मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

मुस्लिम आक्रामकों और शासकों द्वारा हिन्दुओं का बलात्‌ धर्म परिवर्तन 2

०३. महमूद गजनवी (९९७-१०३०)

भारत पर आक्रमण प्रारंभ करने से पहले, इस २० वर्षीय सुल्तान ने यह धार्मिक शपथ ली कि वह प्रति वर्ष भारत पर आक्रमण करता रहेगा, जब तक कि वह देश मूर्ति और बहुदेवता पूजा से मुक्त होकर इस्लाम स्वीकार न कर ले। अल उतबी इस सुल्तान की भारत विजय के विषय में लिखता है-'अपने सैनिकों को शस्त्रास्त्र बाँट कर अल्लाह से मार्ग दर्शन और शक्ति की आस लगाये सुल्तान ने भारत की ओर प्रस्थान किया। पुरुषपुर (पेशावर) पहुँचकर उसने उस नगर के बाहर अपने डेरे गाड़ दिये।(७)

मुसलमानों को अल्लाह के शत्रु काफिरों से बदला लेते दोपहर हो गयी। इसमें १५००० काफिर मारे गये और पृथ्वी पर दरी की भाँति बिछ गये जहाँ वह जंगली पशुओं और पक्षियों का भोजन बन गये। जयपाल के गले से जो हार मिला उसका मूल्य २ लाख दीनार था। उसके दूसरे रिद्गतेदारों और युद्ध में मारे गये लोगों की तलाद्गाी से ४ लाख दीनार का धन मिला। इसके अतिरिक्त अल्लाह ने अपने मित्रों को ५ लाख सुन्दर गुलाम स्त्रियाँ और पुरुष भी बखशो। (८)

कहा जाता है कि पेशावर के पास वाये-हिन्द पर आक्रमण के समय (१००१-३) महमूद ने महाराज जयपाल और उसके १५ मुखय सरदारों और रिश्तेदारों को गिरफ्तार कर लिया था। सुखपाल की भाँति इनमें से कुछ मृत्यु के भय से मुसलमान हो गये। भेरा में, सिवाय उनके, जिन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया, सभी निवासी कत्ल कर दिये गये। स्पष्ट है कि इस प्रकार धर्म परिवर्तन करने वालों की संखया काफी रही होगी।(९)

मुल्तान में बड़ी संखया में लोग मुसलमान हो गये। जब महमूद ने नवासा शाह पर (सुखपाल का धर्मान्तरण के बाद का नाम) आक्रमण किया तो उतवी के अनुसार महमूद द्वारा धर्मान्तरण के जोद्गा का अभूतपूर्व प्रदर्शन हुआ। (अनेक स्थानों पर महमूद द्वारा धर्मान्तरण के लिये देखे-उतबी की पुस्तक 'किताबें यामिनी' का अनुवाद जेम्स रेनाल्ड्‌स द्वारा पृ. ४५१, ४५२, ४५५, ४६०, ४६२, ४६३ ई. डी-२, पृ-२७, ३०, ३३, ४०, ४२, ४३, ४८, ४९ परिशिष्ट पृ. ४३४-७८(१०)) काश्मीर घाटी में भी बहुत से काफिरों को मुसलमान बनाया गया और उस देश में इस्लाम फैलाकर वह गजनी लौट गया।(११)

उतबी के अनुसार जहाँ भी महमूद जाता था, वहीं वह निवासियों को इस्लाम स्वीकार करने पर मजबूर करता था। इस बलात्‌ धर्म परिवर्तन अथवा मृत्यु का चारों ओर इतना आतंक व्याप्त हो गया था कि अनेक शासक बिना युद्ध किये ही उसके आने का समाचार सुनकर भाग खड़े होते थे। भीमपाल द्वारा चाँद राय को भागने की सलाह देने का यही कारण था कि कहीं राय महमूद के हाथ पड़कर बलात्‌ मुसलमान न बना लिया जाये जैसा कि भीमपाल के चाचा और दूसरे रिश्तेदारों के साथ हुआ था।(१२)

