सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

कुछ भी कहने की आजादी बनाम हिंदुस्तान का जनतंत्र

भारतीय जनतंत्र ने अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर क्या वास्तव में लोगों को खुला छोड़ दिया है। एक बहुलतावादी,बहुधार्मिक एवं सांस्कृतिक समाज ने अपनी सहनशीलता से एक ऐसा वातावरण सृजित किया है जहां आप कुछ कहकर आजाद धूम सकते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के लोकतांत्रिक अधिकार का दुरूपयोग भारत में जितना और जिसतरह हो रहा है उसकी मिसाल न मिलेगी। बावजूद इसके ये ताकतें भारत के लोकतंत्र को, हमारी व्यवस्था को लांछित करने से बाज नहीं आती। क्या मामला है कि नक्सलियों के समर्थक और कश्मीर की आजादी के समर्थक एक मंच पर नजर आते हैं। क्या ये देशद्रोह नहीं है। क्या भारत की सरकार इतनी आतंकित है कि वह इन देशद्रोही विचारों के खिलाफ कुछ भी नहीं कर सकती। आखिर ये देश कैसे बचेगा। एक तरफ देश के नौ राज्यों में बंदूकें उठाए हुए वह हिंसक माओवादी विचार है जो 2050 में भारत की राजसत्ता की कब्जा करने का घिनौना सपना देख रहा है। दूसरी ओर वे लोग हैं जो कश्मीर की आजादी का स्वप्न दिखाकर घाटी के नौजवानों में भारत के खिलाफ जहर भर रहे हैं। किंतु देश की एकता अखंडता के खिलाफ चल रहे ये ही आंदोलन नहीं हैं। पूर्वोत्तर के राज्यों से लेकर सीमावर्ती राज्यों में अलग-अलग नामों, समूहों के रूप में अलगाववादी ताकतें सक्रिय हैं जिन्होंने विदेशी पैसे के आधार पर भारत को तोड़ने का संकल्प ले रखा है। अद्भुत यह कि इन सारे संगठनों की अलग-अलग मांगें है किंतु अंततः वे एक मंच पर हैं। यह भी बहुत बेहतर हुआ कि हुर्रियत के कट्टपंथी नेता अली शाह गिलानी और अरूंधती राय दिल्ली में एक मंच पर दिखे। इससे यह प्रमाणित हो गया कि देश को तोड़ने वाली ताकतों की आपसी समझ और संपर्क बहुत गहरे हैं।

