आखिर यह वोट बैंक की राजनीति देश को कहा ले जाएगी? पिछले दिनों मंत्रिमंडल ने शत्रु संपत्ति कानून (1968) में संशोधन करने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। उपरोक्त कानून के अंतर्गत देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गए लोगों की संपत्ति को शत्रु संपत्ति घोषित किया गया था। गौर करने योग्य बात यह है कि 1965 में भारत-पाक युद्ध के बाद पाकिस्तान से जान बचाकर आए हिंदुओं की संपत्ति हड़पने के लिए पाकिस्तानी सरकार द्वारा बनाए गए कानून की प्रतिक्रिया में यह अधिनियम बनाया गया था। पाकिस्तान ने हिंदुओं की संपत्ति को जहा बेच डाला वहीं भारत सरकार ऐसी संपत्तियों की संरक्षक बनी रही। परेशानी तब शुरू हुई, जब पाकिस्तान जा चुके लोगों के वारिस अचानक सामने आ गए। संसद के शीतकालीन सत्र में लाए जाने वाले इस संशोधन विधेयक का मकसद शत्रु संपत्ति कानून के तहत कब्जे में ली गई संपत्ति पाकिस्तान चले गए मुसलमानों के कानूनी उत्तराधिकारियों को सौंपना है।
स्वाभाविक प्रश्न यह है कि जिन्होंने अपनी राष्ट्रनिष्ठा बदल ली हो, उनके वारिसों को इस देश में किस आधार पर अधिकार दिया जा सकता है? विभाजन के दौरान बड़ी संख्या में हिंदू पाकिस्तान से जान बचाकर भागे आए और जम्मू व उधमपुर आदि जगहों में शरण ली। बाद में उन्हें भारत की नागरिकता मिली और वे लोकसभा चुनावों में मतदान के अधिकारी भी हुए, किंतु उन्हें जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव में मतदान का अधिकार नहीं है। जो सेक्युलर तंत्र पिछले साठ साल में पाकिस्तान से जान बचाकर आए हिंदुओं को उनके ही देश में उनका मौलिक अधिकार न दिला पाया और जिसने कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की चिंता नहीं की, वह एक झटके में उन लोगों को हजारों करोड़ की संपत्ति देने को लालायित है, जो इस देश का तिरस्कार कर 'दर-उल-इस्लाम' के लिए कूच कर गए थे। क्यों? उपरोक्त कानून में संशोधन करने के पीछे बड़ा कारण महमूदाबाद के राजा के वंशज को राहत देना है, जो करीब 24 हजार करोड़ की संपत्ति का मालिकाना हक सर्वोच्च न्यायालय से प्राप्त कर चुके हैं। जिस समय शत्रु संपत्ति अधिनियम, 1968 लागू हुआ, अमीर अली खान जिंदा थे। उन्होंने तब तक अपनी संपत्ति किसी के नाम नहीं की थी। तत्कालीन काग्रेस सरकार ने राजा महमूदाबाद की संपत्तिया अपने कब्जे में ले उन्हें संरक्षक के हवाले कर दिया। अमीर अली खान के बेटे अमीर मोहम्मद खान ने इन संपत्तियों के स्वामित्व का मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय में जीत लिया, किंतु अदालत के निर्णय में उपरोक्त कानून अवरोध बन रहा था। कट्टरपंथियों का तर्क था कि इस कानून की आड़ में मुसलमानों का शोषण हो रहा है।
भारत का रक्तरंजित विभाजन आबादी के हस्तातरण की शर्त पर तो हुआ नहीं था, फिर भारत से पकिस्तान चले जाने वालों की आखिर मानसिकता क्या थी? पाकिस्तान चले जाने वालों ने यदि भारत को दारूल हर्ब समझा तो कुछ ने यहीं बसकर कुफ्र का कलंक क्यों मोल लिया? जो कल तक मजहब के आधार पर पाकिस्तान के प्रबल पैरोकार थे, वे आजादी के बाद रातोरात काग्रेसी बन गए। क्यों?
