गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

ममता बैनर्जी का रेल्वे सेकुलरिज़्म और 24 परगना जिले के दंगे… ...

विगत 5 सितम्बर की शाम से पश्चिम बंगाल के उत्तरी चौबीस परगना जिले के अल्पसंख्यक हिन्दू परिवार भय, असुरक्षा और आतंक के साये में रह रहे हैं। ये अल्पसंख्यक हिन्दू परिवार पिछले कुछ वर्षों से इस प्रकार की स्थिति लगातार झेल रहे हैं, लेकिन इस बार की स्थिति अत्यंत गम्भीर है। सन् 2001 की जनगणना के मुताबिक देगंगा ब्लॉक में मुस्लिम जनसंख्या 69% थी (जो अब पता नहीं कितनी बढ़ चुकी होगी)। पश्चिम बंगाल का यह इलाका, बांग्लादेश से बहुत पास पड़ता है। यहाँ जितने हिन्दू परिवार बसे हैं उनमें से अधिकतर या तो बहुत पुराने रहवासी हैं या बांग्लादेश में मुस्लिमों द्वारा किये गये अत्याचार से भागकर यहाँ आ बसे हैं। उत्तरी 24 परगना से वर्तमान में तृणमूल कांग्रेस से हाजी नूर-उल-इस्लाम सांसद है, और तृणमूल कांग्रेस से ही ज्योतिप्रिया मलिक विधायक है। 24 परगना जिले में भारत विभाजन के समय से ही विस्थापित हिन्दुओं को बसाया गया था, लेकिन पिछले 60-65 साल में इस जिले के 8 ब्लॉक में मुस्लिम जनसंख्या 75% से ऊपर, जबकि अन्य में लगभग 40 से 60 प्रतिशत हो चुकी है, जिसमें से अधिकतर बांग्लादेशी हैं और तृणमूल और माकपा के वोटबैंक हैं।




5 तारीख (सितम्बर) को देगंगा के काली मन्दिर के पास खुली ज़मीन, जिस पर दुर्गा पूजा का पंडाल विगत 40 वर्ष से लग रहा है, को लेकर जेहादियों ने आपत्ति उठाना शुरु किया और उस ज़मीन की खुदाई करके एक नहर निकालने की बात करने लगे ताकि पूजा पाण्डाल और गाँव का सम्पर्क टूट जाये जिससे उस ज़मीन पर अवैध कब्जे में आसानी हो, उस वक्त स्थानीय पुलिस ने उस समूह को समझा-बुझाकर वापस भेज दिया। 6 सितम्बर की शाम को इफ़्तार के बाद अचानक एक उग्र भीड़ ने मन्दिर और आसपास की दुकानों पर हमला बोल दिया। (चित्र - खाली पड़ी सरकारी भूमि जहाँ से विवाद शुरु किया गया)


माँ काली की प्रतिमा तोड़ दी गई, कई दुकानों को चुन-चुनकर लूटा गया और धारदार हथियारों से लोगों पर हमला किया गया। चार बसें जलाई गईं और बेराछापा से लेकर कदमगाछी तक की सड़क ब्लॉक कर दी गई। भीड़ बढ़ती ही गई और उसने कार्तिकपुर के शनि मन्दिर और देगंगा की विप्लबी कालोनी के मन्दिरों में भारी तोड़फ़ोड़ की।


देगंगा पुलिस थाने के मुख्य प्रभारी अरुप घोष इस हमले में बुरी तरह घायल हुए और उनके सिर पर चोट तथा हाथों में फ़्रेक्चर हुआ है (चित्र - जलाये गये मकान और हिन्दू संतों की तस्वीरें)। जमकर हुए बेकाबू दंगे में 6 सितम्बर को 25 लोग घायल हुए। 7 सितम्बर को भी जब हालात काबू में नहीं आये तब रैपिड एक्शन फ़ोर्स और सेना के जवानों को लगाना पड़ा, उसमें भी तृणमूल कांग्रेस की नेता रत्ना चौधरी ने पुलिस पर दबाव बनाया कि वह मुस्लिम दंगाईयों पर कोई कठोर कार्रवाई न करे, क्योंकि रमज़ान का महीना चल रहा है, जबकि सांसद हाजी नूर-उल-इस्लाम भीड़ को नियंत्रित करने की बजाय उसे उकसाने में लगा रहा।



बेलियाघाट के बाज़ार में RAF के 6-7 जवानों को दंगाईयों की भीड़ ने एक दुकान में घेर लिया और बाहर से शटर गिराकर पेट्रोल से आग लगाने की कोशिश की, हालांकि अन्य जवानों के वहाँ आने से उनकी जान बच गई (चित्र - सांसद नूरुल इस्लाम)। 7 सितम्बर की शाम तक दंगाई बेलगाम तरीके से लूटपाट, छेड़छाड़ और हमले करते रहे, कुल मिलाकर 245 दुकानें लूटी गईं और 120 से अधिक व्यक्ति घायल हुए। प्रशासन ने आधिकारिक तौर पर माना कि 65 हिन्दू परिवार पूरी तरह बरबाद हो चुके हैं और उन्हें उचित मुआवज़ा दिया जायेगा।

