीसरा तर्क – यहां हर किसी को अपने अधिकारों के लिए लड़ने का पूरा हक है (चाहे वो राष्ट्रविरोधी हक क्यों न हो)। ऐसे तमाम तर्क आपको मिल जाएंगे जो आपके गले उतरें या ना उतरें। अब ताजा उदाहरण 21अक्टूबर दिन गुरूवार दिल्ली स्थित एलटीजी सभागार में आयोजित उस सेमीनार का ही ले लीजिए जिसमें ऑल इण्डिया हुर्रियत कांफ्रेंस के चेयरमेन व अलगाववादी नेता जनाब सैयद अली शाह गिलानी, माओवादियों की तरफदारी करने वाली अरूंधती रॉय, संसद पर हमले के आरोपी रहे और बाद में सबूतों के अभाव में बरी कर दिये गये प्रो. एसएआर गिलानी, जाने माने नक्सल समर्थक वारा वारा राव जैसी राष्ट्रविरोधी शख्सियत मौजूद थी। सम्मेलन का विषय था ‘कश्मीर-आजादी द ऑनली वे’। अब आप अंदाजा लगाइये ‘विषय’ पर और चर्चा करने के लिए जुटी इस जमात पर। इस जमात में शामिल थे अलगाववादी, नक्सलवादी, खालिस्तानी सरगना और समथर्क।
यह सब कश्मीर में नहीं बल्कि देश की राजधानी में हो रहा था। अब इसे विखंडित देश का सपना देखने वाले इन ‘देशभक्तों’ का साहस कहें या इनके साहस की हौसला अफजाई के लिए दिल्ली में बैठी ताकतों का दुस्साहस। ये वही सैयद अली शाह गिलानी है जिसके एक इशारे पर भारतीय फौज पर पत्थर बाजी शुरू हो जाती है, जिसके इशारे पर श्रीनगर में तिरंगे को जूते-चप्पलों से घसीटकर जला दिया जाता है, जनाब की रैली में लहराते हैं पाकिस्तानी झंडे और हिंदुस्तान- मुर्दाबाद, पाकिस्तान -जिदांबाद के नारों से गूंजने लगती है घाटी। ये जब चाहें घाटी को बंद करने का फरमान जारी कर देते हैं। हाल ही में गिलानी का एक वीडियो मैंने भी देखा है जिसमें कश्मीरी अवाम और ये एक सुर में चीख चीख कर कह रहे हैं – हम पाकिस्तानी हैं- पाकिस्तान हमारा है। इन नारों से घाटी गूंज रही है। 29 अक्टूबर 1929 को उत्तरी कश्मीर के बांदीपुरा में जन्मे गिलानी को पाकिस्तान का घोषित रूप से एजेंट माना जाता है। क्योंकि शुरूआती तालीम को छोड़ दें तो स्नातक तक की पढ़ाई इन्होंने ऑरिएंटल कॉलेज लाहौर से की है। जाहिर सी बात है रग रग में पाकिस्तान की भारत विरोधी तालीम भरी पड़ी है। पांच बेटी और दो बेटे (नसीम और नईम) के पिता जनाब गिलानी साहब ऑल पार्टीज हुर्रियत कॉफ्रेंस के चेयरमेन हैं और तहरीक-ए-हुर्रियत नाम की अपनी पार्टी चला रहे हैं। इनका और इनकी पार्टी का वजूद सिर्फ भारत विरोध पर टिका हुआ है। कश्मीर को भारत से अलग करना और पाकिस्तान की छत्र छाया में आगे बढ़ना इनका सपना है। घाटी में पाकिस्तानी मंसूबा इन्हीं की बदौलत पूरा होता है। गिलानी की अकड़ का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है, हाल ही में घाटी के बिगड़ते हालात पर प्र्रधानमंत्री ने एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल को घाटी में भेजा था, जनाब ने किसी भी तरह की बातचीत से मना कर दिया था। प्रधनमंत्री की मनुहार पर भी नहीं माने। आखिरकार दल के कुछ नुमाइंदे घुटने के बल इनकी चौखट पर नाक रगड़ने पंहुचे। क्योंकि ये सरकार की कमजोरी-मजबूरी से वाकिफ हैं। सरकार इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती, ये सरकार का मुस्लिम समीकरण जरूर बिगाड़ सकते हैं। बावजूद इसके सरकार ने इनकी हिफाजत के लिए स्पेशल सिक्योरिटी दे रखी है। अब जनाब कश्मीर की वादियों से निकलकर दिल्ली में अपनी दहशतगर्दी की दुकान खोलने की तैयारी में हैं। तभी तो ‘आजादी द ऑनली वे’ के बहाने अपनी राष्ट्र विरोधी सोच का मंच दिल्ली में तैयार करने का साहस किया है। और जब चोर-चोर मौसरे भाई (अलगाववादी, नक्सलवादी, खालिस्तानी) एक साथ मिल जाएं तब तो खूब जमेगी, कामयाबी भी मिलनी तय है। इस सम्मेलन में जो लोग इकठ्ठा हुए वो सब के सब देश के गद्दार हैं। लेकिन उनकी मुखालफत करने की हिम्मत किस में है? अगर कोई करेगा भी तो इस देश के तथाकथित और स्वयंभू ‘सेकुलरवादी’ उसे साम्प्रदायिक बता डालेंगे। भगवावादी की श्रेणी में रख देंगे। क्योंकि जब सम्मेलन में गिलानी का विरोध करने कश्मीरी पंडित पंहुचे तो सरकार की तरफ से तुरंत बयान आया कि ये भाजयुमो के कार्यकर्ता थे। यानि सरकार ने कश्मीरी पंडितों के मुंह पर ही थूक दिया। देश के इन गद्दारों पर आंखें बंद कर सब चुप्पी साधे रहें, हैरानी होती है। अब अगर मेरे इस लेख को भी पढ़कर तथाकथित देश के बुद्धिजीवी सांप्रदायिक लेख करार दें तो मेरे लिए हैरानी की बात नहीं होगी। क्योंकि ‘इट्स हैपिंड ऑनली इन इण्डिया’।
-विशाल आनंद
-जो लाहौर में खड़ा होकर पाकिस्तानी अवाम को गाली दे सके
-जो इस्लामाबाद की सड़कों पर तिरंगा लहरा सके
-जो कराची में रहकर पाकिस्तानी फौज को पाकिस्तानी कुत्ता कह सके
शायद जवाब मिलेगा (ना), मेरा भी जवाब है (ना)। और अगर ऐसी हिम्मत करने की कोई सोच भी ले तो अंजाम क्या होगा ये सब जानते हैं, बताने की जरूरत नहीं। पाकिस्तान ही क्या कोई भी मुल्क अपनी जमीं पर ऐसा किसी भी सूरत में नहीं होने देगा सिवाय हिंदुस्तान को छोड़ के। जी हां, सारी दुनिया में हिंदुस्तान ही ऐसा इकलौता मुल्क है जहां सब कुछ मुमकिन है यानि ‘इट्स हैपिंड ऑनली इन इण्डिया’। यहां की जमीं पर पाकिस्तान जिंदाबाद -हिंदुस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाने की पूरी आजादी है, कहने को कश्मीर हमारा है पर यहां तिरंगा जलाने और पाकिस्तानी झंडे को लहराने की पूरी छूट है, यहां भारतीय फौज को जी भर के गाली दी जा सकती है। ऐसा क्यों है? तो तर्क समझ लीजिए – क्योंकि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है, दूसरा तर्क – यह धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, तीसरा तर्क – यहां हर किसी को अपने अधिकारों के लिए लड़ने का पूरा हक है (चाहे वो राष्ट्रविरोधी हक क्यों न हो)। ऐसे तमाम तर्क आपको मिल जाएंगे जो आपके गले उतरें या ना उतरें। अब ताजा उदाहरण 21अक्टूबर दिन गुरूवार दिल्ली स्थित एलटीजी सभागार में आयोजित उस सेमीनार का ही ले लीजिए जिसमें ऑल इण्डिया हुर्रियत कांफ्रेंस के चेयरमेन व अलगाववादी नेता जनाब सैयद अली शाह गिलानी, माओवादियों की तरफदारी करने वाली अरूंधती रॉय, संसद पर हमले के आरोपी रहे और बाद में सबूतों के अभाव में बरी कर दिये गये प्रो. एसएआर गिलानी, जाने माने नक्सल समर्थक वारा वारा राव जैसी राष्ट्रविरोधी शख्सियत मौजूद थी। सम्मेलन का विषय था ‘कश्मीर-आजादी द ऑनली वे’। अब आप अंदाजा लगाइये ‘विषय’ पर और चर्चा करने के लिए जुटी इस जमात पर। इस जमात में शामिल थे अलगाववादी, नक्सलवादी, खालिस्तानी सरगना और समथर्क।
यह सब कश्मीर में नहीं बल्कि देश की राजधानी में हो रहा था। अब इसे विखंडित देश का सपना देखने वाले इन ‘देशभक्तों’ का साहस कहें या इनके साहस की हौसला अफजाई के लिए दिल्ली में बैठी ताकतों का दुस्साहस। ये वही सैयद अली शाह गिलानी है जिसके एक इशारे पर भारतीय फौज पर पत्थर बाजी शुरू हो जाती है, जिसके इशारे पर श्रीनगर में तिरंगे को जूते-चप्पलों से घसीटकर जला दिया जाता है, जनाब की रैली में लहराते हैं पाकिस्तानी झंडे और हिंदुस्तान- मुर्दाबाद, पाकिस्तान -जिदांबाद के नारों से गूंजने लगती है घाटी। ये जब चाहें घाटी को बंद करने का फरमान जारी कर देते हैं। हाल ही में गिलानी का एक वीडियो मैंने भी देखा है जिसमें कश्मीरी अवाम और ये एक सुर में चीख चीख कर कह रहे हैं – हम पाकिस्तानी हैं- पाकिस्तान हमारा है। इन नारों से घाटी गूंज रही है। 29 अक्टूबर 1929 को उत्तरी कश्मीर के बांदीपुरा में जन्मे गिलानी को पाकिस्तान का घोषित रूप से एजेंट माना जाता है। क्योंकि शुरूआती तालीम को छोड़ दें तो स्नातक तक की पढ़ाई इन्होंने ऑरिएंटल कॉलेज लाहौर से की है। जाहिर सी बात है रग रग में पाकिस्तान की भारत विरोधी तालीम भरी पड़ी है। पांच बेटी और दो बेटे (नसीम और नईम) के पिता जनाब गिलानी साहब ऑल पार्टीज हुर्रियत कॉफ्रेंस के चेयरमेन हैं और तहरीक-ए-हुर्रियत नाम की अपनी पार्टी चला रहे हैं। इनका और इनकी पार्टी का वजूद सिर्फ भारत विरोध पर टिका हुआ है। कश्मीर को भारत से अलग करना और पाकिस्तान की छत्र छाया में आगे बढ़ना इनका सपना है। घाटी में पाकिस्तानी मंसूबा इन्हीं की बदौलत पूरा होता है। गिलानी की अकड़ का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है, हाल ही में घाटी के बिगड़ते हालात पर प्र्रधानमंत्री ने एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल को घाटी में भेजा था, जनाब ने किसी भी तरह की बातचीत से मना कर दिया था। प्रधनमंत्री की मनुहार पर भी नहीं माने। आखिरकार दल के कुछ नुमाइंदे घुटने के बल इनकी चौखट पर नाक रगड़ने पंहुचे। क्योंकि ये सरकार की कमजोरी-मजबूरी से वाकिफ हैं। सरकार इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती, ये सरकार का मुस्लिम समीकरण जरूर बिगाड़ सकते हैं। बावजूद इसके सरकार ने इनकी हिफाजत के लिए स्पेशल सिक्योरिटी दे रखी है। अब जनाब कश्मीर की वादियों से निकलकर दिल्ली में अपनी दहशतगर्दी की दुकान खोलने की तैयारी में हैं। तभी तो ‘आजादी द ऑनली वे’ के बहाने अपनी राष्ट्र विरोधी सोच का मंच दिल्ली में तैयार करने का साहस किया है। और जब चोर-चोर मौसरे भाई (अलगाववादी, नक्सलवादी, खालिस्तानी) एक साथ मिल जाएं तब तो खूब जमेगी, कामयाबी भी मिलनी तय है। इस सम्मेलन में जो लोग इकठ्ठा हुए वो सब के सब देश के गद्दार हैं। लेकिन उनकी मुखालफत करने की हिम्मत किस में है? अगर कोई करेगा भी तो इस देश के तथाकथित और स्वयंभू ‘सेकुलरवादी’ उसे साम्प्रदायिक बता डालेंगे। भगवावादी की श्रेणी में रख देंगे। क्योंकि जब सम्मेलन में गिलानी का विरोध करने कश्मीरी पंडित पंहुचे तो सरकार की तरफ से तुरंत बयान आया कि ये भाजयुमो के कार्यकर्ता थे। यानि सरकार ने कश्मीरी पंडितों के मुंह पर ही थूक दिया। देश के इन गद्दारों पर आंखें बंद कर सब चुप्पी साधे रहें, हैरानी होती है। अब अगर मेरे इस लेख को भी पढ़कर तथाकथित देश के बुद्धिजीवी सांप्रदायिक लेख करार दें तो मेरे लिए हैरानी की बात नहीं होगी। क्योंकि ‘इट्स हैपिंड ऑनली इन इण्डिया’।
-विशाल आनंद
मुझे तुमसे नफरत है अरुंधती
उसका बस चले तो वो हिंदुस्तान के सिर्फ इसलिए टुकड़े-टुकड़े कर दे क्यूंकि ऐसा करने से वो भीड़ से अलग नजर आएगी, उसके पास हत्याओं को वाजिब ठहराने के तमाम तर्क हमेशा मौजूद रहते हैं, क्यूंकि इसे वो खुद को महान साबित करने का औजार समझती है, संभव है इसके बहाने वो नोबेल पुरस्कार पाने की कोशिश कर रही हो। वो वामपंथ का वो क्रूर चेहरा है जिसका इस्तेमाल मीडिया कभी अपनी टीआरपी बढाने में तो कभी व्यवस्था के विरुद्ध अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए करती है। संभव है बहुतों को उससे मोहब्बत हो लेकिन मैं उससे नफरत करता हूँ, क्यूंकि उसे राष्ट्र के अस्तित्व से ही नफरत है। हम बात अरुंधती राय की कर रहे हैं, वो अरुंधती जिसे हिन्दुस्तान भूखे नंगों का हिंदुस्तान नजर आता है वो अरुंधती जिसे सैकड़ों वर्षों तक गुलाम रहे देश में खड़ी समस्याओं में देश की बेचारगी नजर नहीं आती, क्यूंकि इसका जिम्मेदार वो लोकतंत्र को मानती है। क्यूंकि ये वही लोकतंत्र है जहाँ वो खुलेआम माओवादी हत्याओं को जायज ठहरा सकती है क्यूंकि ये वही लोकतंत्र है जहाँ पर वो संसद भवन पर हमला करने वालों की खुलेआम तरफदारी कर सकती है क्यूंकि ये वही लोकतंत्र है जहाँ वो राजधानी में हजारों की भीड़ के बीच कश्मीर को भारत से आजाद करने का आवाहन करते हुए और युवाओं को आजादी की इस लड़ाई में शामिल होने का भाषण देने के बावजूद ठहाके लगा सकती है।
कश्मीर पर वहां की जनता का मत महत्वपूर्ण है इससे बिलकुल इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन ये भी उतना ही बड़ा सच है कि किसी को भी वहां की जनता पर जबरिया या फिर वैचारिक तौर पर गुलाम बनाकर या उनका माइंडवाश करके उन पर शासन करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता |अरुंधती जब कश्मीरियों को आजादी देने के लिए हिंदुस्तान में हिन्दू और आर्थिक अधिनायक वाद का उदाहरण देती हैं, तो ये साफ़ नजर आता है कि वो श्रीनगर में रहने वाले उन २० हजार हिन्दू परिवारों या फिर ६० हजार सिखों के साथ- साथ उन मुसलमानों के बारे में बात नहीं कर होती हैं जिन्हें आतंकवाद ने अपनी धरती ,अपना घर छोड़ने पर मजबूर कर दिया। कभी अरुंधती ने देश की जनता या फिर अपने चाहने वालों से कश्मीर में मानवाधिकारों की स्थिति पर आन्दोलन चलाने की बात तो नहीं की, हाँ पुरस्कारों के लिए कुछ निबंध या किताबें लिख डाली हो तो मैं नहीं जानता, लेकिन अरुंधती जैसे लोगों के द्वारा मानवाधिकारों की आड़ में राष्ट्र के अस्तित्व को चुनौती दिया जाना कभी कबूल नहीं किया जा सकता। मुझे याद है अभी एक साल पहले मेरे एक मित्र ने अरुंधती से जब ये सवाल किया कि आप कश्मीर फ्रीडम मूवमेंट के समर्थन में हैं तो उन्होंने कहा कि नहीं… “मैं कश्मीर के फ्रीडम मूवमेंट के समर्थन में हूं ऐसा नहीं है। मुझे लगता है कि वहां एक मिलिटरी ऑकुपेशन (सैन्य कब्जा) हैं। कश्मीर में आजादी का आंदोलन बहुत पेचीदा है। अगर मैं कहूं कि मैं उसके समर्थन में हूं तो मुझसे पूछा जाएगा कि किस मूवमेंट के। ये उन पर निर्भर करता है। एज ए पर्सन हू लिव्स इन दिस कंट्री आई कैन नॉट सपोर्ट द सेपेरेशन ऑफ पीपुल इन दिस मिलिट्री ऑकुपेशन”। और अब वही अरुंधती कहती हैं कि भारत को कश्मीर से और कश्मीर से भारत को अलग किये जाने की जरुरत है, एक ही सवाल पर बयानों में ये चरित्र का संकट ,जो अरुंधती पर निरंतर हावी होता जा रहा है।
अरुधती जैसे लोगों के अस्तित्व के लिए पूरी तौर पर समकालीन राजनीति जिम्मेदार है, वो राजनीति जिसने भ्रष्टाचार के दलदल में पैदा हुई आर्थिक विषमता और संस्कृति को ख़त्म करने के कभी इमानदार प्रयास नहीं किये, कभी ऐसे प्रयोग नहीं किये जिससे कश्मीर की जनता देश की मिटटी, देश के पानी, देश के लोगों से प्रेम कर सके, कांग्रेस (वामपंथ को देश नकार चुका है, ये इस वक्त का सबसे बड़ा सच है) ने सत्तासीन होने के बावजूद कभी भी कश्मीर और कश्मीर की अवाम की आत्मा को टटोलने और फिर उसे ठेंठ हिन्दुस्तानी बनाने के लिए किस्म भी किस्म के प्रयोग नहीं किये, और अब अरुंधती और गिलानी जैसे लोगों के हाँथ में हिंदुस्तान को कोस कर अपना खेल खेलने का अवसर दे दिया। अरुंधती और उनकी टीम हरे या फिर भगवा रंग में आतंक की खेती करने वालों के समानांतर खड़ी है।
कहते हैं कि व्यक्ति को तो माफ़ किया जा सकता है राजनीति में माफ़ी नहीं होती, हिंदुस्तान की राजनीति में जो गलतियाँ हुई उनका खामियाजा न सिर्फ कश्मीर बल्कि पूरा देश भुगत रहा है, व्यवस्था के पास बहाने हैं और झूठे अफ़साने हैं। अगर गांधी जीवित होते तो शायद कश्मीर में जाकर वहीँ अपना आश्रम बनाकर रहने लगते और कश्मीरियों से कहते हमें एक और मौका दो, फिर से देश को न बांटने को कहो, अगर हम दुश्मन के सर पर भी प्यार से हाँथ फेरेंगे तो ये बात कभी नहीं भूलेगा, कश्मीर और कश्मीर की अवाम हमारी अपनी है ये बात दीगर है कि पिछले बार गोडसे ने मारा इस बार अरुंधती जैसे कोई आगे आता और उनके सीने में खंजर भोंक जाता।
कश्मीर पर वहां की जनता का मत महत्वपूर्ण है इससे बिलकुल इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन ये भी उतना ही बड़ा सच है कि किसी को भी वहां की जनता पर जबरिया या फिर वैचारिक तौर पर गुलाम बनाकर या उनका माइंडवाश करके उन पर शासन करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता |अरुंधती जब कश्मीरियों को आजादी देने के लिए हिंदुस्तान में हिन्दू और आर्थिक अधिनायक वाद का उदाहरण देती हैं, तो ये साफ़ नजर आता है कि वो श्रीनगर में रहने वाले उन २० हजार हिन्दू परिवारों या फिर ६० हजार सिखों के साथ- साथ उन मुसलमानों के बारे में बात नहीं कर होती हैं जिन्हें आतंकवाद ने अपनी धरती ,अपना घर छोड़ने पर मजबूर कर दिया। कभी अरुंधती ने देश की जनता या फिर अपने चाहने वालों से कश्मीर में मानवाधिकारों की स्थिति पर आन्दोलन चलाने की बात तो नहीं की, हाँ पुरस्कारों के लिए कुछ निबंध या किताबें लिख डाली हो तो मैं नहीं जानता, लेकिन अरुंधती जैसे लोगों के द्वारा मानवाधिकारों की आड़ में राष्ट्र के अस्तित्व को चुनौती दिया जाना कभी कबूल नहीं किया जा सकता। मुझे याद है अभी एक साल पहले मेरे एक मित्र ने अरुंधती से जब ये सवाल किया कि आप कश्मीर फ्रीडम मूवमेंट के समर्थन में हैं तो उन्होंने कहा कि नहीं… “मैं कश्मीर के फ्रीडम मूवमेंट के समर्थन में हूं ऐसा नहीं है। मुझे लगता है कि वहां एक मिलिटरी ऑकुपेशन (सैन्य कब्जा) हैं। कश्मीर में आजादी का आंदोलन बहुत पेचीदा है। अगर मैं कहूं कि मैं उसके समर्थन में हूं तो मुझसे पूछा जाएगा कि किस मूवमेंट के। ये उन पर निर्भर करता है। एज ए पर्सन हू लिव्स इन दिस कंट्री आई कैन नॉट सपोर्ट द सेपेरेशन ऑफ पीपुल इन दिस मिलिट्री ऑकुपेशन”। और अब वही अरुंधती कहती हैं कि भारत को कश्मीर से और कश्मीर से भारत को अलग किये जाने की जरुरत है, एक ही सवाल पर बयानों में ये चरित्र का संकट ,जो अरुंधती पर निरंतर हावी होता जा रहा है।
अरुधती जैसे लोगों के अस्तित्व के लिए पूरी तौर पर समकालीन राजनीति जिम्मेदार है, वो राजनीति जिसने भ्रष्टाचार के दलदल में पैदा हुई आर्थिक विषमता और संस्कृति को ख़त्म करने के कभी इमानदार प्रयास नहीं किये, कभी ऐसे प्रयोग नहीं किये जिससे कश्मीर की जनता देश की मिटटी, देश के पानी, देश के लोगों से प्रेम कर सके, कांग्रेस (वामपंथ को देश नकार चुका है, ये इस वक्त का सबसे बड़ा सच है) ने सत्तासीन होने के बावजूद कभी भी कश्मीर और कश्मीर की अवाम की आत्मा को टटोलने और फिर उसे ठेंठ हिन्दुस्तानी बनाने के लिए किस्म भी किस्म के प्रयोग नहीं किये, और अब अरुंधती और गिलानी जैसे लोगों के हाँथ में हिंदुस्तान को कोस कर अपना खेल खेलने का अवसर दे दिया। अरुंधती और उनकी टीम हरे या फिर भगवा रंग में आतंक की खेती करने वालों के समानांतर खड़ी है।
कहते हैं कि व्यक्ति को तो माफ़ किया जा सकता है राजनीति में माफ़ी नहीं होती, हिंदुस्तान की राजनीति में जो गलतियाँ हुई उनका खामियाजा न सिर्फ कश्मीर बल्कि पूरा देश भुगत रहा है, व्यवस्था के पास बहाने हैं और झूठे अफ़साने हैं। अगर गांधी जीवित होते तो शायद कश्मीर में जाकर वहीँ अपना आश्रम बनाकर रहने लगते और कश्मीरियों से कहते हमें एक और मौका दो, फिर से देश को न बांटने को कहो, अगर हम दुश्मन के सर पर भी प्यार से हाँथ फेरेंगे तो ये बात कभी नहीं भूलेगा, कश्मीर और कश्मीर की अवाम हमारी अपनी है ये बात दीगर है कि पिछले बार गोडसे ने मारा इस बार अरुंधती जैसे कोई आगे आता और उनके सीने में खंजर भोंक जाता।
शनिवार, 23 अक्टूबर 2010
मुस्लिम सांसदों के दबाव में शत्रु संपत्ति (संसोधन एवं विधिमान्यकरण) विधेयक-2010 में संसोधन स्वीकृत
इस देश की राजनीति में घुन लग गया है। राष्ट्रहित उसने खूंटी से टांग दिए हैं। इस देश की सरकार सत्ता प्राप्त करने के लिए कुछ भी कर सकती है। अधिक समय नहीं बीता था जब केन्द्र सरकार ने कश्मीर के पत्थरबाजों और देशद्रोहियों को करोड़ों का पैकेज जारी किया। वहीं वर्षों से टेंट में जिन्दगी बर्बाद कर रहे कश्मीरी पंडि़तों के हित की चिंता आज तक किसी भी सरकार द्वारा नहीं की गई और न की जा रही है। मेरा एक ही सवाल है- क्या कश्मीरी पंडि़त इस देश के नागरिक नहीं है। अगर हैं तो फिर क्यों उनकी बेइज्जती की जाती है। वे शांत है, उनके वोट थोक में नहीं मिलेंगे इसलिए उनके हितों की चिंता किसी को नहीं, तभी उन्हें उनकी जमीन, मकान और स्वाभिमान भरी जिन्दगी नहीं लौटाने के प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। वहीं भारत का राष्ट्रीय ध्वज जलाने वाले, भारतीय सेना और पुलिस पर पत्थर व गोली बरसाने वालों को 100 करोड़ का राहत पैकेज देना, उदार कश्मीरी पंडि़तों के मुंह पर तमाचा है। इतने पर ही सरकार नहीं रुक रही है। इस देश का सत्यानाश करने के लिए बहुत आगे तक उसके कदम बढ़ते जा रहे हैं।
एक पक्ष को तुष्ट करने के लिए सरकार कहां तक गिर सकती है उसका हालिया उदाहरण है शत्रु संपत्ति विधेयक-2010 का विरोध करना फिर उसमें मुस्लिम नेताओं के मनमाफिक संसोधन को केन्द्रीय कैबिनेट द्वारा स्वीकृति देना। कठपुतली (पपेट) प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में बुधवार को केंद्रीय कैबिनेट की बैठक आयोजित की गई थी। इसमें इसी बैठक में केंद्रीय गृह मंत्रालय के प्रस्ताव पर शत्रु संपत्ति (संसोधन एवं विधिमान्यकरण) विधेयक-2010 में संसोधन को स्वीकृति प्रदान की गई। भारत सरकार द्वारा वर्ष 1968 में पाकिस्तान गए लोगों की संपत्ति को शत्रु संपत्ति घोषित किया गया था, इस संपत्ति पर अब भारत में रह रहे पाकिस्तान गए लोगों के कथित परिजन कब्जा पा सकेंगे। जबकि पाकिस्तान गए सभी लोगों को उनकी जमीन व भवनों का मुआवजा दिया जा चुका है। उसके बाद कैसे और क्यों ये कथित परिजन उस संपत्ति पर दावा कर सकते हैं और उसे प्राप्त कर सकते हैं।
दरअसल पाकिस्तान गए लोगों की सम्पत्ति को प्राप्त करने के लिए पहले से ही उनके कथित परिजनों द्वारा प्रयास किया जा रहा है, क्योंकि 1968 में लागू शत्रु संपत्ति अधिनियम में कुछ खामी थी। उत्तरप्रदेश में यह प्रयास बड़े स्तर पर किए जा रहे हैं। 2005 तक ही न्यायालय में 600 मामलों की सुनवाई हो चुकी है और न्यायालय ने उन्हें वांछित शत्रु संपत्ति पर कब्जा देने के निर्देश दिए हैं। शत्रु संपत्ति हथियाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में 250 और मुम्बई उच्च न्यायालय में 500 के करीब मुकदमे लंबित हैं। मैं यहां कथित परिजन का प्रयोग कर रहा हूं, उसके पीछे कारण हैं। समय-समय पर इस बात की पुष्टि हो रही है कि बड़ी संख्या में पाकिस्तानी और बांग्लादेशी मुसलमान भारत के विभिन्न राज्यों में आकर बस जाते हैं। कुछ दिन यहां रहने के बाद सत्ता लोलुप राजनेताओं और दलालों के सहयोग से ये लोग राशन कार्ड बनवा लेते हैं, मतदाता सूची में नाम जुड़वा लेते हैं। फिर कहते हैं कि वे तो सन् 1947 से पहले से यहीं रह रहे हैं।
शत्रु संपत्ति अधिनियम-1968 की खामियों को दूर करने और कथित परिजनों को शत्रु संपत्ति को प्राप्त करने से रोकने के लिए गृह राज्यमंत्री अजय माकन ने 2 अगस्त को लोकसभा में शत्रु संपत्ति (संसोधन एवं विधिमान्यकरण) विधेयक-2010 प्रस्तुत किया गया था। इस विधेयक के प्रस्तुत होने पर अधिकांशत: सभी दलों के मुस्लिम नेता एकजुट हो गए। उन्होंने विधेयक में संसोधन के लिए पपेट पीएम मनमोहन सिंह और इटेलियन मैम सोनिया गांधी पर दबाव बनाया। दस जनपथ के खासमखास अहमद पटेल, अल्पसंख्यक मंत्रालय के मंत्री सलमान खुर्शीद, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद के नेतृत्व में मुस्लिम सांसदों ने प्रधानमंत्री से मिलकर उनके कान में मंत्र फंूका कि यह विधेयक मुस्लिम विरोधी है। अगर यह मंजूर हो गया तो कांग्रेस के माथे पर मुस्लिम विरोधी होने का कलंक लग जाएगा और कांग्रेस थोक में मिलने वाले मुस्लिम वोटों से हाथ धो बैठेगा। यह बात मनमोहन सिंह को जम गई। परिणाम स्वरूप विधेयक में संसोधन कर दिया गया और उसे पाकिस्तान गए मुसलमानों के कथित परिजनों के मुफीद बना दिया गया। जिस पर बुधवार को पपेट प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई केन्द्रीय कैबिनेट की बैठक में मुहर लगा दी गई। अब स्थित अराजक हो सकती है सरकार से उन सभी ऐतिहासिक और बेशकीमती भवनों व जमीन को ये कथित परिजन छीन सकते हैं, जो अभी तक शत्रु संपत्ति थी। जबकि इनका मुआवजा पाकिस्तान गए मुसलमान पहले ही अपने साथ भारत सरकार से थैले में भर-भरकर ले जा चुके हैं।
एक पक्ष को तुष्ट करने के लिए सरकार कहां तक गिर सकती है उसका हालिया उदाहरण है शत्रु संपत्ति विधेयक-2010 का विरोध करना फिर उसमें मुस्लिम नेताओं के मनमाफिक संसोधन को केन्द्रीय कैबिनेट द्वारा स्वीकृति देना। कठपुतली (पपेट) प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में बुधवार को केंद्रीय कैबिनेट की बैठक आयोजित की गई थी। इसमें इसी बैठक में केंद्रीय गृह मंत्रालय के प्रस्ताव पर शत्रु संपत्ति (संसोधन एवं विधिमान्यकरण) विधेयक-2010 में संसोधन को स्वीकृति प्रदान की गई। भारत सरकार द्वारा वर्ष 1968 में पाकिस्तान गए लोगों की संपत्ति को शत्रु संपत्ति घोषित किया गया था, इस संपत्ति पर अब भारत में रह रहे पाकिस्तान गए लोगों के कथित परिजन कब्जा पा सकेंगे। जबकि पाकिस्तान गए सभी लोगों को उनकी जमीन व भवनों का मुआवजा दिया जा चुका है। उसके बाद कैसे और क्यों ये कथित परिजन उस संपत्ति पर दावा कर सकते हैं और उसे प्राप्त कर सकते हैं।
दरअसल पाकिस्तान गए लोगों की सम्पत्ति को प्राप्त करने के लिए पहले से ही उनके कथित परिजनों द्वारा प्रयास किया जा रहा है, क्योंकि 1968 में लागू शत्रु संपत्ति अधिनियम में कुछ खामी थी। उत्तरप्रदेश में यह प्रयास बड़े स्तर पर किए जा रहे हैं। 2005 तक ही न्यायालय में 600 मामलों की सुनवाई हो चुकी है और न्यायालय ने उन्हें वांछित शत्रु संपत्ति पर कब्जा देने के निर्देश दिए हैं। शत्रु संपत्ति हथियाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में 250 और मुम्बई उच्च न्यायालय में 500 के करीब मुकदमे लंबित हैं। मैं यहां कथित परिजन का प्रयोग कर रहा हूं, उसके पीछे कारण हैं। समय-समय पर इस बात की पुष्टि हो रही है कि बड़ी संख्या में पाकिस्तानी और बांग्लादेशी मुसलमान भारत के विभिन्न राज्यों में आकर बस जाते हैं। कुछ दिन यहां रहने के बाद सत्ता लोलुप राजनेताओं और दलालों के सहयोग से ये लोग राशन कार्ड बनवा लेते हैं, मतदाता सूची में नाम जुड़वा लेते हैं। फिर कहते हैं कि वे तो सन् 1947 से पहले से यहीं रह रहे हैं।
शत्रु संपत्ति अधिनियम-1968 की खामियों को दूर करने और कथित परिजनों को शत्रु संपत्ति को प्राप्त करने से रोकने के लिए गृह राज्यमंत्री अजय माकन ने 2 अगस्त को लोकसभा में शत्रु संपत्ति (संसोधन एवं विधिमान्यकरण) विधेयक-2010 प्रस्तुत किया गया था। इस विधेयक के प्रस्तुत होने पर अधिकांशत: सभी दलों के मुस्लिम नेता एकजुट हो गए। उन्होंने विधेयक में संसोधन के लिए पपेट पीएम मनमोहन सिंह और इटेलियन मैम सोनिया गांधी पर दबाव बनाया। दस जनपथ के खासमखास अहमद पटेल, अल्पसंख्यक मंत्रालय के मंत्री सलमान खुर्शीद, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद के नेतृत्व में मुस्लिम सांसदों ने प्रधानमंत्री से मिलकर उनके कान में मंत्र फंूका कि यह विधेयक मुस्लिम विरोधी है। अगर यह मंजूर हो गया तो कांग्रेस के माथे पर मुस्लिम विरोधी होने का कलंक लग जाएगा और कांग्रेस थोक में मिलने वाले मुस्लिम वोटों से हाथ धो बैठेगा। यह बात मनमोहन सिंह को जम गई। परिणाम स्वरूप विधेयक में संसोधन कर दिया गया और उसे पाकिस्तान गए मुसलमानों के कथित परिजनों के मुफीद बना दिया गया। जिस पर बुधवार को पपेट प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई केन्द्रीय कैबिनेट की बैठक में मुहर लगा दी गई। अब स्थित अराजक हो सकती है सरकार से उन सभी ऐतिहासिक और बेशकीमती भवनों व जमीन को ये कथित परिजन छीन सकते हैं, जो अभी तक शत्रु संपत्ति थी। जबकि इनका मुआवजा पाकिस्तान गए मुसलमान पहले ही अपने साथ भारत सरकार से थैले में भर-भरकर ले जा चुके हैं।
एक विडियो : क्या ये जनाब बात करने लायक है ?