१०२३ ई. में किरात, नूर, लौहकोट और लाहौर पर हुए चौदहवें आक्रमण के समय किरात के शासक ने इस्लाम स्वीकार कर लिया और उसकी देखा-देखी दूसरे बहुत से लोग मुसलमान हो गये। निजामुद्‌दीन के अनुसार देश के इस भाग में इस्लाम शांतिपूर्वक भी फैल रहा था, और बलपूर्वक भी।(१३) सुल्तान महमूद कुरान का विद्वान था और उसकी उत्तम परिभाषा कर लेता था।(१३क) इसलिये यह कहना कि उसका कोई कार्य इस्लाम विरुद्ध था, झूठा है।

राष्ट्रीय चुनौती
हिन्दुओं ने इस पराजय को राष्ट्रीय चुनौती के रूप में लिया। अगले आक्रमण के समय जयपाल के पुत्र आनंद पाल ने उज्जैन, ग्वालियर, कन्नौज, दिल्ली और अजमेर के राजाओं की सहायता से एक बड़ी सेना लेकर महमूद का सामना किया। फरिश्ता लिखता है कि ३०,००० खोकर राजपूतों ने जो नंगे पैरों और नंगे सिर लड़ते थे, सुल्तान की सेना में घुस कर थोड़े से समय में ही तीन-चार हजार मुसलमानों को काट कर रख दिया। सुल्तान युद्ध बंद कर वापिस जाने की सोच ही रहा था कि आनंद पाल का हाथी अपने ऊपर नेपथा के अग्नि गोले के गिरने से भाग खड़ा हुआ। हिन्दू सेना भी उसके पीछे भाग खड़ी हुई।(१४)

सराय (नारदीन) का विध्वंस
सुल्तान ने (कुछ समय ठहरकर) फिर हिन्द पर आक्रमण करने का इरादा किया। अपनी घुड़सवार सेना को लेकर वह हिन्द के मध्य तक पहुँच गया। वहाँ उसने ऐसे-ऐसे शासकों को पराजित किया जिन्होंने आज तक किसी अन्य व्यक्ति के आदेशों का पालन करना नहीं सीखा था। सुल्तानने उनकी मूर्तियाँ तोड़ डाली और उन दुष्टों को तलवार के घाट उतार दिया। उसने इन शासकों के नेता से युद्ध कर उन्हें पराजित किया। अल्लाह के मित्रों ने प्रत्येक पहाड़ी और वादी को काफिरों के खून से रंग दिया और अल्लाह ने उनको घोड़े, हाथियों और बड़ी भारी संपत्ति बखशी। (१५)

नंदना की लूट
जब सुल्तान ने हिंद की मूर्ति पूजा से मुक्त कर द्गाुद्ध कर दिया और उनके मंदिरों के स्थान पर मस्जिदें बना दीं, तब उसने हिन्द की राजधानी पर आक्रमण की ठानी जिससे वहाँ के मूर्तिपूजक निवासियों को अल्लाह की एकता में विश्वास न करने के कारण दंडित करे। १०१३ ई. में एक अंधेरी रात्रि को उसने एक बड़ी सेना के साथ प्रस्थान किया।(१६)

(विजय के पश्चात्‌) सुल्तान लूट का भारी सामान ढ़ोती अपनी सेना के पीछे-पीछे चलता हुआ, वापिस लौटा। गुलाम तो इतने थे कि गजनी की गुलाम-मंडी में उनके भाव बहुत गिर गये। अपने (भारत) देश में अति प्रतिष्ठा प्राप्त लोग साधारण दुकानदारों के गुलाम होकर पतित हो गये। किन्तु यह तो अल्लाह की महानता है कि जो अपने महजब को प्रतिष्ठित करता है और मूति-पूजा को अपमानित करता है।(१७)