जैसी कि आशंका पहले ही जताई जा रही थी कि बंगाल के आगामी चुनावों को देखते हुए माकपा और तृणमूल कांग्रेस में मुस्लिम वोट बैंक हथियाने की होड़ और तेज़ होगी, और ऐसी घटनाओं में बढ़ोतरी होना तय है। घटना के तीन दिन बाद तक भाजपा के एक प्रतिनिधिमण्डल को छोड़कर अन्य किसी भी पार्टी के कार्यकर्ता या नेता ने वहाँ जाना उचित नहीं समझा, क्योंकि सभी को अपने वोटबैंक की चिंता थी। राष्ट्रीय अखबारों में सिर्फ़ पायनियर और स्टेट्समैन ने इन खबरों को प्रमुखता से छापा, जबकि "राष्ट्रीय" कहे जाने वाले भाण्ड चैनल दिल्ली की फ़र्जी बाढ़, तथा दबंग और मुन्नी की दलाली (यानी प्रमोशन) के पुनीत कार्य में लगे हुए थे। यहाँ तक कि पश्चिम बंगाल में भी स्टार आनन्द जैसे प्रमुख बांग्ला चैनल ने पूरे मामले पर चुप्पी साधे रखी।

राष्ट्रीय मीडिया की ऐसी ही "घृणित और नपुंसक चुप्पी" हमने बरेली के दंगों के समय भी देखी थी, जहाँ लगातार 15 दिनों तक भीषण दंगे चले थे और हेलीकॉप्टर से सुरक्षा बलों को उतारना पड़ा था। उस वक्त भी "तथाकथित राष्ट्रीय अखबारों" और "फ़र्जी सबसे तेज़" चैनलों ने पूरी खबर को ब्लैक आउट कर दिया था…। यहाँ सेना के फ़्लैग मार्च और RAF की त्वरित कार्रवाई के बावजूद आज एक सप्ताह बाद भी मीडिया ने इस खबर को पूरी तरह से दबा रखा है। 24 सितम्बर को आने वाले अयोध्या के निर्णय की वजह से मीडिया को अपना "सेकुलर" रोल निभाने के कितने करोड़ रुपये मिले हैं यह तो पता नहीं, अलबत्ता "आज तक" ने संतों के स्टिंग ऑपरेशन को "हे राम" नाम का शीर्षक देकर अपने "विदेश में बैठे असली मालिकों" को खुश करने की भरपूर कोशिश की है।



ऐसी ही एक और भद्दी लेकिन "सेकुलर" कोशिश ममता बैनर्जी ने भी की है जब उन्होंने हिज़ाब में नमाज़ पढ़ते हुए अपनी फ़ोटो, रेल्वे की एक परियोजना के उदघाटन समारोह के विज्ञापन हमारे टैक्स के पैसों पर छपवाई है और पश्चिम बंगाल के मुसलमानों से अघोषित वादा किया है कि "यह रेल तुम्हारी है, रेल सम्पत्ति तुम्हारी है, मैं नमाज़ पढ़ रही हूं, मुझे ही वोट देना, माकपा को नहीं…"। फ़िर बेचारी अकेली ममता को ही दोष क्यों देना, जब वामपंथी बरसों से केरल और बंगाल में यही गंदा खेल जारी रखे हुए हैं और मनमोहन सिंह खुद कह चुके हैं कि "देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का है…", तब भला 24 परगना स्थित देगंगा ब्लॉक के गरीब हिन्दुओं की सुनवाई कौन और कैसे करेगा? उन्हें तो मरना और पिटना ही है…।

जिस प्रकार सोनिया अम्मा कह चुकी हैं कि भोपाल गैस काण्ड और एण्डरसन पर चर्चा न करें (क्योंकि उससे राजीव गाँधी का निकम्मापन उजागर होता है), तथा गुजरात के दंगों को अवश्य याद रखिए (क्योंकि भारत के इतिहास में अब तक सिर्फ़ एक ही दंगा हुआ है)… ठीक इसी प्रकार मनमोहन सिंह, दिग्विजय सिंह, ममता बनर्जी, वामपंथी सब मिलकर आपसे कह रहे हैं कि, बाकी सब भूल जाईये, आपको सिर्फ़ यह याद रखना है कि हिन्दुओं को एकजुट करने की कोशिश को ही "साम्प्रदायिकता" कहते है…

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