क्या आपने सैयद अली शाह गिलानी का नाम सुना है ?
हाँ ! वो ही कश्मीर अवाम के महान नेता ….
गत माह केन्द्रीय प्रतिनिधिमंडल ने जिनके घर जाकर कश्मीर के साथ हो रहे अन्याय के लिये अफ़सोस जाहिर किया था…
कृपया ३ मिनट निकालकर इनका यह एक विडियो देखिये,
http://www.youtube.com/watch?v=KNF1xNml9ZE&feature=player_embedded#!
http://www.youtube.com/watch?v=PLkE92TpRTE&feature=related
हाँ ! वो ही कश्मीर अवाम के महान नेता ….
गत माह केन्द्रीय प्रतिनिधिमंडल ने जिनके घर जाकर कश्मीर के साथ हो रहे अन्याय के लिये अफ़सोस जाहिर किया था…
कृपया ३ मिनट निकालकर इनका यह एक विडियो देखिये,
http://www.youtube.com/watch?v=KNF1xNml9ZE&feature=player_embedded#!
http://www.youtube.com/watch?v=PLkE92TpRTE&feature=related
विदेशी पैसों पर पल रहे सेकुलर-वामपंथी बुद्धिजीवियों का एक और प्रपंच :- “कारवाँ टू फ़िलीस्तीन”…
जैसा कि अब सभी जान चुके हैं, भारत में सेकुलरों और मानवाधिकारवादियों की एक विशिष्ट जमात है, जिन्हें मुस्लिमों का विरोध करने वाला व्यक्ति अथवा देश हमेशा से “साम्प्रदायिक” और “फ़ासीवादी” नज़र आते हैं, जबकि इन्हीं सेकुलरों को सभी आतंकवादी “मानवता के मसीहा” और “मासूमियत के पुतले नज़र आते हैं। कुछ ऐसे ही ढोंगी और नकली सेकुलरों द्वारा इज़राइल की गाज़ा पट्टी नीतियों के खिलाफ़ भारत से फ़िलीस्तीन तक रैली निकालने की योजना है। 17 एशियाई देशों के “जमूरे” दिसम्बर 2010 में फ़िलीस्तीन की गाज़ा पट्टी में एकत्रित होंगे।
इज़राइल के ज़ुल्मों(?) से त्रस्त और अमेरिका के पक्षपात(?) से ग्रस्त “मासूम” फ़िलीस्तीनियों के साथ एकजुटता दिखाने के लिये इस कारवां का आयोजन रखा गया है। गाज़ा पट्टी में इज़राइल ने जो नाकेबन्दी कर रखी है, उसके विरोध में यह लोग 2 दिसम्बर से 26 दिसम्बर तक भारत, पाकिस्तान, ईरान, जोर्डन, सीरिया, लेबनान और तुर्की होते हुए गाज़ा पट्टी पहुँचेंगे औरइज़राइल का विरोध करेंगे। इस दौरान ये सभी लोग प्रेस कांफ़्रेंस करेंगे, विभिन्न राजनैतिक व्यक्तित्वों से मिलेंगे, रोड शो करेंगे और भी तमाम नौटंकियाँ करेंगे…
इस “कारवाँ टू फ़िलीस्तीन”कार्यक्रम को अब तक भारत से 51 संगठनों और कुछ “छँटे हुए” सेकुलरों का समर्थन हासिल हो चुका है जो इनके साथ जायेंगे। इनकी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि ये लोग सताये हुए फ़िलीस्तीनियों के लिये नैतिक समर्थन के साथ-साथ, आर्थिक, कूटनीतिक और “सैनिक”(?) समर्थन के लिये प्रयास करेंगे। हालांकि फ़िलहाल इन्होंने अपने कारवां के अन्तिम चरण की घोषणा नहीं की है कि ये किस बन्दरगाह से गाज़ा की ओर कूच करेंगे, क्योंकि इन्हें आशंका है कि इज़राइल उन्हें वहीं पर जबरन रोक सकता है। इज़राइल ने फ़िलीस्तीन में जिस प्रकार का “जातीय सफ़ाया अभियान” चला रखा है उसे देखते हुए स्थिति बहुत नाज़ुक है… (“जातीय सफ़ाया”, यह शब्द सेकुलरों को बहुत प्रिय है, लेकिन सिर्फ़ मासूम मुस्लिमों के लिये, यह शब्द कश्मीर, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि में हिन्दुओं के लिये उपयोग करना वर्जित है)। एक अन्य सेकुलर गौतम मोदी कहते हैं कि “इस अभियान के लिये पैसों का प्रबन्ध कोई बड़ी समस्या नहीं है…” (होगी भी कैसे, जब खाड़ी से और मानवाधिकार संगठनों से भारी पैसा मिला हो)। आगे कहते हैं, “इस गाज़ा कारवां में प्रति व्यक्ति 40,000 रुपये खर्च आयेगा” और जो विभिन्न संगठन इस कारवां को “प्रायोजित” कर रहे हैं वे यह खर्च उठायेंगे… (सेकुलरिज़्म की तरह का एक और सफ़ेद झूठ… लगभग एक माह का समय और 5-6 देशों से गुज़रने वाले कारवां में प्रति व्यक्ति खर्च सिर्फ़ 40,000 ???)। कुछ ऐसे ही “अज्ञात विदेशी प्रायोजक” अरुंधती रॉय और गिलानी जैसे देशद्रोहियों की प्रेस कांफ़्रेंस दिल्ली में करवाते हैं, और “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता”(?) के नाम पर भारत जैसे पिलपिले नेताओं से भरे देश में सरेआम केन्द्र सरकार को चाँटे मारकर चलते बनते हैं। वामपंथ और कट्टर इस्लाम हाथ में हाथ मिलाकर चल रहे हैं यह बात अब तेजी से उजागर होती जा रही है। वह तो भला हो कुछ वीर पुरुषों का, जो कभी संसद हमले के आरोपी जिलानी के मुँह पर थूकते हैं और कभी गिलानी पर जूता फ़ेंकते हैं, वरना अधिसंख्य हिन्दू तो कब के “गाँधीवादी नपुंसकता” के शिकार हो चुके हैं।
कारवाँ-ए-फ़िलीस्तीन के समर्थक, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य मौलाना अब्दुल वहाब खिलजी कहते हैं कि “भारत के लोग फ़िलीस्तीन की आज़ादी के पक्ष में हैं और उनके संघर्ष के साथ हैं…” (इन मौलाना साहब की हिम्मत नहीं है कि कश्मीर जाकर अब्दुल गनी लोन और यासीन मलिक से कह सकें कि पंडितों को ससम्मान वापस बुलाओ और उनका जो माल लूटा है उसे वापस करो, अलगाववादी राग अलापना बन्द करो)। फ़िलीस्तीन जा रहे पाखण्डी कारवां में से एक की भी हिम्मत नहीं है कि पाकिस्तान के कबीलाई इलाके में जाकर वहाँ दर-दर की ठोकरें खा रहे प्रताड़ित हिन्दुओं के पक्ष में बोलें। सिमी के शाहनवाज़ अली रेहान और “सामाजिक कार्यकर्ता”(?) संदीप पाण्डे ने इस कारवां को अपना नैतिक समर्थन दिया है, ये दोनों ही बांग्लादेश और मलेशिया जाकर यह कहने का जिगर नहीं रखते कि “वहाँ हिन्दुओं पर जो अत्याचार हो रहा है उसे बन्द करो…”।
“गाज़ा कारवां” चलाने वाले फ़र्जी लोग इस बात से परेशान हैं कि रक्षा क्षेत्र में भारत की इज़राइल से नज़दीकियाँ क्यों बढ़ रही हैं (क्या ये चाहते हैं कि हम चीन पर निर्भर हों? या फ़िर सऊदी अरब जैसे देशों से मित्रता बढ़ायें जो खुद अपनी रक्षा अमेरिकी सेनाओं से करवाता है?)। 26/11 हमले के बाद ताज समूह ने अपने सुरक्षाकर्मियों को प्रशिक्षण के लिये इज़राइल भेजा, तो सेकुलर्स दुखी हो जाते हैं, भारत ने इज़राइल से आधुनिक विमान खरीद लिये, तो सेकुलर्स कपड़े फ़ाड़ने लगते हैं। मुस्लिम पोलिटिकल काउंसिल के डॉ तसलीम रहमानी ने कहा – “हमें फ़िलीस्तीनियों के प्रति अपना समर्थन व्यक्त करना चाहिये और उनके साथ खड़े होना चाहिये…” (यानी भारत की तमाम समस्याएं खत्म हो चुकी हैं… चलो विदेश में टाँग अड़ाई जाये?)।
गाज़ा कारवां के “झुण्ड” मे कई सेकुलर हस्तियाँ और संगठन शामिल हैं जिनमें से कुछ नाम बड़े दिलचस्प हैं जैसे -
“अमन भारत”
“आशा फ़ाउण्डेशन”
“अयोध्या की आवाज़”(इनका फ़िलीस्तीन में क्या काम?)
“बांग्ला मानवाधिकार मंच” (पश्चिम बंगाल में मानवाधिकार हनन नहीं होता क्या? जो फ़िलीस्तीन जा रहे हो…)
“छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा” (नक्सली समस्या खत्म हो गई क्या?)
“इंडियन फ़ेडरेशन ऑफ़ ट्रेड यूनियन” (मजदूरों के लिये लड़ने वाले फ़िलीस्तीन में काहे टाँग फ़ँसा रहे हैं?)
“जमीयत-उलेमा-ए-हिन्द” (हाँ… ये तो जायेंगे ही)
“तीसरा स्वाधीनता आंदोलन” (फ़िलीस्तीन में जाकर?)
“ऑल इंडिया मजलिस-ए-मुशवारत” (हाँ… ये भी जरुर जायेंगे)।
अब कुछ “छँटे हुए” लोगों के नाम भी देख लीजिये जो इस कारवां में शामिल हैं -
आनन्द पटवर्धन, एहतिशाम अंसारी, जावेद नकवी, सन्दीप पाण्डे (इनमें से कोई भी सज्जन गोधरा ट्रेन हादसे के बाद कारवां लेकर गुजरात नहीं गया)
सईदा हमीद, थॉमस मैथ्यू (जब ईसाई प्रोफ़ेसर का हाथ कट्टर मुस्लिमों द्वारा काटा गया, तब ये सज्जन कारवां लेकर केरल नहीं गये)
शबनम हाशमी, शाहिद सिद्दीकी (धर्मान्तरण के विरुद्ध जंगलों में काम कर रहे वयोवृद्ध स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या होने पर भी ये साहब लोग कारवाँ लेकर उड़ीसा नहीं गये)… कश्मीर तो खैर इनमें से कोई भी जाने वाला नहीं है… लेकिन ये सभी फ़िलीस्तीन जरुर जायेंगे।
तात्पर्य यह है कि अपने “असली मालिकों” को खुश करने के लिये सेकुलरों की यह गैंग, जिसने कभी भी विश्व भर में हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार और जातीय सफ़ाये के खिलाफ़ कभी आवाज़ नहीं उठाई… अब फ़िलीस्तीन के प्रति भाईचारा दिखाने को बेताब हो उठा है।इन्हीं के “भाईबन्द” दिल्ली-लाहौर के बीच “अमन की आशा” जैसा फ़ूहड़ कार्यक्रम चलाते हैं जबकि पाकिस्तान के सत्ता संस्थान और आतंकवादियों के बीच खुल्लमखुल्ला साँठगाँठ चलती है…। कश्मीर समस्या पर बात करने के लिये पहले मंत्रिमण्डल का समूह गिलानी के सामने गिड़गिड़ाकर आया था परन्तु उससे मन नहीं भरा, तो अब तीन विशेषज्ञों(?) को बात करने(?) भेज रहे हैं, लेकिन पिलपिले हो चुके किसी भी नेता में दो टूक पूछने / कहने की हिम्मत नहीं है कि “भारत के साथ नहीं रहना हो तो भाड़ में जाओ… कश्मीर तो हमारा ही रहेगा चाहे जो कर लो…”।
(सिर्फ़ हिन्दुओं को) उपदेश बघारने में सेकुलर लोग हमेशा आगे-आगे रहे हैं, खुद की फ़टी हुई चड्डी सिलने की बजाय, दूसरे की धोने में सेकुलरों को ज्यादा मजा आता है…और इसे वे अपनी शान भी समझते हैं। कारवाँ-ए-फ़िलीस्तीन भी कुछ-कुछ ऐसी ही “फ़ोकटिया कवायद” है, इस कारवाँ के जरिये कुछ लोग अपनी औकात बढ़ा-चढ़ाकर बताने लगेंगे, कुछ लोग सरकार और मुस्लिमों की “गुड-बुक” में आने की कोशिश करेंगे, तो कुछ लोग एकाध अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार की जुगाड़ में लग जायेंगे… न तो फ़िलीस्तीन में कुछ बदलेगा, न ही कश्मीर में…। ये फ़र्जी कारवाँ वाले, इज़राइल का तो कुछ उखाड़ ही नहीं पायेंगे, जबकि गिलानी-मलिक-शब्बीर-लोन को समझाने कभी जायेंगे नहीं… मतलब “फ़ोकटिया-फ़ुरसती” ही हुए ना?
इज़राइल के ज़ुल्मों(?) से त्रस्त और अमेरिका के पक्षपात(?) से ग्रस्त “मासूम” फ़िलीस्तीनियों के साथ एकजुटता दिखाने के लिये इस कारवां का आयोजन रखा गया है। गाज़ा पट्टी में इज़राइल ने जो नाकेबन्दी कर रखी है, उसके विरोध में यह लोग 2 दिसम्बर से 26 दिसम्बर तक भारत, पाकिस्तान, ईरान, जोर्डन, सीरिया, लेबनान और तुर्की होते हुए गाज़ा पट्टी पहुँचेंगे औरइज़राइल का विरोध करेंगे। इस दौरान ये सभी लोग प्रेस कांफ़्रेंस करेंगे, विभिन्न राजनैतिक व्यक्तित्वों से मिलेंगे, रोड शो करेंगे और भी तमाम नौटंकियाँ करेंगे…
इस “कारवाँ टू फ़िलीस्तीन”कार्यक्रम को अब तक भारत से 51 संगठनों और कुछ “छँटे हुए” सेकुलरों का समर्थन हासिल हो चुका है जो इनके साथ जायेंगे। इनकी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि ये लोग सताये हुए फ़िलीस्तीनियों के लिये नैतिक समर्थन के साथ-साथ, आर्थिक, कूटनीतिक और “सैनिक”(?) समर्थन के लिये प्रयास करेंगे। हालांकि फ़िलहाल इन्होंने अपने कारवां के अन्तिम चरण की घोषणा नहीं की है कि ये किस बन्दरगाह से गाज़ा की ओर कूच करेंगे, क्योंकि इन्हें आशंका है कि इज़राइल उन्हें वहीं पर जबरन रोक सकता है। इज़राइल ने फ़िलीस्तीन में जिस प्रकार का “जातीय सफ़ाया अभियान” चला रखा है उसे देखते हुए स्थिति बहुत नाज़ुक है… (“जातीय सफ़ाया”, यह शब्द सेकुलरों को बहुत प्रिय है, लेकिन सिर्फ़ मासूम मुस्लिमों के लिये, यह शब्द कश्मीर, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि में हिन्दुओं के लिये उपयोग करना वर्जित है)। एक अन्य सेकुलर गौतम मोदी कहते हैं कि “इस अभियान के लिये पैसों का प्रबन्ध कोई बड़ी समस्या नहीं है…” (होगी भी कैसे, जब खाड़ी से और मानवाधिकार संगठनों से भारी पैसा मिला हो)। आगे कहते हैं, “इस गाज़ा कारवां में प्रति व्यक्ति 40,000 रुपये खर्च आयेगा” और जो विभिन्न संगठन इस कारवां को “प्रायोजित” कर रहे हैं वे यह खर्च उठायेंगे… (सेकुलरिज़्म की तरह का एक और सफ़ेद झूठ… लगभग एक माह का समय और 5-6 देशों से गुज़रने वाले कारवां में प्रति व्यक्ति खर्च सिर्फ़ 40,000 ???)। कुछ ऐसे ही “अज्ञात विदेशी प्रायोजक” अरुंधती रॉय और गिलानी जैसे देशद्रोहियों की प्रेस कांफ़्रेंस दिल्ली में करवाते हैं, और “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता”(?) के नाम पर भारत जैसे पिलपिले नेताओं से भरे देश में सरेआम केन्द्र सरकार को चाँटे मारकर चलते बनते हैं। वामपंथ और कट्टर इस्लाम हाथ में हाथ मिलाकर चल रहे हैं यह बात अब तेजी से उजागर होती जा रही है। वह तो भला हो कुछ वीर पुरुषों का, जो कभी संसद हमले के आरोपी जिलानी के मुँह पर थूकते हैं और कभी गिलानी पर जूता फ़ेंकते हैं, वरना अधिसंख्य हिन्दू तो कब के “गाँधीवादी नपुंसकता” के शिकार हो चुके हैं।
कारवाँ-ए-फ़िलीस्तीन के समर्थक, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य मौलाना अब्दुल वहाब खिलजी कहते हैं कि “भारत के लोग फ़िलीस्तीन की आज़ादी के पक्ष में हैं और उनके संघर्ष के साथ हैं…” (इन मौलाना साहब की हिम्मत नहीं है कि कश्मीर जाकर अब्दुल गनी लोन और यासीन मलिक से कह सकें कि पंडितों को ससम्मान वापस बुलाओ और उनका जो माल लूटा है उसे वापस करो, अलगाववादी राग अलापना बन्द करो)। फ़िलीस्तीन जा रहे पाखण्डी कारवां में से एक की भी हिम्मत नहीं है कि पाकिस्तान के कबीलाई इलाके में जाकर वहाँ दर-दर की ठोकरें खा रहे प्रताड़ित हिन्दुओं के पक्ष में बोलें। सिमी के शाहनवाज़ अली रेहान और “सामाजिक कार्यकर्ता”(?) संदीप पाण्डे ने इस कारवां को अपना नैतिक समर्थन दिया है, ये दोनों ही बांग्लादेश और मलेशिया जाकर यह कहने का जिगर नहीं रखते कि “वहाँ हिन्दुओं पर जो अत्याचार हो रहा है उसे बन्द करो…”।
“गाज़ा कारवां” चलाने वाले फ़र्जी लोग इस बात से परेशान हैं कि रक्षा क्षेत्र में भारत की इज़राइल से नज़दीकियाँ क्यों बढ़ रही हैं (क्या ये चाहते हैं कि हम चीन पर निर्भर हों? या फ़िर सऊदी अरब जैसे देशों से मित्रता बढ़ायें जो खुद अपनी रक्षा अमेरिकी सेनाओं से करवाता है?)। 26/11 हमले के बाद ताज समूह ने अपने सुरक्षाकर्मियों को प्रशिक्षण के लिये इज़राइल भेजा, तो सेकुलर्स दुखी हो जाते हैं, भारत ने इज़राइल से आधुनिक विमान खरीद लिये, तो सेकुलर्स कपड़े फ़ाड़ने लगते हैं। मुस्लिम पोलिटिकल काउंसिल के डॉ तसलीम रहमानी ने कहा – “हमें फ़िलीस्तीनियों के प्रति अपना समर्थन व्यक्त करना चाहिये और उनके साथ खड़े होना चाहिये…” (यानी भारत की तमाम समस्याएं खत्म हो चुकी हैं… चलो विदेश में टाँग अड़ाई जाये?)।
गाज़ा कारवां के “झुण्ड” मे कई सेकुलर हस्तियाँ और संगठन शामिल हैं जिनमें से कुछ नाम बड़े दिलचस्प हैं जैसे -
“अमन भारत”
“आशा फ़ाउण्डेशन”
“अयोध्या की आवाज़”(इनका फ़िलीस्तीन में क्या काम?)
“बांग्ला मानवाधिकार मंच” (पश्चिम बंगाल में मानवाधिकार हनन नहीं होता क्या? जो फ़िलीस्तीन जा रहे हो…)
“छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा” (नक्सली समस्या खत्म हो गई क्या?)
“इंडियन फ़ेडरेशन ऑफ़ ट्रेड यूनियन” (मजदूरों के लिये लड़ने वाले फ़िलीस्तीन में काहे टाँग फ़ँसा रहे हैं?)
“जमीयत-उलेमा-ए-हिन्द” (हाँ… ये तो जायेंगे ही)
“तीसरा स्वाधीनता आंदोलन” (फ़िलीस्तीन में जाकर?)
“ऑल इंडिया मजलिस-ए-मुशवारत” (हाँ… ये भी जरुर जायेंगे)।
अब कुछ “छँटे हुए” लोगों के नाम भी देख लीजिये जो इस कारवां में शामिल हैं -
आनन्द पटवर्धन, एहतिशाम अंसारी, जावेद नकवी, सन्दीप पाण्डे (इनमें से कोई भी सज्जन गोधरा ट्रेन हादसे के बाद कारवां लेकर गुजरात नहीं गया)
सईदा हमीद, थॉमस मैथ्यू (जब ईसाई प्रोफ़ेसर का हाथ कट्टर मुस्लिमों द्वारा काटा गया, तब ये सज्जन कारवां लेकर केरल नहीं गये)
शबनम हाशमी, शाहिद सिद्दीकी (धर्मान्तरण के विरुद्ध जंगलों में काम कर रहे वयोवृद्ध स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या होने पर भी ये साहब लोग कारवाँ लेकर उड़ीसा नहीं गये)… कश्मीर तो खैर इनमें से कोई भी जाने वाला नहीं है… लेकिन ये सभी फ़िलीस्तीन जरुर जायेंगे।
तात्पर्य यह है कि अपने “असली मालिकों” को खुश करने के लिये सेकुलरों की यह गैंग, जिसने कभी भी विश्व भर में हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार और जातीय सफ़ाये के खिलाफ़ कभी आवाज़ नहीं उठाई… अब फ़िलीस्तीन के प्रति भाईचारा दिखाने को बेताब हो उठा है।इन्हीं के “भाईबन्द” दिल्ली-लाहौर के बीच “अमन की आशा” जैसा फ़ूहड़ कार्यक्रम चलाते हैं जबकि पाकिस्तान के सत्ता संस्थान और आतंकवादियों के बीच खुल्लमखुल्ला साँठगाँठ चलती है…। कश्मीर समस्या पर बात करने के लिये पहले मंत्रिमण्डल का समूह गिलानी के सामने गिड़गिड़ाकर आया था परन्तु उससे मन नहीं भरा, तो अब तीन विशेषज्ञों(?) को बात करने(?) भेज रहे हैं, लेकिन पिलपिले हो चुके किसी भी नेता में दो टूक पूछने / कहने की हिम्मत नहीं है कि “भारत के साथ नहीं रहना हो तो भाड़ में जाओ… कश्मीर तो हमारा ही रहेगा चाहे जो कर लो…”।
(सिर्फ़ हिन्दुओं को) उपदेश बघारने में सेकुलर लोग हमेशा आगे-आगे रहे हैं, खुद की फ़टी हुई चड्डी सिलने की बजाय, दूसरे की धोने में सेकुलरों को ज्यादा मजा आता है…और इसे वे अपनी शान भी समझते हैं। कारवाँ-ए-फ़िलीस्तीन भी कुछ-कुछ ऐसी ही “फ़ोकटिया कवायद” है, इस कारवाँ के जरिये कुछ लोग अपनी औकात बढ़ा-चढ़ाकर बताने लगेंगे, कुछ लोग सरकार और मुस्लिमों की “गुड-बुक” में आने की कोशिश करेंगे, तो कुछ लोग एकाध अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार की जुगाड़ में लग जायेंगे… न तो फ़िलीस्तीन में कुछ बदलेगा, न ही कश्मीर में…। ये फ़र्जी कारवाँ वाले, इज़राइल का तो कुछ उखाड़ ही नहीं पायेंगे, जबकि गिलानी-मलिक-शब्बीर-लोन को समझाने कभी जायेंगे नहीं… मतलब “फ़ोकटिया-फ़ुरसती” ही हुए ना?