थानेसर में कत्ले आम
थानेसर का शासक मूर्ति-पूजा में घोर विश्वास करता था और अल्लाह (इस्लाम) को स्वीकार करने को किसी प्रकार भी तैयार नहीं था। सुल्तान ने (उसके राज्य से) मूर्ति पूजा को समाप्त करने के लिये अपने बहादुर सैनिकों के साथ कूच किया। काफिरों के खून से, नदी लाल हो गई और उसका पानी पीने योग्य नहीं रहा। यदि सूर्य न डूब गया होता तो और अधिक शत्रु मारे जाते। अल्लाह की कृपा से विजय प्राप्त हुई जिसने इस्लाम को सदैव-सदैव के लिये सभी दूसरे मत-मतान्तरों से श्रेष्ठ स्थापित किया है, भले ही मूर्ति पूजक उसके विरुद्ध कितना ही विद्रोह क्यों न करें। सुल्तान, इतना लूट का माल लेकर लौटा जिसका कि हिसाब लगाना असंभव है। स्तुति अल्लाह की जो सारे जगत का रक्षक है कि वह इस्लाम और मुसलमानों को इतना सम्मान बख्शता है।(१८)

अस्नी पर आक्रमण
जब चन्देल को सुल्तान के आक्रमण का समाचार मिला तो डर के मारे उसके प्राण सूख गये। उसके सामने साक्षात मृत्यु मुँह बाये खड़ी थी। सिवाय भागने के उसके पास दूसरा विकल्प नहीं था। सुल्तान ने आदेश दिया कि उसके पाँच दुर्गों की बुनियाद तक खोद डाली जाये। वहाँ के निवासियों को उनके मल्बे में दबा दिया अथवा गुलाम बना लिया गया।चन्देल के भाग जाने के कारण सुल्तान ने निराश होकर अपनी सेना को चान्द राय पर आक्रमण करने का आदेश दिया जो हिन्द के महान शासकों में से एक है और सरसावा दुर्ग में निवास करता है।(१९)

सरसावा (सहारनपुर) में भयानक रक्तपात
सुल्तान ने अपने अत्यंत धार्मिक सैनिकों को इकट्‌ठा किया और द्गात्रु पर तुरन्त आक्रमण करने के आदेश दिये। फलस्वरूप बड़ी संखया में हिन्दू मारे गये अथवा बंदी बना लिये गये। मुसलमानों ने लूट की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जब तक कि कत्ल करते-करते उनका मन नहीं भर गया। उसके बाद ही उन्होंने मुर्दों की तलाशी लेनी प्रारंभ की जो तीन दिन तक चली। लूट में सोना, चाँदी, माणिक, सच्चे मोती, जो हाथ आये जिनका मूल्य लगभग ३०,०००० (तीस लाख) दिरहम रहा होगा। गुलामों की संखया का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रत्येक को २ से लेकर १० दिरहम तक में बेचा गया। द्गोष को गजनी ले जाया गया। दूर-दूर के देशों से व्यापारी उनको खरीदने आये। मवाराउन-नहर ईराक, खुरासान आदि मुस्लिम देश इन गुलामों से पट गये। गोरे, काले, अमीर, गरीब दासता की समान जंजीरों में बँधकर एक हो गये।(२०)


०४. सोमनाथ का पतन (१०२५)

अल-काजवीनी के अनुसार 'जब महमूद सोमनाथ के विध्वंस के इरादे से भारत गया तो उसका विचार यही था कि (इतने बड़े उपसाय देवता के टूटने पर) हिन्दू (मूर्ति पूजा के विश्वास को त्यागकर) मुसलमान हो जायेंगे।(२१)

दिसम्बर १०२५ में सोमनाथ का पतना हुआ। हिन्दुओं ने महमूद से कहा कि वह जितना धन लेना चाहे ले ले, परन्तु मूर्ति को न तोड़े। महमूद ने कहा कि वह इतिहास में मूर्ति-भंजक के नाम से विखयात होना चाहता है, मूर्ति व्यापारी के नाम से नहीं। महमूद का यह ऐतिहासिक उत्तर ही यह सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है कि सोमनाथ के मंदिर को विध्वंस करने का उद्‌देश्य धार्मिक था, लोभ नहीं।

मूर्ति तोड़ दी गई। दो करोड़ (२०,०००,०००) दिरहम की लूट हाथ लगी, पचास हजार (५००००) हिन्दू कत्ल कर दिये गये।(२१क)

लूट में मिले हीरे, जवाहरातों, सच्चे मोतियों की, जिनमें कुछ अनार के बराबर थे, गजनी में प्रदर्शनी लगाई गई जिसको देखकर वहाँ के नागरिकों और दूसरे देशों के राजदूतों की आँखें फैल गई।(२२)

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