जैसा कि अब सभी जान चुके हैं, भारत में सेकुलरों और मानवाधिकारवादियों की एक विशिष्ट जमात है, जिन्हें मुस्लिमों का विरोध करने वाला व्यक्ति अथवा देश हमेशा से “साम्प्रदायिक” और “फ़ासीवादी” नज़र आते हैं, जबकि इन्हीं सेकुलरों को सभी आतंकवादी “मानवता के मसीहा” और “मासूमियत के पुतले नज़र आते हैं। कुछ ऐसे ही ढोंगी और नकली सेकुलरों द्वारा इज़राइल की गाज़ा पट्टी नीतियों के खिलाफ़ भारत से फ़िलीस्तीन तक रैली निकालने की योजना है। 17 एशियाई देशों के “जमूरे” दिसम्बर 2010 में फ़िलीस्तीन की गाज़ा पट्टी में एकत्रित होंगे।
इज़राइल के ज़ुल्मों(?) से त्रस्त और अमेरिका के पक्षपात(?) से ग्रस्त “मासूम” फ़िलीस्तीनियों के साथ एकजुटता दिखाने के लिये इस कारवां का आयोजन रखा गया है। गाज़ा पट्टी में इज़राइल ने जो नाकेबन्दी कर रखी है, उसके विरोध में यह लोग 2 दिसम्बर से 26 दिसम्बर तक भारत, पाकिस्तान, ईरान, जोर्डन, सीरिया, लेबनान और तुर्की होते हुए गाज़ा पट्टी पहुँचेंगे औरइज़राइल का विरोध करेंगे। इस दौरान ये सभी लोग प्रेस कांफ़्रेंस करेंगे, विभिन्न राजनैतिक व्यक्तित्वों से मिलेंगे, रोड शो करेंगे और भी तमाम नौटंकियाँ करेंगे…
इस “कारवाँ टू फ़िलीस्तीन”कार्यक्रम को अब तक भारत से 51 संगठनों और कुछ “छँटे हुए” सेकुलरों का समर्थन हासिल हो चुका है जो इनके साथ जायेंगे। इनकी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि ये लोग सताये हुए फ़िलीस्तीनियों के लिये नैतिक समर्थन के साथ-साथ, आर्थिक, कूटनीतिक और “सैनिक”(?) समर्थन के लिये प्रयास करेंगे। हालांकि फ़िलहाल इन्होंने अपने कारवां के अन्तिम चरण की घोषणा नहीं की है कि ये किस बन्दरगाह से गाज़ा की ओर कूच करेंगे, क्योंकि इन्हें आशंका है कि इज़राइल उन्हें वहीं पर जबरन रोक सकता है। इज़राइल ने फ़िलीस्तीन में जिस प्रकार का “जातीय सफ़ाया अभियान” चला रखा है उसे देखते हुए स्थिति बहुत नाज़ुक है… (“जातीय सफ़ाया”, यह शब्द सेकुलरों को बहुत प्रिय है, लेकिन सिर्फ़ मासूम मुस्लिमों के लिये, यह शब्द कश्मीर, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि में हिन्दुओं के लिये उपयोग करना वर्जित है)। एक अन्य सेकुलर गौतम मोदी कहते हैं कि “इस अभियान के लिये पैसों का प्रबन्ध कोई बड़ी समस्या नहीं है…” (होगी भी कैसे, जब खाड़ी से और मानवाधिकार संगठनों से भारी पैसा मिला हो)। आगे कहते हैं, “इस गाज़ा कारवां में प्रति व्यक्ति 40,000 रुपये खर्च आयेगा” और जो विभिन्न संगठन इस कारवां को “प्रायोजित” कर रहे हैं वे यह खर्च उठायेंगे… (सेकुलरिज़्म की तरह का एक और सफ़ेद झूठ… लगभग एक माह का समय और 5-6 देशों से गुज़रने वाले कारवां में प्रति व्यक्ति खर्च सिर्फ़ 40,000 ???)