श्याम जी कृष्ण वर्मा भारत के उन अमर सपूतों में हैं जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन भारत की आजादी के लिए लगा दिया।ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों से त्रस्त होकर भारत से इंग्लैण्ड चले गये श्याम जी कृष्ण वर्मा ने अपना सारा जीवन भारत की स्वतन्त्रता के लिए माहौल बनाने में और नवयुवकों को प्रेरित करने में लगाया।आज ही के दिन 4अक्तूबर,1857 को कच्छ-गुजरात के माण्डवी के निकअ स्थित वलायल गाॅंव में आपका जन्म हुआ था।बहुत कम उम्र में ही आप संस्कृत भाषा में धाराप्रवाह भाषण देने लगे थे।मुम्बई में आपकी ख्याति कम उम्र में ही हो गई थी।प्रतिभावान श्यामजी कृष्ण वर्मा का विवाह मुम्बई के एक करोडपति परिवार ने अपनी कन्या से इनकी प्रतिभा के कारण किया।अपनी प्रतिभा के ही बदौलत मात्र 23वर्ष की उम्र में इंग्लैण्ड़ के संस्कृत अध्यापक मोनियर विलियम के आमंत्रण पर आप इंग्लैण्ड़ गये।बी0ए0 की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद आपकी नियुक्तिसंस्कृत,मराठी व गुजराती भाषाओं को पढ़ाने के लिए आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में हुई।आप ही वो प्रथम भारतीय हैं जिसने आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि हासिल की।24वर्ष की उम्र में ही आपको बर्लिन व हाॅलैण्ड की ओरियण्टल कांफ्रेन्स में भारत कर प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना गया।1884 में आपने आॅक्सफोर्ड से ही बैरिस्टर की डिग्री ली।शिक्षा ग्रहण करके भारत वापस आकर के श्यामजी कृष्ण वर्मा ने रतलाम रियासत के दीवान की जिम्मेदारी सम्भाली,यहाॅं आपने काॅफी समाज हित के कार्यों को अंजाम दिया।उदयपुर रियासत के राजा फतहसिंह ने श्यामजी कृष्ण वर्मा को अपने राज्य की कौसिंल आॅफ स्टेट का सदस्य बनाया।3वर्षों तक उदयपुर रहने के बाद आप ने जूनागढ़ के दीवान का पद भार सम्भाला।आपका मन दरअसल पूरी तरह रियासतों के काम में नहीं लग रहा था,अन्ततोगतवा आप मुम्बई आकर बैरिस्टरी करने लगे।अंग्रेजों के अत्याचार से क्षुब्ध होकर आप इंग्लैण्ड चले गये। श्याम जी कृष्ण वर्मा ने भारत छोड़ने के विषय में लिखा,‘‘1897 में जब नाटो बन्धु गिरफतार हो गये और तिलक पर मुकदमा चला तो मुझे यकीन हो गया कि ब्रिटिश सरकार में वैयक्तिक स्वतन्त्रता का कोई मूल्य नहीं है और न ही समाचार पत्रों को ही कोई स्वतन्त्रता है।इसी कारण मैं स्वदेश छोड़कर इंग्लैण्ड़ वासी बना और जबकि इंग्लैण्ड़ में भी मेरे लिए निर्विघ्न रहना संभव नहीं है तो मैने पेरिस को अपना कार्यक्षेत्र बनाया।श्याम जी कृष्ण वर्मा ने ब्रिटेन में शिक्षा प्राप्त करने तथा आजीवन भारत की सेवा करने वालों के लिए फैलोशिप देने की शुरूआत की।श्याम जी कृष्ण वर्मा को ऐसे चेतनाशील,समर्पित नवयुवकों की आवश्यकता थी,जो लन्दन में क्रान्ति की शिक्षा लेकर उसे भारत में सफलता से चला सके।छात्रवृत्तियों का उद्देश्य यही था।इन छात्रवृत्तियों के लिए धन की व्यवस्था नाना साहेब पेशवा ने की।विनायक दामादर सावरकर,सेनापति बापट,लाला हरदयाल वे प्रमुख क्रान्तिकारी थे जिन्होंने छात्रवृत्ति ग्रहण की।
श्याम जी कृष्ण वर्मा ने जनवरी 1905 में ‘‘इण्डियन सोशलाॅजिस्ट‘‘ नामक धार्मिक-सामाजिक पत्र निकाला।इस पत्र के माध्यम से श्याम जी कृष्ण वर्मा जी ने दार्शनिक विचारों से क्रान्ति का प्रचार प्रारम्भ किया।अंग्रेजों की अक्ल ठिकाने लगाने के लिए रूसी क्रान्तिकारियों की पद्धति को आप उपयोगी मानते थे।18फरवरी,1905 को बीस भारतीयों ने ‘‘भारतीयों द्वारा भारतीयों के लिए भारतीय सरकार की स्थापना‘‘ के उद्देश्य को लेकर ‘‘इण्डियन होमरूल सोसायटी‘‘ का गठन किया।इसमें प्रमुख भूमिका श्याम जी कृष्ण वर्मा ने निभाई।मई 1905 में ‘‘इण्डियन सोशलाॅजिस्ट‘‘ में पहली जुलाई से लन्दन में ‘‘इण्डिया हाउस‘‘ हास्टल खोलने की घोषणा हुई।श्याम जी कृष्ण वर्मा ने एक तिमंजिला भवन बनवाकर भारतीय क्रान्तिकारियों को लन्दन में ठहराने की योजना को साकार रूप दिया।ब्रिटेन में इण्डिया हाउस वह स्थान बन गया जहाॅं भारत के स्वाधीनता संग्राम की योजनायें बनी तथा क्रान्तिकारी आन्दोलन को एक दिशा मिली।
जुलाई 1907 में ब्रिटिश लोकसभा में श्याम जी कृष्ण वर्मा के संदर्भ में प्रश्न उठा।इन प्रश्नों के उठते ही वे पेरिस चले गये।जुलाई 1909 तक ‘‘इण्डियन सोश्लाॅजिस्ट‘‘ लन्दन से निकला तत्पश्चात् यह पत्र पेरिस से निकलने लगा।प्रथम विश्व युद्ध के प्रारम्भ होने के दो-तीन वर्षों तक ‘‘इण्डियन सोश्लाॅजिस्ट‘‘ पत्र निकला।श्याम जी कृष्ण वर्मा को यह आभास हुआ कि अब पेरिस में भी उनके लिए दिक्कतें आयेंगी तो वे जिनेवा चले गये,यहीं पर 30 मार्च,1930 को आप स्वर्ग सिधार गये।
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