पाकिस्तान सृजन के पैरोकारो को यह गिला था कि हिंदूबहुल काग्रेस में मुसलमानों के हित सुरक्षित नहीं हैं। मुस्लिम लीग संयुक्त प्रात, बिहार, मध्य प्रात और मुंबई की काग्रेस सरकार पर मुस्लिम उत्पीड़न का आरोप लगाकर मुसलमानों को एकजुट करने में पहले से ही लगी थी। उसका आरोप था कि काग्रेस मुसलमानों की मजहबी मान्यताओं में हस्तक्षेप कर रही है, उनकी अनिच्छा के बावजूद उर्दू की जगह हिंदुओ की बोली हिंदी थोप रही है। भारत माता की जय और वंदे मातरम् को मुसलमानों की संस्कृति पर चोट बताया गया। काग्रेस को हिंदू बनियों की पार्टी बताते हुए उस पर हिंदू राज थोपने का आरोप लगाया गया। क्या यह विडंबना नहीं कि जो लोग अंग्रेजों का साथ देते हुए जिन गालियों और विशेषणों से तब काग्रेस को गरियाते थे, आजादी के बाद वही गालिया पहले जनसंघ और अब भाजपा सहित अन्य राष्ट्रनिष्ठ तत्वों के लिए प्रयुक्त होती हैं?
पीरपुर के राजा, मो. मेहदी राजा सैय्यद ने सन् 1938 में एक रिपोर्ट तैयार की थी, जिसमें कहा गया कि हिंदुओं से ज्यादा जालिम दूसरा नहीं हो सकता।..हम मुसलमान समझते हैं कि काग्रेस के बहुसंख्य सदस्य हिंदू हैं, जो हिंदू राज की बहाली की राह देख रहे हैं। रिपोर्ट में काग्रेसी झडे, वंदे मातरम्, गौरक्षा और हिंदी के प्रयोग को मुसलमानों के नागरिक और सास्कृतिक अधिकारों पर हमला बताया गया। इसके बाद शरीफ समिति रिपोर्ट (1938) और फजलुल हक रिपोर्ट (1939) में भी इसी तरह का प्रलाप किया गया। महमूदाबाद के राजा, जो सन् 1937 से ही उत्तर प्रदेश में मुस्लिम लीग के बड़े नेता थे, ने 1970 में लिखा था, ''मुसलमानों में आम राय यह थी कि हिंदू राज का समय आ गया है..।'' अलग पाकिस्तान के लिए मुसलमानों का भयादोहन करने में सर सैय्यद अहमद खान द्वारा स्थापित अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने बड़ी भूमिका निभाई। अक्टूबर, 1939 में एएमयू ने काग्रेस की कथित 'फासीवादी' नीतियों के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया था। 31 अगस्त, 1941 को एएमयू के छात्रो को संबोधित करते हुए लियाकत अली खान ने कहा था, ''हम स्वतंत्र मुस्लिम कौम पाने की लड़ाई में हर तरह का असलहा आपसे पाने की उम्मीद करते हैं।'' अक्टूबर, 1944 में राजा महमूदाबाद ने अलीगढ़ में 'लीग कैंप' की स्थापना की और अलग पाकिस्तान की मुहिम के लिए इसमें एएमयू के डॉ. जफरूल हसन, डॉ. अफजल हुसैन कादिरी, जमीलुद्दीन अहमद, एबीए हलीम आदि शिक्षकों ने सक्रिय भूमिका निभाई।
विभाजन के बाद भारत में रह गए पाकिस्तान सृजन के इन्हीं पैरोकारों ने काग्रेस का दामन थाम लिया। पीरपुर के राजा के सुपुत्र सैयद अहमद मेंहदी 1957 से लेकर 1967 तक काग्रेस के सासद रहे। कृषि मंत्रालय में संसदीय सचिव के साथ वह केंद्र में स्टील व खान मंत्री भी थे। नवाब मो. इस्माइल खान, बेगम ऐजाज रसूल, खलिक जुम्मन, नफीस उल हसन, ताहिर मोहम्मद, ताजमुल हुसैन, सैयद हुसैन इमाम, सादुल्लाह, मोइनुल हक, एचएस सुहरावर्दी (जिनके राज में अगस्त,1946 में कोलकाता की सड़कें हिंदुओं के खून से लाल हुई थीं), अब्दुल हमीद खान आदि अलग पाकिस्तान के मुस्लिम लीगी पैरोकारों ने आजाद भारत में काग्रेस के झडाबरदार बन मुसलमानों की रहनुमाई की। इन सब मुस्लिम लीगी सेकुलरिस्टों के समावेश से आजादी के पूर्व तथाकथित साप्रदायिक काग्रेस से एक नए ब्राड का 'सेकुलरिज्म' विकसित हुआ। शत्रु संपत्ति अधिनियम में संशोधन कर संप्रग सरकार वस्तुत: उसी ब्राड के सेकुलरिज्म को आगे बढ़ा रही है।
[बलबीर पुंज]
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