। कुछ ऐसे ही “अज्ञात विदेशी प्रायोजक” अरुंधती रॉय और गिलानी जैसे देशद्रोहियों की प्रेस कांफ़्रेंस दिल्ली में करवाते हैं, और “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता”(?) के नाम पर भारत जैसे पिलपिले नेताओं से भरे देश में सरेआम केन्द्र सरकार को चाँटे मारकर चलते बनते हैं। वामपंथ और कट्टर इस्लाम हाथ में हाथ मिलाकर चल रहे हैं यह बात अब तेजी से उजागर होती जा रही है। वह तो भला हो कुछ वीर पुरुषों का, जो कभी संसद हमले के आरोपी जिलानी के मुँह पर थूकते हैं और कभी गिलानी पर जूता फ़ेंकते हैं, वरना अधिसंख्य हिन्दू तो कब के “गाँधीवादी नपुंसकता” के शिकार हो चुके हैं।
कारवाँ-ए-फ़िलीस्तीन के समर्थक, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य मौलाना अब्दुल वहाब खिलजी कहते हैं कि “भारत के लोग फ़िलीस्तीन की आज़ादी के पक्ष में हैं और उनके संघर्ष के साथ हैं…” (इन मौलाना साहब की हिम्मत नहीं है कि कश्मीर जाकर अब्दुल गनी लोन और यासीन मलिक से कह सकें कि पंडितों को ससम्मान वापस बुलाओ और उनका जो माल लूटा है उसे वापस करो, अलगाववादी राग अलापना बन्द करो)। फ़िलीस्तीन जा रहे पाखण्डी कारवां में से एक की भी हिम्मत नहीं है कि पाकिस्तान के कबीलाई इलाके में जाकर वहाँ दर-दर की ठोकरें खा रहे प्रताड़ित हिन्दुओं के पक्ष में बोलें। सिमी के शाहनवाज़ अली रेहान और “सामाजिक कार्यकर्ता”(?) संदीप पाण्डे ने इस कारवां को अपना नैतिक समर्थन दिया है, ये दोनों ही बांग्लादेश और मलेशिया जाकर यह कहने का जिगर नहीं रखते कि “वहाँ हिन्दुओं पर जो अत्याचार हो रहा है उसे बन्द करो…”।
“गाज़ा कारवां” चलाने वाले फ़र्जी लोग इस बात से परेशान हैं कि रक्षा क्षेत्र में भारत की इज़राइल से नज़दीकियाँ क्यों बढ़ रही हैं (क्या ये चाहते हैं कि हम चीन पर निर्भर हों? या फ़िर सऊदी अरब जैसे देशों से मित्रता बढ़ायें जो खुद अपनी रक्षा अमेरिकी सेनाओं से करवाता है?)। 26/11 हमले के बाद ताज समूह ने अपने सुरक्षाकर्मियों को प्रशिक्षण के लिये इज़राइल भेजा, तो सेकुलर्स दुखी हो जाते हैं, भारत ने इज़राइल से आधुनिक विमान खरीद लिये, तो सेकुलर्स कपड़े फ़ाड़ने लगते हैं। मुस्लिम पोलिटिकल काउंसिल के डॉ तसलीम रहमानी ने कहा – “हमें फ़िलीस्तीनियों के प्रति अपना समर्थन व्यक्त करना चाहिये और उनके साथ खड़े होना चाहिये…” (यानी भारत की तमाम समस्याएं खत्म हो चुकी हैं… चलो विदेश में टाँग अड़ाई जाये?)।
गाज़ा कारवां के “झुण्ड” मे कई सेकुलर हस्तियाँ और संगठन शामिल हैं जिनमें से कुछ नाम बड़े दिलचस्प हैं जैसे -
“अमन भारत”
“आशा फ़ाउण्डेशन”
“अयोध्या की आवाज़”(इनका फ़िलीस्तीन में क्या काम?)
“बांग्ला मानवाधिकार मंच” (पश्चिम बंगाल में मानवाधिकार हनन नहीं होता क्या? जो फ़िलीस्तीन जा रहे हो…)
“छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा” (नक्सली समस्या खत्म हो गई क्या?)