गुरुवार, 14 अक्टूबर 2010
धर्मनिरपेक्षता की जय ?
क्या आप धर्मनिरपेक्ष हैं ? जरा फ़िर सोचिये और स्वयं के लिये इन प्रश्नों के उत्तर खोजिये.....
१. विश्व में लगभग ५२ मुस्लिम देश हैं, एक मुस्लिम देश का नाम बताईये जो हज के लिये "सब्सिडी" देता हो ?
२. एक मुस्लिम देश बताईये जहाँ हिन्दुओं के लिये विशेष कानून हैं, जैसे कि भारत में मुसलमानों के लिये हैं ?
३. किसी एक देश का नाम बताईये, जहाँ ८५% बहुसंख्यकों को "याचना" करनी पडती है, १५% अल्पसंख्यकों को संतुष्ट करने के लिये ?
४. एक मुस्लिम देश का नाम बताईये, जहाँ का राष्ट्रपति या प्रधानमन्त्री गैर-मुस्लिम हो ?
५. किसी "मुल्ला" या "मौलवी" का नाम बताईये, जिसने आतंकवादियों के खिलाफ़ फ़तवा जारी किया हो ?
६. महाराष्ट्र, बिहार, केरल जैसे हिन्दू बहुल राज्यों में मुस्लिम मुख्यमन्त्री हो चुके हैं, क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि मुस्लिम बहुल राज्य "कश्मीर" में कोई हिन्दू मुख्यमन्त्री हो सकता है ?
७. १९४७ में आजादी के दौरान पाकिस्तान में हिन्दू जनसंख्या 24% थी, अब वह घटकर 1% रह गई है, उसी समय तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब आज का अहसानफ़रामोश बांग्लादेश) में हिन्दू जनसंख्या 30% थी जो अब 7% से भी कम हो गई है । क्या हुआ गुमशुदा हिन्दुओं का ? क्या वहाँ (और यहाँ भी) हिन्दुओं के कोई मानवाधिकार हैं ?
८. जबकि इस दौरान भारत में मुस्लिम जनसंख्या 10.4% से बढकर 14.2% हो गई है, क्या वाकई हिन्दू कट्टरवादी हैं ?
९. यदि हिन्दू असहिष्णु हैं तो कैसे हमारे यहाँ मुस्लिम सडकों पर नमाज पढते रहते हैं, लाऊडस्पीकर पर दिन भर चिल्लाते रहते हैं कि "अल्लाह के सिवाय और कोई शक्ति नहीं है" ?
१०. सोमनाथ मन्दिर के जीर्णोद्धार के लिये देश के पैसे का दुरुपयोग नहीं होना चाहिये ऐसा गाँधीजी ने कहा था, लेकिन 1948 में ही दिल्ली की मस्जिदों को सरकारी मदद से बनवाने के लिये उन्होंने नेहरू और पटेल पर दबाव बनाया, क्यों ?
११. कश्मीर, नागालैण्ड, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय आदि में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं, क्या उन्हें कोई विशेष सुविधा मिलती है ?
१२. हज करने के लिये सबसिडी मिलती है, जबकि मानसरोवर और अमरनाथ जाने पर टैक्स देना पड़ता है, क्यों ?
१३. मदरसे और क्रिश्चियन स्कूल अपने-अपने स्कूलों में बाईबल और कुरान पढा सकते हैं, तो फ़िर सरस्वती शिशु मन्दिरों में और बाकी स्कूलों में गीता और रामायण क्यों नहीं पढाई जा सकती ?
१४. गोधरा के बाद मीडिया में जो हंगामा बरपा, वैसा हंगामा कश्मीर के चार लाख हिन्दुओं की मौत और पलायन पर क्यों नहीं होता ?
१५. क्या आप मानते हैं - संस्कृत सांप्रदायिक और उर्दू धर्मनिरपेक्ष, मन्दिर साम्प्रदायिक और मस्जिद धर्मनिरपेक्ष, तोगडिया राष्ट्रविरोधी और ईमाम देशभक्त, भाजपा सांप्रदायिक और मुस्लिम लीग धर्मनिरपेक्ष, हिन्दुस्तान कहना सांप्रदायिकता और इटली कहना धर्मनिरपेक्ष ?
१६. अब्दुल रहमान अन्तुले को सिद्धिविनायक मन्दिर का ट्रस्टी बनाया गया था, क्या मुलायम सिंह को हजरत बल दरगाह का ट्रस्टी बनाया जा सकता है ?
१७. एक मुस्लिम राष्ट्रपति, एक सिख प्रधानमन्त्री और एक ईसाई रक्षामन्त्री, क्या किसी और देश में यह सम्भव है, यह सिर्फ़ सम्भव है हिन्दुस्तान में क्योंकि हम हिन्दू हैं और हमें इस बात पर गर्व है, दिक्कत सिर्फ़ तभी होती है जब हिन्दू और हिन्दुत्व को साम्प्रदायिक कहा जाता है ।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - "हिन्दुत्व कोई धर्म नहीं है, यह एक उत्तम जीवन पद्धति है" । गाँधी के खिलाफ़त आन्दोलन के समर्थन और धारा ३७० पर भी काफ़ी कुछ लिखा जा चुका है और ज्यादा लिखने की जरूरत नहीं है, इसलिये नहीं लिखा, फ़िर भी.....उपरिलिखित विचार किसी राजनैतिक उद्देश्य के लिये नहीं हैं, ये सिर्फ़ ध्यान से चारों तरफ़ देखने पर स्वमेव ही दिमाग में आते हैं और एक सच्चे देशभक्त नागरिक होने के नाते इन पर प्रकाश डालना मेरा कर्तव्य है ।
१. विश्व में लगभग ५२ मुस्लिम देश हैं, एक मुस्लिम देश का नाम बताईये जो हज के लिये "सब्सिडी" देता हो ?
२. एक मुस्लिम देश बताईये जहाँ हिन्दुओं के लिये विशेष कानून हैं, जैसे कि भारत में मुसलमानों के लिये हैं ?
३. किसी एक देश का नाम बताईये, जहाँ ८५% बहुसंख्यकों को "याचना" करनी पडती है, १५% अल्पसंख्यकों को संतुष्ट करने के लिये ?
४. एक मुस्लिम देश का नाम बताईये, जहाँ का राष्ट्रपति या प्रधानमन्त्री गैर-मुस्लिम हो ?
५. किसी "मुल्ला" या "मौलवी" का नाम बताईये, जिसने आतंकवादियों के खिलाफ़ फ़तवा जारी किया हो ?
६. महाराष्ट्र, बिहार, केरल जैसे हिन्दू बहुल राज्यों में मुस्लिम मुख्यमन्त्री हो चुके हैं, क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि मुस्लिम बहुल राज्य "कश्मीर" में कोई हिन्दू मुख्यमन्त्री हो सकता है ?
७. १९४७ में आजादी के दौरान पाकिस्तान में हिन्दू जनसंख्या 24% थी, अब वह घटकर 1% रह गई है, उसी समय तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब आज का अहसानफ़रामोश बांग्लादेश) में हिन्दू जनसंख्या 30% थी जो अब 7% से भी कम हो गई है । क्या हुआ गुमशुदा हिन्दुओं का ? क्या वहाँ (और यहाँ भी) हिन्दुओं के कोई मानवाधिकार हैं ?
८. जबकि इस दौरान भारत में मुस्लिम जनसंख्या 10.4% से बढकर 14.2% हो गई है, क्या वाकई हिन्दू कट्टरवादी हैं ?
९. यदि हिन्दू असहिष्णु हैं तो कैसे हमारे यहाँ मुस्लिम सडकों पर नमाज पढते रहते हैं, लाऊडस्पीकर पर दिन भर चिल्लाते रहते हैं कि "अल्लाह के सिवाय और कोई शक्ति नहीं है" ?
१०. सोमनाथ मन्दिर के जीर्णोद्धार के लिये देश के पैसे का दुरुपयोग नहीं होना चाहिये ऐसा गाँधीजी ने कहा था, लेकिन 1948 में ही दिल्ली की मस्जिदों को सरकारी मदद से बनवाने के लिये उन्होंने नेहरू और पटेल पर दबाव बनाया, क्यों ?
११. कश्मीर, नागालैण्ड, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय आदि में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं, क्या उन्हें कोई विशेष सुविधा मिलती है ?
१२. हज करने के लिये सबसिडी मिलती है, जबकि मानसरोवर और अमरनाथ जाने पर टैक्स देना पड़ता है, क्यों ?
१३. मदरसे और क्रिश्चियन स्कूल अपने-अपने स्कूलों में बाईबल और कुरान पढा सकते हैं, तो फ़िर सरस्वती शिशु मन्दिरों में और बाकी स्कूलों में गीता और रामायण क्यों नहीं पढाई जा सकती ?
१४. गोधरा के बाद मीडिया में जो हंगामा बरपा, वैसा हंगामा कश्मीर के चार लाख हिन्दुओं की मौत और पलायन पर क्यों नहीं होता ?
१५. क्या आप मानते हैं - संस्कृत सांप्रदायिक और उर्दू धर्मनिरपेक्ष, मन्दिर साम्प्रदायिक और मस्जिद धर्मनिरपेक्ष, तोगडिया राष्ट्रविरोधी और ईमाम देशभक्त, भाजपा सांप्रदायिक और मुस्लिम लीग धर्मनिरपेक्ष, हिन्दुस्तान कहना सांप्रदायिकता और इटली कहना धर्मनिरपेक्ष ?
१६. अब्दुल रहमान अन्तुले को सिद्धिविनायक मन्दिर का ट्रस्टी बनाया गया था, क्या मुलायम सिंह को हजरत बल दरगाह का ट्रस्टी बनाया जा सकता है ?
१७. एक मुस्लिम राष्ट्रपति, एक सिख प्रधानमन्त्री और एक ईसाई रक्षामन्त्री, क्या किसी और देश में यह सम्भव है, यह सिर्फ़ सम्भव है हिन्दुस्तान में क्योंकि हम हिन्दू हैं और हमें इस बात पर गर्व है, दिक्कत सिर्फ़ तभी होती है जब हिन्दू और हिन्दुत्व को साम्प्रदायिक कहा जाता है ।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - "हिन्दुत्व कोई धर्म नहीं है, यह एक उत्तम जीवन पद्धति है" । गाँधी के खिलाफ़त आन्दोलन के समर्थन और धारा ३७० पर भी काफ़ी कुछ लिखा जा चुका है और ज्यादा लिखने की जरूरत नहीं है, इसलिये नहीं लिखा, फ़िर भी.....उपरिलिखित विचार किसी राजनैतिक उद्देश्य के लिये नहीं हैं, ये सिर्फ़ ध्यान से चारों तरफ़ देखने पर स्वमेव ही दिमाग में आते हैं और एक सच्चे देशभक्त नागरिक होने के नाते इन पर प्रकाश डालना मेरा कर्तव्य है ।
ममता बैनर्जी का रेल्वे सेकुलरिज़्म और 24 परगना जिले के दंगे… ...
विगत 5 सितम्बर की शाम से पश्चिम बंगाल के उत्तरी चौबीस परगना जिले के अल्पसंख्यक हिन्दू परिवार भय, असुरक्षा और आतंक के साये में रह रहे हैं। ये अल्पसंख्यक हिन्दू परिवार पिछले कुछ वर्षों से इस प्रकार की स्थिति लगातार झेल रहे हैं, लेकिन इस बार की स्थिति अत्यंत गम्भीर है। सन् 2001 की जनगणना के मुताबिक देगंगा ब्लॉक में मुस्लिम जनसंख्या 69% थी (जो अब पता नहीं कितनी बढ़ चुकी होगी)। पश्चिम बंगाल का यह इलाका, बांग्लादेश से बहुत पास पड़ता है। यहाँ जितने हिन्दू परिवार बसे हैं उनमें से अधिकतर या तो बहुत पुराने रहवासी हैं या बांग्लादेश में मुस्लिमों द्वारा किये गये अत्याचार से भागकर यहाँ आ बसे हैं। उत्तरी 24 परगना से वर्तमान में तृणमूल कांग्रेस से हाजी नूर-उल-इस्लाम सांसद है, और तृणमूल कांग्रेस से ही ज्योतिप्रिया मलिक विधायक है। 24 परगना जिले में भारत विभाजन के समय से ही विस्थापित हिन्दुओं को बसाया गया था, लेकिन पिछले 60-65 साल में इस जिले के 8 ब्लॉक में मुस्लिम जनसंख्या 75% से ऊपर, जबकि अन्य में लगभग 40 से 60 प्रतिशत हो चुकी है, जिसमें से अधिकतर बांग्लादेशी हैं और तृणमूल और माकपा के वोटबैंक हैं।
5 तारीख (सितम्बर) को देगंगा के काली मन्दिर के पास खुली ज़मीन, जिस पर दुर्गा पूजा का पंडाल विगत 40 वर्ष से लग रहा है, को लेकर जेहादियों ने आपत्ति उठाना शुरु किया और उस ज़मीन की खुदाई करके एक नहर निकालने की बात करने लगे ताकि पूजा पाण्डाल और गाँव का सम्पर्क टूट जाये जिससे उस ज़मीन पर अवैध कब्जे में आसानी हो, उस वक्त स्थानीय पुलिस ने उस समूह को समझा-बुझाकर वापस भेज दिया। 6 सितम्बर की शाम को इफ़्तार के बाद अचानक एक उग्र भीड़ ने मन्दिर और आसपास की दुकानों पर हमला बोल दिया। (चित्र - खाली पड़ी सरकारी भूमि जहाँ से विवाद शुरु किया गया)
माँ काली की प्रतिमा तोड़ दी गई, कई दुकानों को चुन-चुनकर लूटा गया और धारदार हथियारों से लोगों पर हमला किया गया। चार बसें जलाई गईं और बेराछापा से लेकर कदमगाछी तक की सड़क ब्लॉक कर दी गई। भीड़ बढ़ती ही गई और उसने कार्तिकपुर के शनि मन्दिर और देगंगा की विप्लबी कालोनी के मन्दिरों में भारी तोड़फ़ोड़ की।
देगंगा पुलिस थाने के मुख्य प्रभारी अरुप घोष इस हमले में बुरी तरह घायल हुए और उनके सिर पर चोट तथा हाथों में फ़्रेक्चर हुआ है (चित्र - जलाये गये मकान और हिन्दू संतों की तस्वीरें)। जमकर हुए बेकाबू दंगे में 6 सितम्बर को 25 लोग घायल हुए। 7 सितम्बर को भी जब हालात काबू में नहीं आये तब रैपिड एक्शन फ़ोर्स और सेना के जवानों को लगाना पड़ा, उसमें भी तृणमूल कांग्रेस की नेता रत्ना चौधरी ने पुलिस पर दबाव बनाया कि वह मुस्लिम दंगाईयों पर कोई कठोर कार्रवाई न करे, क्योंकि रमज़ान का महीना चल रहा है, जबकि सांसद हाजी नूर-उल-इस्लाम भीड़ को नियंत्रित करने की बजाय उसे उकसाने में लगा रहा।
बेलियाघाट के बाज़ार में RAF के 6-7 जवानों को दंगाईयों की भीड़ ने एक दुकान में घेर लिया और बाहर से शटर गिराकर पेट्रोल से आग लगाने की कोशिश की, हालांकि अन्य जवानों के वहाँ आने से उनकी जान बच गई (चित्र - सांसद नूरुल इस्लाम)। 7 सितम्बर की शाम तक दंगाई बेलगाम तरीके से लूटपाट, छेड़छाड़ और हमले करते रहे, कुल मिलाकर 245 दुकानें लूटी गईं और 120 से अधिक व्यक्ति घायल हुए। प्रशासन ने आधिकारिक तौर पर माना कि 65 हिन्दू परिवार पूरी तरह बरबाद हो चुके हैं और उन्हें उचित मुआवज़ा दिया जायेगा।
जैसी कि आशंका पहले ही जताई जा रही थी कि बंगाल के आगामी चुनावों को देखते हुए माकपा और तृणमूल कांग्रेस में मुस्लिम वोट बैंक हथियाने की होड़ और तेज़ होगी, और ऐसी घटनाओं में बढ़ोतरी होना तय है। घटना के तीन दिन बाद तक भाजपा के एक प्रतिनिधिमण्डल को छोड़कर अन्य किसी भी पार्टी के कार्यकर्ता या नेता ने वहाँ जाना उचित नहीं समझा, क्योंकि सभी को अपने वोटबैंक की चिंता थी। राष्ट्रीय अखबारों में सिर्फ़ पायनियर और स्टेट्समैन ने इन खबरों को प्रमुखता से छापा, जबकि "राष्ट्रीय" कहे जाने वाले भाण्ड चैनल दिल्ली की फ़र्जी बाढ़, तथा दबंग और मुन्नी की दलाली (यानी प्रमोशन) के पुनीत कार्य में लगे हुए थे। यहाँ तक कि पश्चिम बंगाल में भी स्टार आनन्द जैसे प्रमुख बांग्ला चैनल ने पूरे मामले पर चुप्पी साधे रखी।
राष्ट्रीय मीडिया की ऐसी ही "घृणित और नपुंसक चुप्पी" हमने बरेली के दंगों के समय भी देखी थी, जहाँ लगातार 15 दिनों तक भीषण दंगे चले थे और हेलीकॉप्टर से सुरक्षा बलों को उतारना पड़ा था। उस वक्त भी "तथाकथित राष्ट्रीय अखबारों" और "फ़र्जी सबसे तेज़" चैनलों ने पूरी खबर को ब्लैक आउट कर दिया था…। यहाँ सेना के फ़्लैग मार्च और RAF की त्वरित कार्रवाई के बावजूद आज एक सप्ताह बाद भी मीडिया ने इस खबर को पूरी तरह से दबा रखा है। 24 सितम्बर को आने वाले अयोध्या के निर्णय की वजह से मीडिया को अपना "सेकुलर" रोल निभाने के कितने करोड़ रुपये मिले हैं यह तो पता नहीं, अलबत्ता "आज तक" ने संतों के स्टिंग ऑपरेशन को "हे राम" नाम का शीर्षक देकर अपने "विदेश में बैठे असली मालिकों" को खुश करने की भरपूर कोशिश की है।
ऐसी ही एक और भद्दी लेकिन "सेकुलर" कोशिश ममता बैनर्जी ने भी की है जब उन्होंने हिज़ाब में नमाज़ पढ़ते हुए अपनी फ़ोटो, रेल्वे की एक परियोजना के उदघाटन समारोह के विज्ञापन हमारे टैक्स के पैसों पर छपवाई है और पश्चिम बंगाल के मुसलमानों से अघोषित वादा किया है कि "यह रेल तुम्हारी है, रेल सम्पत्ति तुम्हारी है, मैं नमाज़ पढ़ रही हूं, मुझे ही वोट देना, माकपा को नहीं…"। फ़िर बेचारी अकेली ममता को ही दोष क्यों देना, जब वामपंथी बरसों से केरल और बंगाल में यही गंदा खेल जारी रखे हुए हैं और मनमोहन सिंह खुद कह चुके हैं कि "देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का है…", तब भला 24 परगना स्थित देगंगा ब्लॉक के गरीब हिन्दुओं की सुनवाई कौन और कैसे करेगा? उन्हें तो मरना और पिटना ही है…।
जिस प्रकार सोनिया अम्मा कह चुकी हैं कि भोपाल गैस काण्ड और एण्डरसन पर चर्चा न करें (क्योंकि उससे राजीव गाँधी का निकम्मापन उजागर होता है), तथा गुजरात के दंगों को अवश्य याद रखिए (क्योंकि भारत के इतिहास में अब तक सिर्फ़ एक ही दंगा हुआ है)… ठीक इसी प्रकार मनमोहन सिंह, दिग्विजय सिंह, ममता बनर्जी, वामपंथी सब मिलकर आपसे कह रहे हैं कि, बाकी सब भूल जाईये, आपको सिर्फ़ यह याद रखना है कि हिन्दुओं को एकजुट करने की कोशिश को ही "साम्प्रदायिकता" कहते है…
5 तारीख (सितम्बर) को देगंगा के काली मन्दिर के पास खुली ज़मीन, जिस पर दुर्गा पूजा का पंडाल विगत 40 वर्ष से लग रहा है, को लेकर जेहादियों ने आपत्ति उठाना शुरु किया और उस ज़मीन की खुदाई करके एक नहर निकालने की बात करने लगे ताकि पूजा पाण्डाल और गाँव का सम्पर्क टूट जाये जिससे उस ज़मीन पर अवैध कब्जे में आसानी हो, उस वक्त स्थानीय पुलिस ने उस समूह को समझा-बुझाकर वापस भेज दिया। 6 सितम्बर की शाम को इफ़्तार के बाद अचानक एक उग्र भीड़ ने मन्दिर और आसपास की दुकानों पर हमला बोल दिया। (चित्र - खाली पड़ी सरकारी भूमि जहाँ से विवाद शुरु किया गया)
माँ काली की प्रतिमा तोड़ दी गई, कई दुकानों को चुन-चुनकर लूटा गया और धारदार हथियारों से लोगों पर हमला किया गया। चार बसें जलाई गईं और बेराछापा से लेकर कदमगाछी तक की सड़क ब्लॉक कर दी गई। भीड़ बढ़ती ही गई और उसने कार्तिकपुर के शनि मन्दिर और देगंगा की विप्लबी कालोनी के मन्दिरों में भारी तोड़फ़ोड़ की।
देगंगा पुलिस थाने के मुख्य प्रभारी अरुप घोष इस हमले में बुरी तरह घायल हुए और उनके सिर पर चोट तथा हाथों में फ़्रेक्चर हुआ है (चित्र - जलाये गये मकान और हिन्दू संतों की तस्वीरें)। जमकर हुए बेकाबू दंगे में 6 सितम्बर को 25 लोग घायल हुए। 7 सितम्बर को भी जब हालात काबू में नहीं आये तब रैपिड एक्शन फ़ोर्स और सेना के जवानों को लगाना पड़ा, उसमें भी तृणमूल कांग्रेस की नेता रत्ना चौधरी ने पुलिस पर दबाव बनाया कि वह मुस्लिम दंगाईयों पर कोई कठोर कार्रवाई न करे, क्योंकि रमज़ान का महीना चल रहा है, जबकि सांसद हाजी नूर-उल-इस्लाम भीड़ को नियंत्रित करने की बजाय उसे उकसाने में लगा रहा।
बेलियाघाट के बाज़ार में RAF के 6-7 जवानों को दंगाईयों की भीड़ ने एक दुकान में घेर लिया और बाहर से शटर गिराकर पेट्रोल से आग लगाने की कोशिश की, हालांकि अन्य जवानों के वहाँ आने से उनकी जान बच गई (चित्र - सांसद नूरुल इस्लाम)। 7 सितम्बर की शाम तक दंगाई बेलगाम तरीके से लूटपाट, छेड़छाड़ और हमले करते रहे, कुल मिलाकर 245 दुकानें लूटी गईं और 120 से अधिक व्यक्ति घायल हुए। प्रशासन ने आधिकारिक तौर पर माना कि 65 हिन्दू परिवार पूरी तरह बरबाद हो चुके हैं और उन्हें उचित मुआवज़ा दिया जायेगा।
जैसी कि आशंका पहले ही जताई जा रही थी कि बंगाल के आगामी चुनावों को देखते हुए माकपा और तृणमूल कांग्रेस में मुस्लिम वोट बैंक हथियाने की होड़ और तेज़ होगी, और ऐसी घटनाओं में बढ़ोतरी होना तय है। घटना के तीन दिन बाद तक भाजपा के एक प्रतिनिधिमण्डल को छोड़कर अन्य किसी भी पार्टी के कार्यकर्ता या नेता ने वहाँ जाना उचित नहीं समझा, क्योंकि सभी को अपने वोटबैंक की चिंता थी। राष्ट्रीय अखबारों में सिर्फ़ पायनियर और स्टेट्समैन ने इन खबरों को प्रमुखता से छापा, जबकि "राष्ट्रीय" कहे जाने वाले भाण्ड चैनल दिल्ली की फ़र्जी बाढ़, तथा दबंग और मुन्नी की दलाली (यानी प्रमोशन) के पुनीत कार्य में लगे हुए थे। यहाँ तक कि पश्चिम बंगाल में भी स्टार आनन्द जैसे प्रमुख बांग्ला चैनल ने पूरे मामले पर चुप्पी साधे रखी।
राष्ट्रीय मीडिया की ऐसी ही "घृणित और नपुंसक चुप्पी" हमने बरेली के दंगों के समय भी देखी थी, जहाँ लगातार 15 दिनों तक भीषण दंगे चले थे और हेलीकॉप्टर से सुरक्षा बलों को उतारना पड़ा था। उस वक्त भी "तथाकथित राष्ट्रीय अखबारों" और "फ़र्जी सबसे तेज़" चैनलों ने पूरी खबर को ब्लैक आउट कर दिया था…। यहाँ सेना के फ़्लैग मार्च और RAF की त्वरित कार्रवाई के बावजूद आज एक सप्ताह बाद भी मीडिया ने इस खबर को पूरी तरह से दबा रखा है। 24 सितम्बर को आने वाले अयोध्या के निर्णय की वजह से मीडिया को अपना "सेकुलर" रोल निभाने के कितने करोड़ रुपये मिले हैं यह तो पता नहीं, अलबत्ता "आज तक" ने संतों के स्टिंग ऑपरेशन को "हे राम" नाम का शीर्षक देकर अपने "विदेश में बैठे असली मालिकों" को खुश करने की भरपूर कोशिश की है।
ऐसी ही एक और भद्दी लेकिन "सेकुलर" कोशिश ममता बैनर्जी ने भी की है जब उन्होंने हिज़ाब में नमाज़ पढ़ते हुए अपनी फ़ोटो, रेल्वे की एक परियोजना के उदघाटन समारोह के विज्ञापन हमारे टैक्स के पैसों पर छपवाई है और पश्चिम बंगाल के मुसलमानों से अघोषित वादा किया है कि "यह रेल तुम्हारी है, रेल सम्पत्ति तुम्हारी है, मैं नमाज़ पढ़ रही हूं, मुझे ही वोट देना, माकपा को नहीं…"। फ़िर बेचारी अकेली ममता को ही दोष क्यों देना, जब वामपंथी बरसों से केरल और बंगाल में यही गंदा खेल जारी रखे हुए हैं और मनमोहन सिंह खुद कह चुके हैं कि "देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का है…", तब भला 24 परगना स्थित देगंगा ब्लॉक के गरीब हिन्दुओं की सुनवाई कौन और कैसे करेगा? उन्हें तो मरना और पिटना ही है…।
जिस प्रकार सोनिया अम्मा कह चुकी हैं कि भोपाल गैस काण्ड और एण्डरसन पर चर्चा न करें (क्योंकि उससे राजीव गाँधी का निकम्मापन उजागर होता है), तथा गुजरात के दंगों को अवश्य याद रखिए (क्योंकि भारत के इतिहास में अब तक सिर्फ़ एक ही दंगा हुआ है)… ठीक इसी प्रकार मनमोहन सिंह, दिग्विजय सिंह, ममता बनर्जी, वामपंथी सब मिलकर आपसे कह रहे हैं कि, बाकी सब भूल जाईये, आपको सिर्फ़ यह याद रखना है कि हिन्दुओं को एकजुट करने की कोशिश को ही "साम्प्रदायिकता" कहते है…
बहराइच में हिन्दू एक आक्रान्ता की कबर पर सर झुकाते हैं !!