किंतु अफसोस इस बात का है कि गणतंत्र को चलाने और राजधर्म को निभाने की जिम्मेदारी जिन लोगों पर है वे वोट बैंक से आगे की सोच नहीं पाते। वे देशद्रोह को भी जायज मानते हैं और उनके लिए अभिव्यक्ति के नाम पर कोई भी कुछ भी कहने और बकने को हर देशद्रोही आजाद है। दुनिया का कौन सा देश होगा जहां उसके देश के खिलाफ ऐसी बकवास करने की आजादी होगी। भारत ही है जहां आप भारत मां को डायन और राष्ट्रपिता को शैतान की औलाद कहने के बाद भी भारतीय राजनीति में झंडे गाड़ सकते हैं। राजनीति में आज लोकप्रिय हुए तमाम चेहरे अपने गंदे और धटिया बयानों के आधार पर ही आगे बढ़े हैं। अभिव्यक्ति की आजादी का ऐसा दुरूपयोग निश्चय ही दुखद है। गिलानी लगातार भारत विरोधी बयान दे रहे हैं किंतु उनके खिलाफ हमारी सरकार के पास कोई रास्ता नहीं है। वे देश की राजधानी में आकर भारत विरोधी बयान दें और जहर बोने का काम करें किंतु हमारी सरकारें खामोश हैं। गिलानी का कहना है कि “ घाटी ही नहीं जम्मू और लद्दाख के लोगों को भी हिंदुस्तान के बलपूर्वक कब्जे से आजादी चाहिए। राज्य के मुसलमानों ही नहीं हिंदुओं और सिखों को भी आत्मनिर्णय का हक चाहिए।”ऐसे कुतर्क देने वाले गिलानी बताएंगें कि वे तब कहां थे जब लाखों की संख्या में कश्मीरी पंडितो को घाटी छोड़कर हिंदुस्तान के तमाम शहरों में अपना आशियाना बनाना पड़ा। उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया, महिलाओं को अपमानित किया गया। जिन पत्थर बाजों को वे आजादी का योद्धा बता रहे हैं वे ही जब श्रीनगर में सिखों के घरों पर पत्थर फेंककर उन्हें गालियां दे रहे थे, तो वे कहां थे। इन पत्थरबाजों और आतंकियों ने वहां के सिखों को घमकी दी कि वे या तो इस्लाम कबूल करें या घाटी छोड़ दें। तब गिलानी की नैतिकता कहां थी। आतंक और भय के व्यापारी ये पाकपरस्त नेता भारत ही नहीं घाटी के नौजवानों के भी दुश्मन हैं जिन्होंने घरती के स्वर्ग कही जाने धरती को नरक बना दिया है। दिल्ली में गिलानी पर जूते फेंकने की घटना को उचित नहीं ठहराया जा सकता किंतु एक आक्रोशित हिंदुस्तानी के पास विकल्प क्या है। जब वह देखता है उसकी सरकार संसद पर हमले के अपराधी को फांसी नहीं दे सकती, लाखों हिंदूओं को घाटी छोड़नी पड़े और वे अपने ही देश में शरणार्थी हो जाएं, पाकपरस्तों की तूती बोल रही हो, देश को तोड़ने के सारे षडयंत्रकारी एक होकर खड़ें हों तो विकल्प क्या हैं। एक आम हिंदुस्तानी मणिपुर के मुईया, दिल्ली के बौद्धिक चेहरे अरूंधती, घाटी के गिलानी, बंगाल के छत्रधर महतो के खिलाफ क्या कर सकता है। हमारी सरकारें न जाने किस कारण से भारत विरोधी ताकतों को पालपोस कर बड़ा कर रही हैं। जिनको फांसी होनी चाहिए वे जेलों में बिरयानी खा रहे हैं, जिन्हें जेल में होना चाहिए वे दिल्ली की आभिजात्य बैठकों में देश को तोडने के लिए भाषण कर रहे हैं। एक आम हिंदुस्तानी इन ताकतवरों का मुकाबला कैसे करे। जो अपना घर वतन छोड़कर दिल्ली में शरणार्थी हैं,वे अपनी बात कैसे कहें। उनसे मुकाबला कैसे करें जिन्हें पाकिस्तान की सरकार पाल रही है और हिंदुस्तान की सरकार उनकी मिजाजपुर्सी में लगी है। कश्मीर का संकट दरअसल उसी देशतोड़क द्विराष्ट्रवाद की मानसिकता से उपजा है जिसके चलते भारत का विभाजन हुआ। पाकिस्तान और द्विराष्ट्रवाद की समर्थक ताकतें यह कैसे सह सकती हैं कि कोई भी मुस्लिम बहुल इलाका हिंदुस्तान के साथ रहे। किंतु भारत को यह मानना होगा कि कश्मीर में उसकी पराजय आखिरी पराजय नहीं होगी। इससे हिदुस्तान में रहने वाले हिंदु-मुस्लिम रिश्तों की नींव हिल जाएगी और सामाजिक एकता का ताना-बाना खंड- खंड हो जाएगा। इसलिए भारत को किसी भी तरह यह लड़ाई जीतनी है। उन लोगों को जो देश के संविधान को नहीं मानते, देश के कानून को नहीं मानते उनके खिलाफ हमें किसी भी सीमा तक जाना पड़े तो जाना चाहिए।

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