नई दिल्ली से प्रकाशित एक प्रतिष्ठित सप्ताहिक ‘इंडिया टुडे’ ने हाल के अंक में कुछ दिनों पहले दिवंगत हुए पुराने कांग्रेसी नेता और मुस्लिम विचारक डा. रफीक जकारिया को उद्धृत करते हुए मोटे अक्षरों में लिखा कि इतिहास में कोई ऐसा साक्ष्य नहीं है कि जो सिद्ध कर सके कि किसी मुस्लिम ने कोई हिन्दू मंदिर तोड़ा हो।
यही बात इतिहासकार डा. इरफान हबीब और रोमिला थापर भी दूसरे संदर्भ में कह चुके हैं। यह भी कहा गया है कि मुस्लिम आक्रमणकारी सिर्फ धन-संपत्ति की लूट के उद्देश्य से आक्रांता के रूप में भारत आते रहे और बस यहीं उनका मन्तव्य था। भारत के पिछले एक हजार साल के इतिहास को झुठलाते हुए हर छोटे-बड़े शहरों के सैकड़ों पुराने भग्नावशेषों को नकारते हुए जिसमें मुस्लिम आक्रमणों के बर्बर ध्वंस की निशानियाँ आज भी मौजूद हैं।
इस तरह की दुष्प्रचारित की जा रही राजनीतिक टिप्पणियाँ हमें अनायास आहत कर आक्रोश से भर सकती है। कभी-कभी लगता है कि हम स्वयं इस बात के गुनाहगार हैं कि अपनी तटस्थता की आड़ में हम ऐसी टिप्पणियों का प्रतिरोध नहीं करते हैं। मेरे विचार में राजनीति प्रेरित दिग्भ्रमित करने वाले ऐसे लेखक इतिहास व पुरातत्व के अनुशासन से गिरकर सिर्फ असत्य के अलावा कुछ नहीं बोल सकते हैं।
कहते हैं कि झुठ की अनेक किस्में होती है– बुरा झूठ, सफेद झूठ, काला झूठ, आकड़ों का झूठ, राजनीतिक झूठ, आदि-आदि। पर यदि अपनें चारों ओर गौर से देखें तो पाएंगे कि एक चौथे प्रकार का झूठ भी होता है जिसकी प्रकृति उपर्युत्त प्रकार के झूठ से कई गुना भयानक होती है। इसे हम गजब का झूठ कह सकते हैं। जहाँ तक देश के इतिहास का संदर्भ है, झूठ बोलना उनकी फितरत में दाखिल है, लगता है, नस-नस में बस गया है।
मुस्लिम शासकों के स्वयं अपने इतिहासकार व वृत्तांत लेखक, मध्य युग में भारत-भ्रमण के लिए आए विदेशी यात्री व स्वयं ब्रिटिश इतिहासकार सभी ने सदियों तक हिंदू मंदिरों के ध्वंस के बारे में जो लिखा है उसके बाद भी विकृत सोच द्वारा जो दुष्प्रचार हमारी पत्र-पत्रिकाओं में फैलाया जा रहा है वह अक्षम्य है। पुराने इतिवृत्त जैसे आज का पूर्वी अफगानिस्तान शैवपंथी था। उत्तरी पूर्वी सीमांत से लगे अनेक देश अपवा जहाँ हमारे मूल देश की सभ्यता की उपशाखाएं विद्यमान थीं उनको कैसे नेस्तनाबूद किया गया, यह भुला भी दिया जाए, पर आज भी देश के दूरदराज के हर कोने में स्वयं आप जाकर भग्न मंदिर या खण्डित मूर्तियां देख सकते हैं। मात्र एक छोटा सा उदाहरण है, चाहे आप जबलपुर के चौसठ योगिनी मंदिर जाएं या भेजपुर का शिव मंदिर अथवा हांपी, आपका हृदय विदीर्ण हुए बिना नहीं रह सकता। सोमनाथ, मथुरा, काशी या अयोध्या की बात ही क्या करना जिसका विनाश इस्लाम के विस्तार के लिए मनोवैज्ञानिक रूप कितना अपरिहार्य था। आज के पलायनवादी, तटस्थ शिक्षित हिन्दू की संवेदनशीलता मरती जा रही है और इसलिए वह इसे समझ नहीं सकता है।
क्या आप इसे घृणित मार्क्सवादी व्याख्या नहीं कहेंगे जिसे बार-बार हमारे अंग्रेजी अखबार प्रचारित करने से नहीं चूकते हैं कि हिन्दू मंदिरों में अपार स्वर्णराशि व सम्पत्ति इकट्ठा कर हिंदुओं ने जो एक अपराध किया था उससे इस्लामी आक्रमणकारियों का आकर्षित होना स्वाभाविक था। पर उसका यह फायदा भी हुआ कि उन्होंने भारतीय समाज में एक क्रांति भी लाई, जो एकात्मवाद को बढ़ावा देने के साथ जाति-व्यवस्था के विरुद्ध भी जनमत तैयार कर सकी।