जैसा कि पहले भी कई बार कहा जा चुका है कि वामपंथियों और कांग्रेसियों ने भारत के गौरवशाली हिन्दू इतिहास को शर्मनाक बताने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है… क्रूर, अत्याचारी और अनाचारी मुगल शासकों के गुणगान करने में इन लोगों को आत्मिक सुख की अनुभूति होती है। लेकिन यह मामला उससे भी बढ़कर है, एक मुगल आक्रांता, जो कि समूचे भारत को “दारुल-इस्लाम” बनाने का सपना देखता था, की कब्र को दरगाह के रूप में अंधविश्वास और भेड़चाल के साथ नवाज़ा जाता है, लेकिन इतिहास को सुधार कर देश में आत्मगौरव निर्माण करने की बजाय हमारे महान इतिहासकार इस पर मौन हैं।मुझे यकीन है कि अधिकतर पाठकों ने सुल्तान सैयद सालार मसूद गाज़ी के बारे में नहीं सुना होगा, यहाँ तक कि बहराइच (उत्तरप्रदेश) में रहने वालों को भी इसके बारे में शायद ठीक-ठीक पता न होगा। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं बहराइच (उत्तरप्रदेश) में “दरगाह शरीफ़”(???) पर प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास के पहले रविवार को लगने वाले सालाना उर्स के बारे में…। बहराइच शहर से 3 किमी दूर सैयद सालार मसूद गाज़ी की दरगाह स्थित है, ऐसी मान्यता है(?) कि मज़ार-ए-शरीफ़ में स्नान करने से बीमारियाँ दूर हो जाती हैं (http://behraich.nic.in/) और अंधविश्वास के मारे लाखों लोग यहाँ आते हैं। सैयद सालार मसूद गाज़ी कौन था, उसकी कब्र “दरगाह” में कैसे तब्दील हो गई आदि के बारे में आगे जानेंगे ही, पहले “बहराइच” के बारे में संक्षिप्त में जान लें – यह इलाका “गन्धर्व वन” के रूप में प्राचीन वेदों में वर्णित है, ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा जी ने ॠषियों की तपस्या के लिये यहाँ एक घने जंगल का निर्माण किया था, जिसके कारण इसका नाम पड़ा “ब्रह्माइच”, जो कालांतर में भ्रष्ट होते-होते बहराइच बन गया।
पर… पाठकगंण महमूद गज़नवी (गज़नी) के बारे में तो जानते ही होंगे, वही मुगल आक्रांता जिसने सोमनाथ पर 16 बार हमला किया और भारी मात्रा में सोना हीरे-जवाहरात आदि लूट कर ले गया था। महमूद गजनवी ने सोमनाथ पर आखिरी बार सन् 1024 में हमला किया था तथा उसने व्यक्तिगत रूप से सामने खड़े होकर शिवलिंग के टुकड़े-टुकड़े किये और उन टुकड़ों को अफ़गानिस्तान के गज़नी शहर की जामा मस्जिद की सीढ़ियों में सन् 1026 में लगवाया। इसी लुटेरे महमूद गजनवी का ही रिश्तेदार था सैयद सालार मसूद… यह बड़ी भारी सेना लेकर सन् 1031 में भारत आया। सैयद सालार मसूद एक सनकी किस्म का धर्मान्ध मुगल आक्रान्ता था। महमूद गजनवी तो बार-बार भारत आता था सिर्फ़ लूटने के लिये और वापस चला जाता था, लेकिन इस बार सैयद सालार मसूद भारत में विशाल सेना लेकर आया था कि वह इस भूमि को “दारुल-इस्लाम” बनाकर रहेगा और इस्लाम का प्रचार पूरे भारत में करेगा (जाहिर है कि तलवार के बल पर)।सैयद सालार मसूद अपनी सेना को लेकर “हिन्दुकुश” पर्वतमाला को पार करके पाकिस्तान (आज के) के पंजाब में पहुँचा, जहाँ उसे पहले हिन्दू राजा आनन्द पाल शाही का सामना करना पड़ा, जिसका उसने आसानी से सफ़ाया कर दिया। मसूद के बढ़ते कदमों को रोकने के लिये सियालकोट के राजा अर्जन सिंह ने भी आनन्द पाल की मदद की लेकिन इतनी विशाल सेना के आगे वे बेबस रहे। मसूद धीरे-धीरे आगे बढ़ते-बढ़ते राजपूताना और मालवा प्रांत में पहुँचा, जहाँ राजा महिपाल तोमर से उसका मुकाबला हुआ, और उसे भी मसूद ने अपनी सैनिक ताकत से हराया। एक तरह से यह भारत के विरुद्ध पहला जेहाद कहा जा सकता है, जहाँ कोई मुगल आक्रांता सिर्फ़ लूटने की नीयत से नहीं बल्कि बसने, राज्य करने और इस्लाम को फ़ैलाने का उद्देश्य लेकर आया था। पंजाब से लेकर उत्तरप्रदेश के गांगेय इलाके को रौंदते, लूटते, हत्यायें-बलात्कार करते सैयद सालार मसूद अयोध्या के नज़दीक स्थित बहराइच पहुँचा, जहाँ उसका इरादा एक सेना की छावनी और राजधानी बनाने का था। इस दौरान इस्लाम के प्रति उसकी सेवाओं(?) को देखते हुए उसे “गाज़ी बाबा” की उपाधि दी गई।इस मोड़ पर आकर भारत के इतिहास में एक विलक्षण घटना घटित हुई, ज़ाहिर है कि इतिहास की पुस्तकों में जिसका कहीं जिक्र नहीं किया गया है। इस्लामी खतरे को देखते हुए पहली बार भारत के उत्तरी इलाके के हिन्दू राजाओं ने एक विशाल गठबन्धन बनाया, जिसमें 17 राजा सेना सहित शामिल हुए और उनकी संगठित संख्या सैयद सालार मसूद की विशाल सेना से भी ज्यादा हो गई। जैसी कि हिन्दुओ की परम्परा रही है, सभी राजाओं के इस गठबन्धन ने सालार मसूद के पास संदेश भिजवाया कि यह पवित्र धरती हमारी है और वह अपनी सेना के साथ चुपचाप भारत छोड़कर निकल जाये अथवा उसे एक भयानक युद्ध झेलना पड़ेगा। गाज़ी मसूद का जवाब भी वही आया जो कि अपेक्षित था, उसने कहा कि “इस धरती की सारी ज़मीन खुदा की है, और वह जहाँ चाहे वहाँ रह सकता है… यह उसका धार्मिक कर्तव्य है कि वह सभी को इस्लाम का अनुयायी बनाये और जो खुदा को नहीं मानते उन्हें काफ़िर माना जाये…”।उसके बाद ऐतिहासिक बहराइच का युद्ध हुआ, जिसमें संगठित हिन्दुओं की सेना ने सैयद मसूद की सेना को धूल चटा दी। इस भयानक युद्ध के बारे में इस्लामी विद्वान शेख अब्दुर रहमान चिश्ती की पुस्तक मीर-उल-मसूरी में विस्तार से वर्णन किया गया है। उन्होंने लिखा है कि मसूद सन् 1033 में बहराइच पहुँचा, तब तक हिन्दू राजा संगठित होना शुरु हो चुके थे। यह भीषण रक्तपात वाला युद्ध मई-जून 1033 में लड़ा गया। युद्ध इतना भीषण था कि सैयद सालार मसूद के किसी भी सैनिक को जीवित नहीं जाने दिया गया, यहाँ तक कि युद्ध बंदियों को भी मार डाला गया… मसूद का समूचे भारत को इस्लामी रंग में रंगने का सपना अधूरा ही रह गया।बहराइच का यह युद्ध 14 जून 1033 को समाप्त हुआ। बहराइच के नज़दीक इसी मुगल आक्रांता सैयद सालार मसूद (तथाकथित गाज़ी बाबा) की कब्र बनी। जब फ़िरोज़शाह तुगलक का शासन समूचे इलाके में पुनर्स्थापित हुआ तब वह बहराइच आया और मसूद के बारे में जानकारी पाकर प्रभावित हुआ और उसने उसकी कब्र को एक विशाल दरगाह और गुम्बज का रूप देकर सैयद सालार मसूद को “एक धर्मात्मा”(?) के रूप में प्रचारित करना शुरु किया, एक ऐसा इस्लामी धर्मात्मा जो भारत में इस्लाम का प्रचार करने आया था। मुगल काल में धीरे-धीरे यह किंवदंती का रूप लेता गया और कालान्तर में सभी लोगों ने इस “गाज़ी बाबा” को “पहुँचा हुआ पीर” मान लिया तथा उसकी दरगाह पर प्रतिवर्ष एक “उर्स” का आयोजन होने लगा, जो कि आज भी जारी है। इस समूचे घटनाक्रम को यदि ध्यान से देखा जाये तो कुछ बातें मुख्य रूप से स्पष्ट होती हैं-(1) महमूद गजनवी के इतने आक्रमणों के बावजूद हिन्दुओं के पहली बार संगठित होते ही एक क्रूर मुगल आक्रांता को बुरी तरह से हराया गया (अर्थात यदि हिन्दू संगठित हो जायें तो उन्हें कोई रोक नहीं सकता)(2) एक मुगल आक्रांता जो भारत को इस्लामी देश बनाने का सपना देखता था, आज की तारीख में एक “पीर-शहीद” का दर्जा पाये हुए है और दुष्प्रचार के प्रभाव में आकर मूर्ख हिन्दू उसकी मज़ार पर जाकर मत्था टेक रहे हैं।(3) एक इतना बड़ा तथ्य कि महमूद गजनवी के एक प्रमुख रिश्तेदार को भारत की भूमि पर समाप्त किया गया, इतिहास की पुस्तकों में सिरे से ही गायब है।जो कुछ भी उपलब्ध है इंटरनेट पर ही है, इस सम्बन्ध में रोमिला थापर की पुस्तक “Dargah of Ghazi in Bahraich” में उल्लेख हैएन्ना सुवोरोवा की एक और पुस्तक “Muslim Saints of South Asia” में भी इसका उल्लेख मिलता है,जो मूर्ख हिन्दू उस दरगाह पर जाकर अभी भी स्वास्थ्य और शारीरिक तकलीफ़ों सम्बन्धी तथा अन्य दुआएं मांगते हैं उनकी खिल्ली स्वयं “तुलसीदास” भी उड़ा चुके हैं। चूंकि मुगल शासनकाल होने के कारण तुलसीदास ने मुस्लिम आक्रांताओं के बारे में ज्यादा कुछ नहीं लिखा है, लेकिन फ़िर भी बहराइच में जारी इस “भेड़िया धसान” (भेड़चाल) के बारे में वे अपनी “दोहावली” में कहते हैं –लही आँखि कब आँधरे, बाँझ पूत कब ल्याइ ।कब कोढ़ी काया लही, जग बहराइच जाइ॥अर्थात “पता नहीं कब किस अंधे को आँख मिली, पता नहीं कब किसी बाँझ को पुत्र हुआ, पता नहीं कब किसी कोढ़ी की काया निखरी, लेकिन फ़िर भी लोग बहराइच क्यों जाते हैं…” (यहाँ भी देखें)“लाल” इतिहासकारों और धूर्त तथा स्वार्थी कांग्रेसियों ने हमेशा भारत की जनता को उनके गौरवपूर्ण इतिहास से महरूम रखने का प्रयोजन किया हुआ है। इनका साथ देने के लिये “सेकुलर” नाम की घृणित कौम भी इनके पीछे हमेशा रही है। भारत के इतिहास को छेड़छाड़ करके मनमाने और षडयन्त्रपूर्ण तरीके से अंग्रेजों और मुगलों को श्रेष्ठ बताया गया है और हिन्दू राजाओं का या तो उल्लेख ही नहीं है और यदि है भी तो दमित-कुचले और हारे हुए के रूप में। आखिर इस विकृति के सुधार का उपाय क्या है…? जवाब बड़ा मुश्किल है, लेकिन एक बात तो तय है कि इतने लम्बे समय तक हिन्दू कौम का “ब्रेनवॉश” किया गया है, तो दिमागों से यह गंदगी साफ़ करने में समय तो लगेगा ही। इसके लिये शिक्षण पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन करने होंगे। “मैकाले की अवैध संतानों” को बाहर का रास्ता दिखाना होगा, यह एक धीरे-धीरे चलने वाली प्रक्रिया है। हालांकि संतोष का विषय यह है कि इंटरनेट नामक हथियार युवाओं में तेजी से लोकप्रिय हो रहा है, युवाओं में “हिन्दू भावनाओं” का उभार हो रहा है, उनमें अपने सही इतिहास को जानने की भूख है। आज का युवा काफ़ी समझदार है, वह देख रहा है कि भारत के आसपास क्या हो रहा है, वह जानता है कि भारत में कितनी अन्दरूनी शक्ति है, लेकिन जब वह “सेकुलरवादियों”, कांग्रेसियों और वामपंथियों के ढोंग भरे प्रवचन और उलटबाँसियाँ सुनता है तो उसे उबकाई आने लगती है, इन युवाओं (17 से 23 वर्ष आयु समूह) को भारत के गौरवशाली पृष्ठभूमि का ज्ञान करवाना चाहिये। उन्हें यह बताने की जरूरत है कि भले ही वे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के नौकर बनें, लेकिन उन्हें किसी से “दबकर” रहने या अपने धर्म और हिन्दुत्व को लेकर किसी शर्मिन्दगी का अहसास करने की आवश्यकता नहीं है। जिस दिन हिन्दू संगठित होकर प्रतिकार करने लगेंगे, एक “हिन्दू वोट बैंक” की तरह चुनाव में वोटिंग करने लगेंगे, उस दिन ये “सेकुलर” नामक रीढ़विहीन प्राणी देखते-देखते गायब हो जायेगा। हमें प्रत्येक दुष्प्रचार का जवाब खुलकर देना चाहिये, वरना हो सकता है कि किसी दिन एकाध “गधे की दरगाह” पर भी हिन्दू सिर झुकाते हुए मिलें…
बी एन शर्मा -भोपाल
पर… पाठकगंण महमूद गज़नवी (गज़नी) के बारे में तो जानते ही होंगे, वही मुगल आक्रांता जिसने सोमनाथ पर 16 बार हमला किया और भारी मात्रा में सोना हीरे-जवाहरात आदि लूट कर ले गया था। महमूद गजनवी ने सोमनाथ पर आखिरी बार सन् 1024 में हमला किया था तथा उसने व्यक्तिगत रूप से सामने खड़े होकर शिवलिंग के टुकड़े-टुकड़े किये और उन टुकड़ों को अफ़गानिस्तान के गज़नी शहर की जामा मस्जिद की सीढ़ियों में सन् 1026 में लगवाया। इसी लुटेरे महमूद गजनवी का ही रिश्तेदार था सैयद सालार मसूद… यह बड़ी भारी सेना लेकर सन् 1031 में भारत आया। सैयद सालार मसूद एक सनकी किस्म का धर्मान्ध मुगल आक्रान्ता था। महमूद गजनवी तो बार-बार भारत आता था सिर्फ़ लूटने के लिये और वापस चला जाता था, लेकिन इस बार सैयद सालार मसूद भारत में विशाल सेना लेकर आया था कि वह इस भूमि को “दारुल-इस्लाम” बनाकर रहेगा और इस्लाम का प्रचार पूरे भारत में करेगा (जाहिर है कि तलवार के बल पर)।सैयद सालार मसूद अपनी सेना को लेकर “हिन्दुकुश” पर्वतमाला को पार करके पाकिस्तान (आज के) के पंजाब में पहुँचा, जहाँ उसे पहले हिन्दू राजा आनन्द पाल शाही का सामना करना पड़ा, जिसका उसने आसानी से सफ़ाया कर दिया। मसूद के बढ़ते कदमों को रोकने के लिये सियालकोट के राजा अर्जन सिंह ने भी आनन्द पाल की मदद की लेकिन इतनी विशाल सेना के आगे वे बेबस रहे। मसूद धीरे-धीरे आगे बढ़ते-बढ़ते राजपूताना और मालवा प्रांत में पहुँचा, जहाँ राजा महिपाल तोमर से उसका मुकाबला हुआ, और उसे भी मसूद ने अपनी सैनिक ताकत से हराया। एक तरह से यह भारत के विरुद्ध पहला जेहाद कहा जा सकता है, जहाँ कोई मुगल आक्रांता सिर्फ़ लूटने की नीयत से नहीं बल्कि बसने, राज्य करने और इस्लाम को फ़ैलाने का उद्देश्य लेकर आया था। पंजाब से लेकर उत्तरप्रदेश के गांगेय इलाके को रौंदते, लूटते, हत्यायें-बलात्कार करते सैयद सालार मसूद अयोध्या के नज़दीक स्थित बहराइच पहुँचा, जहाँ उसका इरादा एक सेना की छावनी और राजधानी बनाने का था। इस दौरान इस्लाम के प्रति उसकी सेवाओं(?) को देखते हुए उसे “गाज़ी बाबा” की उपाधि दी गई।इस मोड़ पर आकर भारत के इतिहास में एक विलक्षण घटना घटित हुई, ज़ाहिर है कि इतिहास की पुस्तकों में जिसका कहीं जिक्र नहीं किया गया है। इस्लामी खतरे को देखते हुए पहली बार भारत के उत्तरी इलाके के हिन्दू राजाओं ने एक विशाल गठबन्धन बनाया, जिसमें 17 राजा सेना सहित शामिल हुए और उनकी संगठित संख्या सैयद सालार मसूद की विशाल सेना से भी ज्यादा हो गई। जैसी कि हिन्दुओ की परम्परा रही है, सभी राजाओं के इस गठबन्धन ने सालार मसूद के पास संदेश भिजवाया कि यह पवित्र धरती हमारी है और वह अपनी सेना के साथ चुपचाप भारत छोड़कर निकल जाये अथवा उसे एक भयानक युद्ध झेलना पड़ेगा। गाज़ी मसूद का जवाब भी वही आया जो कि अपेक्षित था, उसने कहा कि “इस धरती की सारी ज़मीन खुदा की है, और वह जहाँ चाहे वहाँ रह सकता है… यह उसका धार्मिक कर्तव्य है कि वह सभी को इस्लाम का अनुयायी बनाये और जो खुदा को नहीं मानते उन्हें काफ़िर माना जाये…”।उसके बाद ऐतिहासिक बहराइच का युद्ध हुआ, जिसमें संगठित हिन्दुओं की सेना ने सैयद मसूद की सेना को धूल चटा दी। इस भयानक युद्ध के बारे में इस्लामी विद्वान शेख अब्दुर रहमान चिश्ती की पुस्तक मीर-उल-मसूरी में विस्तार से वर्णन किया गया है। उन्होंने लिखा है कि मसूद सन् 1033 में बहराइच पहुँचा, तब तक हिन्दू राजा संगठित होना शुरु हो चुके थे। यह भीषण रक्तपात वाला युद्ध मई-जून 1033 में लड़ा गया। युद्ध इतना भीषण था कि सैयद सालार मसूद के किसी भी सैनिक को जीवित नहीं जाने दिया गया, यहाँ तक कि युद्ध बंदियों को भी मार डाला गया… मसूद का समूचे भारत को इस्लामी रंग में रंगने का सपना अधूरा ही रह गया।बहराइच का यह युद्ध 14 जून 1033 को समाप्त हुआ। बहराइच के नज़दीक इसी मुगल आक्रांता सैयद सालार मसूद (तथाकथित गाज़ी बाबा) की कब्र बनी। जब फ़िरोज़शाह तुगलक का शासन समूचे इलाके में पुनर्स्थापित हुआ तब वह बहराइच आया और मसूद के बारे में जानकारी पाकर प्रभावित हुआ और उसने उसकी कब्र को एक विशाल दरगाह और गुम्बज का रूप देकर सैयद सालार मसूद को “एक धर्मात्मा”(?) के रूप में प्रचारित करना शुरु किया, एक ऐसा इस्लामी धर्मात्मा जो भारत में इस्लाम का प्रचार करने आया था। मुगल काल में धीरे-धीरे यह किंवदंती का रूप लेता गया और कालान्तर में सभी लोगों ने इस “गाज़ी बाबा” को “पहुँचा हुआ पीर” मान लिया तथा उसकी दरगाह पर प्रतिवर्ष एक “उर्स” का आयोजन होने लगा, जो कि आज भी जारी है। इस समूचे घटनाक्रम को यदि ध्यान से देखा जाये तो कुछ बातें मुख्य रूप से स्पष्ट होती हैं-(1) महमूद गजनवी के इतने आक्रमणों के बावजूद हिन्दुओं के पहली बार संगठित होते ही एक क्रूर मुगल आक्रांता को बुरी तरह से हराया गया (अर्थात यदि हिन्दू संगठित हो जायें तो उन्हें कोई रोक नहीं सकता)(2) एक मुगल आक्रांता जो भारत को इस्लामी देश बनाने का सपना देखता था, आज की तारीख में एक “पीर-शहीद” का दर्जा पाये हुए है और दुष्प्रचार के प्रभाव में आकर मूर्ख हिन्दू उसकी मज़ार पर जाकर मत्था टेक रहे हैं।(3) एक इतना बड़ा तथ्य कि महमूद गजनवी के एक प्रमुख रिश्तेदार को भारत की भूमि पर समाप्त किया गया, इतिहास की पुस्तकों में सिरे से ही गायब है।जो कुछ भी उपलब्ध है इंटरनेट पर ही है, इस सम्बन्ध में रोमिला थापर की पुस्तक “Dargah of Ghazi in Bahraich” में उल्लेख हैएन्ना सुवोरोवा की एक और पुस्तक “Muslim Saints of South Asia” में भी इसका उल्लेख मिलता है,जो मूर्ख हिन्दू उस दरगाह पर जाकर अभी भी स्वास्थ्य और शारीरिक तकलीफ़ों सम्बन्धी तथा अन्य दुआएं मांगते हैं उनकी खिल्ली स्वयं “तुलसीदास” भी उड़ा चुके हैं। चूंकि मुगल शासनकाल होने के कारण तुलसीदास ने मुस्लिम आक्रांताओं के बारे में ज्यादा कुछ नहीं लिखा है, लेकिन फ़िर भी बहराइच में जारी इस “भेड़िया धसान” (भेड़चाल) के बारे में वे अपनी “दोहावली” में कहते हैं –लही आँखि कब आँधरे, बाँझ पूत कब ल्याइ ।कब कोढ़ी काया लही, जग बहराइच जाइ॥अर्थात “पता नहीं कब किस अंधे को आँख मिली, पता नहीं कब किसी बाँझ को पुत्र हुआ, पता नहीं कब किसी कोढ़ी की काया निखरी, लेकिन फ़िर भी लोग बहराइच क्यों जाते हैं…” (यहाँ भी देखें)“लाल” इतिहासकारों और धूर्त तथा स्वार्थी कांग्रेसियों ने हमेशा भारत की जनता को उनके गौरवपूर्ण इतिहास से महरूम रखने का प्रयोजन किया हुआ है। इनका साथ देने के लिये “सेकुलर” नाम की घृणित कौम भी इनके पीछे हमेशा रही है। भारत के इतिहास को छेड़छाड़ करके मनमाने और षडयन्त्रपूर्ण तरीके से अंग्रेजों और मुगलों को श्रेष्ठ बताया गया है और हिन्दू राजाओं का या तो उल्लेख ही नहीं है और यदि है भी तो दमित-कुचले और हारे हुए के रूप में। आखिर इस विकृति के सुधार का उपाय क्या है…? जवाब बड़ा मुश्किल है, लेकिन एक बात तो तय है कि इतने लम्बे समय तक हिन्दू कौम का “ब्रेनवॉश” किया गया है, तो दिमागों से यह गंदगी साफ़ करने में समय तो लगेगा ही। इसके लिये शिक्षण पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन करने होंगे। “मैकाले की अवैध संतानों” को बाहर का रास्ता दिखाना होगा, यह एक धीरे-धीरे चलने वाली प्रक्रिया है। हालांकि संतोष का विषय यह है कि इंटरनेट नामक हथियार युवाओं में तेजी से लोकप्रिय हो रहा है, युवाओं में “हिन्दू भावनाओं” का उभार हो रहा है, उनमें अपने सही इतिहास को जानने की भूख है। आज का युवा काफ़ी समझदार है, वह देख रहा है कि भारत के आसपास क्या हो रहा है, वह जानता है कि भारत में कितनी अन्दरूनी शक्ति है, लेकिन जब वह “सेकुलरवादियों”, कांग्रेसियों और वामपंथियों के ढोंग भरे प्रवचन और उलटबाँसियाँ सुनता है तो उसे उबकाई आने लगती है, इन युवाओं (17 से 23 वर्ष आयु समूह) को भारत के गौरवशाली पृष्ठभूमि का ज्ञान करवाना चाहिये। उन्हें यह बताने की जरूरत है कि भले ही वे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के नौकर बनें, लेकिन उन्हें किसी से “दबकर” रहने या अपने धर्म और हिन्दुत्व को लेकर किसी शर्मिन्दगी का अहसास करने की आवश्यकता नहीं है। जिस दिन हिन्दू संगठित होकर प्रतिकार करने लगेंगे, एक “हिन्दू वोट बैंक” की तरह चुनाव में वोटिंग करने लगेंगे, उस दिन ये “सेकुलर” नामक रीढ़विहीन प्राणी देखते-देखते गायब हो जायेगा। हमें प्रत्येक दुष्प्रचार का जवाब खुलकर देना चाहिये, वरना हो सकता है कि किसी दिन एकाध “गधे की दरगाह” पर भी हिन्दू सिर झुकाते हुए मिलें…
बी एन शर्मा -भोपाल
बुधवार, 13 अक्टूबर 2010
मीडिया ने चुनौती दी है राष्ट्र को
मीडिया ने चुनौती दी है राष्ट्र को—————————-
——————————————————यशेन्द्र की बतकही
पूरा देश बम-बम है इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय को सुनकर I सच कहूँ तो इस प्रकार के निर्णय की आशा न थी I सैकड़ों वर्षों से मन मार के सहने की आदत जो पड़ चुकी है हमें I हमें पता था कि आज के युग में केवल तथ्यों के भरोसे रहने पर कुछ नहीं होता I पर उच्च न्यायालय ने तथ्यों के आधार पर निर्णय सुना दिया I
नतीज़ा यह हुआ कि अधिकांश मीडिया ( टी.वी एवं प्रिन्ट दोनों) में कोहराम मच गया I अंग्रेज़ी के कुछ महानतम समाचारपत्र तो सन्न रह गए ! न्यायालय ने हिन्दुओं की बात कैसे मान ली ? पिछली रात शायद ‘पब’ में बैठकर जिन महान पत्रकारों ने भाजपा और संघ-परिवार की बखिया उधेड़ने की योजना बनाई थी उनकी तो फट गई I वैसे मुझे आज तक यह नहीं समझ आया है कि जब कहीं श्रीराम का नाम उठता हैं तो इन्हें भाजपा एवं संघ – परिवार की ही याद क्यों आती है ? आसेतुहिमाचल उन करोड़ों भारतीयों की याद क्यों नहीं आती जिनके ह्रदय में श्रीराम बसते हैं — जो राम मन्दिर का निर्माण करना चाहते है पर कोई प्रदर्शन नहीं कर पाते I 1962 में भारत पर चीन के आक्रमण का समर्थन करने वाले महान वामपंथ के नेता सीताराम येचुरी तक के नाम में ‘सीताराम’ बसते हैं ! बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय का संघ-परिवार से कोई सरोकार नहीं है और ना ही ये इस्लाम का विरोधी है I पर इसे इस बात का पता है कि बाबरी मस्जिद का निर्माण राम-मंदिर का ध्वंस कर के ही हुआ था I
अधिकांश टी.वी. चैनलों ने वामपंथी इतिहासकार और चाचा नेहरु के पद-चिन्हों पर चलने वाले विद्वानों को एकत्रित किया I सभी आग बबूला थे I ‘विश्वास’ को आधार बनाकर उच्च न्यायालय ने वहाँ राम की जन्मभूमि कैसे मान ली ? पर किसी ने भी यह जिक्र नहीं किया कि यह ‘विश्वास’ इस्लाम के जन्म के हजारों वर्ष पहले से चला आ रहा है ! किसी ने यह जिक्र करने की जरुरत नहीं समझी कि मस्जिद में अल्लाह बसते हैं क्या यह ‘विश्वास’ नहीं है ? अल्लाह का अस्तित्व ‘विश्वास’ नहीं तो और क्या है ?
महानतम पत्रकारों में से एक – बरखा दत्त – तो बौखला गईं : ” अगर सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस निर्णय पर अपनी मुहर लगा दी तो उस ‘worst case scenario ‘ में ‘हम’ क्या करेंगे ?” उनके इस वक्तव्य की वीडियो रेकॉर्डिंग इन्टरनेट पर सहज उपलब्ध है I जिन ‘हम’ लोगों का जिक्र उन्होंने किया, सत्य ही उन लोगों के लिए भारतवर्ष के आदर्श मर्यादा-पुरूषोत्तम श्रीराम का मंदिर- निर्माण एक ‘ worst case scenario ‘ के अतिरिक्त और क्या हो सकता है ! सचमुच देखने लायक है बरखा दत्त के उस कार्यक्रम की वीडियो रेकॉर्डिंग जिसमे उन्होंने ‘भव्य मंदिर’ शब्द- युग्म का जम कर माखौल उड़ाया है I मीडिया के इस वर्ग के लिए राम का नाम लेने वाला हर भारतीय ‘संघ- परिवार’ का सदस्य है I
उच्च न्यायालय ने 2-1 के बहुमत से यह निर्णय दिया कि वहाँ एक हिन्दू धार्मिक-स्थल का ध्वंस कर मस्जिद का निर्माण कराया गया था I जिन एक न्यायाधीश ने ध्वंस करने की बात नहीं मानी उन्होंने भी स्वीकार किया कि मस्जिद बना तो हिन्दू धार्मिक-स्थल के ध्वंसावशेष पर ही था, और निर्माण में अवशेष की संरचनाओं का उपयोग भी हुआ था !पर इस मूल तथ्य पर मीडिया का ध्यान क्यों जाए ! सैकड़ो वर्षों तक मुस्लिम हमलावरों ने जिस दरिदंगी और हैवानियत का खेल खेला है वह इनके लिए तथ्य कैसे हो सकता है ! मुस्लिमों की प्रत्येक बात का समर्थन किये बिना कोई ‘सेक्युलर’ अथवा सफल पत्रकार थोड़े ही बन सकता है ! मीडिया के इस बहुसंख्यक वर्ग का ध्यान सिर्फ इस पर केन्द्रित है कि 1992 में हिन्दू धार्मिक-स्थल का ध्वंस कर बनाये गए बाबरी मस्जिद को क्यों तोड़ा गया ? इन महान पत्रकारों के लिए इतिहास भी 22 दिसम्बर 1949 से प्रारम्भ होता है जब रामलला की मूर्तियाँ बाबरी मस्जिद में जबरदस्ती रखी गयी थी I उसके पहले क्या हुआ था उससे मीडिया को क्या मतलब ?!
