मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

27 अक्टूबर, 1947: शौर्य और बलिदान की तिथि

जो देश अपने नायकों को याद नहीं रखता वहां भविष्य में नायक जन्म नहीं लेते। अफसोस है कि हम 27 अक्टूबर, 1947 के अपने वीर जवानों को भूल गए हैं। यह कश्मीर के इतिहास और शेष भारत से इसके संबंधों के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण तिथि है। इस दिन भारतीय जवानों ने वीरता और शौर्य की नई गाथा लिखी थी। हममें से आज कितनों को एयर कमांडर मेहर सिंह की जाबाजी याद है, जब उन्होंने सामान्य से टेकोटा हवाई जहाज को बिना ऑक्सीजन के 23 हजार फीट की ऊंचाई तक उड़ाया था और इसे 11,555 फीट की ऊंचाई पर लेह की उबड़-खाबड़ हवाई पट्टी पर उतारकर लद्दाख में भारतीय सेना को पहुंचाने का मार्ग प्रशस्त किया था। मेजर जनरल केएस थिमैया ने 11,578 फीट की ऊंचाई पर बर्फ से ढके जोजिला दर्रे पर टैंक ले जाने का अद्भुत कारनाम कर दिखाया था। इसकी तुलना हनीबल द्वारा अपने हाथियों के साथ एल्प्स पर्वतमाला को लांघने से ही की जा सकती है।
आज शायद ही कोई इन घटनाओं को सलाम करता हो, किंतु सच्चाई यही है कि अगर ये अधिकारी इन साहसिक कारनामों को अंजाम न देते तो आज लद्दाख का विशाल भूभाग भी गिलगित और बाल्टिस्तान की तरह पाकिस्तान के हाथ में होता। क्या यह हमारे इतिहासबोध और एक गौरवशाली राष्ट्रनिर्माण की प्रेरणा पर दुखद टिप्पणी नहीं है? स्मरण होना चाहिए कि स्वतंत्रता के बाद सिद्धांत रूप में तमाम राज्य खुद को आजाद घोषित करने के लिए स्वतंत्र थे, किंतु व्यवहार में भारत या पाकिस्तान के साथ मिलना उनकी मजबूरी थी। तत्कालीन गृह सचिव लॉर्ड लिस्टोवेल ने इसे स्पष्ट किया था, 'ब्रिटिश सरकार किसी भी राज्य को प्रथक अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्रदान नहीं करेगी।' जून में लॉर्ड माउंटबेटन महाराजा हरिसिंह से उनकी इच्छा जानने श्रीनगर गए थे, किंतु महाराजा ने अपने पत्ते नहीं खोले। बाद में माउंटबेटन ने बताया, 'एकमात्र समस्या यह उठ सकती है कि कश्मीर किसी भी तरफ न जाए और दुर्भाग्य से महाराजा इसी रास्ते पर चल रहे थे।' हालांकि जिन्ना और उनके सलाहकारों ने धोखाधड़ी, हमले और घुसपैठ के माध्यम से राज्य पर कब्जा जमाने के प्रयास में जरा भी समय नहीं गंवाया। कागजों पर 15 अगस्त 1947 से ही पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में यथा-स्थिति समझौता किया हुआ था, किंतु असलियत में उसने कड़े आर्थिक प्रतिबंध थोप दिए। पाकिस्तानी समाचार पत्र डॉन के 16 अक्टूबर के अंक में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, 'कश्मीर सरकार गिर रही है। इसे अपने चार करोड़ के बजट में से दो करोड़ का पहले ही घाटा हो चुका है। कीमतों में जबरदस्त बढ़ोतरी से लोगों में असंतोष व्याप्त है।'
इससे पहले, जिन्ना ने अपने निजी सचिव को कश्मीर में भेजकर अपने पक्ष में माहौल तैयार करना शुरू कर दिया था। जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री एमसी महाजन के अनुसार, 'सांप्रदायिक सोच वाले लोगों और मुसलमानों को तैयार किया गया कि वे महाराजा पर कश्मीर के पाकिस्तान में विलय का दबाव डालें।' 23 अक्टूबर को ट्रिब्यून में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, 'पश्चिम पंजाब और फ्रंटियर पाकिस्तान के आततायी कश्मीर में घुस गए और छूरेबाजों व बंदूकचियों के दल बनाने लगे। इस सबमें जिन्ना का हाथ प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा था।' करीब-करीब इसी समय सीमा पर धावा बोल दिया गया ताकि राज्य की शक्तियों को छितराया जा सके। तब कश्मीर के पास महज नौ बटालियनें और दो माउंटेन बैटरीज थीं। 