अत्यंत संक्षेप में, सन् 632 में भारत में इस्लाम के आगमन के बाद से किस तरह हजारों मंदिरों का ध्वंस हुआ इसको आज के मीडिया को साक्ष्यों से परिचित कराना जरूरी है, जिससे वे हमारे ही देश में बहुसंख्यकों को बरगलान सकें। फ्रेंच इतिहासकार एलेन डेनिलू ने लिखा है कि प्रारम्भ से ही इस्लाम का इतिहास भारत के लिए विनाश, रक्तपात, लूट और मंदिरों के विध्वंस के लिए एक भूकंप की तरह सिद्ध हुआ था।
सन 1018 से लेकर सन 1024 तक मथुरा, कन्नौज, कालिंजर और बनारस के साथ-साथ सोमनाथ के मंदिर क्रूरता से नष्ट किए गए। प्रसिद्ध पत्रकार एम. वी. कामथ ने कुछ दिनों पहले 18वीं शताब्दी के एक ब्रिटिश यात्री को उद्धृत करते हुए लिखा कि सूरत से दिल्ली तक के बीच उसने एक भी हिंदू मंदिर नहीं देखा क्योंकि वे सब नष्ट किए जा चुके थे। इस्लामी इतिहासकारों ने सैकड़ों साल पहले गर्व से लिखा है कि सल्लतनत और मुगल शासकों के समय उनकी सरकार का ‘मंदिर तोड़ने का विभाग” कितना कुशलता और दक्षता से यह काम करता था।
सोमनाथ का मंदिर पहली बार महमूद गजनवी द्वारा 1024 में लूटा गया था और शिवलिंग तोड़ डाला गया था। मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार इस विशाल देवालय को नष्ट करने के बाद सोमनाथ के शिवलिंग के टुकड़े गजनी की जुम्मा मस्जिद की सॣढ़ियों में जड़े गए थे जिससे इस्लाम के अनुयाई उन्हें पैरों से रौंदें। वह सन् 1191 का समय था जब मुस्लिम आक्रांता मोहम्मद गोरी मध्य एशिया से अपने तुर्की घुड़सवारों की सेना के साथ भारत आया था। पहले पृथ्वीराज चौहान ने उसे तराईन के पहले युद्ध में मात दी और उसे क्षमादान भी दिया। पर 1192 में उसने पृथ्वीराज को पराजित करने के बाद विशाल लालकोट को कब्जा करने के बाद जलाकर धरती में मिला दिया। आज भी कुव्वतुल इस्लाम भारत की पहली मस्जिद के रूप में खड़ी है जिसे उस समय के 67 हिंदू मंदिरों के पत्थरों और मलवे को प्रयुक्त कर बनाया गया था। इस तरह पहली बार यह आस्था ध्वंस के प्रतीक के रूप में दिल्ली पहुची थी। स्वयं अनेक मुस्लिम इतिहासकारों ने इसका विस्तृत रूप से वर्णन किया है।
“तारीखे-फीरोजशाही” के इतिहासकार के अनुसार सुल्तान अल्तुतमिस (1210-1236) ने अपने मारवाड़ के आक्रमण के दौरान अनेक बड़े मंदिरों की मूर्तियों को लाकर दिल्ली की जामा मस्जिद की सीढ़ियों में चुनवाया था। इसी तरह जलालुद्दीन खिलजी (1290-1296) ने रणथंभौर के आक्रमण के बाद किया था। दो अन्य मुस्लिम इतिहासकारों ने स्वतंत्र रूप से पुष्टि की है कि अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316) हर अभियान के बाद मूर्तियों को दिल्ली लाकर सीढ़ियों पर चुनवाने का एक धार्मिक कृत्य मानता था। बाद तक दर्जनों शासकों ने यह चाहे दिल्ली में हो या बहमनी, मालवा, बरार या दक्षिण के राज्य हों, यही दोहराया। इन अभिलेखित साक्ष्यों के बाद भी यदि आज के कुछ सेकुलर कहलाने वाले दुराग्रही और हठधर्मी इतिहासकार अथवा पत्रकार रट लगाते रहें कि मंदिर कभी ध्वस्त नहीं किए गए, कभी बलात धर्मांतरण नहीं हुआ तो यह मात्र कुटिल मानसिकता ही मानी जा सकती है।
हमारे देश में अपने अतीत के प्रति अधिकांश शिक्षित वर्ग इतना उदासीन है कि विद्रूषीकरण के साथ-साथ घोर सतही और असत्य वक्तव्य भी बिना किसी प्रतिरोध के छापे जा सकते हैं। कदाचित इसीलिए नोबेल पुरस्कार विजेता वी.एस. नागपाल ने कुछ दिनों पहले एक साक्षात्कार में रोमिला थापर को ‘फ्रॉड’ तक कह डाला था।
आज हिंदू हीनताग्रंथिवश अपनी सभ्यता की प्रमुखता को भी अभिव्यक्त करने की स्थिति में नहीं हैं और कदाचित इतिहास की बाध्यताओं व उसके सही अनुशासन को नहीं समझ पाते हैं। उसके मन में कूट-कूटकर भर दिया गया है कि उनका अपना अतीत, आज की नजरों में, सांप्रदायिक इतिहास है।
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