वास्तव में यदि देखें तो बाबरी मस्जिद को तोड़कर वहाँ श्रीराम-मंदिर बनाने का दायित्त्व भारत सरकार का था I 15 अगस्त 1947 के तुरंत बाद ही यह कार्य हो जाना चाहिए था I अयोध्या ही नहीं, मथुरा, काशी एवं अन्य ऐसे सभी स्थलों से राष्ट्रीय-कलंक के प्रतीकों को मिटाने के लिए 1947 अथवा 1950 में ही ‘राष्ट्रीय-चेतना मंत्रालय’ का गठन हो जाना चाहिए था I राष्ट्र को धर्म-निरपेक्ष घोषित किये जाने के बाद संवैधानिक रूप से यह सरकार का दायित्त्व बनता था कि मुस्लिम हमलावरों द्वारा किए गए ध्वंस पर हुए निर्माण को मिटा दे I जब तक ऐसा नहीं होता हम सरकार को धर्म निरपेक्ष कैसे मान लें ? इस्लाम के नाम का दुरूपयोग करने वाले हमलावरों द्वारा किये गए कुकृत्यों के स्मारकों को मिटाए बिना हम धर्म-निरपेक्षता की बात कैसे कर सकते है ?सरकार ने कुछ नहीं किया तो भारत के लोगों ने 6 दिसम्बर 1992 को स्वयं इस कार्य का शुभारम्भ कर दिया I जो इस महान कार्य को मुस्लिम- विरोधी दृष्टिकोण से देखते हैं वह भयंकर भूल करते हैं I बाबरी मस्जिद के ध्वंस से स्वयं को गौरवान्वित समझने वाला बृहत् हिन्दू समाज इस्लाम का विरोधी नहीं हैं I भारत का यह बहुसंख्यक समाज मस्जिद की उतनी ही श्रद्धा करता है जितनी मंदिर की I रामकृष्ण परमहंस, गायत्री परिवार के संस्थापक आचार्य श्रीराम शर्मा, संत कबीर, गुरु नानक आदि महान भारतीय संतों ने पैगम्बर मोहम्मद एवं पवित्र कुरान को पूर्ण श्रद्धा की दृष्टि से देखा है I बिहार, बंगाल, उड़ीसा एवं अन्य क्षेत्रों में श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचन्द्र जी (1888-1969) के शिष्यगण श्रीराम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा एवं मोहम्मद सबकी समान-रूप से प्रतिदिन आराधना करते हैं I पर यह सारी बातें मीडिया के लिए तथ्य नहीं है I इससे उनकी टी.आर. पी. नहीं बढ़ती Iउच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि भारतीय पुरातत्त्व विभाग के शोध ने यह प्रमाणित कर दिया कि एक हिन्दू धर्मस्थल का ध्वंस कर मस्जिद बनाई गयी थी I ऐसी स्थिति में वह मस्जिद अल्लाह की इबादत योग्य स्थान कैसे रही ? वह तो कलंक थी हमारी सभ्यता और संस्कृति पर I यदि भारत को वास्तविक रूप से धर्म-निरपेक्ष बनाना है तो ऐसे सभी कलंको को मिटाना होगा I
भारतीय मुस्लिम समाज को इस यथार्थ को स्वीकारना होगा कि इस्लाम की शिक्षा भले अरब से आई हो, पर उनकी संस्कृति भारतीय है, अरब की नहीं I उन्हें गौरी, गज़नी, ख़िलज़ी और बाबर के वंश पर गर्व करना छोड़ना होगा I यह सभी भारतीय -संस्कृति के ध्वंसकर्त्ता हैं I नालंदा, विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालयों का विध्वंस करने वाले बख्तियार खिलजी के नाम पर एक शहर है बिहार में– बख्तियारपुर ! औरंगजेब के नाम पर तो कई शहर हैं, और राजधानी नई दिल्ली का एक प्रमुख मार्ग उसी के नाम पर है I यह भारत के पतन का परिचायक नहीं तो और क्या है ? अजमल कसाब के नाम पर मुंबई का नाम ‘कसाबपुर’ या ताज होटल का नाम ‘कसाबधाम’ रख देना क्या धर्म- निरपेक्षता होगी ? संसद पर हमला करने वाले अफज़ल गुरु को फाँसी न देना क्या धर्मं निरपेक्षता है ?सनातन धर्म ‘सर्वधर्म-समभाव’ पर आधारित है I अनादिकाल से चली आ रही इस सभ्यता को तहस-नहस करना चाहा है मुस्लिम आक्रमणकारियों ने I हजारों मंदिरों को ही नहीं, विश्वविद्यालयों तक को नेस्तनाबूद कर डाला उन्होंने I दारा शिकोह जैसी किसी शख्सियत ने भारतीय दर्शन में यदि रूचि भी दिखाई तो उन्हें हाथियों द्वारा कुचलवा दिया गया I पर इन तथ्यों से मीडिया को क्या फर्क पड़ता है !
‘सर्वधर्म-समभाव’ की भावना मूल इस्लाम में अवश्य है, पर अनुयायियों ने उसे विकृत कर दिया I अब इसका मुस्लिम-सोच में कोई स्थान नहीं I मुस्लिम संस्कृति भारत की राष्ट्रीयता की परिचायक नहीं I हाँ, जहाँ वे अल्पसंख्यक हैं वहाँ ‘सेकुलरिज्म’ बात वे जरुर करेंगे I पर जहाँ वे बहुसंख्यक हैं वहाँ क्या होता है ? सउदी अरब, दुबई, खाड़ी- देश, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश में ‘सर्वधर्मं समभाव’ या ‘सेक्युलरिज्म’ की बात करने वाले जीवित नहीं छोड़े जाते I काश्मीर के मुस्लिम ‘सर्वधर्म समभाव’ की बात क्यों नहीं करते ?!! मुस्लिम जिस क्षेत्र में बहुसंख्यक होंगे वहां वे अलग राष्ट्र की माँग करेंगे, यह ध्रुव सत्य है I पाकिस्तान एवं बांग्लादेश का निर्माण इसी कारण हुआ था I आज जो कश्मीर की समस्या है उसका कारण बस यही है कि वहाँ मुस्लिम बहुसंख्यक हैं I काश्मीर से अधिक पिछड़े बिहार जैसे अन्य क्षेत्र में पृथक राष्ट्र की माँग क्यों नहीं उठती ? सशस्त्र विद्रोह पर उतर आए नक्सलवादी भी पृथक राष्ट्र की माँग नहीं कर रहे !पिछले महीने ही पश्चिम बंगाल के देगंगा में मुस्लिमों ने जो हिन्दुओं पर जो कहर बरपा किया उस पर मीडिया चुप क्यों है ? वे शायद इस अवसर की प्रतीक्षा में है कि कब हिन्दू प्रत्याक्रमण करें और वे कैमरा और सेकुलरिज्म का झंडा लेकर कूद पड़ें ! भला हो मीडिया की शीर्ष-संस्था का जिसने खबरिया चैनलों पर अंकुश लगा दिए थे I वर्ना अपनी टी. आर. पी. बढ़ने के लिए ये चैनल सबको भड़का कर पूरे देश में दंगा करवा देने से शायद ही हिचकें I और फिर चेहरे पर पाउडर पोत कर इनके संवाददाता मरने वालों के परिजनों से पूछते फिरते “कैसा महसूस हो रहा है ?” !!राजनीतिक नेताओ को तो चुनावों में जनता को जवाब देना होता है I पर मीडिया वाले सिर्फ व्यापारी हैं I स्वयं पर स्व-घोषित रूप से ‘जनता की आवाज़’ का नकाब ओढ़े हुए है I साथ ही साथ बहुसंख्यक जनता के मत की आलोचना भी करते हैं !! उन्हें टी. आर. पी. चाहिए और वे उसी की सुनेंगे जो उन्हें धन दे I धन तभी मिलेगा जब ज्यादा विज्ञापन मिलेंगे और यह तभी संभव है जब देश में उपभोक्तावाद बढे तथा भारत का अधिक से अधिक बाजारीकरण हो I
परन्तु सनातन धर्म की मूल भारतीय- संस्कृति तो त्याग पर आधारित है ! यह विषयोपभोग को पतन मानती है, विकास नहीं I ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ I इन्द्रियों एवं स्वयं की आवश्यकताओं पर संयम रखने की शिक्षा देता है सनातन धर्म का विज्ञान I मूल इस्लाम की आध्यात्मिकता के भी यही मूल्य हैं I यह पाश्चात्य संस्कृति एवं मूल्यों के ठीक विपरीत है जिनका आदर्श है – अधिक से अधिक उपभोग I यही कारण है कि अधिकांश मीडिया (चैनल एवं प्रिंट) वालो को सनातन धर्म के मूल्य फूटी आँखों नहीं सुहाते I वैदिक शिक्षा हो या निजामुद्दीन औलिया की, अधिकांश मीडिया को आध्यात्मिक मूल्यों से ही चिढ़ है I हिन्दू- मुस्लिम सबको समझ लेना होगा कि मीडिया अपनी रोटी सेंकना चाहता है Iइसके अतिरिक्त, चाचा नेहरु की वज़ह से भारतीय शिक्षा पद्वति एवं भारतीय इतिहास का प्रस्तुतीकरण वामपंथ के दृष्टिकोण पर आधारित हैं I यह वामपंथ सनातन धर्म पर आधारित भारतीय संस्कृति एवं उसके इतिहास के तथ्यों से घृणा करता है I सनातन धर्म की हमारी सभ्यता आसुरिक एवं पैशाचिक संस्कृति की विरोधी है I उन्मुक्त यौन-सम्बन्ध, समलैंगिकता, सिद्धांत -विहीन स्वछन्दता, विवाह-संस्था का पतन, परिवार का बिखराव, मदिरापान एवं मांसाहार जैसे तामसिक कृत्य आसुरिक संस्कृति के अंग है I यह संस्कृति व्यक्ति को इन्द्रियों का गुलाम बनाकर भोगवाद सिखाती है I इसी से समाज में उपभोक्तावाद बढ़ता है I यही कारण है कि आधुनिक मीडिया का अधिकांश भाग इन्ही कृत्यों के गुण गाता है और ‘विकास’ का जामा पहनाकर इन दुष्प्रवृत्तियों को समाज में बढ़ाना चाहता है Iमीडिया की राह का सबसे बड़ा रोड़ा है सनातन धर्म ! श्रीराम इसी सनातन धर्म के प्रतीक हैं जो ‘सर्वधर्म समभाव’ एवं ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ पर आधारित है I यह भोगवाद एवं उपभोक्तावाद के विरुद्ध है I इसीलिये मीडिया चुनौती दे रहा है भारतवर्ष की सनातन संस्कृति को जो हमारे राष्ट्र का वज़ूद है I श्रीराम मंदिर का निर्माण उनके लिए ‘worst case scenario’ है I
राम जन्मभूमि का मामला शायद राजनीतिक दलों के हाथ से निकल चुका है I अब जो युद्ध है वह भारतवर्ष और भारत की मीडिया के बीच है ! मीडिया ने उच्च न्यायालय के निर्णय एवं राममंदिर-निर्माण का माखौल उड़ा कर समग्र राष्ट्र को ललकारा है I उनकी इस चुनौती का सामना करना होगा पूरे देश को एकजुट हो कर I
“समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है,
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है ।
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध ।” (-दिनकर )
——————————————————यशेन्द्र की बतकही
पूरा देश बम-बम है इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय को सुनकर I सच कहूँ तो इस प्रकार के निर्णय की आशा न थी I सैकड़ों वर्षों से मन मार के सहने की आदत जो पड़ चुकी है हमें I हमें पता था कि आज के युग में केवल तथ्यों के भरोसे रहने पर कुछ नहीं होता I पर उच्च न्यायालय ने तथ्यों के आधार पर निर्णय सुना दिया I
नतीज़ा यह हुआ कि अधिकांश मीडिया ( टी.वी एवं प्रिन्ट दोनों) में कोहराम मच गया I अंग्रेज़ी के कुछ महानतम समाचारपत्र तो सन्न रह गए ! न्यायालय ने हिन्दुओं की बात कैसे मान ली ? पिछली रात शायद ‘पब’ में बैठकर जिन महान पत्रकारों ने भाजपा और संघ-परिवार की बखिया उधेड़ने की योजना बनाई थी उनकी तो फट गई I वैसे मुझे आज तक यह नहीं समझ आया है कि जब कहीं श्रीराम का नाम उठता हैं तो इन्हें भाजपा एवं संघ – परिवार की ही याद क्यों आती है ? आसेतुहिमाचल उन करोड़ों भारतीयों की याद क्यों नहीं आती जिनके ह्रदय में श्रीराम बसते हैं — जो राम मन्दिर का निर्माण करना चाहते है पर कोई प्रदर्शन नहीं कर पाते I 1962 में भारत पर चीन के आक्रमण का समर्थन करने वाले महान वामपंथ के नेता सीताराम येचुरी तक के नाम में ‘सीताराम’ बसते हैं ! बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय का संघ-परिवार से कोई सरोकार नहीं है और ना ही ये इस्लाम का विरोधी है I पर इसे इस बात का पता है कि बाबरी मस्जिद का निर्माण राम-मंदिर का ध्वंस कर के ही हुआ था I
अधिकांश टी.वी. चैनलों ने वामपंथी इतिहासकार और चाचा नेहरु के पद-चिन्हों पर चलने वाले विद्वानों को एकत्रित किया I सभी आग बबूला थे I ‘विश्वास’ को आधार बनाकर उच्च न्यायालय ने वहाँ राम की जन्मभूमि कैसे मान ली ? पर किसी ने भी यह जिक्र नहीं किया कि यह ‘विश्वास’ इस्लाम के जन्म के हजारों वर्ष पहले से चला आ रहा है ! किसी ने यह जिक्र करने की जरुरत नहीं समझी कि मस्जिद में अल्लाह बसते हैं क्या यह ‘विश्वास’ नहीं है ? अल्लाह का अस्तित्व ‘विश्वास’ नहीं तो और क्या है ?
महानतम पत्रकारों में से एक – बरखा दत्त – तो बौखला गईं : ” अगर सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस निर्णय पर अपनी मुहर लगा दी तो उस ‘worst case scenario ‘ में ‘हम’ क्या करेंगे ?” उनके इस वक्तव्य की वीडियो रेकॉर्डिंग इन्टरनेट पर सहज उपलब्ध है I जिन ‘हम’ लोगों का जिक्र उन्होंने किया, सत्य ही उन लोगों के लिए भारतवर्ष के आदर्श मर्यादा-पुरूषोत्तम श्रीराम का मंदिर- निर्माण एक ‘ worst case scenario ‘ के अतिरिक्त और क्या हो सकता है ! सचमुच देखने लायक है बरखा दत्त के उस कार्यक्रम की वीडियो रेकॉर्डिंग जिसमे उन्होंने ‘भव्य मंदिर’ शब्द- युग्म का जम कर माखौल उड़ाया है I मीडिया के इस वर्ग के लिए राम का नाम लेने वाला हर भारतीय ‘संघ- परिवार’ का सदस्य है I
उच्च न्यायालय ने 2-1 के बहुमत से यह निर्णय दिया कि वहाँ एक हिन्दू धार्मिक-स्थल का ध्वंस कर मस्जिद का निर्माण कराया गया था I जिन एक न्यायाधीश ने ध्वंस करने की बात नहीं मानी उन्होंने भी स्वीकार किया कि मस्जिद बना तो हिन्दू धार्मिक-स्थल के ध्वंसावशेष पर ही था, और निर्माण में अवशेष की संरचनाओं का उपयोग भी हुआ था !पर इस मूल तथ्य पर मीडिया का ध्यान क्यों जाए ! सैकड़ो वर्षों तक मुस्लिम हमलावरों ने जिस दरिदंगी और हैवानियत का खेल खेला है वह इनके लिए तथ्य कैसे हो सकता है ! मुस्लिमों की प्रत्येक बात का समर्थन किये बिना कोई ‘सेक्युलर’ अथवा सफल पत्रकार थोड़े ही बन सकता है ! मीडिया के इस बहुसंख्यक वर्ग का ध्यान सिर्फ इस पर केन्द्रित है कि 1992 में हिन्दू धार्मिक-स्थल का ध्वंस कर बनाये गए बाबरी मस्जिद को क्यों तोड़ा गया ? इन महान पत्रकारों के लिए इतिहास भी 22 दिसम्बर 1949 से प्रारम्भ होता है जब रामलला की मूर्तियाँ बाबरी मस्जिद में जबरदस्ती रखी गयी थी I उसके पहले क्या हुआ था उससे मीडिया को क्या मतलब ?!
वास्तव में यदि देखें तो बाबरी मस्जिद को तोड़कर वहाँ श्रीराम-मंदिर बनाने का दायित्त्व भारत सरकार का था I 15 अगस्त 1947 के तुरंत बाद ही यह कार्य हो जाना चाहिए था I अयोध्या ही नहीं, मथुरा, काशी एवं अन्य ऐसे सभी स्थलों से राष्ट्रीय-कलंक के प्रतीकों को मिटाने के लिए 1947 अथवा 1950 में ही ‘राष्ट्रीय-चेतना मंत्रालय’ का गठन हो जाना चाहिए था I राष्ट्र को धर्म-निरपेक्ष घोषित किये जाने के बाद संवैधानिक रूप से यह सरकार का दायित्त्व बनता था कि मुस्लिम हमलावरों द्वारा किए गए ध्वंस पर हुए निर्माण को मिटा दे I जब तक ऐसा नहीं होता हम सरकार को धर्म निरपेक्ष कैसे मान लें ? इस्लाम के नाम का दुरूपयोग करने वाले हमलावरों द्वारा किये गए कुकृत्यों के स्मारकों को मिटाए बिना हम धर्म-निरपेक्षता की बात कैसे कर सकते है ?सरकार ने कुछ नहीं किया तो भारत के लोगों ने 6 दिसम्बर 1992 को स्वयं इस कार्य का शुभारम्भ कर दिया I जो इस महान कार्य को मुस्लिम- विरोधी दृष्टिकोण से देखते हैं वह भयंकर भूल करते हैं I बाबरी मस्जिद के ध्वंस से स्वयं को गौरवान्वित समझने वाला बृहत् हिन्दू समाज इस्लाम का विरोधी नहीं हैं I भारत का यह बहुसंख्यक समाज मस्जिद की उतनी ही श्रद्धा करता है जितनी मंदिर की I रामकृष्ण परमहंस, गायत्री परिवार के संस्थापक आचार्य श्रीराम शर्मा, संत कबीर, गुरु नानक आदि महान भारतीय संतों ने पैगम्बर मोहम्मद एवं पवित्र कुरान को पूर्ण श्रद्धा की दृष्टि से देखा है I बिहार, बंगाल, उड़ीसा एवं अन्य क्षेत्रों में श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचन्द्र जी (1888-1969) के शिष्यगण श्रीराम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा एवं मोहम्मद सबकी समान-रूप से प्रतिदिन आराधना करते हैं I पर यह सारी बातें मीडिया के लिए तथ्य नहीं है I इससे उनकी टी.आर. पी. नहीं बढ़ती Iउच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि भारतीय पुरातत्त्व विभाग के शोध ने यह प्रमाणित कर दिया कि एक हिन्दू धर्मस्थल का ध्वंस कर मस्जिद बनाई गयी थी I ऐसी स्थिति में वह मस्जिद अल्लाह की इबादत योग्य स्थान कैसे रही ? वह तो कलंक थी हमारी सभ्यता और संस्कृति पर I यदि भारत को वास्तविक रूप से धर्म-निरपेक्ष बनाना है तो ऐसे सभी कलंको को मिटाना होगा I
भारतीय मुस्लिम समाज को इस यथार्थ को स्वीकारना होगा कि इस्लाम की शिक्षा भले अरब से आई हो, पर उनकी संस्कृति भारतीय है, अरब की नहीं I उन्हें गौरी, गज़नी, ख़िलज़ी और बाबर के वंश पर गर्व करना छोड़ना होगा I यह सभी भारतीय -संस्कृति के ध्वंसकर्त्ता हैं I नालंदा, विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालयों का विध्वंस करने वाले बख्तियार खिलजी के नाम पर एक शहर है बिहार में– बख्तियारपुर ! औरंगजेब के नाम पर तो कई शहर हैं, और राजधानी नई दिल्ली का एक प्रमुख मार्ग उसी के नाम पर है I यह भारत के पतन का परिचायक नहीं तो और क्या है ? अजमल कसाब के नाम पर मुंबई का नाम ‘कसाबपुर’ या ताज होटल का नाम ‘कसाबधाम’ रख देना क्या धर्म- निरपेक्षता होगी ? संसद पर हमला करने वाले अफज़ल गुरु को फाँसी न देना क्या धर्मं निरपेक्षता है ?सनातन धर्म ‘सर्वधर्म-समभाव’ पर आधारित है I अनादिकाल से चली आ रही इस सभ्यता को तहस-नहस करना चाहा है मुस्लिम आक्रमणकारियों ने I हजारों मंदिरों को ही नहीं, विश्वविद्यालयों तक को नेस्तनाबूद कर डाला उन्होंने I दारा शिकोह जैसी किसी शख्सियत ने भारतीय दर्शन में यदि रूचि भी दिखाई तो उन्हें हाथियों द्वारा कुचलवा दिया गया I पर इन तथ्यों से मीडिया को क्या फर्क पड़ता है !
‘सर्वधर्म-समभाव’ की भावना मूल इस्लाम में अवश्य है, पर अनुयायियों ने उसे विकृत कर दिया I अब इसका मुस्लिम-सोच में कोई स्थान नहीं I मुस्लिम संस्कृति भारत की राष्ट्रीयता की परिचायक नहीं I हाँ, जहाँ वे अल्पसंख्यक हैं वहाँ ‘सेकुलरिज्म’ बात वे जरुर करेंगे I पर जहाँ वे बहुसंख्यक हैं वहाँ क्या होता है ? सउदी अरब, दुबई, खाड़ी- देश, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश में ‘सर्वधर्मं समभाव’ या ‘सेक्युलरिज्म’ की बात करने वाले जीवित नहीं छोड़े जाते I काश्मीर के मुस्लिम ‘सर्वधर्म समभाव’ की बात क्यों नहीं करते ?!! मुस्लिम जिस क्षेत्र में बहुसंख्यक होंगे वहां वे अलग राष्ट्र की माँग करेंगे, यह ध्रुव सत्य है I पाकिस्तान एवं बांग्लादेश का निर्माण इसी कारण हुआ था I आज जो कश्मीर की समस्या है उसका कारण बस यही है कि वहाँ मुस्लिम बहुसंख्यक हैं I काश्मीर से अधिक पिछड़े बिहार जैसे अन्य क्षेत्र में पृथक राष्ट्र की माँग क्यों नहीं उठती ? सशस्त्र विद्रोह पर उतर आए नक्सलवादी भी पृथक राष्ट्र की माँग नहीं कर रहे !पिछले महीने ही पश्चिम बंगाल के देगंगा में मुस्लिमों ने जो हिन्दुओं पर जो कहर बरपा किया उस पर मीडिया चुप क्यों है ? वे शायद इस अवसर की प्रतीक्षा में है कि कब हिन्दू प्रत्याक्रमण करें और वे कैमरा और सेकुलरिज्म का झंडा लेकर कूद पड़ें ! भला हो मीडिया की शीर्ष-संस्था का जिसने खबरिया चैनलों पर अंकुश लगा दिए थे I वर्ना अपनी टी. आर. पी. बढ़ने के लिए ये चैनल सबको भड़का कर पूरे देश में दंगा करवा देने से शायद ही हिचकें I और फिर चेहरे पर पाउडर पोत कर इनके संवाददाता मरने वालों के परिजनों से पूछते फिरते “कैसा महसूस हो रहा है ?” !!राजनीतिक नेताओ को तो चुनावों में जनता को जवाब देना होता है I पर मीडिया वाले सिर्फ व्यापारी हैं I स्वयं पर स्व-घोषित रूप से ‘जनता की आवाज़’ का नकाब ओढ़े हुए है I साथ ही साथ बहुसंख्यक जनता के मत की आलोचना भी करते हैं !! उन्हें टी. आर. पी. चाहिए और वे उसी की सुनेंगे जो उन्हें धन दे I धन तभी मिलेगा जब ज्यादा विज्ञापन मिलेंगे और यह तभी संभव है जब देश में उपभोक्तावाद बढे तथा भारत का अधिक से अधिक बाजारीकरण हो I
परन्तु सनातन धर्म की मूल भारतीय- संस्कृति तो त्याग पर आधारित है ! यह विषयोपभोग को पतन मानती है, विकास नहीं I ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ I इन्द्रियों एवं स्वयं की आवश्यकताओं पर संयम रखने की शिक्षा देता है सनातन धर्म का विज्ञान I मूल इस्लाम की आध्यात्मिकता के भी यही मूल्य हैं I यह पाश्चात्य संस्कृति एवं मूल्यों के ठीक विपरीत है जिनका आदर्श है – अधिक से अधिक उपभोग I यही कारण है कि अधिकांश मीडिया (चैनल एवं प्रिंट) वालो को सनातन धर्म के मूल्य फूटी आँखों नहीं सुहाते I वैदिक शिक्षा हो या निजामुद्दीन औलिया की, अधिकांश मीडिया को आध्यात्मिक मूल्यों से ही चिढ़ है I हिन्दू- मुस्लिम सबको समझ लेना होगा कि मीडिया अपनी रोटी सेंकना चाहता है Iइसके अतिरिक्त, चाचा नेहरु की वज़ह से भारतीय शिक्षा पद्वति एवं भारतीय इतिहास का प्रस्तुतीकरण वामपंथ के दृष्टिकोण पर आधारित हैं I यह वामपंथ सनातन धर्म पर आधारित भारतीय संस्कृति एवं उसके इतिहास के तथ्यों से घृणा करता है I सनातन धर्म की हमारी सभ्यता आसुरिक एवं पैशाचिक संस्कृति की विरोधी है I उन्मुक्त यौन-सम्बन्ध, समलैंगिकता, सिद्धांत -विहीन स्वछन्दता, विवाह-संस्था का पतन, परिवार का बिखराव, मदिरापान एवं मांसाहार जैसे तामसिक कृत्य आसुरिक संस्कृति के अंग है I यह संस्कृति व्यक्ति को इन्द्रियों का गुलाम बनाकर भोगवाद सिखाती है I इसी से समाज में उपभोक्तावाद बढ़ता है I यही कारण है कि आधुनिक मीडिया का अधिकांश भाग इन्ही कृत्यों के गुण गाता है और ‘विकास’ का जामा पहनाकर इन दुष्प्रवृत्तियों को समाज में बढ़ाना चाहता है Iमीडिया की राह का सबसे बड़ा रोड़ा है सनातन धर्म ! श्रीराम इसी सनातन धर्म के प्रतीक हैं जो ‘सर्वधर्म समभाव’ एवं ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ पर आधारित है I यह भोगवाद एवं उपभोक्तावाद के विरुद्ध है I इसीलिये मीडिया चुनौती दे रहा है भारतवर्ष की सनातन संस्कृति को जो हमारे राष्ट्र का वज़ूद है I श्रीराम मंदिर का निर्माण उनके लिए ‘worst case scenario’ है I
राम जन्मभूमि का मामला शायद राजनीतिक दलों के हाथ से निकल चुका है I अब जो युद्ध है वह भारतवर्ष और भारत की मीडिया के बीच है ! मीडिया ने उच्च न्यायालय के निर्णय एवं राममंदिर-निर्माण का माखौल उड़ा कर समग्र राष्ट्र को ललकारा है I उनकी इस चुनौती का सामना करना होगा पूरे देश को एकजुट हो कर I
“समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है,
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है ।
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध ।” (-दिनकर )
वामपंथी व्याधि और उपचार
-शंकर शरण
जैसे पूरी पृथ्वी पर कोरियोलिस इफेक्ट एक समान है, और नदियों का बहाव इस तरह होता है कि सदैव दाहिना किनारा कटता और टूटता है, जबकि बाढ़ का पानी बाएं किनारे पर फैलता है, उसी तरह धारती पर लोकतांत्रिक उदारवाद के सभी रूप दक्षिणपंथ पर चोट करते हैं और वामपंथ को गले लगाते हैं। उनकी सहानुभूति सदैव वामपंथ के साथ रहती है, उन के पांव केवल बाईं दिशा में चलने को प्रस्तुत रहते हैं, उनके व्यस्त सिर सदैव वामपंथी तर्कों को सुनने के लिए हिलते हैं- किंतु यदि वे दक्षिणपंथ की ओर से एक बात सुनने के लिए कोई कदम उठाएं तो लज्जा अनुभव करते हैं।1
-अलेक्सांद्र सोल्झेनित्सिन, नवंबर 1916: लाल चक्र/द्वितीय गांठ
1.