“इंडियन फ़ेडरेशन ऑफ़ ट्रेड यूनियन” (मजदूरों के लिये लड़ने वाले फ़िलीस्तीन में काहे टाँग फ़ँसा रहे हैं?)
“जमीयत-उलेमा-ए-हिन्द” (हाँ… ये तो जायेंगे ही)
“तीसरा स्वाधीनता आंदोलन” (फ़िलीस्तीन में जाकर?)
“ऑल इंडिया मजलिस-ए-मुशवारत” (हाँ… ये भी जरुर जायेंगे)।
अब कुछ “छँटे हुए” लोगों के नाम भी देख लीजिये जो इस कारवां में शामिल हैं -
आनन्द पटवर्धन, एहतिशाम अंसारी, जावेद नकवी, सन्दीप पाण्डे (इनमें से कोई भी सज्जन गोधरा ट्रेन हादसे के बाद कारवां लेकर गुजरात नहीं गया)
सईदा हमीद, थॉमस मैथ्यू (जब ईसाई प्रोफ़ेसर का हाथ कट्टर मुस्लिमों द्वारा काटा गया, तब ये सज्जन कारवां लेकर केरल नहीं गये)
शबनम हाशमी, शाहिद सिद्दीकी (धर्मान्तरण के विरुद्ध जंगलों में काम कर रहे वयोवृद्ध स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या होने पर भी ये साहब लोग कारवाँ लेकर उड़ीसा नहीं गये)… कश्मीर तो खैर इनमें से कोई भी जाने वाला नहीं है… लेकिन ये सभी फ़िलीस्तीन जरुर जायेंगे।
तात्पर्य यह है कि अपने “असली मालिकों” को खुश करने के लिये सेकुलरों की यह गैंग, जिसने कभी भी विश्व भर में हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार और जातीय सफ़ाये के खिलाफ़ कभी आवाज़ नहीं उठाई… अब फ़िलीस्तीन के प्रति भाईचारा दिखाने को बेताब हो उठा है।इन्हीं के “भाईबन्द” दिल्ली-लाहौर के बीच “अमन की आशा” जैसा फ़ूहड़ कार्यक्रम चलाते हैं जबकि पाकिस्तान के सत्ता संस्थान और आतंकवादियों के बीच खुल्लमखुल्ला साँठगाँठ चलती है…। कश्मीर समस्या पर बात करने के लिये पहले मंत्रिमण्डल का समूह गिलानी के सामने गिड़गिड़ाकर आया था परन्तु उससे मन नहीं भरा, तो अब तीन विशेषज्ञों(?) को बात करने(?) भेज रहे हैं, लेकिन पिलपिले हो चुके किसी भी नेता में दो टूक पूछने / कहने की हिम्मत नहीं है कि “भारत के साथ नहीं रहना हो तो भाड़ में जाओ… कश्मीर तो हमारा ही रहेगा चाहे जो कर लो…”।
(सिर्फ़ हिन्दुओं को) उपदेश बघारने में सेकुलर लोग हमेशा आगे-आगे रहे हैं, खुद की फ़टी हुई चड्डी सिलने की बजाय, दूसरे की धोने में सेकुलरों को ज्यादा मजा आता है…और इसे वे अपनी शान भी समझते हैं। कारवाँ-ए-फ़िलीस्तीन भी कुछ-कुछ ऐसी ही “फ़ोकटिया कवायद” है, इस कारवाँ के जरिये कुछ लोग अपनी औकात बढ़ा-चढ़ाकर बताने लगेंगे, कुछ लोग सरकार और मुस्लिमों की “गुड-बुक” में आने की कोशिश करेंगे, तो कुछ लोग एकाध अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार की जुगाड़ में लग जायेंगे… न तो फ़िलीस्तीन में कुछ बदलेगा, न ही कश्मीर में…। ये फ़र्जी कारवाँ वाले, इज़राइल का तो कुछ उखाड़ ही नहीं पायेंगे, जबकि गिलानी-मलिक-शब्बीर-लोन को समझाने कभी जायेंगे नहीं… मतलब “फ़ोकटिया-फ़ुरसती” ही हुए ना?
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