उसका बस चले तो वो हिंदुस्तान के सिर्फ इसलिए टुकड़े-टुकड़े कर दे क्यूंकि ऐसा करने से वो भीड़ से अलग नजर आएगी, उसके पास हत्याओं को वाजिब ठहराने के तमाम तर्क हमेशा मौजूद रहते हैं, क्यूंकि इसे वो खुद को महान साबित करने का औजार समझती है, संभव है इसके बहाने वो नोबेल पुरस्कार पाने की कोशिश कर रही हो। वो वामपंथ का वो क्रूर चेहरा है जिसका इस्तेमाल मीडिया कभी अपनी टीआरपी बढाने में तो कभी व्यवस्था के विरुद्ध अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए करती है। संभव है बहुतों को उससे मोहब्बत हो लेकिन मैं उससे नफरत करता हूँ, क्यूंकि उसे राष्ट्र के अस्तित्व से ही नफरत है। हम बात अरुंधती राय की कर रहे हैं, वो अरुंधती जिसे हिन्दुस्तान भूखे नंगों का हिंदुस्तान नजर आता है वो अरुंधती जिसे सैकड़ों वर्षों तक गुलाम रहे देश में खड़ी समस्याओं में देश की बेचारगी नजर नहीं आती, क्यूंकि इसका जिम्मेदार वो लोकतंत्र को मानती है। क्यूंकि ये वही लोकतंत्र है जहाँ वो खुलेआम माओवादी हत्याओं को जायज ठहरा सकती है क्यूंकि ये वही लोकतंत्र है जहाँ पर वो संसद भवन पर हमला करने वालों की खुलेआम तरफदारी कर सकती है क्यूंकि ये वही लोकतंत्र है जहाँ वो राजधानी में हजारों की भीड़ के बीच कश्मीर को भारत से आजाद करने का आवाहन करते हुए और युवाओं को आजादी की इस लड़ाई में शामिल होने का भाषण देने के बावजूद ठहाके लगा सकती है।
कश्मीर पर वहां की जनता का मत महत्वपूर्ण है इससे बिलकुल इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन ये भी उतना ही बड़ा सच है कि किसी को भी वहां की जनता पर जबरिया या फिर वैचारिक तौर पर गुलाम बनाकर या उनका माइंडवाश करके उन पर शासन करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता |अरुंधती जब कश्मीरियों को आजादी देने के लिए हिंदुस्तान में हिन्दू और आर्थिक अधिनायक वाद का उदाहरण देती हैं, तो ये साफ़ नजर आता है कि वो श्रीनगर में रहने वाले उन २० हजार हिन्दू परिवारों या फिर ६० हजार सिखों के साथ- साथ उन मुसलमानों के बारे में बात नहीं कर होती हैं जिन्हें आतंकवाद ने अपनी धरती ,अपना घर छोड़ने पर मजबूर कर दिया। कभी अरुंधती ने देश की जनता या फिर अपने चाहने वालों से कश्मीर में मानवाधिकारों की स्थिति पर आन्दोलन चलाने की बात तो नहीं की, हाँ पुरस्कारों के लिए कुछ निबंध या किताबें लिख डाली हो तो मैं नहीं जानता, लेकिन अरुंधती जैसे लोगों के द्वारा मानवाधिकारों की आड़ में राष्ट्र के अस्तित्व को चुनौती दिया जाना कभी कबूल नहीं किया जा सकता। मुझे याद है अभी एक साल पहले मेरे एक मित्र ने अरुंधती से जब ये सवाल किया कि आप कश्मीर फ्रीडम मूवमेंट के समर्थन में हैं तो उन्होंने कहा कि नहीं… “मैं कश्मीर के फ्रीडम मूवमेंट के समर्थन में हूं ऐसा नहीं है। मुझे लगता है कि वहां एक मिलिटरी ऑकुपेशन (सैन्य कब्जा) हैं। कश्मीर में आजादी का आंदोलन बहुत पेचीदा है। अगर मैं कहूं कि मैं उसके समर्थन में हूं तो मुझसे पूछा जाएगा कि किस मूवमेंट के। ये उन पर निर्भर करता है। एज ए पर्सन हू लिव्स इन दिस कंट्री आई कैन नॉट सपोर्ट द सेपेरेशन ऑफ पीपुल इन दिस मिलिट्री ऑकुपेशन”। और अब वही अरुंधती कहती हैं कि भारत को कश्मीर से और कश्मीर से भारत को अलग किये जाने की जरुरत है, एक ही सवाल पर बयानों में ये चरित्र का संकट ,जो अरुंधती पर निरंतर हावी होता जा रहा है।
अरुधती जैसे लोगों के अस्तित्व के लिए पूरी तौर पर समकालीन राजनीति जिम्मेदार है, वो राजनीति जिसने भ्रष्टाचार के दलदल में पैदा हुई आर्थिक विषमता और संस्कृति को ख़त्म करने के कभी इमानदार प्रयास नहीं किये, कभी ऐसे प्रयोग नहीं किये जिससे कश्मीर की जनता देश की मिटटी, देश के पानी, देश के लोगों से प्रेम कर सके, कांग्रेस (वामपंथ को देश नकार चुका है, ये इस वक्त का सबसे बड़ा सच है) ने सत्तासीन होने के बावजूद कभी भी कश्मीर और कश्मीर की अवाम की आत्मा को टटोलने और फिर उसे ठेंठ हिन्दुस्तानी बनाने के लिए किस्म भी किस्म के प्रयोग नहीं किये, और अब अरुंधती और गिलानी जैसे लोगों के हाँथ में हिंदुस्तान को कोस कर अपना खेल खेलने का अवसर दे दिया। अरुंधती और उनकी टीम हरे या फिर भगवा रंग में आतंक की खेती करने वालों के समानांतर खड़ी है।
कहते हैं कि व्यक्ति को तो माफ़ किया जा सकता है राजनीति में माफ़ी नहीं होती, हिंदुस्तान की राजनीति में जो गलतियाँ हुई उनका खामियाजा न सिर्फ कश्मीर बल्कि पूरा देश भुगत रहा है, व्यवस्था के पास बहाने हैं और झूठे अफ़साने हैं। अगर गांधी जीवित होते तो शायद कश्मीर में जाकर वहीँ अपना आश्रम बनाकर रहने लगते और कश्मीरियों से कहते हमें एक और मौका दो, फिर से देश को न बांटने को कहो, अगर हम दुश्मन के सर पर भी प्यार से हाँथ फेरेंगे तो ये बात कभी नहीं भूलेगा, कश्मीर और कश्मीर की अवाम हमारी अपनी है ये बात दीगर है कि पिछले बार गोडसे ने मारा इस बार अरुंधती जैसे कोई आगे आता और उनके सीने में खंजर भोंक जाता।
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