आज धरती पर मार्क्सवादी-लेनिनवादी राजनीति अप्रासंगिक हो चुकी है। जहां इस की उत्पति हुई थी, उन यूरोपीय देशों में अब इसका नामलेवा भी कठिनाई से मिलता है। तब क्यों भारत में न केवल यह अब भी प्रभावी है वरन् इसकी शक्ति बढ़ी प्रतीत होती है? भारतीय नीति-निर्माण, विशेषकर शिक्षा, संस्कृति और अंतर्राष्ट्रीय संबंध में इसका दखल पहले से बढ़ा है। यही नहीं, महत्वपूर्ण नियुक्तियों में मार्क्सवादियों की पसंद-नापसंद की निर्णायक भूमिका देखी जा रही है। इस चिंताजनक स्थिति के कारण विविध हैं, जिनमें कुछ हमारा दुर्भाग्य भी है। सभी बिंदुओं को ठीक-ठीक समझे बिना इस व्याधि का उपचार होना कठिन है।
वामपंथ की अपील एक भूमंडलीय व्याधि है, यह तो स्पष्ट है। मार्क्सवादी राजनीति के सभी दावों की पोल खुल जोने के बाद भी आज भी, हर कहीं, जब-तब, किसी विषय पर, वामपंथी शब्दजाल, यहां तक कि उसकी घातक-से-घातक अनुशंसाओं को भी आदर से देखा जाता है। इसका मुख्य कारण यही है कि वह निर्धान, दुर्बल जनों की पक्षधारता के रूप में प्रस्तुत की जाती है। चाहे व्यावहारिक परिणाम में वह दुर्बलों की और दुर्गति करने वाली ही क्यों न हो, किंतु जब कोई विचार वामपंथी शब्दजाल में आता है, तो अच्छे-अच्छे समझदार सहानुभूति में सिर हिलाते हैं। इसी को भूगोल के ‘कोरियोलिस इफेक्ट’ के रूपक से सोल्झेनित्सिन ने सटीक व्याख्यायित किया है।
किंतु भारत में वामपंथी प्रभाव बनने, बढ़ने के स्थानीय कारण भी रहे। ब्रिटिश शासन रहने के कारण हमारे उच्च वर्ग की कई पीढ़ियां औपनिवेशिक शिक्षा से दीक्षित हुई। जिसने सचेत रूप से भारतीय दर्शन, चिंतन, परंपरा एवं संस्कृति को हीन तथा पश्चिमी चिंतन को श्रेष्ठ प्रचारित किया था। सत्ता, शक्ति व निरंतर प्रचार के दबाव में यह भी दिखाया गया मानो भारत की पराधीनता में उस श्रेष्ठता का भी हाथ था। चूंकि मार्क्सवादी, वामपंथी विचारधाराएं भी पश्चिमी उत्पति हैं, अत: उन्हें भी महत्व दिया गया। उन्नीसवी-बीसवीं शती में हमारे देश के अनेक भावी नेता और भावी विद्वान पढ़ने इंग्लैंड गए, और वहां के प्रचलित फैशन वामपंथ से प्रभावित हो लौटे।
यही नहीं, भारत के हिंदू चिंतन, स्वदेशी राजनीतिक कार्यक्रमों, मानदंडों को अपदस्थ करने के लिए हमारे क्रांतिकारियों को मार्क्सवाद की ओर झुकाने और इस प्रकार पथभ्रष्ट करने का कार्य स्वयं अंग्रेज शासकों ने भी किया। जेल में भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को मार्क्सवादी पुस्तक-पुस्तिकाएं पढ़ने के लिए देना इस उद्देश्य से था कि वे स्वेदशी आंदोलन (1905-1910) की विशुध्द भारतीय राष्ट्रवादी, क्रांतिकारी परंपरा से दूर हों। इस प्रकार बंकिमचंद्र, स्वामी दयानंद, लोकमान्य तिलक, स्वामी विवेकानंद, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, श्री अरविंद प्रभृत मनीषियों, क्रांतिकारियों की सशक्त प्रेरणाओं से विमुख हों। अनुभव तथा दूरदृष्टि रखने वाले अंग्रेज जानते थे कि वह देसी प्रेरणाएं उनकी औपनिवेशिक सत्ता के लिए अधिक घातक है। इसलिए उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद को विभाजित और रोगग्रस्त करने के लिए मार्क्सवादी कीटाणुओं को फैलाने में स्वयं भी एक भूमिका निभाई थी। यह भी स्मरण रहे कि 1947 तक भारतीय कम्युनिस्टों का संचालन, निर्देशन प्राय: ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के माध्यम से होता रहा।
भारत को मजहबी आधार पर विभाजित करने तथा पाकिस्तान बनवाने में भारतीय कम्युनिस्टों की महत्वपूर्ण भूमिका को भी उसी पृष्ठभूमि में समझा जाना चाहिए। भारतीय राष्ट्रवाद को विखंडित करने में ब्रिटिश साम्राज्यवाद, इस्लामी साम्राज्यवाद तथा कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद, इन तीनों ने अलग-अलग और मिलकर भी काम किया था। इस महत्वपूर्ण तथ्य को स्वतंत्र भारत में छिपाया गया। इसी कारण हमारी युवा पीढ़ी आसन्न इतिहास की भी कई मोटी बातें भी नहीं जानती। यह इसलिए संभव हुआ क्योंकि स्वतंत्र भारत के दुर्भाग्य से इसके पहले प्रधाानमंत्री ही पक्के कम्युनिस्ट समर्थक थे। महात्मा गांधाी ने अपने निजी प्रेम व मोह में जवाहरलाल नेहरू को अकारण, अनावश्यक रूप से अपना ‘उत्तराधिकारी’ घोषित कर, इस प्रकार अपनी प्रतिष्ठा का प्रयोग कर के उन्हें सत्ता दिला दी। जबकि नेहरू अपने विचारों, नीतियों, चरित्र आदि किसी बात में गांधी से मेल नहीं खाते थे। नेहरू विचारों में पक्के सोवियतपंथी थे, इसका प्रमाण उनका संपूर्ण लेखन-भाषण है।
नेहरूजी के नेतृत्व में बल-पूर्वक, सत्ता के दुरूपयोग, सेंशरशिप, प्रलोभन-प्रोत्साहन-हतोत्साहन तथा अलोकतांत्रिक तरीकों से यहां मार्क्सवाद- लेनिनवाद तथा सोवियत संघ व लाल चीन के प्रति आलोचनात्मक विमर्श को रोका गया। (देखें, सीताराम गोयल, जेनिसिस एंड ग्रोथ ऑफ नेहरूइज्म, खंड 1, 1993, पृ. अपप.गपपए 11.28)। भारत में जो ऐतिहासिक संघर्ष रामस्वरूप जी की पुस्तिका ‘लेट अस फाइट द कम्युनिस्ट मीनेस’ (1948) जैसे कई गंभीर प्रकाशन तथा ‘सोसाइटी फॉर डिफेंस ऑफ फ्रीडम इन एशिया’ (1952) की स्थापना के साथ आरंभ हुआ था, उसे यदि नेहरू ने अनैतिक तरीकों से शुरू में ही दबोच कर नष्ट न किया होता तो भारत में मार्क्सवादी दबदबा कायम नहीं हो सकता था। वह तरीके थे, उदाहरणार्थ: किसी पुस्तक प्रदर्शनी में स्वयं अधिकारियों द्वारा (पार्टी कार्यकर्ताओं या गुंडों द्वारा नहीं) इनके प्राची प्रकाशन का स्टॉल जबर्दस्ती बंद करवा कर (कलकत्ता, अप्रैल 1954); नौकरी से निकलवाकर; पोस्टल विभाग द्वारा नियमानुरूप प्राप्त की गई सुविधा को अवैध तरीके से छीनकर (1953); विदेश में कम्युनिज्म विरोधी सम्मेलनों में जाने से रोकने के लिए बिना कारण बताए पासपोर्ट न देकर (मई 1955); भारत में कम्युनिस्ट-विरोधी सम्मेलनों को विफल बनाने के लिए महत्वपूर्ण लोगों को कह-सुन कर उसमें जाने से रोक कर; प्रेस में वैसे कार्यक्रमों की चर्चा को गुम या कम करवा कर; आयोजकों-लेखकों को खुफिया पुलिस द्वारा परेशान करवा कर; अखबारों में महत्वपूर्ण पदों पर कम्युनिस्टों और उनसे सहानुभूति रखने वालों को नियुक्त करवा कर; उनके माधयम से प्रेस में कम्युनिस्ट विरोधी लेखकों, राष्ट्रवादी विद्वानों पर तरह-तरह के लांछन लगवाकर; आदि। ऐसे तरीकों से नेहरूजी के समय में इस वैचारिक आंदोलन को खड़े होने से पहले ही गिरा दिया गया था। लगभग उन्हीं जबरिया तरीकों से जैसे कम्युनिस्ट देशों में ‘क्रांतिविरोधी’ या ‘प्रतिक्रियावादी’ संगलनों, विचारों, संस्थाओं को धवस्त किया जाता रहा है। भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की सीमाओं के कारण इसमें जो मर्यादा रही हो, यह और बात है। नेहरूजी को बड़ा लेखक, बुध्दिजीवी माना जाता है। किंतु कम्युनिस्ट विचारों का प्रचार वह जोर-जबर्दस्ती के सहारे ही कर सके थे। वह तो माओत्से तुंग द्वार 1962 में लगाए गए तमाचे ने खेल खराब किया और कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद की वास्तविकता दिखा। भारतवासियों को एक गहरा झटका दिया अन्यथा नेहरूजी फिडेल कास्त्रो वाले रास्ते पर जा रहे थे।
इस तरह छल, बल, प्रपंच, सत्ता के दुरूपयोग आदि सब प्रकार से इसकी पूरी व्यवस्था की गई कि अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन के कुकर्मों को भारतीय जनता न जान सके, बल्कि उसके प्रति सहानुभूतिशील हो। ध्यान रहे, सरदार पटेल के 1950 में आकस्मिक निधन के बाद नेहरू का हाथ रोकने वाला भी न रहा। अन्य राष्ट्रवादी या तो किनारे कर दिए गए या उन्होंने चुप्पी साधा ली। इस परिस्थिति में नेहरूजी ने केवल कम्युनिस्ट विचारधारा ही नहीं, बल्कि भारत-विभाजन कराने वाले कम्युनिस्टों को भी वैचारिक-राजनीतिक रूप से ऊंचा स्थान दिलाया। चूंकि वह काल स्वतंत्र भारत की नीतियों-परंपराओं की स्थापना का भी था, इसलिए वामपंथी मिथ्याचारों, भ्रमों, नारों आदि को आधिकारिक रूप से जो प्रथम स्वीकृति मिली, उसने कालांतर में स्थापित मूल्यों का स्थान पा लिया। उसका दबदबा आज भी चल रहा है।
इस दुर्भाग्यपूर्ण प्रक्रिया को इससे और सुविधाा हुई कि गैर-वामपंथी, राष्ट्रवादी विचारों वाले लोग, संगठन और संस्थाओं ने उसके घातक परिणामों को नहीं समझा। इसलिए कोई कड़ा, संगठित विरोधा नहीं किया। कुछ लोग तो उल्टे सोवियत, चीनी, कम्युनिस्ट प्रचारों की कई बातों को सत्य मान बैठे। इसलिए लेनिनवाद की साम्राज्यवादी विचारधारा, उसके घातक नारों, प्रस्थापनाओं, उसके निहितार्थों के प्रति जनता को शिक्षित करने के स्थान पर उसे भी एक विचार के रूप में आदर देने लग गए। बल्कि सामंजस्य बिठाने तक का प्रयास करने लगे। यह शतियों पुरानी हिंदू भूल का ही दुहराव था, जो बाहरी, साम्राज्यवादी विचारधाराओं का गंभीर अध्ययन करने के प्रति उदासीन रही और कुछ ऊपर झूठी-सच्ची बातों के आधार पर उसके बारे में कामचलाऊ राय बना कर अपने कर्तव्य का अंत समझती है। भारत-विरोधी, शत्रुतापूर्ण विचारों के प्रति यह आत्मघाती सहिष्णुता; स्थायी वैरभाव से भरी आक्रामक विचारधाराओं को बिना ठीक से जाने उनके प्रति भी ‘सम’ भाव दिखाना -हिंदुओं की इस पुरानी भूल का भी लाभ कम्युनिस्ट राजनीति को मिला।
इन्हीं संयुक्त दुर्भाग्यों का परिणाम था कि जब सभी विकसित, सभ्य देशों में समय के साथ कम्युनिज्म के सिध्दांत-व्यवाहर की पोल खुलने लगी, तब भी स्वतंत्र भारत में उसके प्रति शिक्षित लोगों में भ्रम बना रहा। इस बीच नेहरू से लेकर इंदिरा जी तक के दौर में कम्युनिस्टों ने शैक्षिक, वैचारिक, नीति-निर्माण संस्थानों में गहरी घुसपैठ बनाई। राष्ट्रवादी विचारों वाले नेताओं और विद्वानों ने इसका विशेष प्रतिरोधा नहीं किया। फल हुआ कि विद्वत-संस्थाओं, पाठय-पुस्तकों, समाचार-पत्रों आदि पर कम्युनिस्टों के पर्याप्त नियंत्रण के माधयम से देश की नई पीढ़ी को वैचारिक रूप से भ्रष्ट, अशक्त किया गया। आज प्रशासन, मीडिया, विद्वत-जगत आदि सभी क्षेत्रों में नेतृत्वकारी स्थानों पर ऐसे लोग भरे पड़े हैं जो सचेत या अचेत रूप से भारतीय सभ्यता-संस्कृति के विरूध्द हैं। वे हर उस चीज की वकालत करते हैं जिसके लिए कम्युनिस्ट, इस्लामी या मिशनरी संगठन प्रयत्नशील हैं। हिंदू समाज को निर्बल बनाने तथा तोड़ने एवं भारत को तरह-तरह से विखंडित करने के सभी बाहरी प्रयासों को हमारे प्रबुध्द, सत्तासीन वर्ग का मानो उदार समर्थन प्राप्त है। उन प्रयासों की हर आलोचना उन्हें ‘हिंदू सांप्रदायिकता’ लगती है। यह अनायास नहीं हुआ। इसके पीछे वह पृष्ठभूमि है जिसकी ऊपर संक्षिप्त चर्चा है।
दुर्भाग्यवश राष्ट्रवादी भारतीयों एवं हिंदू उच्च-वर्ग की कमियां आज भी यथावत् हैं। पिछले सौ वर्ष के कटु अनुभवों के बाद भी वे भीरूता और भ्रम के शिकार हैं। बल्कि यह भी उदासीनता का ही संकेत है कि एक उदार लोकतंत्र में रहते हुए भी उन्हें हाल के इतिहास और वर्तमान घटनाक्र्रमों की भी कई गंभीर बातों का कुछ पता नहीं रहता। 1947 में एक झटके में भारत का विभाजन इसीलिए संभव हुआ था-क्योंकि लाहौर, करांची, ढाका और बंबई, इलाहाबाद, मद्रास के भी प्रबुध्द, प्रभावी, धानी-मानी हिंदू ऐसी किसी चीज की कल्पना ही नहीं करते थे। वे भी, आज की तरह, ‘जनता तो एक है’ ‘सभी धार्म समान हैं’, ‘हमारी संस्कृति साझी है’, ‘हर विचारधारा में अच्छी बातें हैं’ तथा ‘केवल राजनीति वाले गड़बड़ी करते हैं’ जैसे बाजारू, झूठे जुमले दुहरा कर अपना बौध्दिक, राष्ट्रीय कर्तव्य समाप्त समझते थे और मजे से अपने-अपने उद्योग, व्यापार, साहित्य या कला की दुनिया में मगन थे। इसीलिए जब एकाएक साम्राज्यवादी विचारधााराओं का एक निर्णायक, समवेत प्रहार हुआ ते वे हतप्रभ् उसकी मार झेलने के सवा कुछ न कर सके। कृपया धयान दें: 1947 में भी संपूर्ण भारतीय जनसंख्या में प्रत्येक इस्लामी राजनीतिकर्मी, कम्युनिस्ट कार्यकर्ता, ईसाई-मिशनरी प्रचारक अथवा ब्रिटिश अधिकारी की तुलना में राष्ट्रवादी विचारों वाले दस-दस सुशिक्षित, संपन्न, स्वस्थ हिंदू मौजूद थे। एक के अनुपात में दस और समर्थ होकर भी वे कुछ क्यों न कर सके? क्योंकि वे वैसे आघात के लिए तैयार न थे।
इस प्रकार, भारतीय सभ्यता के प्रति स्थायी वैर-भाव से भरी शत्रु विचारधाराओं के प्रति भ्रम, उदासीनता और तैयारी न होने से ही भारत को को छल से तोड़ा गया था। किंतु आज भी वह विचारधाराएं यथावत् अपने प्रयास में जुटी हुई हैं। और आश्चर्य की बात है कि आज भी हमारा उच्च वर्ग उसी तरह अपनी अज्ञानी या स्वार्थी दुनिया में निश्चिंत बैठा है। वह सेंसेक्स, प्रति व्यक्ति आय, कथित विकास के आंकड़ों पर फूल कर, सड़कें, बिल्डिंगे बनवा कर, इंडिया शाइनिंग और सेक्यूलरिज्म की रट लगाकर एवं हर समुदाय के उत्कृष्ट प्रतिनिधियों की ओर निहार कर स्वयं को और देश को सुरक्षित समझता है। किंतु कश्मीर, असम, नागालैंड, मेघालय आदि की फिसलती हालत से आंख मिलाने से कतराता है – जहां मुट्ठीभर कटिबध्द इस्लामी, ईसाई-मिशनरी नेता और पश्चिमी-अरबी धान से चलने वाले संगठन भारत से इंच-इंच धारती छीन रहे हैं। इस ज्ञात संकट से आंख मिलाने के बदले भारत का हिंदू उच्च-वर्ग उन्हीं वैरी विचारधााराओं के ही थमाए गए झूठे नारे दुहरा कर प्रसन्न, शुतुरमर्ग की तरह आश्वस्त रहना अथवा अपनी लज्जास्पद स्थिति को छिपाना चाहता है। उन नारों पर संदेह उत्पन्न होने पर भी जांचने के बदले उस संदेह से ही अपने को दूर रखने का यत्न करता है। इस आत्मघाती प्रवृत्तिा को विदेशी तत्तव तथा मीडिया, विश्वविद्यालय आदि में जमे मूढ पर प्रगल्भ हिंदू प्रोत्साहन देते हैं कि वह असुविधाजनक सच्चाइयों का सामना करने के बदले उससे आंखें फेर ले। और फेरे ही रखे। भारत के उच्चवर्गीय हिंदुओं की इस लज्जास्पद प्रवृत्ति के कारण ही स्वतंत्र भारत में कश्मीर क्षेत्र में हिंदुओं का सामूहिक विनाश हुआ, असम में हो रहा है तथा केरल, पश्चिमी बंगाल, बिहार और उत्तार प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्र उसी दिशा में डग बढ़ रहे हैं। और यह सब केवल एक पहलू है-हमें भौगोलिक रूप से विखंडित, संकुचित करने के प्रयास।
भारत को भावनात्मक, वैचारिक, सांस्कृतिक रूप से भी पहले नि:शस्त्र, फिर धवस्त करने के यत्न भी उतनी ही कटिबध्दता से हो रहे हैं। और उसके प्रति भी हमारे उच्च-वर्ग-नेताओं, बुध्दिजीवियों, प्रशासकों, उद्योगपतियों की उदासीनता वैसी ही लज्जास्पद है। यह उदासीनता केवल अज्ञानजन्य नहीं, यह इससे स्पष्ट है कि यदि कोई भारत के सभ्यतागत शत्रुओं के कुटिल प्रयासों के प्रति धयान आकृष्ट कराता है तो उल्टे उसे ही चुप कराने का चौतरफा उपाय किया जाता है। उसे लांछित, दंडित कर दूसरों को भी संदेश दिया जाता है कि सब चुप रहें। कहने की आवश्यकता नहीं कि स्थायी शत्रुताभाव से भरे देशी-विदेशी बैरी इससे और प्रोत्साहित होते हैं। मिशनरियों द्वारा देश के सुदूर, छिपे इलाकों में असहाय हिंदुओं का संगठित, आक्रामक रूप से धार्मांतरण कराना; उन्हीं मिशनरियों द्वारा मुखौटा बदल कर देश की राजधानी में ‘सेक्युलरिज्म’, ‘दलित मुक्ति’, ‘मानवाधिकार’ आदि की आक्रामक वैचारिक गतिविधिायों द्वारा शिक्षा, प्रशासन और न्यायतंत्र को विभिन्न हथकंडों से बरगलाकर अपने अनुकूल बनाना; इस्लामी तत्तवों द्वारा भारतीय राज्य-नीति व न्यायपालिका तक को अपने दबदबे में रखने का यत्न करना; तथा इने-गिने मार्क्सवादियों द्वारा देश के संवैधाानिक पदों पर नियुक्ति कर अपना वीटो चलाना तथा इन्हीं सब तत्तवों द्वारा भारत की राष्ट्रवादी चिंताओं और हिंदू धार्म-परंपरा को एक स्वर में दिन-रात निंदित करना आदि इसके कुछ प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।
इस प्रकार भारत को वैचारिक, सांस्कृतिक रूप से मूढ, असहाय बनाकर पराभूत करने के गंभीर प्रयास हो रहे हैं। यह प्रयास निष्फल नहीं, यह इसी से स्पष्ट है कि जो सहज बातें कोई हिंदू विद्वान या नेता चार दशक पहले कह सकता था, आज नहीं कही जा सकती। उसे दंडित होना पड़ेगा। डॉ. कर्ण सिंह जैसे विख्यात विद्वान और राजनेता को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार यह कह कर नहीं बनाया गया कि उनमें हिंदूपन है जबकि उपराष्ट्रपति के लिए सभी उम्मीदवार इस आधार पर चुने गए कि वे मुस्लिम हैं। दोनों ही कार्य एक-दो कम्युनिस्टों ने सुनिश्चित किए। प्रत्येक दल के अनेक नेता यह अनाचार मौन देखते रहे, बल्कि इसमें योगदान किया। यह सांकेतिक घटनाएं हैं जिनसे सीख ली जानी चाहिए कि साम्राज्यवादी, आक्रामक विचारधाराओं, संगठनों के प्रति अनुचित सहिष्णुता दिखा कर जो ‘सहमति’ बनाई जाती है, वह स्थिति को यथावत नहीं रहने देती। वह आगे-आगे राष्ट्रवादियों से, हिंदुओं से और भी रणनीतिक-वैचारिक स्थान छीनेगी। अर्थात्, इससे शांति या सहयोग नहीं बनेगा, बल्कि विषम स्थिति और बिगड़ेगी। दूसरे शब्दों में, जिस चीज से हिंदू उच्च वर्ग बचना चाहता है, ठीक वही और भी भयावह, अशांत रूप में आएगी। 1947 में यही हुआ था। यदि आप आज शत्रु विचारों से वैचारिक लड़ाई से भी कन्नी काटते हैं तो कल आपको प्रत्यक्ष युध्द झेलना पड़ेगा। इस का उल्टा भी सत्य है: यदि आज आप वैचारिक प्रतिकार करते हैं तो कल युध्द की नौबत नहीं आएगी। वैचारिक संघर्ष से ही समाधान निकल आ सकता है-बशर्ते आपकी चौकसी ढीली न हो।
2.
सामाजिक विकास के लिए मधय मार्ग चुनने से अधिक कठिन कोई कार्य नहीं। बड़बोलापन, तना हुआ मुक्का, बम, जेल की सलाखें तब आपके किसी काम नहीं आएंगी, जैसे वह दोनों अतिवादी ध्रुवों वाले लोगों के काम आती हैं। मधय मार्ग पर चलना अत्यधिक आत्म-नियंत्रण, नितांत अडिग साहस, सबसे धौर्यपूर्ण आकलन और सर्वाधिक सटीक जानकारी की मांग करता है।2
-अलेक्सांद्र सोल्झेनित्सिन, नवंबर 1916रु लाल चक्र/द्वितीय गांठ
इस संकटपूर्ण स्थिति में भारत के चिर-शत्रुओं -मार्क्सवादियों तथा अन्य साम्राज्यवादी विचारधाराओं, संगठनों के विरूध्द किसी राष्ट्रवादी को कैसा संकल्प लेना चाहिए? भारतीय सभ्यता के स्थाई बैरियों के प्रतिकार के लिए भारतीय राष्ट्रवादी को क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए?