22 अक्टूबर से कबीलाई हमला बोल दिया गया, जिसे पाकिस्तान संचालित कर रहा था। कबीलाइयों का नेतृत्व पाकिस्तान का मेजर जनरल अकबर खान कर रहा था, जिसे कूट नाम जनरल तारिक दिया गया था। राज्य प्रशासन की तैयारी इतनी कम थी कि वह विस्फोटकों के अभाव में कृष्णा-गंगा पुल को नहीं उड़ा पाया। ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह की कमान में राज्य के सुरक्षा बलों ने उड़ी में आखिरी सैनिक और आखिरी गोली तक बड़ी बहादुरी से मोर्चा लिया, यद्यपि उन्हें मुसलमान सैनिकों के विद्रोह का सामना करना पड़ रहा था। इस प्रकार उन्होंने हमलावरों को दो महत्वपूर्ण दिनों तक आगे नहीं बढ़ने दिया। ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह एक हीरो की तरह शहीद हुए और उनके मूल्यवान सहयोग से राज्य को बचा लिया गया।
24-26 अक्टूबर को बारामूला पर हमलावरों का कब्जा हो गया। अपनी बर्बर प्रवृत्ति के कारण उन्होंने वहां बड़े पैमाने पर लूटपाट, आगजनी, दुष्कर्म और मार-काट मचानी शुरू कर दी। हमलावर नहीं जानते थे कि वे जो जघन्य अपराध कर रहे हैं उसकी सजा उन्हें मिलनी है। इसी मारकाट के कारण महाराजा 27 अक्टूबर को कश्मीर के भारत में विलय पर राजी हो गए और उन्होंने भारत से सहायता की मांग की। 27 अक्टूबर को भारतीय वायु सेना का लड़ाकू विमान श्रीनगर के हवाई अड्डे पर उतरा, जिसमें लेफ्टिनेंट कर्नल रंजीत राय के नेतृत्व में भारतीय सैनिकों की पहली टुकड़ी थी। कर्नल राय ने तुरंत अपनी टुकड़ी को बारामूला की तरफ कूच करने का आदेश दिया। इस खूनी जंग में उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ी। 3 नवंबर को एक और साहसी कदम में मेजर सोमनाथ शर्मा ने बडगाम में हमलावरों से टक्कर ली। हमलावरों की तुलना में उनकी संख्या सात के मुकाबले एक थी। फिर भी उन्होंने अदम्य साहस का प्रदर्शन करते हुए दुश्मनों को भारी नुकसान पहुंचाया। इस लड़ाई में उन्हें अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।
जब हमलावर श्रीनगर के बाहर तक पहुंच गए थे और लेफ्टिनेंट रंजीत राय और मेजर सोमनाथ शर्मा शहीद हो चुके थे तब रक्षा मंत्री बलदेव सिंह के साथ गृहमंत्री सरदार पटेल राज्य की राजधानी पहुंचे और हालात का जायजा लिया। दिल्ली लौटकर उन्होंने श्रीनगर के ऊपर तमाम हवाई जहाजों की उड़ानें प्रतिबंधित कर दीं। यहां तक कि कश्मीर की रक्षा के लिए भारतीय सेना के इस्तेमाल का महात्मा गांधी ने भी तत्परता से अनुमोदन किया। भारतीय सेना को समय पर मिली मदद के कारण ब्रिगेडियर सेन हमलावरों को भारतीय सेना के जाल में फंसाने में कामयाब हो गए और 5 नवंबर को शलतांग के निकट उन पर तीन तरफ से हमला बोल दिया गया। करीब छह सौ हमलावर मारे गए और घाटी को बचा लिया गया। सोमनाथ शर्मा, रंजीत राय और राजिंदर सिंह जैसे वीरों का बलिदान और मेहर सिंह व थिमैया जैसे जाबाजों का अप्रतिम शौर्य बेकार नहीं गया है। हमें साल में कम से कम एक बार उन्हें सलाम करना नहीं भूलना चाहिए। अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी का कथन हमेशा याद रखना चाहिए, 'एक राष्ट्र खुद का आकलन उन लोगों के आधार पर करता है जिनका वह सम्मान करता है, जिन्हें वह याद रखता है।'
[27 अक्टूबर 1947 को कश्मीर में भारतीय सैनिकों की वीरता को याद कर रहे हैं जगमोहन]

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