यह बात भी सोलेझिनित्सिन के शब्दों से ही समझना आरंभ करें। जिसे उन्होंने मधय-मार्ग कहा है उसी को हम राष्ट्रवादी मार्ग मान कर चलें तो पहली बात तो यह कि भारतीय राष्ट्रवादियों के लिए वह तरीके उपयुक्त नहीं हैं-जिनका सहारा मार्क्सवादी, मिशनरी या इस्लामी राजनीतिकर्मी लेते हैं। यदि हिंदू राजनीतिकर्मी या समाजसेवी केवल बड़ी-बड़ी बातों या छल-प्रपंच से काम चलाना चाहें तो उसकी दुर्गति होगी। उदाहरणार्थ, जो हिंदू नेता समझते थे कि वे भी केंद्र में सत्ताधारी बनकर उसी तरह शिक्षा-संस्थाओं का उपयोग या दुरुपयोग करेंगे, उन्हें संभवत: समझ आयी होगी कि उनके लिए वह मार्ग नहीं खुला है। हिंदू नेता जिस तरह तीन दशक तक उदासीन भाव से मार्क्सवादी-नेहरूपंथी प्रचारकों द्वारा शिक्षा की विकृति देखते रहे वैसे उनके शत्रु नहीं रहने वाले! वे तो अच्छे कार्यों पर पर भी आसमान सिर पर उठा लेंगे और आपका काम करना दूभर कर देंगे। वे सचेत रहे हैं और आप उदासीन – इस का अंतर तो समझें। अत: मात्र सत्ता के आसरे किसी विकृति को सुधारने का भी काम यदि हिंदू नेता करना चाहें तो उचित, संवैधाानिक कदम होने पर भी उसके विरूध्द अंतर्राष्ट्रीय रूप से संगठित हिंदू-विरोधी शक्तियां समवेत रूप से चीख-पुकार आरंभ कर देंगी। 1998-2004 के बीच यही हुआ।
दूसरी बात, माक्र्सवादियों इस्लामियों द्वारा की गई अनुचित जिदों, याचनाओं पर भी उदारता दिखाने और समर्थन दे देने के बदले में वे हिंदू नेताओं की उचित मांगों पर भी सहयोग देंगे, इसकी आशा करना भारी भूल है। हिंदू पहचान वाले नेतागण कभी न भूलें कि उनके लिए वे रास्ते नहीं खुले हैं जो अंतर्राष्ट्रीय रूप से कटिबध्द, संपन्न हिंदू-विरोधी संगठनों, नेताओं के लिए सुलभ हैं। वे यह भी समझें कि शतियों से पराधीनता में रहते हुए हिंदू समाज का अभी कोई स्वाभाविक, आत्मविश्वासपूर्ण बुध्दिजीवी या शासनकर्मी वर्ग तक नहीं बना है। और यह काम किसी जादू से या रातों-रात नहीं हो सकता। अत: केवल सत्ता प्राप्ति की जुगत में लगे रहना और उसी माधयम से कुछ करने की आशा करना (यद्यपि यह भी संदिग्ध है कि अनेक हिंदू नेता कोई वैसा राष्ट्र-हित या हिंदू हित का काम करना चाहते भी हैं) एकदम व्यर्थ है।
अत: राष्ट्रहित का कार्य नित्य का कार्य है जो प्रत्येक राष्ट्रविरोधी कदम के सुनिश्चित, प्रभावी विरोध की मांग करता है। चाहे वह प्रशासन में हो, शिक्षा-संस्कृति या अर्थ-व्यवस्था और विदेश नीति में। साथ ही, देश के लिए लोगों को जगाना, संगठित और तत्पर करना भी नित्य किए जाने का कार्य है। विशेषकर विचार, शिक्षा, संस्कृति, न्यायतंत्र के क्षेत्र में तो यह नित्य, इंच-इंच भूमि के लिए लड़ी जाने वाली अहर्निश लड़ाई है जिसमें प्रत्येक कोताही, उसी अनुपात में शत्रु को लाभ देने के समान है। चार दशक में भारत में आ गए जिस प्रतिकूल परिवर्तन का ऊपर उल्लेख है, वह इसी तरह शत्रु के विचारों के प्रति उदारता या उदासीनता दिखाने का भी फल है।
यह लड़ाई लड़ने के लिए शक्ति एकत्र करने के साथ-साथ अहर्निश जागरूकता आवश्यक है। यदि शत्रु ने रूप बदल लिया है तो आपको भी तदनुरूप बदलना होगा। उदाहरण के लिए सोवियत संघ और विश्व साम्यवादी तंत्र के पतन के बाद मार्क्सवादियों ने अपनी शब्दावली और वैचारिक लड़ाई के क्षेत्र बदले हैं। भारत ही नहीं, कई देशों में कम्युनिस्टों ने अब अपनी शक्ति इस्लाम को समर्पित कर दी है। यद्यपि पहले भी कम्युनिस्ट लोग इस्लाम के प्रति सदय थे, किंतु सोवियत विघटन के बाद यह बढ़ गया। जिन्हें इसके बारे में अधिाक जानने की इच्छा हो वह प्रसिध्द ‘फ्रंटपेज मैगजीन’ के मुख्य संपादक डेविड होरोवित्ज की नई पुस्तक ‘अनहोली एलायंस: रेडिकल इस्लाम एंड द अमेरिकन लेफ्ट’ से जायजा ले सकते हैं। वैसे होरोवित्ज ने अपने पचास वर्ष के अनुभव के आधार पर यह पुस्तक लिखी है। कम्युनिस्टों के पास अब किसी सामाजिक क्रांति का मोटा विचार भी शेष नहीं है। अंधा-अमेरिका विरोधा के नाम पर साम्यवादी लोग पहले भी अयातुल्ला खुमैनी जैसे तानाशाहों, अत्याचारियों का समर्थन करते रहते थे। अब वही उनका एकमात्र अवलंब है जिस कारण वे सिमी, जिलानी, तालिबान, सद्दाम, अहमदीनेजाद, जवाहिरी जैसे हर तरह के देसी-विदेशी इस्लामवादियों के साथ दिख रहे हैं।
अत: धयान रहे कि अब कम्युनिस्ट नेता मार्क्स या लेनिन की प्रस्थापनाएं नहीं दुहराते। उसके स्थान पर उन्होंने भारत के अन्य सभ्यतागत शत्रुओं के मुहावरे उठा लिए हैं। इसलिए अब वे सेक्यूलरिज्म, माइनॉरिटी राइट्स, मानव अधिकार, वीमेन राइट्स, दलित अधिकार आदि के नारे लगाते हैं। यह सभी नारे भारतीय सभ्यता को विखंडित करने के लिए ही प्रयोग किए जा रहे हैं। इसीलिए यहां इनका सबसे अधिक उपयोग ईसाई-मिशनरी, इस्लामी राजनीतिकर्मी और पश्चिमी सम्रााज्यवादी तंत्र करते रहे हैं। माक्र्सवादी अब उन्हीं के साथ जुड़े हुए हैं। ऐसी स्थिति में यदि आज कोई राष्ट्रवादी मार्क्स, लेनिन के ग्रंथ पलट कर उसकी आलोचना करके माक्सर्ववादियों से लड़ना चाहता है तो वह मूर्खता कर रहा है। उस का समय तीन दशक पहले था (जब उसे नहीं किया गया)। आज तो आपको सेक्यूलरिज्म, मानवाधिकार आदि की आड़ में देशद्रोहियों को सहयोग और इसके लिए संविधान, कानून का नित्य भीतरघात करने के संयुक्त वामपंथी-इस्लामी-मिशनरी प्रपंचों से लड़ना होगा। यहां माक्र्सवादी अब मुख्यत: भारतीय राष्ट्रवाद तथा हिंदू धार्म की लानत-मलानत करते हैं और भारत को कमजोर करने में लगी विदेशी शक्तियों अथवा संगठित धर्मांतरण कराने में लगी मिशनरी एजेंसियों के लिए ढाल बनकर खड़े होते हैं।
इस लड़ाई को रोज-रोज वैचारिक, शैक्षिक और कानूनी क्षेत्र में लड़ना होगा। मीडिया, प्रशासन और न्यायालय – इन तीन क्षेत्रों पर मार्क्सवादियों एवं सभी साम्राज्यवादी शत्रुओं ने स्वयं को केंद्रित किया है। जबकि दुर्भाग्यवश, राष्ट्रवादी शक्तियां केवल चुनावी लड़ाई और जोड़-तोड़ पर ही ध्यान दे रही हैं। मीडिया पर धयान देती भी हैं तो उसे ‘मैनेज’ करने का प्रयास होता है। किन्हीं पत्रकारों या मालिकों को खुश करके कुछ विशेष नेताओं या नीतियां का बचाव करने के लिए। किंतु राष्ट्र-हित के लिए लड़ाई का कोई भाव नहीं दिखता। जबकि आवश्यकता बिल्कुल सीधी लड़ाई की है। विदेशी धन, प्रायोजन और तरह-तरह के विदेशी पुरस्कारों, निमंत्रणों का ढेर लिए जो साम्राज्यवादी, हिंदू विरोधी शक्तियां हमारे देश के चुनिंदा बुध्दिजीवियों, पत्र-पत्रिकाओं, चैनलों आदि को खुले-छिपे नियंत्रित कर रही हैं-उसे राष्ट्रवादी उसी तरह ‘मैनेज’ नहीं कर सकते। उन्हें तो उसके विरूध्द खुली लड़ाई लड़नी होगी। जनता को उसके प्रति सचेत करने और उनका बहिष्कार करने के लिए प्रेरित करना होगा। यदि निष्ठा से लड़ी जाए तो इस लड़ाई में केवल जीत ही जीत है। ठोस तथ्यों, उदाहरणों के साथ खुली व परिश्रमपूर्ण लड़ाई पूरे देश को शिक्षित करेगी। शत्रुओं के कदम ठिठकेंगे। प्रशासन और न्यायपालिका के लोग भी तरह-तरह के मनुहार करने वाले सुंदर लोगों के प्रति तनिक सचेत होंगे। ऐसे लोग जो उन्हें कभी ‘मानव-अधिकार’ तो कभी ‘दलित’ तो कभी ‘वीमेन’ के नाम पर उन्हें विदेशी प्रपंचों का सहायक बनाने में कभी उद्धाटन कराने तो कभी व्याख्यान देने बुलाते हैं। और ये भोलेनाथ हिंदू, न्यायालयों के न्यायाधीशों से लेकर डी.आई.जी. या वाइस-चांसलर तक इसकी भी जांच नहीं करते कि जो संस्था उन्हें आदरपूर्वक ‘एजुकेशनल वर्कशॉप’ में बुला रही है, वह करती क्या क्या है, उनके नेतागण किन अन्य कार्यों में कटिबध्द हैं तथा इन सबके लिए उन्हें धान कौन और किसलिए देता है। यह पूरी प्रक्रिया हमारे उच्च वर्गीय लोगों को ‘थपकियां देकर सुलाने का विराट आयोजन’ (अज्ञेय) कर रही है। इन सबसे भारत के सभ्यतागत् शत्रुओं की जो पहुंच पकड़ बढ़ रही है – वह बिना सीधाी लड़ाई के नहीं रोकी जा सकती।
किंतु यह लड़ाई बड़ी बुध्दिमता, नियमितता और धौर्य से ही लड़ी जा सकती है। केवल क्षोभ या आक्रोश से उलझ पड़ना प्रतिकूल फल देगा। जैसा, हाल में कई घटनाओं ने दिखाया। ‘वालेन्टाइन डे’ के अवसर पर या पार्कों में युवक-युवतियों को बरजने का प्रयास, किसी समाचार-चैनल के दफ्तर पर मामूली तोड़-फोड़ या जहां-तहां त्रिशूल बांटना आदि कदमों के पीछे चिंता सही थी। किंतु परिणाम विपरीत हुए। हिंदू-विरोधाी शक्तियों ने इसका अपने पक्ष में सफलतापूर्वक उपयोग किया। उन कामों में क्या गलती रही? हिंदू-विरोधाी शक्तियों ने इसका अपने पक्ष में सफलतापूर्वक उपयोग किया। उन कामों में क्या गलती रही? पहली, कि जो रास्ते इस्लामी गिरोहों के लिए हर देश में खुले हैं, मान्य हैं-हिंसा और धमकी वह हिंदुओं के लिए स्वीकार्य नहीं होगी। क्यों और कैसे यह असमान स्थिति बनी हुई है, इस पर निर्भीक, गंभीर विचार किए बिना वैसे अविचारी तरीके अपनाना उल्टा परिणाम देगा ही। हर बात पर हिंसा उग्रवादी कट्टरपंथी विचारधााराओं के मार्ग हैं। राष्ट्रीय निर्माण, देश की भलाई, लोगों को वास्तव में समर्थ, सक्षम बनाने का लक्ष्य हो तो हिंसा या बम साधान हो भी नहीं सकता। दूसरे, वैसे विचारहीन आक्रोश से भरे कामों से शत्रु विचारों, संगठनों को तो कोई चोट नहीं पहुंचती उल्टे साधाारण व्यक्ति प्राय: कोई हिंदू या राष्ट्रवादी व्यक्ति ही कष्ट पाते हैं। तब वैसे काम करके हिंदूवादी या राष्ट्रवादी संगठन केवल उपहास पाते हैं।
इसीलिए वैसे कदम उठाने चाहिए जिससे हानि, एकदम छोटी-सी ही क्यों न हो, शत्रु विचारों, संगठनों को पहुंचे। उसके अवसर रोज आते हैं, किंतु उन्हें गंवा दिया जाता है। इसलिए कि उन साधारण लगने वाली बातों का महत्व समझा नहीं जाता। हिंदू उसकी उपेक्षा कर देते हैं और हिंदू-विरोधी उससे लाभ उठा लेते हैं। उदाहरण के लिए, यदि हमारे कोई न्यायाधीश या उच्च अधिकारी किसी मिशनरी संगठन द्वारा आयोजित ‘मानवाधिकार’ पर सेमिनार का उद्धाटन करने चला जाता है तो उनसे मिलकर प्रतिवाद व्यक्त करना।
संबंधित संगठन के बारे में प्रामाणिक जानकारी देते हुए उदघाटनकर्ता महोदय को सावधान करना कि वैसे संगठन अपने असली, संगठित धार्मांतरण कार्यों के लिए उनके नाम की प्रतिष्ठा से अपने संगठनों को प्रतिष्ठित बना रहे हैं। इसका वास्तविक प्रयोग एक ऐसे कार्य में होता है जो नैतिक, कानूनी दृष्टि से भी अवैध है। अथवा, यदि कोई बड़ा समाचार-पत्र किसी समाचार को तोड़-मरोड़ कर हिंदू विरोधी रूप में प्रस्तुत करता है अथवा किसी प्रसंग में राष्ट्रविरोधी शक्तियों का बचाव करता है-तो इसका ठोस उदाहरण लेकर उस पत्र के संचालकों का ध्यान नहीं आकृष्ट कराया जाता। दो-तीन बार ऐसा हो जाए तो पुन: ठोस उदाहरण मिलने पर जिसमें पत्र के संपादक कोई बचाव करने की स्थिति में न हों, लोगों से उस पत्र या चैनल का बहिष्कार करने के लिए कहा जा सकता है। इसी प्रकार, यदि किसी पाठय-पुस्तक में स्पष्टत: किसी राजनीतिक विचारधारा का प्रचार है, किसी विचार या समुदाय के प्रति अनुपातहीन आलोचना या पक्षपात है तो संबंधित शिक्षण-संस्थान एवं प्रकाशक के विरूध्द शांतिपूर्वक किंतु कटिबध्दता से उसे संशोधित करने का आंदोलन चलाया जाना चाहिए। ऐसे संघर्ष के लिए धौर्यपूर्वक अथक प्रयत्न किया जाए तो सफलता निश्चित है। छोटी सफलताएं ही बड़ी का मार्ग प्रशस्त करेगी।
नि:संदेह इस प्रकार के नीरस कार्य बड़े परिश्रम-साधय हैं। यह केवल साधान ही नहीं, धौर्य और सटीक जानकारी की मांग करते हैं। पर आज चिंताशील हिंदुओं, राष्ट्रवादियों को यही तो समझना चाहिए कि उनके लिए सीधा और आसान मार्ग नहीं है। वे मार्क्सवादियों की तरह लफ्फाजी करके या इस्लामवादियों की तरह धामकी देकर कुछ नहीं पा सकते। किसी ‘बड़े मुद्दे’ पर जनता को आवेश में लोकर, एकबारगी देशव्यपी समर्थन (वोट) जुटाने की आस में लगे रहना भी आलस्य और स्वार्थी प्रवृत्ति का ही परिचायक है। इसे कभी किसी नेता या गुट को लाभ हो जाए, उससे देश का भला नहीं होगा। सच्चे देशक्तों को शॉर्ट-कट की दुराशा त्याग देनी होगी। उन्हें शत्रुओं को छोटी-छोटी चोट देकर भी, अत्यंत साधारण दिखने वाली, किंतु अर्थपूर्ण जीत प्राप्त करके ही, राष्ट्रवादी जनता का आत्मविश्वास, साहस और रचनात्मकता बढ़ानी होगी।
कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसे संकल्प वे नहीं ले सकेंगे जो केवल बड़े नेताओं की चापलूसी करके या जोड़-तोड़ करके इस या उस पद पर जाने की ताक में लगे रहने को ही राजनीति समझते हैं। यह कथित राजनीति नेहरूपंथ या कम्युनिस्टपंथ में तो चल सकती है जिनके लिए साम्राज्यवादी विचारों, संगठनों के साथ ‘भाई-चारा’ रखना सहज कार्य है। किंतु भारत में देशभक्ति की राजनीति और वंदे मातरम् का संकल्प रखने वालों के लिए कोई सरल मार्ग नहीं है। कम से कम अभी नहीं है। इसे हृदयंगम करके ही कोई राष्ट्रवादी महात्वाकांक्षा रखनी चाहिए।
टिप्पणी:
1. मूल रूसी से आधिकारिक अंग्रेजी अनुवाद इस प्रकार है:
Just as the Coriolis effect is constant over the whole of this earth’s surface, and the flow of rivers is deflected in such a way that it is always the right bank that is eroded and crumbles, while the floodwater goes leftward, so do all the forms of democratic liberalism on earth strikes always to the right and caress the left. Their sympathies always with the left, their feet are capable of shuffling only leftward, their heads bob busily as they listen to leftist arguments – but they feel disgraced if they take a step to or listen to a word from the right. (Aleksandr Solzhenitsyn, Novermber 1916: The Red Wheel-Knot II)
2. मूल रूसी से आधिकारिक अंग्रेजी अनुवाद इस प्रकार है:
Nothing is more difficult than drawing a middle line for social development. The loud mouth, the big fist, the bomb, the prison bars are of no help to you, as they are to those at the two extremes. Following the middle line demands the utmost self-control, the most inflexible courage, the most patient calculation, the most precise knowledge. (Aleksandr Solzhenitsyn, Novermber 1916: The Red WheelèKnot II)
-लेखक प्रख्यात स्तंभकार है।
जैसे पूरी पृथ्वी पर कोरियोलिस इफेक्ट एक समान है, और नदियों का बहाव इस तरह होता है कि सदैव दाहिना किनारा कटता और टूटता है, जबकि बाढ़ का पानी बाएं किनारे पर फैलता है, उसी तरह धारती पर लोकतांत्रिक उदारवाद के सभी रूप दक्षिणपंथ पर चोट करते हैं और वामपंथ को गले लगाते हैं। उनकी सहानुभूति सदैव वामपंथ के साथ रहती है, उन के पांव केवल बाईं दिशा में चलने को प्रस्तुत रहते हैं, उनके व्यस्त सिर सदैव वामपंथी तर्कों को सुनने के लिए हिलते हैं- किंतु यदि वे दक्षिणपंथ की ओर से एक बात सुनने के लिए कोई कदम उठाएं तो लज्जा अनुभव करते हैं।1
-अलेक्सांद्र सोल्झेनित्सिन, नवंबर 1916: लाल चक्र/द्वितीय गांठ
1.
आज धरती पर मार्क्सवादी-लेनिनवादी राजनीति अप्रासंगिक हो चुकी है। जहां इस की उत्पति हुई थी, उन यूरोपीय देशों में अब इसका नामलेवा भी कठिनाई से मिलता है। तब क्यों भारत में न केवल यह अब भी प्रभावी है वरन् इसकी शक्ति बढ़ी प्रतीत होती है? भारतीय नीति-निर्माण, विशेषकर शिक्षा, संस्कृति और अंतर्राष्ट्रीय संबंध में इसका दखल पहले से बढ़ा है। यही नहीं, महत्वपूर्ण नियुक्तियों में मार्क्सवादियों की पसंद-नापसंद की निर्णायक भूमिका देखी जा रही है। इस चिंताजनक स्थिति के कारण विविध हैं, जिनमें कुछ हमारा दुर्भाग्य भी है। सभी बिंदुओं को ठीक-ठीक समझे बिना इस व्याधि का उपचार होना कठिन है।
वामपंथ की अपील एक भूमंडलीय व्याधि है, यह तो स्पष्ट है। मार्क्सवादी राजनीति के सभी दावों की पोल खुल जोने के बाद भी आज भी, हर कहीं, जब-तब, किसी विषय पर, वामपंथी शब्दजाल, यहां तक कि उसकी घातक-से-घातक अनुशंसाओं को भी आदर से देखा जाता है। इसका मुख्य कारण यही है कि वह निर्धान, दुर्बल जनों की पक्षधारता के रूप में प्रस्तुत की जाती है। चाहे व्यावहारिक परिणाम में वह दुर्बलों की और दुर्गति करने वाली ही क्यों न हो, किंतु जब कोई विचार वामपंथी शब्दजाल में आता है, तो अच्छे-अच्छे समझदार सहानुभूति में सिर हिलाते हैं। इसी को भूगोल के ‘कोरियोलिस इफेक्ट’ के रूपक से सोल्झेनित्सिन ने सटीक व्याख्यायित किया है।
किंतु भारत में वामपंथी प्रभाव बनने, बढ़ने के स्थानीय कारण भी रहे। ब्रिटिश शासन रहने के कारण हमारे उच्च वर्ग की कई पीढ़ियां औपनिवेशिक शिक्षा से दीक्षित हुई। जिसने सचेत रूप से भारतीय दर्शन, चिंतन, परंपरा एवं संस्कृति को हीन तथा पश्चिमी चिंतन को श्रेष्ठ प्रचारित किया था। सत्ता, शक्ति व निरंतर प्रचार के दबाव में यह भी दिखाया गया मानो भारत की पराधीनता में उस श्रेष्ठता का भी हाथ था। चूंकि मार्क्सवादी, वामपंथी विचारधाराएं भी पश्चिमी उत्पति हैं, अत: उन्हें भी महत्व दिया गया। उन्नीसवी-बीसवीं शती में हमारे देश के अनेक भावी नेता और भावी विद्वान पढ़ने इंग्लैंड गए, और वहां के प्रचलित फैशन वामपंथ से प्रभावित हो लौटे।
यही नहीं, भारत के हिंदू चिंतन, स्वदेशी राजनीतिक कार्यक्रमों, मानदंडों को अपदस्थ करने के लिए हमारे क्रांतिकारियों को मार्क्सवाद की ओर झुकाने और इस प्रकार पथभ्रष्ट करने का कार्य स्वयं अंग्रेज शासकों ने भी किया। जेल में भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को मार्क्सवादी पुस्तक-पुस्तिकाएं पढ़ने के लिए देना इस उद्देश्य से था कि वे स्वेदशी आंदोलन (1905-1910) की विशुध्द भारतीय राष्ट्रवादी, क्रांतिकारी परंपरा से दूर हों। इस प्रकार बंकिमचंद्र, स्वामी दयानंद, लोकमान्य तिलक, स्वामी विवेकानंद, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, श्री अरविंद प्रभृत मनीषियों, क्रांतिकारियों की सशक्त प्रेरणाओं से विमुख हों। अनुभव तथा दूरदृष्टि रखने वाले अंग्रेज जानते थे कि वह देसी प्रेरणाएं उनकी औपनिवेशिक सत्ता के लिए अधिक घातक है। इसलिए उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद को विभाजित और रोगग्रस्त करने के लिए मार्क्सवादी कीटाणुओं को फैलाने में स्वयं भी एक भूमिका निभाई थी। यह भी स्मरण रहे कि 1947 तक भारतीय कम्युनिस्टों का संचालन, निर्देशन प्राय: ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के माध्यम से होता रहा।
भारत को मजहबी आधार पर विभाजित करने तथा पाकिस्तान बनवाने में भारतीय कम्युनिस्टों की महत्वपूर्ण भूमिका को भी उसी पृष्ठभूमि में समझा जाना चाहिए। भारतीय राष्ट्रवाद को विखंडित करने में ब्रिटिश साम्राज्यवाद, इस्लामी साम्राज्यवाद तथा कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद, इन तीनों ने अलग-अलग और मिलकर भी काम किया था। इस महत्वपूर्ण तथ्य को स्वतंत्र भारत में छिपाया गया। इसी कारण हमारी युवा पीढ़ी आसन्न इतिहास की भी कई मोटी बातें भी नहीं जानती। यह इसलिए संभव हुआ क्योंकि स्वतंत्र भारत के दुर्भाग्य से इसके पहले प्रधाानमंत्री ही पक्के कम्युनिस्ट समर्थक थे। महात्मा गांधाी ने अपने निजी प्रेम व मोह में जवाहरलाल नेहरू को अकारण, अनावश्यक रूप से अपना ‘उत्तराधिकारी’ घोषित कर, इस प्रकार अपनी प्रतिष्ठा का प्रयोग कर के उन्हें सत्ता दिला दी। जबकि नेहरू अपने विचारों, नीतियों, चरित्र आदि किसी बात में गांधी से मेल नहीं खाते थे। नेहरू विचारों में पक्के सोवियतपंथी थे, इसका प्रमाण उनका संपूर्ण लेखन-भाषण है।
नेहरूजी के नेतृत्व में बल-पूर्वक, सत्ता के दुरूपयोग, सेंशरशिप, प्रलोभन-प्रोत्साहन-हतोत्साहन तथा अलोकतांत्रिक तरीकों से यहां मार्क्सवाद- लेनिनवाद तथा सोवियत संघ व लाल चीन के प्रति आलोचनात्मक विमर्श को रोका गया। (देखें, सीताराम गोयल, जेनिसिस एंड ग्रोथ ऑफ नेहरूइज्म, खंड 1, 1993, पृ. अपप.गपपए 11.28)। भारत में जो ऐतिहासिक संघर्ष रामस्वरूप जी की पुस्तिका ‘लेट अस फाइट द कम्युनिस्ट मीनेस’ (1948) जैसे कई गंभीर प्रकाशन तथा ‘सोसाइटी फॉर डिफेंस ऑफ फ्रीडम इन एशिया’ (1952) की स्थापना के साथ आरंभ हुआ था, उसे यदि नेहरू ने अनैतिक तरीकों से शुरू में ही दबोच कर नष्ट न किया होता तो भारत में मार्क्सवादी दबदबा कायम नहीं हो सकता था। वह तरीके थे, उदाहरणार्थ: किसी पुस्तक प्रदर्शनी में स्वयं अधिकारियों द्वारा (पार्टी कार्यकर्ताओं या गुंडों द्वारा नहीं) इनके प्राची प्रकाशन का स्टॉल जबर्दस्ती बंद करवा कर (कलकत्ता, अप्रैल 1954); नौकरी से निकलवाकर; पोस्टल विभाग द्वारा नियमानुरूप प्राप्त की गई सुविधा को अवैध तरीके से छीनकर (1953); विदेश में कम्युनिज्म विरोधी सम्मेलनों में जाने से रोकने के लिए बिना कारण बताए पासपोर्ट न देकर (मई 1955); भारत में कम्युनिस्ट-विरोधी सम्मेलनों को विफल बनाने के लिए महत्वपूर्ण लोगों को कह-सुन कर उसमें जाने से रोक कर; प्रेस में वैसे कार्यक्रमों की चर्चा को गुम या कम करवा कर; आयोजकों-लेखकों को खुफिया पुलिस द्वारा परेशान करवा कर; अखबारों में महत्वपूर्ण पदों पर कम्युनिस्टों और उनसे सहानुभूति रखने वालों को नियुक्त करवा कर; उनके माधयम से प्रेस में कम्युनिस्ट विरोधी लेखकों, राष्ट्रवादी विद्वानों पर तरह-तरह के लांछन लगवाकर; आदि। ऐसे तरीकों से नेहरूजी के समय में इस वैचारिक आंदोलन को खड़े होने से पहले ही गिरा दिया गया था। लगभग उन्हीं जबरिया तरीकों से जैसे कम्युनिस्ट देशों में ‘क्रांतिविरोधी’ या ‘प्रतिक्रियावादी’ संगलनों, विचारों, संस्थाओं को धवस्त किया जाता रहा है। भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की सीमाओं के कारण इसमें जो मर्यादा रही हो, यह और बात है। नेहरूजी को बड़ा लेखक, बुध्दिजीवी माना जाता है। किंतु कम्युनिस्ट विचारों का प्रचार वह जोर-जबर्दस्ती के सहारे ही कर सके थे। वह तो माओत्से तुंग द्वार 1962 में लगाए गए तमाचे ने खेल खराब किया और कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद की वास्तविकता दिखा। भारतवासियों को एक गहरा झटका दिया अन्यथा नेहरूजी फिडेल कास्त्रो वाले रास्ते पर जा रहे थे।
इस तरह छल, बल, प्रपंच, सत्ता के दुरूपयोग आदि सब प्रकार से इसकी पूरी व्यवस्था की गई कि अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन के कुकर्मों को भारतीय जनता न जान सके, बल्कि उसके प्रति सहानुभूतिशील हो। ध्यान रहे, सरदार पटेल के 1950 में आकस्मिक निधन के बाद नेहरू का हाथ रोकने वाला भी न रहा। अन्य राष्ट्रवादी या तो किनारे कर दिए गए या उन्होंने चुप्पी साधा ली। इस परिस्थिति में नेहरूजी ने केवल कम्युनिस्ट विचारधारा ही नहीं, बल्कि भारत-विभाजन कराने वाले कम्युनिस्टों को भी वैचारिक-राजनीतिक रूप से ऊंचा स्थान दिलाया। चूंकि वह काल स्वतंत्र भारत की नीतियों-परंपराओं की स्थापना का भी था, इसलिए वामपंथी मिथ्याचारों, भ्रमों, नारों आदि को आधिकारिक रूप से जो प्रथम स्वीकृति मिली, उसने कालांतर में स्थापित मूल्यों का स्थान पा लिया। उसका दबदबा आज भी चल रहा है।
इस दुर्भाग्यपूर्ण प्रक्रिया को इससे और सुविधाा हुई कि गैर-वामपंथी, राष्ट्रवादी विचारों वाले लोग, संगठन और संस्थाओं ने उसके घातक परिणामों को नहीं समझा। इसलिए कोई कड़ा, संगठित विरोधा नहीं किया। कुछ लोग तो उल्टे सोवियत, चीनी, कम्युनिस्ट प्रचारों की कई बातों को सत्य मान बैठे। इसलिए लेनिनवाद की साम्राज्यवादी विचारधारा, उसके घातक नारों, प्रस्थापनाओं, उसके निहितार्थों के प्रति जनता को शिक्षित करने के स्थान पर उसे भी एक विचार के रूप में आदर देने लग गए। बल्कि सामंजस्य बिठाने तक का प्रयास करने लगे। यह शतियों पुरानी हिंदू भूल का ही दुहराव था, जो बाहरी, साम्राज्यवादी विचारधाराओं का गंभीर अध्ययन करने के प्रति उदासीन रही और कुछ ऊपर झूठी-सच्ची बातों के आधार पर उसके बारे में कामचलाऊ राय बना कर अपने कर्तव्य का अंत समझती है। भारत-विरोधी, शत्रुतापूर्ण विचारों के प्रति यह आत्मघाती सहिष्णुता; स्थायी वैरभाव से भरी आक्रामक विचारधाराओं को बिना ठीक से जाने उनके प्रति भी ‘सम’ भाव दिखाना -हिंदुओं की इस पुरानी भूल का भी लाभ कम्युनिस्ट राजनीति को मिला।
इन्हीं संयुक्त दुर्भाग्यों का परिणाम था कि जब सभी विकसित, सभ्य देशों में समय के साथ कम्युनिज्म के सिध्दांत-व्यवाहर की पोल खुलने लगी, तब भी स्वतंत्र भारत में उसके प्रति शिक्षित लोगों में भ्रम बना रहा। इस बीच नेहरू से लेकर इंदिरा जी तक के दौर में कम्युनिस्टों ने शैक्षिक, वैचारिक, नीति-निर्माण संस्थानों में गहरी घुसपैठ बनाई। राष्ट्रवादी विचारों वाले नेताओं और विद्वानों ने इसका विशेष प्रतिरोधा नहीं किया। फल हुआ कि विद्वत-संस्थाओं, पाठय-पुस्तकों, समाचार-पत्रों आदि पर कम्युनिस्टों के पर्याप्त नियंत्रण के माधयम से देश की नई पीढ़ी को वैचारिक रूप से भ्रष्ट, अशक्त किया गया। आज प्रशासन, मीडिया, विद्वत-जगत आदि सभी क्षेत्रों में नेतृत्वकारी स्थानों पर ऐसे लोग भरे पड़े हैं जो सचेत या अचेत रूप से भारतीय सभ्यता-संस्कृति के विरूध्द हैं। वे हर उस चीज की वकालत करते हैं जिसके लिए कम्युनिस्ट, इस्लामी या मिशनरी संगठन प्रयत्नशील हैं। हिंदू समाज को निर्बल बनाने तथा तोड़ने एवं भारत को तरह-तरह से विखंडित करने के सभी बाहरी प्रयासों को हमारे प्रबुध्द, सत्तासीन वर्ग का मानो उदार समर्थन प्राप्त है। उन प्रयासों की हर आलोचना उन्हें ‘हिंदू सांप्रदायिकता’ लगती है। यह अनायास नहीं हुआ। इसके पीछे वह पृष्ठभूमि है जिसकी ऊपर संक्षिप्त चर्चा है।
दुर्भाग्यवश राष्ट्रवादी भारतीयों एवं हिंदू उच्च-वर्ग की कमियां आज भी यथावत् हैं। पिछले सौ वर्ष के कटु अनुभवों के बाद भी वे भीरूता और भ्रम के शिकार हैं। बल्कि यह भी उदासीनता का ही संकेत है कि एक उदार लोकतंत्र में रहते हुए भी उन्हें हाल के इतिहास और वर्तमान घटनाक्र्रमों की भी कई गंभीर बातों का कुछ पता नहीं रहता। 1947 में एक झटके में भारत का विभाजन इसीलिए संभव हुआ था-क्योंकि लाहौर, करांची, ढाका और बंबई, इलाहाबाद, मद्रास के भी प्रबुध्द, प्रभावी, धानी-मानी हिंदू ऐसी किसी चीज की कल्पना ही नहीं करते थे। वे भी, आज की तरह, ‘जनता तो एक है’ ‘सभी धार्म समान हैं’, ‘हमारी संस्कृति साझी है’, ‘हर विचारधारा में अच्छी बातें हैं’ तथा ‘केवल राजनीति वाले गड़बड़ी करते हैं’ जैसे बाजारू, झूठे जुमले दुहरा कर अपना बौध्दिक, राष्ट्रीय कर्तव्य समाप्त समझते थे और मजे से अपने-अपने उद्योग, व्यापार, साहित्य या कला की दुनिया में मगन थे। इसीलिए जब एकाएक साम्राज्यवादी विचारधााराओं का एक निर्णायक, समवेत प्रहार हुआ ते वे हतप्रभ् उसकी मार झेलने के सवा कुछ न कर सके। कृपया धयान दें: 1947 में भी संपूर्ण भारतीय जनसंख्या में प्रत्येक इस्लामी राजनीतिकर्मी, कम्युनिस्ट कार्यकर्ता, ईसाई-मिशनरी प्रचारक अथवा ब्रिटिश अधिकारी की तुलना में राष्ट्रवादी विचारों वाले दस-दस सुशिक्षित, संपन्न, स्वस्थ हिंदू मौजूद थे। एक के अनुपात में दस और समर्थ होकर भी वे कुछ क्यों न कर सके? क्योंकि वे वैसे आघात के लिए तैयार न थे।
इस प्रकार, भारतीय सभ्यता के प्रति स्थायी वैर-भाव से भरी शत्रु विचारधाराओं के प्रति भ्रम, उदासीनता और तैयारी न होने से ही भारत को को छल से तोड़ा गया था। किंतु आज भी वह विचारधाराएं यथावत् अपने प्रयास में जुटी हुई हैं। और आश्चर्य की बात है कि आज भी हमारा उच्च वर्ग उसी तरह अपनी अज्ञानी या स्वार्थी दुनिया में निश्चिंत बैठा है। वह सेंसेक्स, प्रति व्यक्ति आय, कथित विकास के आंकड़ों पर फूल कर, सड़कें, बिल्डिंगे बनवा कर, इंडिया शाइनिंग और सेक्यूलरिज्म की रट लगाकर एवं हर समुदाय के उत्कृष्ट प्रतिनिधियों की ओर निहार कर स्वयं को और देश को सुरक्षित समझता है। किंतु कश्मीर, असम, नागालैंड, मेघालय आदि की फिसलती हालत से आंख मिलाने से कतराता है – जहां मुट्ठीभर कटिबध्द इस्लामी, ईसाई-मिशनरी नेता और पश्चिमी-अरबी धान से चलने वाले संगठन भारत से इंच-इंच धारती छीन रहे हैं। इस ज्ञात संकट से आंख मिलाने के बदले भारत का हिंदू उच्च-वर्ग उन्हीं वैरी विचारधााराओं के ही थमाए गए झूठे नारे दुहरा कर प्रसन्न, शुतुरमर्ग की तरह आश्वस्त रहना अथवा अपनी लज्जास्पद स्थिति को छिपाना चाहता है। उन नारों पर संदेह उत्पन्न होने पर भी जांचने के बदले उस संदेह से ही अपने को दूर रखने का यत्न करता है। इस आत्मघाती प्रवृत्तिा को विदेशी तत्तव तथा मीडिया, विश्वविद्यालय आदि में जमे मूढ पर प्रगल्भ हिंदू प्रोत्साहन देते हैं कि वह असुविधाजनक सच्चाइयों का सामना करने के बदले उससे आंखें फेर ले। और फेरे ही रखे। भारत के उच्चवर्गीय हिंदुओं की इस लज्जास्पद प्रवृत्ति के कारण ही स्वतंत्र भारत में कश्मीर क्षेत्र में हिंदुओं का सामूहिक विनाश हुआ, असम में हो रहा है तथा केरल, पश्चिमी बंगाल, बिहार और उत्तार प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्र उसी दिशा में डग बढ़ रहे हैं। और यह सब केवल एक पहलू है-हमें भौगोलिक रूप से विखंडित, संकुचित करने के प्रयास।
भारत को भावनात्मक, वैचारिक, सांस्कृतिक रूप से भी पहले नि:शस्त्र, फिर धवस्त करने के यत्न भी उतनी ही कटिबध्दता से हो रहे हैं। और उसके प्रति भी हमारे उच्च-वर्ग-नेताओं, बुध्दिजीवियों, प्रशासकों, उद्योगपतियों की उदासीनता वैसी ही लज्जास्पद है। यह उदासीनता केवल अज्ञानजन्य नहीं, यह इससे स्पष्ट है कि यदि कोई भारत के सभ्यतागत शत्रुओं के कुटिल प्रयासों के प्रति धयान आकृष्ट कराता है तो उल्टे उसे ही चुप कराने का चौतरफा उपाय किया जाता है। उसे लांछित, दंडित कर दूसरों को भी संदेश दिया जाता है कि सब चुप रहें। कहने की आवश्यकता नहीं कि स्थायी शत्रुताभाव से भरे देशी-विदेशी बैरी इससे और प्रोत्साहित होते हैं। मिशनरियों द्वारा देश के सुदूर, छिपे इलाकों में असहाय हिंदुओं का संगठित, आक्रामक रूप से धार्मांतरण कराना; उन्हीं मिशनरियों द्वारा मुखौटा बदल कर देश की राजधानी में ‘सेक्युलरिज्म’, ‘दलित मुक्ति’, ‘मानवाधिकार’ आदि की आक्रामक वैचारिक गतिविधिायों द्वारा शिक्षा, प्रशासन और न्यायतंत्र को विभिन्न हथकंडों से बरगलाकर अपने अनुकूल बनाना; इस्लामी तत्तवों द्वारा भारतीय राज्य-नीति व न्यायपालिका तक को अपने दबदबे में रखने का यत्न करना; तथा इने-गिने मार्क्सवादियों द्वारा देश के संवैधाानिक पदों पर नियुक्ति कर अपना वीटो चलाना तथा इन्हीं सब तत्तवों द्वारा भारत की राष्ट्रवादी चिंताओं और हिंदू धार्म-परंपरा को एक स्वर में दिन-रात निंदित करना आदि इसके कुछ प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।
इस प्रकार भारत को वैचारिक, सांस्कृतिक रूप से मूढ, असहाय बनाकर पराभूत करने के गंभीर प्रयास हो रहे हैं। यह प्रयास निष्फल नहीं, यह इसी से स्पष्ट है कि जो सहज बातें कोई हिंदू विद्वान या नेता चार दशक पहले कह सकता था, आज नहीं कही जा सकती। उसे दंडित होना पड़ेगा। डॉ. कर्ण सिंह जैसे विख्यात विद्वान और राजनेता को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार यह कह कर नहीं बनाया गया कि उनमें हिंदूपन है जबकि उपराष्ट्रपति के लिए सभी उम्मीदवार इस आधार पर चुने गए कि वे मुस्लिम हैं। दोनों ही कार्य एक-दो कम्युनिस्टों ने सुनिश्चित किए। प्रत्येक दल के अनेक नेता यह अनाचार मौन देखते रहे, बल्कि इसमें योगदान किया। यह सांकेतिक घटनाएं हैं जिनसे सीख ली जानी चाहिए कि साम्राज्यवादी, आक्रामक विचारधाराओं, संगठनों के प्रति अनुचित सहिष्णुता दिखा कर जो ‘सहमति’ बनाई जाती है, वह स्थिति को यथावत नहीं रहने देती। वह आगे-आगे राष्ट्रवादियों से, हिंदुओं से और भी रणनीतिक-वैचारिक स्थान छीनेगी। अर्थात्, इससे शांति या सहयोग नहीं बनेगा, बल्कि विषम स्थिति और बिगड़ेगी। दूसरे शब्दों में, जिस चीज से हिंदू उच्च वर्ग बचना चाहता है, ठीक वही और भी भयावह, अशांत रूप में आएगी। 1947 में यही हुआ था। यदि आप आज शत्रु विचारों से वैचारिक लड़ाई से भी कन्नी काटते हैं तो कल आपको प्रत्यक्ष युध्द झेलना पड़ेगा। इस का उल्टा भी सत्य है: यदि आज आप वैचारिक प्रतिकार करते हैं तो कल युध्द की नौबत नहीं आएगी। वैचारिक संघर्ष से ही समाधान निकल आ सकता है-बशर्ते आपकी चौकसी ढीली न हो।
2.
सामाजिक विकास के लिए मधय मार्ग चुनने से अधिक कठिन कोई कार्य नहीं। बड़बोलापन, तना हुआ मुक्का, बम, जेल की सलाखें तब आपके किसी काम नहीं आएंगी, जैसे वह दोनों अतिवादी ध्रुवों वाले लोगों के काम आती हैं। मधय मार्ग पर चलना अत्यधिक आत्म-नियंत्रण, नितांत अडिग साहस, सबसे धौर्यपूर्ण आकलन और सर्वाधिक सटीक जानकारी की मांग करता है।2
-अलेक्सांद्र सोल्झेनित्सिन, नवंबर 1916रु लाल चक्र/द्वितीय गांठ
इस संकटपूर्ण स्थिति में भारत के चिर-शत्रुओं -मार्क्सवादियों तथा अन्य साम्राज्यवादी विचारधाराओं, संगठनों के विरूध्द किसी राष्ट्रवादी को कैसा संकल्प लेना चाहिए? भारतीय सभ्यता के स्थाई बैरियों के प्रतिकार के लिए भारतीय राष्ट्रवादी को क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए?
यह बात भी सोलेझिनित्सिन के शब्दों से ही समझना आरंभ करें। जिसे उन्होंने मधय-मार्ग कहा है उसी को हम राष्ट्रवादी मार्ग मान कर चलें तो पहली बात तो यह कि भारतीय राष्ट्रवादियों के लिए वह तरीके उपयुक्त नहीं हैं-जिनका सहारा मार्क्सवादी, मिशनरी या इस्लामी राजनीतिकर्मी लेते हैं। यदि हिंदू राजनीतिकर्मी या समाजसेवी केवल बड़ी-बड़ी बातों या छल-प्रपंच से काम चलाना चाहें तो उसकी दुर्गति होगी। उदाहरणार्थ, जो हिंदू नेता समझते थे कि वे भी केंद्र में सत्ताधारी बनकर उसी तरह शिक्षा-संस्थाओं का उपयोग या दुरुपयोग करेंगे, उन्हें संभवत: समझ आयी होगी कि उनके लिए वह मार्ग नहीं खुला है। हिंदू नेता जिस तरह तीन दशक तक उदासीन भाव से मार्क्सवादी-नेहरूपंथी प्रचारकों द्वारा शिक्षा की विकृति देखते रहे वैसे उनके शत्रु नहीं रहने वाले! वे तो अच्छे कार्यों पर पर भी आसमान सिर पर उठा लेंगे और आपका काम करना दूभर कर देंगे। वे सचेत रहे हैं और आप उदासीन – इस का अंतर तो समझें। अत: मात्र सत्ता के आसरे किसी विकृति को सुधारने का भी काम यदि हिंदू नेता करना चाहें तो उचित, संवैधाानिक कदम होने पर भी उसके विरूध्द अंतर्राष्ट्रीय रूप से संगठित हिंदू-विरोधी शक्तियां समवेत रूप से चीख-पुकार आरंभ कर देंगी। 1998-2004 के बीच यही हुआ।
दूसरी बात, माक्र्सवादियों इस्लामियों द्वारा की गई अनुचित जिदों, याचनाओं पर भी उदारता दिखाने और समर्थन दे देने के बदले में वे हिंदू नेताओं की उचित मांगों पर भी सहयोग देंगे, इसकी आशा करना भारी भूल है। हिंदू पहचान वाले नेतागण कभी न भूलें कि उनके लिए वे रास्ते नहीं खुले हैं जो अंतर्राष्ट्रीय रूप से कटिबध्द, संपन्न हिंदू-विरोधी संगठनों, नेताओं के लिए सुलभ हैं। वे यह भी समझें कि शतियों से पराधीनता में रहते हुए हिंदू समाज का अभी कोई स्वाभाविक, आत्मविश्वासपूर्ण बुध्दिजीवी या शासनकर्मी वर्ग तक नहीं बना है। और यह काम किसी जादू से या रातों-रात नहीं हो सकता। अत: केवल सत्ता प्राप्ति की जुगत में लगे रहना और उसी माधयम से कुछ करने की आशा करना (यद्यपि यह भी संदिग्ध है कि अनेक हिंदू नेता कोई वैसा राष्ट्र-हित या हिंदू हित का काम करना चाहते भी हैं) एकदम व्यर्थ है।
अत: राष्ट्रहित का कार्य नित्य का कार्य है जो प्रत्येक राष्ट्रविरोधी कदम के सुनिश्चित, प्रभावी विरोध की मांग करता है। चाहे वह प्रशासन में हो, शिक्षा-संस्कृति या अर्थ-व्यवस्था और विदेश नीति में। साथ ही, देश के लिए लोगों को जगाना, संगठित और तत्पर करना भी नित्य किए जाने का कार्य है। विशेषकर विचार, शिक्षा, संस्कृति, न्यायतंत्र के क्षेत्र में तो यह नित्य, इंच-इंच भूमि के लिए लड़ी जाने वाली अहर्निश लड़ाई है जिसमें प्रत्येक कोताही, उसी अनुपात में शत्रु को लाभ देने के समान है। चार दशक में भारत में आ गए जिस प्रतिकूल परिवर्तन का ऊपर उल्लेख है, वह इसी तरह शत्रु के विचारों के प्रति उदारता या उदासीनता दिखाने का भी फल है।
यह लड़ाई लड़ने के लिए शक्ति एकत्र करने के साथ-साथ अहर्निश जागरूकता आवश्यक है। यदि शत्रु ने रूप बदल लिया है तो आपको भी तदनुरूप बदलना होगा। उदाहरण के लिए सोवियत संघ और विश्व साम्यवादी तंत्र के पतन के बाद मार्क्सवादियों ने अपनी शब्दावली और वैचारिक लड़ाई के क्षेत्र बदले हैं। भारत ही नहीं, कई देशों में कम्युनिस्टों ने अब अपनी शक्ति इस्लाम को समर्पित कर दी है। यद्यपि पहले भी कम्युनिस्ट लोग इस्लाम के प्रति सदय थे, किंतु सोवियत विघटन के बाद यह बढ़ गया। जिन्हें इसके बारे में अधिाक जानने की इच्छा हो वह प्रसिध्द ‘फ्रंटपेज मैगजीन’ के मुख्य संपादक डेविड होरोवित्ज की नई पुस्तक ‘अनहोली एलायंस: रेडिकल इस्लाम एंड द अमेरिकन लेफ्ट’ से जायजा ले सकते हैं। वैसे होरोवित्ज ने अपने पचास वर्ष के अनुभव के आधार पर यह पुस्तक लिखी है। कम्युनिस्टों के पास अब किसी सामाजिक क्रांति का मोटा विचार भी शेष नहीं है। अंधा-अमेरिका विरोधा के नाम पर साम्यवादी लोग पहले भी अयातुल्ला खुमैनी जैसे तानाशाहों, अत्याचारियों का समर्थन करते रहते थे। अब वही उनका एकमात्र अवलंब है जिस कारण वे सिमी, जिलानी, तालिबान, सद्दाम, अहमदीनेजाद, जवाहिरी जैसे हर तरह के देसी-विदेशी इस्लामवादियों के साथ दिख रहे हैं।
अत: धयान रहे कि अब कम्युनिस्ट नेता मार्क्स या लेनिन की प्रस्थापनाएं नहीं दुहराते। उसके स्थान पर उन्होंने भारत के अन्य सभ्यतागत शत्रुओं के मुहावरे उठा लिए हैं। इसलिए अब वे सेक्यूलरिज्म, माइनॉरिटी राइट्स, मानव अधिकार, वीमेन राइट्स, दलित अधिकार आदि के नारे लगाते हैं। यह सभी नारे भारतीय सभ्यता को विखंडित करने के लिए ही प्रयोग किए जा रहे हैं। इसीलिए यहां इनका सबसे अधिक उपयोग ईसाई-मिशनरी, इस्लामी राजनीतिकर्मी और पश्चिमी सम्रााज्यवादी तंत्र करते रहे हैं। माक्र्सवादी अब उन्हीं के साथ जुड़े हुए हैं। ऐसी स्थिति में यदि आज कोई राष्ट्रवादी मार्क्स, लेनिन के ग्रंथ पलट कर उसकी आलोचना करके माक्सर्ववादियों से लड़ना चाहता है तो वह मूर्खता कर रहा है। उस का समय तीन दशक पहले था (जब उसे नहीं किया गया)। आज तो आपको सेक्यूलरिज्म, मानवाधिकार आदि की आड़ में देशद्रोहियों को सहयोग और इसके लिए संविधान, कानून का नित्य भीतरघात करने के संयुक्त वामपंथी-इस्लामी-मिशनरी प्रपंचों से लड़ना होगा। यहां माक्र्सवादी अब मुख्यत: भारतीय राष्ट्रवाद तथा हिंदू धार्म की लानत-मलानत करते हैं और भारत को कमजोर करने में लगी विदेशी शक्तियों अथवा संगठित धर्मांतरण कराने में लगी मिशनरी एजेंसियों के लिए ढाल बनकर खड़े होते हैं।
इस लड़ाई को रोज-रोज वैचारिक, शैक्षिक और कानूनी क्षेत्र में लड़ना होगा। मीडिया, प्रशासन और न्यायालय – इन तीन क्षेत्रों पर मार्क्सवादियों एवं सभी साम्राज्यवादी शत्रुओं ने स्वयं को केंद्रित किया है। जबकि दुर्भाग्यवश, राष्ट्रवादी शक्तियां केवल चुनावी लड़ाई और जोड़-तोड़ पर ही ध्यान दे रही हैं। मीडिया पर धयान देती भी हैं तो उसे ‘मैनेज’ करने का प्रयास होता है। किन्हीं पत्रकारों या मालिकों को खुश करके कुछ विशेष नेताओं या नीतियां का बचाव करने के लिए। किंतु राष्ट्र-हित के लिए लड़ाई का कोई भाव नहीं दिखता। जबकि आवश्यकता बिल्कुल सीधी लड़ाई की है। विदेशी धन, प्रायोजन और तरह-तरह के विदेशी पुरस्कारों, निमंत्रणों का ढेर लिए जो साम्राज्यवादी, हिंदू विरोधी शक्तियां हमारे देश के चुनिंदा बुध्दिजीवियों, पत्र-पत्रिकाओं, चैनलों आदि को खुले-छिपे नियंत्रित कर रही हैं-उसे राष्ट्रवादी उसी तरह ‘मैनेज’ नहीं कर सकते। उन्हें तो उसके विरूध्द खुली लड़ाई लड़नी होगी। जनता को उसके प्रति सचेत करने और उनका बहिष्कार करने के लिए प्रेरित करना होगा। यदि निष्ठा से लड़ी जाए तो इस लड़ाई में केवल जीत ही जीत है। ठोस तथ्यों, उदाहरणों के साथ खुली व परिश्रमपूर्ण लड़ाई पूरे देश को शिक्षित करेगी। शत्रुओं के कदम ठिठकेंगे। प्रशासन और न्यायपालिका के लोग भी तरह-तरह के मनुहार करने वाले सुंदर लोगों के प्रति तनिक सचेत होंगे। ऐसे लोग जो उन्हें कभी ‘मानव-अधिकार’ तो कभी ‘दलित’ तो कभी ‘वीमेन’ के नाम पर उन्हें विदेशी प्रपंचों का सहायक बनाने में कभी उद्धाटन कराने तो कभी व्याख्यान देने बुलाते हैं। और ये भोलेनाथ हिंदू, न्यायालयों के न्यायाधीशों से लेकर डी.आई.जी. या वाइस-चांसलर तक इसकी भी जांच नहीं करते कि जो संस्था उन्हें आदरपूर्वक ‘एजुकेशनल वर्कशॉप’ में बुला रही है, वह करती क्या क्या है, उनके नेतागण किन अन्य कार्यों में कटिबध्द हैं तथा इन सबके लिए उन्हें धान कौन और किसलिए देता है। यह पूरी प्रक्रिया हमारे उच्च वर्गीय लोगों को ‘थपकियां देकर सुलाने का विराट आयोजन’ (अज्ञेय) कर रही है। इन सबसे भारत के सभ्यतागत् शत्रुओं की जो पहुंच पकड़ बढ़ रही है – वह बिना सीधाी लड़ाई के नहीं रोकी जा सकती।
किंतु यह लड़ाई बड़ी बुध्दिमता, नियमितता और धौर्य से ही लड़ी जा सकती है। केवल क्षोभ या आक्रोश से उलझ पड़ना प्रतिकूल फल देगा। जैसा, हाल में कई घटनाओं ने दिखाया। ‘वालेन्टाइन डे’ के अवसर पर या पार्कों में युवक-युवतियों को बरजने का प्रयास, किसी समाचार-चैनल के दफ्तर पर मामूली तोड़-फोड़ या जहां-तहां त्रिशूल बांटना आदि कदमों के पीछे चिंता सही थी। किंतु परिणाम विपरीत हुए। हिंदू-विरोधाी शक्तियों ने इसका अपने पक्ष में सफलतापूर्वक उपयोग किया। उन कामों में क्या गलती रही? हिंदू-विरोधाी शक्तियों ने इसका अपने पक्ष में सफलतापूर्वक उपयोग किया। उन कामों में क्या गलती रही? पहली, कि जो रास्ते इस्लामी गिरोहों के लिए हर देश में खुले हैं, मान्य हैं-हिंसा और धमकी वह हिंदुओं के लिए स्वीकार्य नहीं होगी। क्यों और कैसे यह असमान स्थिति बनी हुई है, इस पर निर्भीक, गंभीर विचार किए बिना वैसे अविचारी तरीके अपनाना उल्टा परिणाम देगा ही। हर बात पर हिंसा उग्रवादी कट्टरपंथी विचारधााराओं के मार्ग हैं। राष्ट्रीय निर्माण, देश की भलाई, लोगों को वास्तव में समर्थ, सक्षम बनाने का लक्ष्य हो तो हिंसा या बम साधान हो भी नहीं सकता। दूसरे, वैसे विचारहीन आक्रोश से भरे कामों से शत्रु विचारों, संगठनों को तो कोई चोट नहीं पहुंचती उल्टे साधाारण व्यक्ति प्राय: कोई हिंदू या राष्ट्रवादी व्यक्ति ही कष्ट पाते हैं। तब वैसे काम करके हिंदूवादी या राष्ट्रवादी संगठन केवल उपहास पाते हैं।
इसीलिए वैसे कदम उठाने चाहिए जिससे हानि, एकदम छोटी-सी ही क्यों न हो, शत्रु विचारों, संगठनों को पहुंचे। उसके अवसर रोज आते हैं, किंतु उन्हें गंवा दिया जाता है। इसलिए कि उन साधारण लगने वाली बातों का महत्व समझा नहीं जाता। हिंदू उसकी उपेक्षा कर देते हैं और हिंदू-विरोधी उससे लाभ उठा लेते हैं। उदाहरण के लिए, यदि हमारे कोई न्यायाधीश या उच्च अधिकारी किसी मिशनरी संगठन द्वारा आयोजित ‘मानवाधिकार’ पर सेमिनार का उद्धाटन करने चला जाता है तो उनसे मिलकर प्रतिवाद व्यक्त करना।
संबंधित संगठन के बारे में प्रामाणिक जानकारी देते हुए उदघाटनकर्ता महोदय को सावधान करना कि वैसे संगठन अपने असली, संगठित धार्मांतरण कार्यों के लिए उनके नाम की प्रतिष्ठा से अपने संगठनों को प्रतिष्ठित बना रहे हैं। इसका वास्तविक प्रयोग एक ऐसे कार्य में होता है जो नैतिक, कानूनी दृष्टि से भी अवैध है। अथवा, यदि कोई बड़ा समाचार-पत्र किसी समाचार को तोड़-मरोड़ कर हिंदू विरोधी रूप में प्रस्तुत करता है अथवा किसी प्रसंग में राष्ट्रविरोधी शक्तियों का बचाव करता है-तो इसका ठोस उदाहरण लेकर उस पत्र के संचालकों का ध्यान नहीं आकृष्ट कराया जाता। दो-तीन बार ऐसा हो जाए तो पुन: ठोस उदाहरण मिलने पर जिसमें पत्र के संपादक कोई बचाव करने की स्थिति में न हों, लोगों से उस पत्र या चैनल का बहिष्कार करने के लिए कहा जा सकता है। इसी प्रकार, यदि किसी पाठय-पुस्तक में स्पष्टत: किसी राजनीतिक विचारधारा का प्रचार है, किसी विचार या समुदाय के प्रति अनुपातहीन आलोचना या पक्षपात है तो संबंधित शिक्षण-संस्थान एवं प्रकाशक के विरूध्द शांतिपूर्वक किंतु कटिबध्दता से उसे संशोधित करने का आंदोलन चलाया जाना चाहिए। ऐसे संघर्ष के लिए धौर्यपूर्वक अथक प्रयत्न किया जाए तो सफलता निश्चित है। छोटी सफलताएं ही बड़ी का मार्ग प्रशस्त करेगी।
नि:संदेह इस प्रकार के नीरस कार्य बड़े परिश्रम-साधय हैं। यह केवल साधान ही नहीं, धौर्य और सटीक जानकारी की मांग करते हैं। पर आज चिंताशील हिंदुओं, राष्ट्रवादियों को यही तो समझना चाहिए कि उनके लिए सीधा और आसान मार्ग नहीं है। वे मार्क्सवादियों की तरह लफ्फाजी करके या इस्लामवादियों की तरह धामकी देकर कुछ नहीं पा सकते। किसी ‘बड़े मुद्दे’ पर जनता को आवेश में लोकर, एकबारगी देशव्यपी समर्थन (वोट) जुटाने की आस में लगे रहना भी आलस्य और स्वार्थी प्रवृत्ति का ही परिचायक है। इसे कभी किसी नेता या गुट को लाभ हो जाए, उससे देश का भला नहीं होगा। सच्चे देशक्तों को शॉर्ट-कट की दुराशा त्याग देनी होगी। उन्हें शत्रुओं को छोटी-छोटी चोट देकर भी, अत्यंत साधारण दिखने वाली, किंतु अर्थपूर्ण जीत प्राप्त करके ही, राष्ट्रवादी जनता का आत्मविश्वास, साहस और रचनात्मकता बढ़ानी होगी।
कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसे संकल्प वे नहीं ले सकेंगे जो केवल बड़े नेताओं की चापलूसी करके या जोड़-तोड़ करके इस या उस पद पर जाने की ताक में लगे रहने को ही राजनीति समझते हैं। यह कथित राजनीति नेहरूपंथ या कम्युनिस्टपंथ में तो चल सकती है जिनके लिए साम्राज्यवादी विचारों, संगठनों के साथ ‘भाई-चारा’ रखना सहज कार्य है। किंतु भारत में देशभक्ति की राजनीति और वंदे मातरम् का संकल्प रखने वालों के लिए कोई सरल मार्ग नहीं है। कम से कम अभी नहीं है। इसे हृदयंगम करके ही कोई राष्ट्रवादी महात्वाकांक्षा रखनी चाहिए।
टिप्पणी:
1. मूल रूसी से आधिकारिक अंग्रेजी अनुवाद इस प्रकार है:
Just as the Coriolis effect is constant over the whole of this earth’s surface, and the flow of rivers is deflected in such a way that it is always the right bank that is eroded and crumbles, while the floodwater goes leftward, so do all the forms of democratic liberalism on earth strikes always to the right and caress the left. Their sympathies always with the left, their feet are capable of shuffling only leftward, their heads bob busily as they listen to leftist arguments – but they feel disgraced if they take a step to or listen to a word from the right. (Aleksandr Solzhenitsyn, Novermber 1916: The Red Wheel-Knot II)
2. मूल रूसी से आधिकारिक अंग्रेजी अनुवाद इस प्रकार है:
Nothing is more difficult than drawing a middle line for social development. The loud mouth, the big fist, the bomb, the prison bars are of no help to you, as they are to those at the two extremes. Following the middle line demands the utmost self-control, the most inflexible courage, the most patient calculation, the most precise knowledge. (Aleksandr Solzhenitsyn, Novermber 1916: The Red WheelèKnot II)
-लेखक प्रख्यात स्तंभकार है।
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